संजय कुंदन की कविताओं में गूंजती विविध आवाजों को सुनें तो लगता है कि शास्त्रीयता के बोझ से मुक्त यह कविता दरअसल कविता के शिल्प में बतकही है। इस बतकहीे में हमारे आसपास के तमाम दृश्य, तमाम चरित्र हैं, जो रोज आँखों के सामने गुज़रते हैं।
संजय की कवि-दृष्टि रोज़मर्रा की घटनाओं का सूक्ष्म अवलोकन करती है। हमारे आसपास रोज़ घटित होते दृश्य जो खासे नीरस और अकाव्यात्मक लगते हैं, संजय कुंदन वहाँ से कविता निकाल लाते हैं। इस कविता को पढ़ते हुए पाठक विस्मित हो जाता है, ‘अरे, ऐसा तो मैं खुद भी लिख सकता हूँ।’ लेकिन यह बात इतनी आसान नहीं है। वास्तव में संजय की कविता पढ़ने-समझने में जितनी आसान है, उसे लिखना उतना ही कठिन है। लंबे आत्म-संघर्ष के बाद ही ऐसी सरल किंतु विरल शैली हासिल होती है।
तशना आज़मी का एक शेर है-
सब से आसान जिसका ठिकाना लगा
पाते पाते उसे इक ज़माना लगा।
सरलता का यह शिल्प एक बार सध गया तो चाह कर भी कठिन लिखना कवि के लिए कठिन हो जाता है। ‘कविता जैसी कविता नहीं’ शीर्षक रचना में वे खुद इस बात को स्वीकार करते हैं-
शब्दकोश से छाँट-छाँटकर शब्द निकालूँ
उन्हें अलंकारों की फुदने वाली टोपी पहना दूँ
थोड़ा जटिल हो जाऊँ, थोड़ा शास्त्र
थोड़ा लोक की फेटफांट कर दूँ
शब्दों पर तत्सम का फुहारा कर दूँ
फिर उन्हें मिट्टी का तिलक लगा दूँ
पर कहाँ हो पाता है
लिखना शुरू करते ही
फिर कविता में दुहराने लगता हूँ वही भाषा
हर किसी की समझ में आ जाने वाली
एकदम सरल, एकदम आसान।
कविता में की जा रही यह बतकही बतरस के लिए नहीं है। इसमें आम आदमी का सुख-दुख, आस-संत्रास दर्ज है। इस कविता में धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु, समतामूलक शोषण मुक्त, लोकतांत्रिक समाज की आकांक्षा निहित है। समाज से खत्म हो रहे इन मूल्यों को बचाना इस कविता का अभीष्ट है, इसलिए जो तानाशाही, वर्चस्ववादी, फासीवादी शक्तियाँ इन मूल्यों को नष्ट-भ्रष्ट करने में लगी हैं, उनका प्रतिरोध इस कविता का मुख्य स्वर बन जाता है।
साधारण मनुष्य के पास प्रतिरोध का सबसे बड़ा हथियार है प्रश्न। इसलिए मनुष्यता विरोधी शक्तियाँ सबसे पहले प्रश्नों की ही हत्या कर देना चाहती हैं। प्रश्न की हत्या का मतलब सिर्फ जानने के अधिकार की हत्या नहीं है। जहाँ प्रश्न नहीं होते वहाँ लोकतंत्र नहीं बचता। वहाँ असहमति के लिए जगह नहीं बचती। प्रश्न पर पाबंदी बहुत सारी चीजों को खत्म कर देती है। ‘प्रश्न’ कविता में वे लिखते हैं-
प्रश्नकाल स्थगित है
जैसे स्थगित है न्याय
जैसे स्थगित है समानता
जैसे स्थगित है स्वतंत्रता
जैसे स्थगित है प्रेम।
इस कविता के अंत में उनकी यह चिंता बहुत वाजिब लगती है कि सचमुच कुछ दिन बाद यह यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि कभी हमारी भाषा में प्रश्नचिह्न भी हुआ करता था। सूत्र वाक्य में कहना हो तो कह सकते हैं कि संजय कुंदन की कविता स्थगित प्रश्नकाल में ख़तरनाक सवाल की उपस्थिति है।
संजय कुंदन के प्रतिरोध का दायरा बहुत व्यापक है। उनकी कविता गली मुहल्ले में हो रहे गलत से लेकर अमेरिका-इजरायल की गुस्ताखियों तक पर चोट करती है और उन शक्तियों का प्रतिरोध करने वालों के साथ खड़ी रहती है। इज़रायल की जेल में बंद फिलिस्तीन की संघर्षशील नेता ख़ालिदा जरार के साथ एकजुटता दिखाते हुए वे लिखते हैं-
तुम्हारी तस्वीर देखी तो अपनी दीदी याद आई
जो घर पर आए एक बडे संकट के दिनों में
हम भाई-बहनों से बार-बार कहती थी
-घबराना मत, मैं सब संभाल लूंगी
आज घर-बार से दूर , घायल-बीमार
भिड़ते-लड़ते लाखों फिलिस्तीनी भी
अपने कंधे पर हर वक़्त महसूस करते हैं तुम्हारा हाथ
दुनिया के दादा का विरोध करना आसान है, लेकिन मुहल्ले की खलमंडली से भिड़ना ख़तरनाक है।
संजय कुंदन यह ख़तरा भी उठाने से नहीं हिचकिचाते। ‘बुलडोजर’ कविता में वे इस ध्वंसक रथ पर सवार अदृश्य लोगों की जिस तरह शिनाख़्त करते हैं, वह कवि के साहस की मिसाल है।
संजय का काव्य विवेक जानता है कि सशक्त प्रतिरोध के लिए कहाँ शब्द-मुष्टिका का प्रहार करना है और कहां सिर्फ़ उंगली दिखाकर भी मर्म को भेदा जा सकता है। ‘बहन जी’ शीर्षक कविता में वे पितृसत्तात्मक समाज में व्याप्त स्त्री-अवमानना और स्त्रीद्वेष के प्रतिरोध में लट्ठ उठाने के बजाय मार्मिकता की चोट करते हैं। यह चोट पुरुष वर्चस्ववादी पारिस्थितिकी तंत्र में फंसे मनुष्य की चेतना को हौले से धक्का देती है कि वह इस तंत्र से निकल सके।
संजय प्रतिरोध के लिए विभिन्न काव्य युक्तियों का सहारा लेते हैं। उनकी कविता में प्रतिरोध का अस्त्र कहीं करुणा तो कहीं व्यंग्य है। ‘घुसपैठिया’ कविता पढ़कर लगता है कि मनुष्य की बेबसी को प्रभावी तरीके से संप्रेषित कर देना भी एक प्रतिरोध है। बेबसी से उपजी करुणा संवेदनशील पाठक के मन में उन लोगों के ख़िलाफ़ आक्रोश पैदा करती है, जिन्होंने हवा में ऐसा ज़हर घोल दिया है कि आपकी असहमति को पड़ोसी और सहकर्मी तक राष्ट्रदोह बताने लगते हैं। इस कविता की अंतिम पंक्ति हताशा के जिस बिंदु पर छोड़ती है, वही प्रतिरोध का प्रस्थान बिंदु भी हो सकता है।
मैं लौटता हूँ
अपने ही मोहल्ले में
घुसपैठियों की तरह
न जाने कितनी अदृश्य खाइयों को लांघता हुआ।
‘हत्यारों का काम कविता’ में प्रतिरोध तंज की शक्ल में आता है-
हत्यारों का काम बढ़ता जा रहा था
हत्या के मुख्य काम के अलावा
उन्हें देश को दिशा भी देनी थी
तो इस काम में सहायता के लिए
कई जन प्रतिनिधि लगाए गए।
एसे हत्यारे समय में सुख की कविता लिखने की हिदायत देने वाले वरिष्ठों को भी निशाने पर लेने से संजय कुंदन परहेज़ नहीं करते हैं। साहित्य-सत्ता के वरिष्ठों का विरोध करना कवि के कैरियर की दृष्टि से खासा ख़तरनाक है, लेकिन इस ख़तरे को भी वे अनिवार्य कर्तव्य की तरह उठाते हैं-
सुख की कविता के भाष्य को
भभूत की तरह लगाए ये सिद्धांतकार
अपनी देह को सिकोड़े रहते हैं
कि कहीं किसी विचार से छुआ न जाएं
आज तक किसी पक्ष में नहीं रहे
न्याय की लड़ाई को कमजोर करने में
जुटे रहते हैं, अहर्निश।
संजय कुंदन इस तरह की कलाबाजी की मुखालफ़त करते हैं तो उनके प्रतिरोध का एक सिरा रघुवीर सहाय से जुड़ता है। संजय पत्रकार हैं और सहाय जी भी पत्रकार रहे हैं। एक पत्रकार की नजर के सामने सच जिस तरह बार-बार अनावृत होकर आता है, उसका भी कुछ प्रभाव कवि के सौंदर्य बोध और वैचारिकी पर पड़ता है। रघुवीर सहाय बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-
कला बदल सकती है क्या समाज ?
नहीं जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा।
संजय इस बात को लेकर सजग हैं। यही वजह है कि उनकी कविता में निरलंकृत भाषा का सहज सौंदर्य है। उनकी कविता ऐसी भाषा में रचे जाने की आकांक्षी है, जिसमें कोई थका-हारा मुसाफिर पता पूछता है या कपड़े के बदले बर्तन बेचने वाला हाँक लगाता है।
कविता उनकी शक्ति भी है और शरण्य भी। ‘कविता है तो’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं कि जो बात हम किसी से नहीं कह पाते, उसे कविता में कह सकते हैं। कविता की शरणस्थली न होती तो क्या होता? इसका जवाब वे इसी कविता में देते हैं –
अगर मैं कविता नहीं लिख रहा होता तो
ये परेशानियां शायद मुझे
पागल कर देतीं
या मार ही डालतीं।
कविता कवि को सच कहने का साहस दे रही है और एक ऐसी भाषा भी, जिसमें वह ऐसी बात भी कह सकता है जिसे न कहे तो घुटन के कारण पागल हो जाए या मर जाए। कविता सिर्फ शरण्य ही नहीं मनुष्यता की शिल्पी भी है। कवि कविता को गढ़ना शुरू करता है, उसके पहले कविता संवेदना की छेनी से कवि को गढ़ना शुरू कर चुकी होती है। संजय मानते हैं कि उनकी परेशानियाँ उसी संवेदनशीलता की वजह से हैं, जिसने उन्हें कवि बनाया। अगर वे कवि न होते तो-
मुमकिन है मैं कवि नहीं होता
तो ये परेशानियाँ मेरे साथ होतीं ही नहीं
तब मैं अपने मोहल्ले के
शरीफ लोगों की तरह होता
अपने शब्दों से चारों तरफ
तेजाब उड़ेल रहा होता।
संजय कुंदन मानते हैं कि जब कवि होने की नियति को स्वीकार कर लिया है तो उससे नाभिनाल-बद्ध खतरों और चुनौतियों को स्वीकार करने से कैसे बच सकते हैं।
संजय कुंदन की कविताएँ
1. कविता जैसी कविता नहीं
कभी-कभी सोचता हूं
मैं भी लिखूं कविता जैसी कविता
सफल, स्थापित कवियों जैसी कविता
वाक्य हों मेरे गझिन
एक-दूसरे में लिपटी हुई लत्तियों की तरह
शब्दकोश से छांट-छांटकर शब्द निकालूं
उन्हें अलंकारों वाले फुदने की टोपी पहना दूं
थोड़ा जटिल हो जाऊं, थोड़ा शास्त्र
थोड़ा लोक की फेटफांट कर दूं
शब्दों पर तत्सम का फुहारा कर दूं
फिर उन्हें मिट्टी का तिलक लगा दूँ
पर कहां हो पाता है
लिखना शुरू करते ही
फिर कविता में दोहराने लग जाता हूं वही भाषा
हर किसी को समझ में आ जाने वाली
एकदम सरल एकदम आसान
जैसे पांचवीं कक्षा की किताब हो
जैसे कोई नुक्कड़ की दुकान पर चाय मांग रहा हो
कोई थका-मांदा पूछ रहा हो पता
कपड़े के बदले बर्तन देने वाला लगा रहा हो हांक
कोई अपनी बकरियों को बुला रहा हो
रेलवे स्टेशन पर कोई नम आंखों से
दे रहा हो किसी को विदाई और हिदायतें
एक फटेहाल आदमी
हाथ में आते-आते कोई मौक़ा गंवा देने के बाद
बड़बड़ा रहा हो कभी व्यवस्था पर
कभी खु़द पर, कभी ईश्वर पर
और लोग कह रहे हों
-पगला गया है।
2. कविता है तो…
दुकान पर बैठी वह महिला मुझे
बिलकिस बानो जैसी लगी
और उससे दूध के पैकेट लेता हुआ
मैं उसकी सलामती की दुआ करने लगा
पर यह बात मैं उसे बता नहीं सकता था
यह मैं किसी और से भी नहीं
कह सकता था
कह सकता था सिर्फ़ कविता में
डॉक्टर से नींद की गोली लिखवाते हुए
मैं उससे नहीं कह सकता था कि
मेरी अनिद्रा का संबंध ट्रेन में हुए एक हत्या से है
जो मैंने नहीं देखी
और मृतक मेरा कोई नहीं था
बस उसके बारे में सिर्फ़ अखबार में पढ़ा था
मैं यह भी डॉक्टर से नहीं कह सकता
कि मेरे उच्च रक्तचाप का संबंध ग़ज़ा के नरसंहार से है
वहां किसी घर पर गिर रहा एक गोला मुझे
पड़ोस में फटता सुनाई देता है
और मेरी धड़कन तेज़ हो जाती है
आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है
यह बात मैं अपने परिवार में भी नहीं कह सकता
कह सकता हूं इसे सिर्फ़ कविता में
अगर मैं कविता नहीं लिख रहा होता तो
ये परेशानियां शायद मुझे पागल कर देतीं
या मार ही डालतीं
या मुमकिन है मैं कवि नहीं होता
तो ये परेशानियां मेरे साथ होती ही नहीं
तब मैं अपने मोहल्ले के
शरीफ़ लोगों की तरह होता
अपने शब्दों से चारों तरफ़
तेजाब उड़ेल रहा होता।
3. प्रश्न
प्रश्नकाल स्थगित है
जैसे स्थगित है न्याय
जैसे स्थगित है समानता
जैसे स्थगित है स्वतंत्रता
जैसे स्थगित है प्रेम
प्रश्न मारे जा रहे हर जगह
जैसे मारे जा रहे पक्षी
जैसे मारे जा रहे पेड़
जैसे मारी जा रही नदियां
वैसे ही मारे जा रहे प्रश्न
प्रश्न का शिकार एक फैशन ही नहीं
राष्ट्रीय कर्त्तव्य हो गया है
हर बात में अब हां कहने का चलन है
हां-हां की एक विराट ध्वनि गुंजायमान है
चूंकि अब प्रश्न पूछना ही ख़तरनाक है
तो कौन पूछे कि क्यों स्थगित है प्रश्नकाल
सचमुच कुछ दिन बाद यह यक़ीन करना
मुश्किल हो जाएगा कि
कभी हमारी भाषा में प्रश्नचिह्न भी हुआ करता था।
4. डरावनी हँसी
मेरे यह कहने का क्या मतलब है कि
अपने कमरे में बैठे-बैठे मेरा दम घुटता है
जबकि न जाने कितने लोग
जेलों में डाल दिए गए तनहाई में
सिर्फ सच बोलने के कारण
हत्या को हत्या और हत्यारा को हत्यारा कहने के कारण
वे चाहते तो हत्या को हादसा और हत्यारे को
आदरणीय भी कह सकते थे
अकेलापन अपनी सींगों से
उनके चीथड़े कर सकता है
उन्हें बदल सकता है लोथ में।
कपड़े पहनते हुए अचानक ख़याल आता है कि
कुछ लोगों की शिनाख़्त सिर्फ़ उनके कपड़ों से होगी
और उन्हें संदिग्ध घोषित किया जाएगा
हो सकता है इसी कारण किसी को डाल दिया जाए
काल कोठरी में
काश मैं एक तितली या फतिंगा होता
और उनके अकेलेपन में खलल डालता
उन्हें अहसास कराता कि कोई है सृष्टि में
और भी उनके साथ
मैं उनकी बड़बड़ाहट या खामोश चीत्कार
को रोक लेता थोड़ी देर
मैं चाहता हूं उनके बारे में किसी से बात करूं
कहूं कि वे हमारे अपने लोग हैं
कहूं कि उनका हौसला टूटा नहीं है
कहूं कि वे लौट कर आएंगे हम सबके बीच
पर किससे बात करूं
सब चुप रहना चाहते हैं
हालांकि लोगों की चुप्पी उतना नहीं डराती
जितना डराती है उनकी हंसी
कितना भयानक लगता है कोई आदमी
इस डरावने समय में
ठहाके लगाता हुआ
नगाड़े की तरह बजता हुआ।
5. घुसपैठिया
जब मेरा ए़क पड़ोसी मुझसे पूछता है कि
मैं एक नायक की जय क्यों नहीं बोल रहा,
तो उसके नथुने एक थानेदार की तरह ही
फड़क रहे होते हैं
वह अपने शब्द लाठी की तरह
कोंच रहा होता है मेरे शरीर में
जब उसकी हां में हां मिलाते कुछ और लोग
आ खड़े होते हैं पास में
और मुझे घूरने लगते हैं
तो लगता है
मेरी जामा-तलाशी ली जाएगी
अब न्यायालयों की कोई कमी नहीं रही
कहीं भी लग सकती हैं अदालतें
एक दिन बस में मेरा एक सहकर्मी
मुझसे एक वकील की तरह जिरह करता है
कि देश की हमारी परिभाषा
तुम्हें मंज़ूर क्यों नहीं
मेरी पैरोकारी में कोई नहीं आता
मैं कुछ कहूं इससे पहले ही
बस के सवारी बदल जाते हैं ज्यूरी में
और सुनाया जाता है सर्वसम्मत फ़ैसला
-जो हमारे साथ नहीं
वह इस देश में रहने लायक नहीं
मैं लौटता हूं अपने ही मोहल्ले में
घुसपैठियों की तरह
न जाने कितनी अदृश्य खाइयों को लांघता हुआ।
6. बुलडोजर
यह रथ है मनु महाराज का
लौट आए हैं महान स्मृतिकार
अपने एक नये अवतार में
लौट आई हैं उनके साथ न्याय संहिताएं
रौंद दी जाएंगी एकलव्यों की आकांक्षाएं फिर से
शंबूकों के स्वप्न मलबों में बदल दिए जाएंगे
असहमति की हर आवाज के विरुद्ध
छेड़ दिया गया है युद्ध
जब चलता है बुलडोजर
उस पर अदृश्य होकर
सवार रहते हैं धर्मरक्षक
पीछे-पीछे भागती आती एक अदृश्य सेना
जिसमें नंग-धड़ंग साधु भी रहते और विचारक भी
अपराधी, हत्यारे, थैलीशाह, नौकरशाह
न्यायाधीश,कलमकार, फ़नकार
हमारे कई साथी और पड़ोसी भी
जब एक ग़रीब का आशियाना उजड़ता है,
अपनी ज़िंदगी से हारे एक लाचार व्यक्ति को
नए सिरे से पराजित घोषित किया जाता है,
किसी को उसके अलग ईश्वर के कारण
अपमानित किया जाता है,
सेना ज़ोर-ज़ोर से जय-जयकार करती है
ताकत हुंकार भरती है
बुलडोजर के घड़घड़ाते पहियों में।
7. हत्यारों का काम
हत्यारों का काम बढ़ता जा रहा था
हत्या के मुख्य काम के अलावा
उन्हें देश को दिशा भी देनी थी
तो इस काम में सहायता के लिए
कई जन प्रतिनिधि लगाए गए
धर्म और संस्कृति की व्याख्या भी करनी थी
तो कुछ चोगाधारी कथावाचक बुलाए गए
इतिहास भी बदलना था
सो इतिहासकारों का एक दल नौकरी पर रखा गया
अब हत्यारों के ऊपर जनता के मनोरंजन
का भी दायित्व था
यह सेवा देने के लिए तमाम न्यूज चैनल
ख़ुद ही तत्पर थे
हत्यारों को अमर भी होना था
कई लेखकों में होड़ लग गई थी
उनकी आत्मकथा लिखने की।
8. ख़ालिदा जरार
तुम्हारा संदेश पढ़कर
मेरा दम घुटने लगा
यह सोचना भी कितना कष्टकर है कि एक बोतल जैसी
सेल में लगातार बंद है कोई
ओह! एकांत का मारक फंदा
फांसी की रस्सी से भी भयावह
एक खिड़की थी, वह भी बंद कर दी गई
सांस लेने के लिए तुम एक रोशनदान के पास
बैठी रहती हो
वह रोशनदान ही है तुम्हारा आकाश
पर तुम्हारे सपने में है फिलीस्तीन के लिए
भरा-पूरा विस्तृत आकाश
अपने सपने को छोटा मत पड़ने देना खालिदा जरार
बस यही कह सकता हूं मैं
और क्या कर सकता है मेरे जैसा एक साधारण आदमी
तुम्हारी तकलीफ़ों का बार-बार बयान कर सकता हूं
उनके सामने दोहराता रहूंगा तुम्हारा नाम, जो तुम्हें नहीं जानते
जैसे अपने देश के उन नौजवानों के बारे में बात करता रहता हूं
जो क़ैद किए गए सच कहने के कारण
या हत्यारे को हत्यारा कहने के कारण
तुम्हारी तस्वीर देखी तो अपनी दीदी याद आई
जो घर पर आए एक बड़े संकट के दिनों में
हम भाई-बहनों से बार-बार कहती थी
-घबराना मत, मैं सब संभाल लूंगी
आज घर-बार से दूर, घायल-बीमार
लड़ते-भिड़ते लाखों फिलिस्तीनी भी
अपने कंधे पर हर वक़्त महसूस करते हैं तुम्हारा हाथ
तुम मत घबराना खालिदा जरार।
(खालिदा जरार (जन्म 1963) पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन की नेता हैं और फिलिस्तीनी विधान परिषद की सदस्य। उन्हें पिछले कुछ वर्षों में इजराइली अधिकारियों द्वारा कई बार हिरासत में लिया गया । बीते दिसंबर से वह फिर जेल में बंद हैं। हाल में उन्होंने एक वकील के ज़रिए लिखित संदेश भेजकर क़ैद की विकट परिस्थितियों के बारे में बताया।)
9. सुख की कविता
बुरे वक़्त में भी
ख़ुश होने की कई वजहें हो सकती हैं
कहते हैं कुछ वरिष्ठजन
वे बताते हैं
फूलों का खिलना बंद नहीं हुआ है
आकाश भरा है पक्षियों से
गायें प्रसन्न चर रही हैं
पेड़ों की ओट में जारी है प्रेमियों की क्रीड़ा
स्त्रियां रचा रहीं मेहंदी
उत्सवों की तैयारियां चल रही हैं
वे कहते हैं
जो अच्छा है
क्या उन पर बात न हो
क्यों न लिखा जाए उन पर
आख़िर जीवन व्यापक है, विराट है
सुख की कविता के भाष्य को
भभूत की तरह लगाए ये सिद्धांतकार
अपनी देह को सिकोड़े रहते हैं
कि कहीं किसी विचार से छुआ न जाएं
वे आज तक किसी पक्ष में नहीं रहे
वे न्याय की लड़ाई को कमज़ोर करने में
जुटे रहते हैं, अहर्निश।
10. परीलोक
ये जो प्राइवेट स्कूल हैं
होटलों जैसी इमारतों वाले
शिक्षा के मंदिर कहे जाते हैं
यहां कोई भेदभाव नहीं है
तुम जैसों का प्रवेश वर्जित नहीं है
कुछ और मंदिरों की तरह
लेकिन यहां का भारी चढ़ावा और ऐश्वर्य
तुम्हें लाचार बना देता है
धंसा देता है तुम्हें थोड़ा और ज़मीन में
तुम उन बच्चों में शामिल नहीं हो सकते
बस दूर से निहार सकते हो
विशालकाय गेट, बसों-कारों की क़तारें,
चमकदार पोशाकें, सुंदर बस्ते
रंगीन टिफिन बॉक्स और पानी की बोतलें
खेलकूद, बैंड-बाजे, नाच-गान
और लिपे-पुते चेहरे
यह एक परीलोक है तुम्हारे लिए
पर चिंता मत करो
सरकार तुम्हारे साथ है
वह तुम्हें इस परीलोक में ज़रूर पहुंचाएगी
वह तुम्हें इस लायक बनाकर रहेगी
कि बड़े होकर तुम वहां के दरबान बन सको
या घंटा बजा सको।
11. रशीदा
कामवाली रशीदा
जब मालदा ज़िले से
रोज़गार की तलाश में दिल्ली आई
तो रेनू हो गई
उसे बताया गया था
सभ्य और संभ्रांत घरों में
काम पाने का यही एक रास्ता है
पर जल्दी ही पकड़ी गई
जब उसने ईद पर छुट्टी मांग ली
उसकी छुट्टी कर दी गई
उन सभ्य और संभ्रांत घरों से
इंसान ठोकर खाकर ही संभलता है
संभल गई रशीदा भी
अब वह ईद पर छुट्टी मांगती है
किसी बहाने से
या बिना बताए गोल हो जाती है
सीख गई है वह
सभ्य और संभ्रांत लोगों से निपटना
-वक़्त के साथ चलना पड़ता है न
कहती है
रशीदा उर्फ़ रेनू
रंग-बिरंगी बिंदियों का एक बड़ा डिब्बा
रखने लगी है अपने पास
मांग में भर-भरकर सिंदूर लगाती है।
12. दिल्ली में एक सफल आदमी
दिल्ली में अपना फ्लैट ख़रीद लेने के बाद
उस आदमी का रुतबा उस छोटे शहर में बढ़ गया
जहां से वह रोजी-रोज़गार के लिए दिल्ली आया था
दिल्ली में उसे नौकरी मिली
और तरक़्क़ी पर तरक़्क़ी भी
लेकिन वह अकसर कहा करता था
दिल्ली रहने लायक नहीं है
वह इस बात को ख़ुश होकर बताता
कि वह इतने सालों से दिल्ली में है
पर उसके सपने में
कभी नहीं आती दिल्ली
बल्कि आता है वही शहर
जिसे वह छोड़ आया था
इंडिया गेट पर सुबह की सैर करते हुए
या रिंग रोड पर फर्राटे से गाड़ी चलाते हुए
या हैबिटेट सेंटर में
अपने बच्चे का जन्मदिन
या अपनी शादी की सालगिरह मनाते हुए
वह मुग्ध हो उठता
और अपने जीवन को सार्थक मानता
पर अपने सहकर्मियों, पड़ोसियों के बीच
इस बात को ज़रूर दोहराता
कि दिल्ली भी कोई रहने की जगह है
असल ज़िंदगी तो छोटे शहर में ही है
वह जल्दी ही लौट जाएगा अपने शहर
वह कभी-कभार बड़ी मुश्किल से
एक-दो दिन के लिए अपने शहर जा पाता
वहां उसके बचपन के दोस्त उसे ढीले-ढाले
और समय से पहले बूढ़े हो गए नज़र आते
हालांकि वह उनसे पहले ही गुज़र गया
उसकी राख यमुना में प्रवाहित हुई
तब उसका बेटा विदेश में था
और व्यस्तता के कारण
उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने
नहीं आ सका।
13. अकेले लोग
एक अकेला आदमी
दूसरे अकेले आदमी से मिला
और उसने तीसरे अकेले आदमी के बारे में पूछा
जिसके बारे में दूसरे ने कहा कि
उनसे बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई
इस पर पहला कहना चाहता था
कि वह तो अपने आप से भी बहुत दिनों से
नहीं मिल पाया है, पर वह चुप रहा
क्योंकि उसे लगा कि यह कहते हुए
वह कहीं रो न दे।
जबकि दूसरे के जी में आया कि
वह कह ही दे आज कि उसका अब किसी पर
भरोसा नहीं रहा, अपनी संतान पर भी नहीं
लेकिन उसने किसी तरह अपने को रोके रखा।
ऐसा वह एक साल से कर रहा था
और कई बार जी में आता था
कि किसी पेड़ से जाकर यह कह आए।
तो उसने यह न कहकर कहा कि
सरकार बढ़िया चल रही है
उसे उम्मीद थी कि यह बात पहले को अच्छी लगेगी।
हालांकि पहला इस बात से सहमत नहीं था
मगर उसे लगा कि बात काटना ठीक नहीं तो
उसने भी हामी भरी और फिर कुछ देर दोनों ने
एक ताक़तवर नेता के बारे में चर्चा की
और लौट गए अपने अकेलेपन में।
14. संकट में
घोर संकट के क्षणों में
काम आ रहे थे वही लोग
अपने ही जैसे मूरख, खल, कामी
वही हर रहे थे देह का ताप
आहत मन पर लगा रहे थे चंदन जैसा
मधुर वाणी का लेप
वही माया-मोह में फंसे जीव
उन्हीं के पास थी दवा
उन्हीं के पास था
थोड़ा बहुत आश्वासन
आसमान से पंख फड़फड़ाता
कोई नहीं उतरा दिव्य चमक लिए
न कोई ग़ार से निकला न खंभे से
नहीं गूंजी कोई आकाशवाणी
न ही मुरली की तान
नहीं हिली कोई मूर्ति
फिर व्यर्थ गई प्रार्थना।
15. बहनजी
यह संबोधन किसी महिला के लिए नहीं
पुरुष के लिए है
बचपन के दिनों में
मोहल्ले के एक भइया को
बहनजी कहकर पुकारा जाता था
उनका मज़ाक उड़ाने के लिए
उन्हें अपमानित करने के लिए
उनका गुनाह यह था कि
वे गृह कार्य में निपुण थे
झाड़ू-पोंछा में माहिर थे, बर्तन को अच्छे से चमकाकर
साफ़ करते थे, रोटी खूब गोल बेलते और
बढ़िया से फुलाते थे
साड़ी में फॉल लगा लेते थे
स्वेटर बुन लेते थे और बच्चों के मोजे भी
यह सब तब शुरू किया उन्होंने
जब उनकी पत्नी लंबे समय के लिए बीमार पड़ीं
पत्नी के स्वस्थ होने के बाद भी
उन्होंने यह सब जारी रखा
एक स्त्री को मान देने की सज़ा मिली उन्हें
अपने कोमल स्वभाव और प्रेम
के लिए बहिष्कृत हुए वे
हम बच्चों को उनसे घुलने-मिलने से रोका जाता था
यहां तक कि महिलाएं भी हमें टोकती थीं
सबको डर लगता था
कि कहीं हम स्त्री हृदय न हो जाएं
दुनिया को स्त्री की नज़र से न देखने लग जाएं।
कवि संजय कुंदन
जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना
शिक्षाः पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।
संप्रति: वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक।
प्रकाशित कृतियाँ:
कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह)
चुप्पी का शोर (कविता संग्रह)
योजनाओं का शहर (कविता संग्रह)
तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह)
बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह)
श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह)
टूटने के बाद (उपन्यास)
तीन ताल (उपन्यास)
ज़ीरो माइल पटना (संस्मरण)
नेहरू द स्टेट्समैन (नाटक)
अनेक नुक्कड़ नाटकों का भी लेखन। अनेक नाटकों में अभिनय और निर्देशन।
लघु फिल्म ‘इट्स डिवेलपमेंट स्टुपिड’ की पटकथा का लेखन।
संपादनः
कँटीले तार की तरह (कविता संकलन)
कितने यातना शिविर( कहानी संकलन)
कुछ और अलगू, कुछ और जुम्मन (प्रेमचंद की सांप्रदायिकता विरोधी कहानियाँ)
अनुवाद : आवर हिस्ट्री, देयर हिस्ट्री, हूज हिस्ट्री( रोमिला थापर) एनिमल फार्म (जॉर्ज ऑरवेल), लेटर्स ऑन सेज़ां (रिल्के), पैशन इंडिया (जेवियर मोरो) और वॉशिंगटन बुलेट्स (विजय प्रशाद) का हिंदी में अनुवाद।
पुरस्कार/सम्मान:
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
हेमंत स्मृति सम्मान
विद्यापति पुरस्कार
बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार
रचनाएं अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, असमिया और नेपाली में अनूदित।
संपर्कः ए-701, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012 (उप्र)
मोबाइलः 9910257915
ईमेलः sanjaykundan2@gmail.com
टिप्पणीकार कवि अरुण आदित्य, दुष्यन्त पुरस्कार, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, बेकल उत्साही सम्मान, आयाम सम्मान सम्मानित हैं। जन्म – 02 मार्च 1965 (प्रतापगढ़ )
प्रकाशित कृतियाँ: रोज ही होता था यह सब , धरा का स्वप्न हरा है (कविता संग्रह), उत्तर वनवास (उपन्यास) कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज़’ में कविताएँ संकलित़। कुछ कविताएँ पंजाबी मराठी और अंग्रेज़ी में अनूदित़। सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी़।
सम्पर्क: 9873413078
मेल: adityarun@gmail.com