अमरजीत कौंके
फेसबुक पर जिन कवियों की कविता मुझे बहुत पसंद है और मैं जिन्हें ढूंढ कर पढ़ता हूँ, संध्या यादव उन चंद कवियों में से एक हैं. मैंने उनकी फेसबुक की तमाम कविताएँ पढ़ी हैं और मैं मानता हूँ कि संध्या यादव एक बेहद संवेदनशील कवियत्री ही नहीं बल्कि उसे कविता के शिल्प की भी गहरी समझ है. शब्दों की ताकत को कविता में कहाँ और किस तरह इस्तेमाल करना है, किस वस्तू के लिए कौन से बिम्ब और मैटाफर उपयुक्त रहेंगे, इस बात की भी लेखिका को गहरी समझ है. हाल में संध्या यादव की नई कविताएँ एक नयी चेतना और संवेदना के साथ सामने आती हैं. घास की पत्ती पर टिकी या किसी फूल की पंखुरी पर टिकी ओस की बूँद का वजूद कितना होता है. लेकिन साथ में ये भी कि इसी ओस की बूँद में सूरज की थोड़ी सी रौशनी इसे एक खुबसुरत इंद्रधनुष्य में भी तब्दील कर सकती है.
संध्या के संग्रह ‘ओस सी लड़की’ में ऐसी ही लड़की अपने अस्तितिव के विभिन्न रंगों को तलाशती नज़र आती है. इस संग्रह में प्यार में भीतर तक डूबी स्त्री भी शामिल है और सड़कों पर ‘माई लाइफ माई रूल’ का स्लोगन लगाती औरतें भी अपनी अपनी तरह से अपने वजूद की खोज में भटकती नज़र आती है. इस संग्रह की सारी कविताएँ अपने पीछे अनेक प्रश्न छोड़ती हैं जो पाठक को कविता पढ़ने के बाद बेचैन करते हैं,
रुलाई रोकने कि कोशिश में
गले में छाले न उभरे होते
ख़ामोशी
आत्मा पर दरार बन कर
न उभरी होती
अगर कुछ महानगरों की चंद औरतों की बात छोड़ दें तो साधारण औरत का अपने अहम् के साथ जीना अभी भी हमारे सभ्य समाज में कबूल नहीं हो पाया. इस मेल डोमीनेटिंग सोसाइटी में अभी भी औरत का सिर उठा कर चलना बर्दाश्त के बाहर है. संध्या यादव की कविताओं में अनेक जगह इस बात का वर्णन देखने को मिलता है-
उसे मेरी बस यही
एक बात कभी पसंद नहीं आती है
मैं जहाँ भी जाती हूँ
मेरे सिर और कंधे के बीच
ये सीधी गर्दन क्यों आती है….
इन कविताओं में संध्या ने सिर्फ नारी की वेदना/संवेदना को ही अपने काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं किया बल्कि हमारे चहुँ और दरपेश समकालीन समाज की अनेक विसंगतियों को भी सार्थक ज़ुबान दी है. ‘प्रकृति’ कविता पर्यावरण की तबाही की गाथा बहुत काव्यात्मक शैली में बयान करती है,
पहाड़, झरने, पोखर, ताल, तलैया
अमलतास, महुआ, शीशम,
कठफोड़वा,चील, बाज,
बच्चों को गूगल पर दिखाती हूँ
लज्जित होती हूँ
जब मेरी बेटी पूछती है
‘ममा हमारे लिए कुछ नहीं बचाया आप लोगों ने….’
ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो आने वाली पीढ़ी हमारी पीढ़ी से अवश्य पूछेगी. भ्रूण-हत्या और आये दिन होते बलात्कारों ने हमारे समाज का चेहरा इतना घिनौना और बदरूप बना दिया है कि सोचते भी घिन आती है. संध्या की कविता ऐसे कामांध समाज से बेहद मार्मिक लेकिन तीखे प्रश्न करती है।
तुम्हारी थोथी मर्दानगी का कीचड़
तुम्हारे मूंह पर मल देंगी
कहाँ मूंह छुपाओगे
अच्छा है मत बचाओ बेटियां…..
नए नए बिम्बों का सृजन संध्या की कविता का विशेष गुण है. यही गुण उसकी कविता को अपनी किस्म की ताज़गी और नयेपन से भर देता है. अनेक जगह ये बिंब चौंका देने वाले अनेक जगह ये पाठक को रोक कर उस से अपना ध्यान मांगते हैं. कई पंक्तियाँ पढ़ते पढ़ते पाठक की ऑंखें नम हो उठती हैं
पांचवीं लड़की पैदा करने के दुःख में
जब मां अपने स्तनों को
नवजात होठों से छुपा रही थी
अपनी मुठ्ठियों को चूस चूस कर
मैं अपनी भूख मिटा रही थी…..
छोड़ी हुई औरत, दो औरतें रखने वाला मर्द, पांचवीं लड़की, लल्ला, छोड़ी छुड़ाई औरतें, बिन व्याही लड़कियां, बिसराई गई बेटियां, इस संग्रह की ऐसी कविताएँ हैं जो नारी विमर्श के प्रसंग में विशेष चर्चा की मांग करती हैं. इन पर बहुत लंबी और विस्तृत बात होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. समकालीन समय में इन कविताओं का होना इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि इस उत्तर-आधुनिक समकालीन समय में, जब हम ग्लोबलाइजेशन और अल्ट्रा मॉडर्न सोसाइटी के दौर की बहुत बड़ी बड़ी डींगे हांकते हैं उसी समय में वास्तव में एक औरत की इस समाज में दशा और दिशा क्या है, ये दरस इस संग्रह से प्राप्त किया जा सकता है.
संध्या यादव की कविताएँ
1. तुम्हारी पीठ का बर्थमार्क
उस रात मैंने ऊँगलियों से
छूकर देखा था,
तुम्हारी गरदन के बालों को
चूमता हुआ तिल
मैं पलकों में भरकर ले आयी थी
मैं सूर्योदय को ऊँगलियों पर मेंहदी सा और
सूर्यास्त को काजल सा आँखों में
कैद कर ले आयी थी ।
सुनो ,
सूर्योदय तुम ले लो ,
सूर्यास्त मैं रख लूँ
आखिर पूरी रात तुम्हारी थी तो
रात के एक पहर पर
मेरा भी तो कुछ अधिकार
बनता ही है न .
2. आदत
साथ रहने से प्यार हो जाये ज़रूरी तो नहीं
कई बार सिर्फ एक दूसरे की आदत हो जाती है.
3. मर्सिया
जिनकी डोली को नहीं मिलता ,
भाई-बाप का कंधा ,
जिनका स्वागत दरवाजे पर ,
आरती से नहीं किया जाया ,
महावर लगे पैरों से घर में ,
जो छमछम करती नहीं आती ,
अक्सर वो लड़कियाँ ,
अपने लिये ,
मर्सिया गाती हुई ,
अपनी अर्थी का बोझ ,
अपने कंधों पर ,
ढोती रहती हैं,
मरते दम तक .
4. रिश्ते
1) प्रेम ,नाराज़गी ,उपेक्षा ,तिरस्कार
सबका अनुपात सही मात्रा में
होना चाहिए …ठीक उतना ही
जितना खाने में नमक
मीठे में मिठास…
2) फूली रोटी थाली तक पहुँचाने में
हाथ जलते हैं
चूड़ियाँ भी चटकती हैं
आँखें भी तपती हैं
थालियों को इसका भी
संज्ञान होना चाहिए…
3) वेंटिलेटर पर पहुँचने से पहले
लंबी-लंबी साँसें खींचते हैं रिश्ते
मुँह खोलकर हवा खींचते हुये
हृदय को जताते भी हैं
जान से जाने वाला हर बार
“स्वर्गवासी” नही होता
“मुक्त हो गया” भी कहलाता है…
4) खून के रिश्ते
बनाये गये रिश्ते
अपने-आप बन गये रिश्ते
जो दिल को सकून दें
बस वही हैं असली रिश्ते…
5) पूर्व जनम के
इस जनम के
अगले जनम के.. ज़िंदगी गुज़ारने की ख़ातिर
कितने भ्रम बनाते हैं रिश्ते .
5. भाषाशास्त्री
क्यों पढ़ाया मुझे सिर्फ ,
अभिधा, लक्षणा, व्यंजना
का सीमित शब्द शक्ति ज्ञान ?
मैं खुश अपने ज्ञान पर ,
और लज्जित दुनियादारी के बाज़ार में ।
समझाया गया मुझे ,
शब्दों की नपुंसक शक्ति पर फूली थी मैं ,
कितनी नासमझ थी मैं ?
शब्दों की दुधारी तलवार ,
गर्दन पर रख बताया गया मुझे अर्थो के महासागर में दमधुटने तक
डुबाया गया मुझे ,
मैं लज्जित हूँ अपने किताबी ज्ञान पर ,
मेरे आकाओं …
वंदन करती हूँ तुम्हारा ,
तुमने मुझे रास्ता नया दिखाया ,
किताबी ज्ञान के पोखर से निकाल
अर्थो के महासागर में मुझे डुबाया.
6. बंगाली टोटका
नालायक, बेकार, शराबी, कबाबी
आवारा, आलसी, खानदान के नाम पर कलंक,
रंडीबाज भी …
या कि फिर
परिवार का थोड़ा पढ़ा लिखा, नौकरी करनेवाले,
शायद किसी का प्रेमी, साहित्य पढ़ने वाले
परंपराओं का विरोधी, विवेकानंद का समर्थक…
ऐसे बिगडैल और अति आदर्श वादी
लड़को को सुधारने का बंगाली टोटका
जिसके शतप्रतिशत सफल होने की गारंटी थी
वो था पकड़कर, दबाव डालकर या फिर
माँ की बीमारी, पिता के हार्टअटैक या फिर
“लोग क्या कहेंगे” का मंत्रोच्चारण करते हुये
सप्तपदी करा देना
हाँलाकि इन नुस्खों ने लोगों के मुँह पर पट्टी
और खानदान की इज्जत पर पैबंद तो लगा दिया
पर बेटा आज भी अपने ही पोते के सामने
सीना तान कर
कहता है “शादी तो जबरदस्ती हुई थी”
लड़की के भाग्य पर इतना भरोसा था कि
गठजोड होते ही श्ववणकुमार
गृहस्थी का बैल
बन जिम्मेदारी का जुआ अपने कंधों पर रख लेगा ।
आखिर लड़की का भाग्य भी तो कुछ होता है ?
पर सारी खुशियाँ लड़के की मेहनत
और सारे दुख लड़की का नसीब
का परंपरागत समीकरण समझाया गया
जब वो समझ ही नहीं पायी
पूछने पर “मुँहजोरी” का थप्पा भी पायी ।
बात-बेबात पुरखे न्यौते गये
और पित्तर तारे गये
सप्रयास कोशिश की गयी
चोट हर बार कलेजे पर ही लगे ।
रात के अँधेरे में जिस सुख को
पान की गिलौरी की तरह चबा-चबा आनंद लिया
सुबह के उजाले में ईख की गडेरी की तरह थूक भी दिया ।
दद्दा दहेज गठिया के बैठ गये
बहुरिया के आते ही अम्मा की छाती का दरद
घुटनों में उतर आया
बेटा होने पर मूँछों पर ताव दे
हुलसती औरत को चेताया था
“ज़मीन तेरी है पर बीज तो मेरा है ”
बुआ ने कानों की बाली उतरवा ली
तो ननद ने पाँवों से चाँदी का पाजेब
बावजूद इसके
बार-बार अहसास दिलाया गया
“तू मेरी पसंद नहीं”
दिल में नश्तर हजार बार चुभाया गया ।
यही दुखडा रोकर प्रेमिका के दिल में
प्रेम का अखंड जोत जलाये रखा ।
प्रेम गीत और प्रेम कहानियों के काल्पनिक
पात्रों की बाहर तलाश कर उम्र भर
खुद को बार-बार बहलाया गया ।
पर जिसकी ज्योति से घर रोशन हुआ
उसके हिस्से सिर्फ
ताखे की कालिख आयी ।
उपेक्षा…अपमान …डाँट -फटकार के बीच
कर्तव्यों की घुट्टी सबने बार-बार याद दिलायी ।
उम्र कट गयी …पोता-पोती पूछते हैं …
“दादी …आपको दादा पसंद थे ?”
दादी कहती तो बच्चों की आँखें
चौड़ी हो रह जाती हैं
जाने किस भाषा में बोलती है
अक्ल उनकी समझ नहीं पाती है
“हमें पसंद का अधिकार नहीं
हमें कर्तव्य सिखाया जाता था ,
“जो भी-जैसा भी मिले
प्रेम ही करना है” का पाठ
ज़िंदगी की स्लेट पर लिखा-लिखा
फिर मिटा-मिटा, रट्टा मरवाया था ।
पोते का माथा चूमती कहती है दादी
“पता नहीं कैसा होता है
लाल-पीला, नीला या काला
मरने से पहले मुझे भी प्रेम देखना है
लोग कहते हैं बहुत खूबसूरत होता है,
हमने तो कैरम की गोटियों को छिटका देने वाला
प्रेम कभी नहीं चाहा
ज़िंदगी की धूप में संवेदना से लबालब
तपते हुये
जीवन को चटखारेदार अचार की तरह बनाना चाहा
नमी और सीलन से खुद को बचाकर
गरमा गरम पकवान के साथ भी
खट मिठवा स्वाद ही देना चाहा ।
पता नहीं किताबों में क्या कहते हैं
क्यों कहते हैं …हमने नहीं जाना
प्रेम का रस, छंद, अलंकार
कुछ पता नहीं ।
पर उम्र बीत गयी लला
ये भी बीत जायेगी
पता नहीं वो औरत किस भाषा में बात करती है
भाषाशास्त्री तलाशो न
कि भूगोल फिर से खुद को
रचना चाहता है …
संस्कृति माथे पर हाथ रखे
दिल से दिल तक का सफर तय करने का
अधबना नक्शा हाथों में लिये
नया इतिहास गढ़ना चाहता है.
7. पुस्तक दिवस
मैंने पढ़ी हैं बहुत कम किताबें
मैं अक्सर व्यस्त रहती हूँ
पढ़ने में
नम आँखें की बिनाई को
चेहरे की सिलवटें को
पाँव की बेवाईयों को
हाथों की ऊँगलियों के
टेढे-मेढे कटे काले पड़ते नाखूनों को
खिले हुये फूलों को
जर्द पड़ते पत्तों को
काले-सफेद बादलों को
बंजर होती हुई जमीन को
गोडाई की हुई मिट्टी को
आवारा उड़ती पतंग को
धूल में पाँव पटकते बच्चे को
धूँधट को दाँतों में दबा खिलखिलाती हँसी को
टोकरी में पड़ी मरी हुई मछली की सूनी आँखों को
मैदान में फैले हुये दूब को
आरती की थाली को
कलाई में बँधी मौली को
बोझा ढ़ोते झुके कंधे को
बगीचे में ऊँगलियों में ऊँगलियों को फँसाये खड़े जोड़ों को
बच्चों के बनाये ग्रिटिंग कार्ड में लिखे
आढ़े-टेढ़े शब्दों को
रात में लैंप पोस्ट से नहाती सूनसान सड़क को
माँ के माथे की बिंदी को
पिता के भर्राते स्वर को
दोस्ती की बिसात पर पड़ी गोटियों को
पीठ पर रखी हथेलियों को
रोटियों से निकलती भाप को
भिखारी के कटोरे में पड़ी दरार को
और न जाने क्या…क्या और क्या
और अनुभव से कहती हूँ
जबतक दर्ज होती रहेंगी
इनकी अबोली व्यथा-कथा किताबों में
और जब तक किताबों में
साँस लेते रहेंगे सूखे गुलाब
बस तब तक ही…तब तक ही …
तबतक ही धरती बची रहेगी.
8. मन
1) भूजी अरहर की
चूल्हे की घीमी आँच पर
पकी दाल पर तैरता
जीरा, लहसून, मिरिच, हींग
के छौंक जैसा…
2) मन के मौसम की ख़बर
कब टी.वी, अख़बार या
सोशल मिडिया पर आती है
मन नौटंकीबाज है
दिखाने से ज्यादा
छिपाना जानता है…
3) जब भयावहता हो
जग पर तारी
मन खुश रहने के
बहाने ढूँढता है
मन को पता है
“ये दिन भी गुज़र जायेगा”…
4) ऐम्बुलेंस, ऑक्सीजन
डाक्टर, बिस्तर
दवाई, इंजेक्शन
मन के पास कुछ भी नहीं
मन ऊँगलियों की रेखाओं पर
प्रार्थनाओं को जपता है
मन पहचानता है उन ऊँगलियों की ताकत को
जो बाँसुरी बजाना भी जानती हैं
और सुदर्शन चलाना भी…
5) मन थक जाता है जब
मेरे कँधे पर रख सिर
सुस्ता लेता है
मैं ऊँगलियों से सुलझाती हूँ
उसके घुँघराले ,उलझे बालों को
मैं जानती हूँ …सिर्फ मैं जानती हूँ
“मन का भी एक मन होता है”.
9. मैं
मैं अर्जुन नहीं कि ,
मछली की आँख पर
निशाना लगा कर
वाहवाही पा लेती और
ग्रंथों में अजर-अमर हो जाती ।
मेरी आँखों की बिनाई के ,
कुछ सूत छूट गये थे ।
मुझे अक्सर वही दिखा ,
जिसे लोगों ने अनदेखा कर दिया ।
और इसीलिए मुझे आँख नहीं ,
तड़पती हुई मछली दिखी ।
और यही वजह है कि
मेरे लिये कहीं जगह नहीं
न किसी के दिल में ,
न किसी की यादों में ,
और ना ही इतिहास में.
कवयित्री संध्या यादव, मुंबई जन्मभूमि और कर्मभूमि है। भारत के अलग-अलग प्रांतो से निकलने वाली साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रुप से प्रकाशित होती रहती हैं। तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला काव्यसंग्रह 2016 में ‘दूर होती नजदीकियां’ पांखी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इसी काव्य संग्रह का मराठी अनुवाद ‘स्वत: पासून दुरावताना’ भी हो चुका है। 2018 में दूसरा काव्य संग्रह “चिनिया के पापा ” पांखी प्रकाशन से ही प्रकाशित हुआ। 2022 में तीसरा काव्य संग्रह ” ओस सी लड़की “कविग्राम प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित होने का सौभाग्य भी मिला है।
मुंबई की ‘महाराणा प्रताप’ संस्था द्वारा ‘स्त्री शक्ति सम्मान 2019’ में। विश्व हिंदी अकादमी बनारस शोध एंवम संवर्धन द्वारा 2019 द्वारा ‘साहित्य सर्जना पुरस्कार से सम्मानित। ‘अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच’ भोपाल द्वारा साहित्य के क्षेत्र में किये गये कार्य के लिये वर्ष 2020 का ‘पुष्पा विश्वनाथ मेहता स्मृति सृजन श्री सम्मान’ की प्राप्ति हुई। ‘अखिल भारतीय अनुबंध फांऊडेशन’ मुंबई द्वारा वर्ष 2021 द्वारा ‘अनुबंध साहित्य भूषण सम्मान’ से सम्मानित। 8मार्च 2022 के दिन मुंबई के राज्यपाल द्वारा वाग्धारा संस्था का ‘स्पेशल ज्यूरी अवार्ड’ साहित्य में विशेष योगदान के लिये दिया गया। 1 सितंबर 2022आगरा के विश्व साहित्य सेवा ट्रस्ट द्वारा ‘राष्ट्र गौरव सम्मान’ 5 वाँ भारती साहित्य युवा सम्मान भारती -प्रसाद-परिषद द्वारा 2022-2023 मुंबई। आय.डी .ई.ए संस्था द्वारा ‘मैं औरत हूँ’ कवि सम्मेलन और मुशायरे के दौरान ‘महादेवी वर्मा’ सम्मान से सम्मानित। 9 मार्च 2023 मुंबई महाराष्ट्र साहित्य अकादमी द्वारा ‘चिनिया के पापा’ काव्य संग्रह के लिये ‘संत नामदेव’ पुरस्कार 2023
संपर्क: sandhyawrites.29@gmail.com
टिप्पणीकार अमरजीत कौंके, जन्मः 27 अगस्त 1964, लुधियाना में, शिक्षाः एम.ए., पी-एच.डी. (पंजाबी)। सृजनः पंजाबी भाषा में कई कृतियाँ प्रकाशित। हिन्दी में ‘मुट्ठी भर रोशनी’, ‘अँधेरे में
आवाज़’, ‘अंतहीन दौड़’, ‘बन रही है नई दुनिया’ प्रकाशित। हिन्दी से पंजाबी और
पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद की 35 पुस्तकें प्रकाशित। ‘प्रतिमान’ नामक पंजाबी पत्रिका का संपादन।
पुरस्कारः साहित्य अकादमी, दिल्ली से अनुवाद पुरस्कार। भाषा विभाग, पंजाब द्वारा
‘मुट्ठी भर रोशनी’ पर सर्वोत्तम पुस्तक पुरस्कार एवं गुरू नानक देव विश्वविद्यालय के सम्मान।
संप्रतिः स्वतंत्र लेखन
सम्पर्कः सम्पादक- प्रतिमान, 718, रणजीत नगर, ए- पटियाला-147 001 (पंजाब)
मोबाइलः 98142 31698
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