आलोक रंजन
हाल में रवित यादव की कविताओं से रु ब रु होने का मौका मिला । उनकी कविताओं में युवतर जीवन की समाज की वास्तविकताओं से होने वाली अवश्यंभावी टकराहट आम तौर पर मुखरित होती है । वहाँ रूमान है और रूमान के टूटने से पैदा होने वाले बिखराव और छटपटाहट की अभिव्यक्ति भी है । कविताओं में जागती आँखों से देखे जाने वाले सपनों का भंग होना और समाज के लिए कुछ न कर पाने की अफसोसनाक अवस्था भी है । कुछ कविताओं में जो निराशा आयी है वह व्यक्ति से उठकर समाज तक और समाज से बढ़ते बढ़ते इकाई के भीतर तक आवाजाही करती है ।
‘शहर में एक कोना’ कविता व्यक्ति और समष्टि के अंतस के लिए ज़रूरी ठहराव की तलाश करती हुई उसके अभाव पर जाकर खत्म होती है । यह विडंबना ही है कि शहर में एकांत की तलाश पूरी नहीं होती तो कविता का वह शहर भी मिल नहीं पाता जो वह ठहराव दे, शांत क्षण दे ।
अपने यथार्थ से निकलो
मेरी कविता की कल्पनाओं में प्रवेश करो
अगर नहीं है दुनिया में ऐसी जगह
तो आकर देख लो
मेरे इस शहर में
इस कोने में
टेबल पर सिर्फ तुम्हारा नाम है
वह कभी हिम्मत नहीं कर पाई
मैं उसके शहर जा नहीं पाया
मेरे शहर के इस कोने में
किसी बेरोजगार ने लगा ली चाय की टपरी
भर गया यहाँ शोर
उसमें खो गई हमारी आवाजें
कवि के यहाँ प्रेम अनुभव से स्मृति तक की यात्रा करता है निस्संदेह यह यात्रा सुखद नहीं प्रतीत होती । वहाँ जो प्रेम आया है वह अनुपस्थित को संबोधित होते हुए भी भावक से संवाद करता है और उसे अपनी दुनिया में देखने और रुककर स्मृति की पोटली टटोलने का अवसर भी देता है । ‘कुछ लोग’ कविता का यह अंश एक यादगार मुहावरे की तरह सभी अनुपस्थित प्रेम पर लागू होती दिखती है –
हमारे बीच बस आहटें ही थी,
दस्तक नही थी।
कवि की ‘हमने स्कूल नहीं बनाए’ जैसी कविताएँ राजनीति और समाज के सर्वसमावेशी न होने से पैदा बेचैनी को समेटे हुए है । जहाँ लेखक की संवेदना उस भावभूमि से आ जुड़ती है जो समाज की आम और प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है । ये कविताएँ उदासियों के गाढ़े तरल में डुबोती जाती हैं ।
इस तरह हमने काटी
अपनी ज़हरीली फसल
और बांध लाये उसे हरे और भगवा लोथड़ों में।
अरुण कमल की प्रतिनिधि कविताओं की किताब की भूमिका में प्रेमरंजन अनिमेष लिखते हैं – “कौतुक किसी कवि का लगभग एक अनिवार्य अंग होता है । वह कवि को न सिर्फ चीजों को नए ढंग से देखने की आँख देता है बल्कि खुद अपनी कविता को भी । यह उसकी दीर्घजीविता को बढ़ाता है, उसकी कविता को ऊर्जा और स्फूर्ति देता है और गझिन व दिल – दिमाग पर ज्यादा ज़ोर डालने वाली कविताओं के लिए स्पेस भी सृजित करता है।” रवित की कविता में यह ‘कौतुक’ तत्व कहीं कहीं दिखता है और वह भी आरंभिक स्तर का । समाज और मनुष्य के आंतरिक द्वंद्वों की पहचान तो कवि में है, लेकिन उन्हें व्यक्त करने में प्रयुक्त बिंब और मुहावरे इतने आम हैं कि वे पाठक को कविता में गहरे उतरने की संभावना को कम करते हैं । एक संभावनाशील रचनाकार के रूप में रवित भी चाहेंगे कि उनकी कविताएँ दीर्घजीवी हों इसलिए उन्हें अब अपने शिल्प को और मजबूत करने की दरकार है । अच्छी बात यह कि उनके पास एक प्रश्नाकुल और उर्वर भावभूमि मौजूद है ।
रवित यादव की कविताएँ
1. शहर में एक कोना
मैं चाहता हूँ अपने लिए
शहर में एक कोना
जहाँ किसी की आवाजाही न हो
उस कोने में पड़े हों बस दो स्टूल
और एक टेबल
जिसमें हमने रख दिए हों
एक दूसरे के लिखे पत्र
और कुछ किताबें
जिन्हें हम पढ़ सकें
बातों बातों में
थाम लूँ मैं उसका हाथ
जैसे कोई थामता है चादर
किसी सर्द अंधेरी रात में
ठिठुरन से बचने के लिए
जमा कर लूँ
थोड़ी सी उष्मा
जो शहर के बदलने की वजह से
रिश्तों की जमावट को पिघला सके
कैलोरीमिति के सिद्धांत की तरह
मैं थामे रहूँ उसका हाथ तब तक
जब तक हम दोनों के हाथों का
तापमान एक न हो जाए
वे बोले
इतने भीड़ भरे शहर में
इतने एकांत की कामना करना
ऐसा है
जैसे बिना मशक्कत किए
नौकरी पाने का अल्हड़ सपना देखना
मैं कहूँ
कि तुम चुप रहो
एक दिन के लिए ही सही
अपने यथार्थ से निकलो
मेरी कविता की कल्पनाओं में प्रवेश करो
अगर नहीं है दुनिया में ऐसी जगह
तो आकर देख लो
मेरे इस शहर में
इस कोने में
टेबल पर सिर्फ तुम्हारा नाम है
वह कभी हिम्मत नहीं कर पाई
मैं उसके शहर जा नहीं पाया
मेरे शहर के इस कोने में
किसी बेरोजगार ने लगा ली चाय की टपरी
भर गया यहाँ शोर
उसमें खो गई हमारी आवाजें
मिट गए हमारे नाम
चाय के दागों को पोछते हुए।
2. ये ज़िन्दगी है या मेज!
ये ज़िन्दगी है
या मेज़ है?
पड़ा रहता है इसमें सब,
कुछ इधर
कुछ उधर
कुछ ग़म
किसी किताब के पीछे
कुछ उदासियाँ
किसी खत्म हो चुके पेन की स्याही जैसी
कुछ अरमान
किताब की खुली परतों के ऊपर धूल के जैसे
कुछ ख़्वाब
किताब के पहले पेज पर हस्ताक्षर के नीचे
कुछ उम्मीदें
किसी सिगरेट के डब्बे में दफ़न
कुछ टूटन
पेंसिल से बनाए गए गड्ढों के अंदर
कुछ बिखराव
तले पर लगे टेप से सधे हुए
कुछ रिक्तिता
कॉपी के खाली पन्नो के बीच
कुछ सम्पूर्णता
बनाए गए नोट्स के साथ
कुछ अधूरी ख्वाहिशें
जो दबी रह जाएंगी
किसी किताब में फूल की तरह
कभी मन मे आया
तो समेट लिया सब
कभी यूँ ही
महीनों तक बिखरे रहने दिया।
ये ज़िन्दगी है ये मेज है?
3. आसान होता इन किताबों को पढ़ना।
आसान होता इन किताबों को पढ़ना
गर इनमें सिर्फ तुम्हारा ज़िक्र होता।
ये पन्ने सिर्फ तुम्हारी ही बातें करते।
ये शब्द आपस में गुथकर तुम्हारी चोटियाँ बनाते।
ये वाक्य छोड़ आते मुझे तुम्हारे उभारों तक।
हर कौमा हमे जारी रहने के लिए कहता।
हर पूर्णविराम हमारी एक कहानी कहता हुआ खत्म होता।
ऐसी किसी किताब में
मोड़कर रख लेता एक पन्ना तुम्हारे नाम का
फिर कभी तुम्हे दुबारा पढ़ने के लिए
जहाँ लिखा होता बेहद संजीदा
कुछ हमारे बारे में।
आसान होता इन किताबों को पढ़ना
गर इनमें जिक्र होता
हमारी दब गई आशाओं
और पहाड़ सी उम्मीदों का।
उन शिलालेखों का
जिन पर हमारा प्रेम टांका गया होता।
उन सिक्कों का जिनका
हमारे बाद चलन बंद हो गया होता।
उन आलेख्यों का
जिनको टांग दिया गया होता
किसी यूरोपियन म्यूजियम में।
आसान होता इन किताबों को पढ़ना
ग़र ये पूरती
हमारे अतीत और भविष्य की बीच का रिक्त स्थान
ग़र ये बताती
हमारे प्रेम के इतिहास का देह के भूगोल से संबंध।
हमारे प्यार का दूषित पर्यावरण
हमारी देह की अपभ्रंश भाषा का उदगम।
होता ये सब अगर इन किताबों में
तो आसान होता इन किताबों को पढ़ना।
4. ग़म की कलियाँ ( प्रश्नवाचक कविता)
मेरे घर के गमलों में
उसके पैरों की मिट्टी है
सींचता हूँ पौधों को
गिरते उसके आँसुओं से
सोचता हूँ
आसुओं से
सींचे गए इन पौधों में
खिलना होगा
फूलों को
जब पहली बार
क्या पहले खिलेंगी
उसके गम की कलियाँ?
5. मेरी इच्छाओं ने? ( प्रश्नवाचक कविता)
शहर के वीराने में
अपनी तन्हाइयो की कॉलोनी है
जहाँ बचा है बस एक पेड़
मैं एक लेखक उसी शहर का वासी हूँ
लिखने के लिए कागज़ चाहता हूँ।
क्या मेरी ही इच्छाओं ने काटे बाकी सारे पेड़?
6. हारेंगे हथियार प्रिये
सीमाओं के धागे थे
उनके पीछे सब भागे थे
फूलों को हाथों से तोड़कर
उन सबने हथियार थामे थे
कुछ थे जो रुके रहे
हाथों में फूल लिए रहे
पर कुचल गए।
जो कुचल गए
वो सफल रहे
जो बचे रहे
वो विफल रहे।
जब दफन हुए
तब मिलन हुआ
फूलों और हथियारों का
मिट्टी के भीतर इस युद्ध मे
हाथ डाल दिए हथियारों ने
फूलों ने न कोशा तब भी
गले लगाया हथियारों को
तब जाके समझा सबने
फूल होना आसान नही
तुम भले बना लो
हथियारों से
गूंथ के अपने हार प्रिये
सीमाओं की इस जंग में
हारेंगे हथियार प्रिये।
7. चप्पल के बारे में
धूल की तरह उसकी यादें
कितना भी झाड़ लो
फ़ुर्सत में चल रहे होंगे ज़मीन पर
यदि नंगे पाँव कभी
तो किरकिरा ही देंगी मन को।
ऐसा न हो इसके लिए ही
बनाई हमने चप्पलें
फिर न कभी पाँव नंगे हुए
न कभी फिर उसकी याद आयी।
8. कुछ लोग
तुम उन अकेले के दिनों की आहट थी,
जिसे सिर्फ मैं ही महसूस कर सकता था।
हमारे बीच बस आहटें ही थी,
दस्तक नही थी।
दरवाजे थे लेकिन
दहलीज किसी को भी पार नही करनी थी।
एक दूसरे के पते मालूम थे
लेकिन कोई किसी को ढूंढता नही था।
शायद ये बात सही है कि कुछ लोग
जीवन मे आपकी सिर्फ कभी-कभी की
उपस्थिति माँगते है,
उम्र भर का साथ नही।
9. एक चप्पल की आत्मकथा
मैं जिस घर मे पहली बार खरीद कर लायी गयी थी
वहाँ ऐसा नही था कि मुझे एक नंबर बड़ा खरीदा जाए
सो छोटे बच्चे झट से बड़े हो गए और मैं उनके लिए छोटी।
फिर मैं आयी उसी घर मे काम करती
किसी औरत के घर मे
वहाँ मुझे छोटे बच्चे ने भी पहना,
उसकी बड़ी बहन ने भी,
फिर कभी कभी जल्दी जल्दी में
कुछ न मिला तो माँ ने भी।
अब मेरी दूसरी साथी कहीं खो गयी है।
अब हम किसी के पैर में नही आएंगे।
तुम लोग जो ये प्रेम, साथ, बिछोह की बातें करते हो ना, इसे अपना प्रिवेलेज समझो।
किसी से बिछड़े तो अकेले नही हो जाओगे।
हमारा अलग है।
हमे ये सुविधा नही।
खैर ग़ुरबत के पैर भी बड़े होते हैं और बाहें भी
फ़िलहाल तुम मुझे अपने कैमरे में कैद कर लो
इससे पहले मैं किसी पालतू कुत्ते के मुँह में आऊँ
और वो मुझे अधमरा कर दे।
10. किचन का लोकतंत्र
जीवन भर उसके पति ने
उसे उतनी आवाज़ नही दी थी,
जितनी कि इस चूल्हे ने।
सूरज निकलने से पहले बुला लेता था
और चाँद के ढलने तक अपने पास रखता था।
पहली बार जब उसने रोटी फुलाई थी
तो उसे पता नही था कि
अब ये रोटी ही उसकी नियति हो जाएगी।
उसे लगा कि अफसर से ब्याह
उसे इस चूल्हे से अलग कर देगा।
हर बार की तरह इस बार भी उसे छला ही गया था।
हाथों की मेहंदी ने
धीरे–धीरे आटे को सानते सानते
अपना रंग छोड़ दिया था
और यह बात समझने में
उसे एक लंबा वक्त लग गया था।
अब जब वो बूढ़ी थी,
रोटियाँ तो तब भी बेलती थी।
तरस उन पतियों पर आता है
जो हाथ बटाने से दूर रहे।
उसकी एक आखिरी इच्छा है
किचन के लोकतंत्र में पुरुषों का चुना जाना।
11. उसे प्यार किया गया
उसे प्यार किया गया
ऐसे जैसे करते है प्रेम
कुछ लोग अपने ईश्वर से
उसे चाहा गया
ऐसे जैसे चाहते है कुछ लोग
अपने माँ बाप को
निश्चल और अनंत होकर
उसे तस्वीरें लेना पसंद नही था
तो उसे उकेरा गया
फूलों में सायों की तरह
उसे बारिशें पसंद नही थी
तो हमनें छोड़ दिया
बच्चा होकर भीगना उसमें
उसने कहा तुम पे
सफेद रंग जँचता है
तो हमने सारी
अलमारी भर दी उस एक रंग से
उसने कहा क्यों जलाते हो
अपने हाथ में ये सिगरेट
तो हम बुझाने लगे उन सिगरेटों को
बीच मे ही
ये सब हम कर ही रहे थे
की एक दिन उसने कह दिया
शायद तुम मुझे उतना भी पसंद नही
हमने फिर छोड़ दिया उसको
हर उस आदत की तरह
जो हमने छोड़ी थी
उसके ही कहने पर।
12. हर दुःख पहले कागज पर
स्याह से गहरा रात का रंग,
खून जमा देने वाला मौसम,
एक ही बिस्तर पर
एक ही तरीके से लेटने पर पीठ में होने वाला दर्द,
बिना खोल की तकिये की फिसलन,
लगातार रोते रहने से लाल हो गयी आँखें,
कमरे के एकांत के शोर
और हल्के हल्के सर् दर्द के बीच
मेरे जैसे लोग सिर्फ लिखकर ही
अवसाद से खुद को बचा सकतें है।
मैं लिख लेना चाहता हूँ हर दुःख को कागज़ पर
इससे पहले की वो सिर्फ एक पोस्ट बनकर रह जाए।
13. हमने स्कूल नही बनायें
हमने स्कूल नही बनाए
इस डर से कि
यदि किताबें पढ़कर
कोई समझ गया ये तिलिस्म
तो सत्ता के जादूगरों का तमाशा कौन देखेगा!
हमने स्कूल नही बनाये
हमने बनाए मंदिर
ताकि भगवान के बहाने
जनता को लाइनों में लगने का
अभ्यास करवाया जा सके।
लाइनों में लगाकर
हमने जनता को बनाया भेड़
ताकि उन्हें हाँका जा सके
धार्मिक उन्मादों की डगर पर।
उस डगर पर जहाँ
जिसके दोनों तरफ
घास के स्थान पर
खून की खेती होती है।
हमने पुस्तकालय भी नही बनाए
इस डर से की कलम के बचे खुचे सिपाही
कभी विद्रोह की कविताएँ लिखते लिखते
संसद ना घेरने लगें।
हमने बनाई धार्मिक पुस्तकें
और सजवा दिया पूजाघरों में
किसी पंडित या मौलवी की
आंखों से पढ़ने के लिए।
इस तरह हमने काटी
अपनी ज़हरीली फसल
और बांध लाये उसे हरे और भगवा
लोथड़ों में।
14. वे तलाशते रहे।
वे तलाशते रहे प्रेम को
बोगनवेलिया की सुर्ख़ पत्तियों के बीच
उन्हें क्या पता था वो
छलनी होकर
फँस गया था
बबूल के काँटो में।
उनमें निग़ाह न थी
यह देख पाने की
वे जुटा न सके थे हिम्मत
काँटो से उसे अलग करने की
फिर अंत मे वे
छोड़ गए उसे वहीं
इस बात से अनजान की
प्रेम का “गुलाब”
काँटो में ही उगता है
और रह गए हमेशा के लिए
प्रेम विहीन।
15. तुम्हारे साथ होना
मैं होना चाहता हूँ तुम्हारे साथ
जैसे दो पलकें होती है
एक दूसरे के साथ।
मैं बुनना चाहता हूँ
अपना प्यार ऐसे
जैसे बुनती है कोई
मकड़ी
जाल अपना
मैं ठहरना चाहता हूँ तुममे
जैसे कमरों के कोनों
में ठहर जाती है धूल।
मैं भूल जाना चाहता हूँ
उन सारे मतभेदों को
जैसे भूल जाता है कोई
बिस्तर के नीचे
बर्तन झूठे रखकर।
मैं रह जाना चाहता हूँ
तुम्हारी यादों में
जैसे रह जाता है
चाय का कोई दाग
सबसे पसंदीदा चादर में।
मैं बार बार खोना चाहता हूँ
खुद को इस प्रेम में
जैसे बार बार खो जाता है
टी वी का रिमोट घर मे।
मैं बनना चाहता हूँ
वो गमले का पौधा
जिसे हर रोज तुम सुबह
सींच जाया करती हो।
इस तरह
मैं प्रेम में
एक घर हो जाना चाहता हूँ।
कवि रवित यादव का जन्म 15/12/1997 को हुआ। उनकी कलम नई है। हमीरपुर उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। फिलहाल दिल्ली बार काउंसिल में वकील के रूप में पंजीकृत हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में परास्नातक का छात्र हैं.
संपर्क: ईमेल: humansoverwar@gmail.com
मोबाइल- 8527443082
टिप्पणीकार आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, हिमाचल प्रदेश में अध्यापन, यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।
सम्पर्क: alokranjan7@gmail.com