निरंजन श्रोत्रिय
युवा कवयित्री राकी गर्ग की ये कविताएँ नितांत निजी एवं उनके अनुभव संसार की कोमलतम अभिव्यक्तियाँ हैं। इन अनुभवों में जातीय स्मृतियाँ हैं, उदासी और अकेलेपन का अहसास है, दैनंदिन के प्रेक्षण भी हैं जो एक अपरिभाषित-से असमंजस के कोहरे से ढंके हुए हैं।
‘दरवाजे’ कविता में कवयित्री एक घुटन भरे आंतरिक संसार में विचर रही है जो किसी उम्मीद के दरवाजे की तलाश में है। जो दरवाजे हैं वे भी धीमे-धीमे दीवारों में तब्दील होते जा रहे हैं। घुटन की चरम स्थिति अंततः एक अवसाद भरे क्षण में तब्दील जो जाती है जब वह मकड़ी और दीमकों के साथ जिंदगी का समझौता कर लेती है।
इस निराशा अवस्था अतीत की एक खूबसूरत याद प्रकाशमान पुंज की तरह कवयित्री के जेहन में उभरती है। ‘पेड़ हो जाना’ कविता में प्रेम को अपनी तरह से परिभाषित किया गया है। यहाँ प्रेम एक ऐसा पेड़ है जिसमें भले फूल नहीं उगते हैं, केवल पत्तियाँ हैं। वह छाँह देता है जिसके लिए पत्तियाँ पर्याप्त हैं। यहाँ फूल नहीं मगर फूल की संभावना है..प्रतीक्षा है। यही प्रतीक्षा प्रेम में भी होती है। अंततः प्रेम करना पेड़ हो जाना है।
‘सोते हुए जागना’ कविता में एक आंतरिक छटपटाहट है। यहाँ नींद को एक फैण्टेसी की तरह देखा गया है। एक व्यथा है जो मिथकीय स्त्री और वास्तविक स्त्री की दुनियाओं के फर्क की वजह से उपजी है। ‘माँ’ एक मार्मिक कविता है जिसमंे बच्चों के माँ के प्रति आए बदलाव को रेखांकित किया गया है। वह माँ जिसके पास सोने के लिए कभी बच्चों में लड़ाई होती थी, समय के साथ एक उपेक्षित बल्कि तिरस्कृत औरत में बदल जाती है। वह केवल संपत्ति के लिए है। रिश्तों में समय के साथ आए बदलाव से चिंतित माँ अभी भी बच्चों के प्यार के लिए उम्मीद से भरी है। उसे लगता है अभी भी कोई बच्चा आकर कहेगा कि ‘माँ, तेरे बगैर नींद नहीं आ रही।
हर माँ की यही उम्मीद इस क्रूर और मतलबपरस्त समय में उसे जिलाए रहती है-‘ क्यों न उसकी दवाएँ भी वही लेकर आए/ जिसके हिस्से आई है/ एक बीघा अधिक जमीन/ या जिसको दिए माँ ने/ अपने सोने के बंुदे।’ ‘सन्नाटा’ कविता में कवयित्री अज्ञेय को याद करते हुए (सन्नाटे का छंद) एकांत का संगीत सुन रही है। यहाँ प्रियतम हवा में तब्दील है जो आते-जाते कमरे के परदों को हिला रहा है। उदासी भरा यह एकाकीपन एकालाप या आत्मालाप में बदल जाता है।
‘अंतिम मुलाकात’ कविता विदाई का कारूणिक दृश्य रचती है। इस कविता का केन्द्रीय वाक्य है-‘उसने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा।’ मुड़कर देखना कितनी संभावनाओं से भरी प्रक्रिया है, यह कविता उसका मार्मिक बयान है। कभी कोई विदाई किस तरह स्थायी विछोह में तब्दील हो जाती है! ‘ऐसे प्यार करो’ एक बहुत छोटी लेकिन अर्थवान कविता है। कवयित्री प्रेम की औपचारिकता से परे एक अनिवार्य संबंध चाहती है, वही अटूट सम्बन्ध जो हवा का पेड़ से, बारिश की बूंदों का धरती से और पहाड़ का बादलों से होता है।
‘मेरी सुबह’ कविता में रिश्तों की गर्माहट को गहराई से महसूसा गया है। कवयित्री मानती है कि अंधकार की अनुपस्थिति का अर्थ रोशनी हो जाना नहीं। उसके लिए उस दहक की ज़रूरत होती है जो एक सच की तरह हमारे भीतर कहीं मौजूद है। कविता में जिस कंपकंपाहट की बात कही गई है वह दरअसल रिश्तों से उत्पन्न जीवन-स्पंदन ही है। ‘सहेलियाँ’ कविता में दोस्ती की गर्माहट है, परस्पर विश्वास और आस्था है। जीवन में अपने सुख-दुख का अस्ल भागीदार दोस्त से बढ़कर कौन हो सकता है! ये वही सहेलियाँ जो बचपन के खेल से लेकर ससुराल के कष्टों तक में कहीं न कहीं साथ होती हैं। वह रोटी में नमक के स्वाद की तरह है जो हो भले ही अल्प मात्रा में लेकिन उसके स्वाभाविक स्वाद हेतु अनिवार्य होता है।
‘आँसू’ कविता में रहीम को याद करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचती है कि काश! ये आँसू बाहर ही न आए होते। यह सदा की ही व्यथा है कि अपनी पीड़ा खुद को ही भुगतनी होती है। ‘खामोशी’ एक अंडरटोन कविता है जिसमें सूनापन, खामोशी और अनिश्चय है। इस कविता में एक विकट बेचैनी है..भटकाव है…कुछ खोज लेने की उत्कटता है। कवयित्री इस बेचैनी भरी यात्रा में असंभव को संभव होने की कामना करती है-‘ जहाँ भीड़ हो एकांत का पर्याय/ इतने चाँद हों कि कोई सूरज न हो।’ ‘तुम्हारे लिए’ एक छोटी कविता है जिसमें शब्दों की मारक क्षमता का बखान है। ‘रिश्ते’ कविता भी उम्मीद की कविता है। हम चाहे सम्बंधों का निर्वहन ठीक से न कर पाएँ, रिश्ते हमें कहीं न कहीं जोड़े रखते हैं। यही जुड़ाव जीवन का एक बड़ा दिलासा भी होता है।
राकी गर्ग एक संभावनापूर्ण युवा कवयित्री है जो कविता में उदास होती हैं लेकिन कविता के जरिये ही उस उदासी को मिटाना भी चाहती है।
राकी गर्ग की कविताएँ
1.दरवाजे
घर में बहुत से दरवाजे थे
कुछ लकड़ी के
कुछ जाली के
और कुछ पारदर्शी
कुछ से छन कर आती थी रोशनी
और कुछ से आती थी हवा
जिनकी ओट से हम देख सकते थे
एक दूसरे को
बिना छुए
सिर्फ दूर से
भीतर तक भीगते हुए
धीरे-धीरे सारे दरवाजे
बंद होते गए
और चुनती गई दीवारें
अब कोई दरवाजा नहीं बचा
तुम्हारी ओर खुलने के लिए
बची हैं सिर्फ दीवारें
जिन पर बनाने लगे हैं
दीमक और मकड़ियाँ
अपने-अपने घर
जब सांस लेने की जगह बची न हो
और घर के बाहर खिंची हो
बहुत-सी रेखाएँ
जो हों लक्ष्मण रेखा से भी अधिक खतरनाक
तब आहिस्ता-आहिस्ता
इन्हीं मकड़ी और दीमकों के साथ
जीने की आदत डालनी पड़ती है
बस, सालती है एक कसक
दरवाजे और खिड़कियों वाले घर
कितने खूबसूरत हुआ करते थे।
- पेड़ हो जाना
कभी लौटना
तो देखना
वहाँ उग आया है
एक पेड़
पर फूल नहीं आते उसमें
आती हैं सिर्फ पत्तियां
नहीं उठती है उनसे कोई महक
वह कहती है हर उससे
जो बारिश और ताप से बचने
खड़े हो जाया करते उसके पास
प्रेम करना
प्रतीक्षा करना है
अनंत काल तक
और फिर पेड़ हो जाना है।
- सोते हुए जागना
आजकल जागते हुए सोती हूँ
सोते हुए जागती हूँ
सोने में जागना कुछ ऐसे
जैसे धंसती जा रही हूँ धरती के भीतर
नीचे और नीचे
अँधेरे में कहीं
या आसमान चक्कर लगा रहा
मेरे चारों ओर
इस तरह से महसूस कर पाती हूँ
सीता के धरती में समा जाने को
और दुष्यंत के विस्मरण पर
शकुंतला की पीड़ा को
पीड़ा जिसका कोई
स्थायी पता नहीं होता
वह कर सकती है
कभी भी किसी पर अधिकार
बस बदल जाता है
उसका रंग रूप आदमी देखकर
इन अर्थों में वह कतई साम्यवादी नहीं
सीता को धरती गोद में ले लेती
शकुन्तला को आश्रम
एक साधारण स्त्री के लिए
न धरती
न मेनका
न किसी के हाथ
सिर्फ अंधेरा
और अंधेरा
आधा जागा
आधा सोया।
- माँ
माँ
जिसके पास सोने के लिए
बच्चों में हर दिन लड़ाई होती
जिसके दूर रहने की तकलीफ असह्य होती थी
जिसकी आँखों में एक आंसू आ जाने पर
सारी दुनिया को आग लगा देने की इच्छा होती थी
आज वही माँ बन गई है
बोझ का कारण
उन्हीं बच्चों में
किसके पास रहेगी कितने दिन?
क्यों न उसकी दवाएँ भी वही लेकर आए
जिसके हिस्से आई है
एक बीघा अधिक जमीन
या जिसको दिए हैं माँ ने
अपने सोने के बुन्दे
हर कोई टालना चाहता है उसे
रात भर उसके जागने से
हर बच्चा हो जाता है परेशान
जब कि अकेले उस माँ ने
कितनी रातें गंवाई थीं
बच्चों की एक-एक आह पर
अब नहीं देता उसको उतना
आँखें भी नहीं देख पाती ठीक-ठीक
कमरे में अकेली बैठी
तरसती है एक बोल सुनने को
उसके मन में कहीं
एक उम्मीद बाकी है अभी
शायद कोई बच्चा आकर कहेगा
माँ! आज नींद नहीं आ रही।
- सन्नाटा
कितनी सारी बातें हैं
तुमसे कहने को
पर खुद से ही कहती हूँ
खुद ही सुनती हूँ
और
अज्ञेय के सन्नाटे के छंद बुनती हूँ
जब कभी हिलने लगते हैं
हवा के तेज झोंकों से
कमरे में टंगे परदे
तब लगता है
आ गए हो तुम
हवा हो शायद
जो आते-जाते रहते हो
और रचते हो एकांत का संगीत
जिसमें सन्नाटा बोलता है।
6.अंतिम मुलाकात
मेरे पूछने पर
वह हँसा
आँसू सदा के लिए
मेरे हिस्से में जमा हो गए
उसने कहा था
बस एक ही वाक्य
और मेरी देह
नीली पड़ गई थी
वह जाने के लिए उठा
उसने एक बार भी
मुड़ कर नहीं देखा
यह हमारी अंतिम मुलाकात थी।
7.ऐसे प्यार करो
मैं चाहती हूँ
तुम मुझे ऐसे करो प्यार
जैसे करती है
हवा पेड़ों से
बारिश धरती से
पहाड़ बादलों से।
- मेरी सुबह
मेरी नींद अंधकार से टूटती है
चिड़ियों की चहचहाहट
सड़क का शोर
घरों से आती बर्तनों की खटपट
संकेत है
दिन निकल आया है
सूरज का निकलना
उसका आगे और आगे आते जाना
अंधकार की अनुपस्थिति हो सकती है
पर पर्याय नहीं रोशनी का
रोशनी के लिए चाहिए
थोड़ी-सी आग
आत्मा के किसी कोने में प्रज्वलित
और उस आग को हवा देते स्वप्न
जिसके गर्भ में सांस लेता सत्य
और उसको जन्म देने के
सुख का आभास
उस नवजात शिशु को
थामते तुम्हारे कंपकंपाते हाथ
तुम्हारे हाथों के कांपने से
होती है मेरी सुबह।
- सहेलियाँ
गुड्डे-गुड़ियों से लेकर
पोते-पोतियों तक
सहेलियाँ एक डोर की तरह होती हैं
जो थामे रहती हैं
किसी भी आँधी-तूफान में
बहती ज़िंदगी की धार में
होती है हमारी हमराज़
उस कोई फिल्म की
जो हमने देखी थी देर रात
माँ की डांट के बावजूद
होती हैं भागीदार उन आँसुओं में
रोटी जल जाने या
दाल में नमक भूल जाने के बदले
ससुराल में मिले थे
होती हें उस खुशी में शरीक
जो मनचाही चीज़ खरीदने से मिली थी
और होती हैं हमेशा शामिल
कभी खत्म न होने वाले किस्सों में
सहेलियाँ सबसे न्यारी होती हैं
चाँद और सूरज
हवा और पानी होती हैं
इनके बिना हमारी जिं़दगी
जैसे रोटी बिन नमक होती है।
- आँसू
दुःख जब आँखों के भीतर
रूक न सका
हाथों की मुलायम
छुअन से
कोई घाव
खुल गया थोड़ा-सा
और आ गए आँसू
रोका खुद को बहोत
फिर भी हो ही गया ऐसा
थमे ही रहते भीतर
तो क्या अच्छा नहीं होता!
रहीम तुम हर बार सही लगे हो
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहें लोग सब, बाटि न लैहै कोय।।
- खामोशी
आँखों में नींद नहीं
होठों पर कोई बात नहीं
हाथों का स्पर्श नहीं
कोई गंध भी नहीं
बस, एक खामोशी
एक सूनापन पसरा है मुझमें
जो डराता है
रूलाता है
जहाँ दिन नहीं
रात नहीं
जीवन नहीं
मृत्यु भी नहीं
बस एक प्रेत है
जो औरों से अधिक
सताता है स्वयं मुझे ही
जिसकी कोई मुक्ति नहीं
चाहिए उसे एक और
जन्म विहीन मृत्यु
बिना जन्म लिए ही
मुक्त हो सके यह प्रेत
जहाँ भीड़ हो एकांत का पर्याय
इतने चेहरे हों कि
अपना कोई चेहरा न हो
इतने अस्तित्व हों कि
अपना कोई अस्तित्व न हो
इतने चाँद हों कि
कोई सूरज न हो…..।
- तुम्हारे लिए
तुम्हारे लिए
जो सिर्फ शब्द थे
अधूरी इच्छाओं को
निकालने का माध्यम
मुझे यकीन है
बाण तो नहीं थे
और न ही थी गोलियाँ
वरना एक ही आदमी
नहीं मरता
हर दिन हर बार।
- निहत्था
ऐसे वक्त में
और ऐसी जगह
जब सब हों हथियारों से लैस
ऐसे में किसी एक का निहत्था खड़ा होना
और उसकी हिंसात्मक वृत्ति
अभिशाप है
वह खड़ा हो जाता है
शक के दायरे में
सभी मुस्कराते हैं
एक दूसरे की आँखों में देख
मानो वे कह रहे हों
हमें पता है
तुम्हारी जेबें बारूदों से भरी हुई हैं
दुखद
वे नहीं जानते हैं कि
जेबों की सीवन उधड़़ी हुई है।
- रिश्ते
मुझे रिश्ते सम्हालने नहीं आए
पेड़-पौधों की तरह
उन्हें सींचना नहीं आया
पर कुछ रिश्ते
उम्र-दर-उम्र
वक्त की चैखट पार करते गए
यकीन के साथ
कि सारी दुनिया जब होगी खिलाफ़
हम एक दूसरे के साथ होंगे।
(कवयित्री राकी गर्ग, जन्मः 7 जून 1976, बहराइच (उप्र) में, शिक्षाः एम.ए. (हिन्दी साहित्य) सृजनः पर्यावरणविद् एवं गाँधीवादी चिन्तक अनुपम मिश्र के व्याख्यानों की संपादित पुस्तक‘अच्छे विचारों का अकाल’ प्रकाशित। बाल साहित्य की छः पुस्तकें प्रकाशित। रिल्के के पत्रों का अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य। संप्रतिः वनमाली सृजन पीठ, दिल्ली में कार्यरत।
संपर्कः 312, एक्सीलेंस अपार्टमेंट, सैक्टर 18 ए, प्लाॅट नंबर 4, द्वारका, नई दिल्ली-78
सम्पर्क : 8586943564, ई-मेलः gargraki@gmail.com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं. संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)