सुधीर सुमन
राजेश कमल लगभग ढाई दशक से अधिक समय से कविताएं लिख रहे हैं, लेकिन कविता पाठ और प्रकाशन से आम तौर पर बचते रहे हैं। उनकी कविताएं किसी भी प्रचलित विमर्श की कविताएं नहीं हैं, बल्कि मनुष्यता को जिन परंपराओं और प्रवृत्तियों से खतरा है, उनकी कविताएं उन सबसे मुक्ति की छटपटाहट की कविताएं हैं।
राजेश कमल की कविताएं आज के वक्त की विडंबनाओं को सहज रूप में दर्ज करती हैं। ‘नायक’ शीर्षक उनकी कविता में यह वक्त ठहाके लगाते, उपहास उड़ाते, नाचते-गाते सौदागरों का है, जिनके हाट अर्द्ध और पूर्ण विद्वानों से पटे हैं और सबसे चिंताजनक स्थिति यह है कि खरीदारों की लंबी कतार है। फर्जी, बहुरूपिया, मूर्ख, हत्यारे और बलात्कारी नायकों की धूम है, उनसे अलग चुनाव का कोई विकल्प नहीं है।
विडंबना यह है कि यह परिदृश्य वहां का है, जहां की शान भगतसिंह हैं। इस कविता में आत्मालोचना का एक बारीक सा स्वर है, जो एक नागरिक के बतौर अपनी भूमिका या बेवशी को भी प्रश्नचिह्नित करता है, जो ‘दर्जी’ कविता की इस वैचारिक समझ के जरिए भी व्यक्त होता है-
‘‘….मुल्क की महान परम्पराओं की व्यवस्था ऐसी थी
कि संभावनाएं देखी जा सकती थीं
चाहे वो फर्जी ही क्यूँ न हो।’’
जाहिर है कि मुल्क की ‘महान’ परंपराओं की आंतरिक विडंबनाओं की परख तो कवि को है ही, लोकतंत्र की आड़ में जो लोकतंत्रविरोधी शक्तियां व्यवस्था पर काबिज हुई हैं, उस पर भी उसकी पैनी निगाह है। यह जो नई व्यवस्था आई है, वह प्रेम, नफरत, परिधान सबकुछ तय कर रही है। कवि बेचैन होकर सवाल करता है-
‘‘महात्मनो!
मेरी मुहब्बत कोई और कैसे तय कर रहा है
दोस्त दुश्मन
खाना पीना
हँसना रोना
कुरता पजामा
कोई और कैसे तय कर सकता है
कोई जवाब नहीं है किसी के पास’’
जबकि विश्ववभ्रमण करता शासक इस मुल्क को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का पाखंड करता रहता है।शासक का ऐसा ही पाखंडी स्वरूप ‘हम जिस देश के वासी हैं’ में भी नजर आता है-
‘‘धान गेहूँ सूरज चाँद मिट्टी पानी
बाद में आता है यहाँ
आँसुओं के लिए मशहूर
मगरमच्छ पहले आता है।’’
मौजूदा व्यवस्था में भारी वर्गीय विषमता है, इसे देश की आर्थिक राजधानी ‘बंबई’ पर केंद्रित अपनी छोटी सी कविता में भी कवि ने दर्ज किया है, उसका सवाल है कि किसने यह अर्थशास्त्र लिखा है। लेकिन अर्थशास्त्र के साथ-साथ वह उस ‘अफीम’ की भी शिनाख्त करता है, जिसके कारण झूठ का स्वर इतना कर्णप्रिय हो उठा है, कलाकार शासकवर्ग के उन्माद फैलाने के यंत्र में तब्दील हो गए हैं और श्रोता मंत्रमुग्ध हैं। हालांकि ये दोनों ज्यादातर मध्यवर्ग के हैं।
कवि मध्यवर्ग के वैचारिक पतन से बेहद आहत है, ‘अच्छे लोग!’ इस लिहाज से प्रतिनिधि कविता कही जा सकती है, जिसमें वह उन्हें गरियाने की हद तक चला जाता है।
मध्यवर्ग और पाखंडी शासकवर्ग के साथ-साथ परंपरागत जाति आधारित समाज पर भी बहुत सधा हुआ व्यंग्य राजेश कमल की कविताओं में मिलता है।
उदाहरण के तौर पर ‘जन्म दिवस’ कविता देखी जा सकती है, जिसमें जाति के आधार पर राजेंद्र प्रसाद, महाराणा प्रताप, दिनकर, भगतसिंह, बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंतियां मनाने वालों पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं-
‘‘शुक्र है कि जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते अपने नायकों को।’’
जाति की बाड़ाबंदी में रहने को जिस तरह भारतीय समाज में हर किसी की नियति बना दिया जाता है, उस घेरे, उस पहचान से मुक्ति का चिरलंबित सवाल उनकी एक अन्य कविता में रोजमर्रे के अनुभवों के भीतर से उभरता है-
‘‘न जाने वह समय कब आएगा
जब मनुष्यता को धूूमिल करने वाला
यह सवाल छूट जाएगा।’’
राजेश कमल की कविता में दोस्ती जाति से ताकतवर है, जहां दोस्त की मौत के बाद भी उसका मोबाइल नंबर डिलीट नहीं होता। कोरे दुनियादारों के लिए के लिए यह मिथ्या भावुकता हो सकती है, पर यही उनकी कविता की संवेदना है। संवेदना का तार मृत्यु से लेकर जिंदगी तक को जोड़े हुए है। वही है जो जमाने के हिसाब से बदलते हुए प्रेम की शिनाख्त करते हुए यह यकीन जाहिर करता है कि ‘प्रेम फिर भी बचा रहेगा।’
‘युद्ध में मासूम की अपील’ एक भावनात्मक अपील की कविता है। हालांकि उनकी कविताएं कोरी सदिच्छा की कवितााएं नहीं हैं। गणित, लौटना, ‘कभी कभी सोचता हूं’ जैसी कविताओं में कहीं वह खुद को कमजोर महसूस करता है, कहीं पुरानी पगडंडियों को भुला देने की पीड़ा जाहिर करता है, तो कहीं उसके अंतर्द्वंद्व और आत्मालोचना के स्वर ज्यादा मुखर हैं। ‘कभी कभी सोचता हूं’ जैसी कविता पढ़ते हुए इसे बखूबी महसूस किया जा सकता है।
राजेश कमल की कविताएं मध्यवर्गीय अनुभव जगत की ही कविताएं हैं और रोजमर्रे के अनुभवों से होते हुए वे बड़े सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों से सहज रूप से जुड़ जाती हैं।
इन कविताओं में पुरानी पगडंडियों को याद करते हुए, अपनी वर्तमान वर्गीय स्थिति के प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हुए वैचारिक सूत्र और राह खोजने की कोशिश है, जो इन कविताओं को खास और मौलिक पहचान देती हैं। इसमें दो राय नहीं कि ये वर्गांतरण की कविताएं नहीं हैं, लेकिन सामंती-पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संरचना के समक्ष नतमस्तक मध्यवर्ग की निरंतर आलोचना इनकी खासियत है। अपने वर्ग-समाज से च्युत हो जाने के डर के बावजूद अपने ढंग से जीने का हौसला इनका हासिल है, जिसे ‘पहली बार’ कविता बखूबी व्यक्त करती है-
“कोई भी डर स्थाई नहीं होता
और पहली बार का अभ्यास हो नहीं सकता है
बेहतर है डर को रोमांच पढ़ा जाए
और पहली बार होने वाली चीजों के इंतजार में जिया जाए।”
राजेश कमल की कविताएँ
1. नायक
——
कोई बहुरूपिया है
कोई विदूषक
कोई मूर्ख है
तो कोई हत्यारा
धूर्त भी हैं यहाँ
और बलात्कारी भी
होड़ सी मची है इनमें हमारे नायक बनने की
हमारा ठप्पा भी इन्हीं में किसी को नसीब होता है
हम तर्क-कुतर्क भी इन्हीं के पक्ष-विपक्ष में गढ़ते रहते हैं
इस विकल्पहीन समय में माफ करना भगत सिंह
हम भी उसी मुल्क के नागरिक है जिसकी शान हो तुम
2. दर्जी
आदमी तो वह तब भी नहीं था
जब दर्जी था
लेकिन मुल्क की महान परम्पराओं की व्यवस्था ऐसी थी
कि संभावनाएं देखी जा सकती थीं
चाहे वो फर्जी ही क्यूँ न हो
झक सफेद
रंग बिरंगे
कड़क कलफदार
कपड़ों में
सलीके से कटी दाढ़ी लेकर
जब वह बीएमडब्ल्यू से उतरता है
तो छटा देखते ही बनती है
आजकल उसकी दुकान का नाम
बदल गया है
एक्सक्लूसिव है
दुनिया का एकलौता
सपनों का हाट
मासूम
भोले
मूर्ख
कुछ अर्द्ध विद्वान
कुछ पूर्ण विद्वान
सब पट गये हैं
यहाँ से वहाँ
इस हाट में
सौदागर मुस्कुराता है
सौदागर ठहाके लगाता है
सौदागर उपहास उड़ाता है
सौदागर नाचता है
सौदागर गाता है
और खरीददारों की लम्बी लम्बी कतारें लगी हैं
3. लोकतंत्र
अजब गजब समय आया है
जब
हमारा प्रेम कोई और तय कर रहा है
और नफरत
भी कोई और ही तय कर रहा है
हमारे जीभ का स्वाद कैसा होना चाहिए
किसी और ने तय कर रख्खा है
यहाँ तक की
हमारे लंगोट, कच्छे, बनियान भी कोई और ही तय कर रहा है
वो कहते है
बड़ी निर्लज्ज मुस्कराहट के साथ
सब ऊपरवाला तय कर रहा है
आप और हम होते कौन हैं
तो
महात्मनो
मेरी मुहब्बत कोई और कैसे तय कर रहा है
दोस्त दुश्मन
खाना पीना
हँसना रोना
कुरता पैजामा
कोई और कैसे तय कर सकता है
कोई जवाब नहीं है किसी के पास
एक बार
जब उनके भगवान विश्व भ्रमण को निकले
तो दोनों हाथों को आसमान की तरफ फैला के कहा
कि हमारा मुल्क
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है
4. जन्म दिवस
कायस्थ मनाते हैं राजेंद्र बाबू की जयंती
राजपूत महाराणा प्रताप की जयंती मनातें हैं
दिनकर जी को भूमिहारों ने आइकॉन बनाया है
और ब्राह्मण समय समय पर अपने आइकॉन बदलते रहते हैं
क्योंकि उनकी जाति ने तो हजारों सालों से नायकों की फौज तैयार की है
भगतसिंह को एक नेता वर्षों राजपूत मानता आया
और हमारे इलाके में उनकी जयंती मनाई जाती रही
जब इल्म हुआ तब बंद हुआ
आजकल बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती मनाई जाती है
शुक्र है कि जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते अपने नायकों को !
5. अफीम
झूठ का स्वर इतना कर्णप्रिय होगा
कभी सोचा न था
सबसे बड़ा संगीतज्ञ हारमोनियम से नहीं
तोप से ले रहा है अलाप
श्रोता मंत्रमुग्ध
दिमाग का दही कर दिया भेन्चो
कट्टे से बजा रहा है बेन्जो
और श्रोता मंत्रमुग्ध
क्या अफीम खिलाई है मालूम नहीं
इस चिलचिलाती धूप में भी
नशा है कि फट नहीं रहा
6. युद्ध में मासूम की अपील
पापा हमारे संग पतंग उड़ायें
माँ गुब्बारों के पीछे पीछे भागे
और दीदी हमारे संग खेले लुका छिप्पी
कि अब
खिलौनों की दुकानों से बन्दूकें हटा दी जाएँ
पटाखों की दुकानों से धमाके हटा दिए जाएँ
और
मास्टर साहब के हाथ से छड़ी
7. कभी कभी सोचता हूं
कितना अच्छा होता अगर
यारों के साथ
करता रहता गप्प
और बीत जाता यह जीवन
कितना अच्छा होता अगर
माशूक की आँखों में
पड़ा रहता बेसुध
और बीत जाता यह जीवन
लेकिन
वक्त ने कुछ और ही तय कर रखा था
हमारे जीने मरने का समय
मुँह अँधेरे से रात को
बिछौने पर गिर जाने तक का समय
और कभी कभी तो उसके बाद भी
कि अब याद रहता है सिर्फ काम
काम याने जिसके मिलते है दाम
दाम याने हरे हरे नोट
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दिया पहला प्रेम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दी यारों की एक फौज
और अब तो
भूल गया माँ को भी
जिसने दी यह काया
शर्म आती है ऐसी जिंदगी पर
कि कुत्ते भी पाल ही लेते है पेट अपना
और हमने दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
ऐसा कुछ किया भी नहीं
कभी कभी सोचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर दुनियादारी न सीखी होती
अनाड़ी रहता
और बीत जाता यह जीवन
8. मुम्बई
एक करोड़ की आबादी
चालीस लाख झुग्गियों में
और
दस लाख फुटपाथ पर
यानि
आधी जिन्दगियाँ फाकेहाली में
और
इसी शहर में
कुछ ऐसे रहनुमा भी हैं
जिनके फकत एक रात का खर्च
फुटपाथियों की जिंदगी भर की कमाई
कोई बताए
आखिर किसने लिखा है
इस देश की आर्थिक राजधानी का अर्थशास्त्र
9. अच्छे लोग!
मैंने कहा
करोड़ों लोग भूखे हैं
उन्होंने कहा
तो?
मैंने कहा
रोज-ब-रोज आ रही है बलात्कार की खबर
उन्होंने कहा
तो ?
मैंने कहा
हत्याएँ बढ़ रही हैं दिन ब दिन
उन्होंने कहा
तो ?
मैंने कहा
आपकी जीभ मेरी थाली तक आ रही है
उन्होंने कहा
तो ?
मैंने कहा
आप भोसड़ीवाले हैं
उन्होंने कहा
तो ?
मैंने कहा
शहर में आसाराम बापू आ रहे है
उन्होंने कहा
अच्छा
10. गणित
गणित का सवाल कभी सरल नहीं रहा
न ही स्कूल में ना ही दुनियादारी में
जितना डरा उतना सताया इस नामाकूल ने
फिर भी
पिता की फटकार और शिक्षक की दुत्कार के साथ
स्कूल तो निपट ही गया जैसे तैसे
अब जो आगे है
जीवन की कक्षा है
और इसे बंक करूँ भी तो कैसे
बिना सूत्रों
हल करना है
यह गणित
गुरु जी कहाँ है आप
बाबूजी कहाँ है आप
11. हम जिस देश के वासी हैं
धान गेहूँ सूरज चाँद मिट्टी पानी
बाद में आता है यहाँ
आँसुओं के लिए मशहूर
मगरमच्छ पहले आता है
हम बड़े शातिर पुरुष हैं
जो मुद्दा ही बदल देते हैं
कई दिनों से पत्नी का चप्पल टूटा है
हम मुस्कुरा के कहते हैं
आप कितनी हसीन हो
यहाँ भावनाएँ मुद्दों पे भारी पड़ती हैं
बड़े शातिर पुरुष हैं हम
और हमारा निजाम नामर्द थोड़े ही है
महापुरुष है भाई महापुरुष
12. लौटना
इन्हीं कदमों से
आबाद था कोई रास्ता
हमने भुला दिया
उसी रास्ते से थी पहचान हमारी
हमने भुला दिया
आज चैड़ी सड़कों की धूल
हमारे तलुए को गुदगुदाती है
एक बार
जब फिर लौटने की चाह ने
बेचैन किया
मैंने स्वप्न में देखा
पुरानी पगडंडियाँ हमसे पूछ रहीं हैं
तुम कौन?
13. प्रेम
कबूतरों वाला जमाना गया
प्रेम फिर भी बचा रहा
जमाना तो संदेशियों वाला भी चला गया
प्रेम फिर भी बचा रहा
यहाँ तक की चिट्ठियों वाला भी जमाना गया
प्रेम फिर भी बचा है
साइबर युग का प्रेम अभी जारी है
कभी कभी तो जलन सी होती है
इस युग के मुहब्बतियों से
एक दिन यह युग भी चला जाएगा
प्रेम फिर भी बचा रहेगा
14. पहली बार
पहली बार पिता के जेब से
रुपये निकालते
हाथ काँपे थे
आगे यह डर जाता रहा
पहली बार साइकिल की फुल पैडिल लगाते
पाँव काँपे थे
आगे यह डर भी जाता रहा
पहली बार होठ चूमते
काँपे थे होठ
आगे यह डर भी जाता रहा
पहली बार केमिस्ट की दुकान पर
कंडोम खरीदते
पूरा जेहन ही कांप गया था
आगे यह डर भी जाता रहा
कोई भी डर स्थाई नहीं होता
और पहली बार का अभ्यास हो नहीं सकता है
बेहतर है डर को रोमांच पढ़ा जाय
और पहली बार होने वाली चीजों के इंतजार में जिया जाय
15. भूल
बहुत पानी था उसके चेहरे पर
मैंने
वहां अपना नाम लिखा
बार बार लिखा
और यह भूल
ताउम्र करता गया
(कवि राजेश कमल, जन्म- 02 -October -1975(सुपौल ) कुछ वेब और लघु पत्रिकाओं में कविताएँ, जसम से संबद्ध अभी क़रीब २० वर्षों से पटना में सांस्कृतिक सक्रियता । संपर्क : 9304033554
टिप्पणीकार सुधीर सुमन लेखक-संस्कृतिकर्मी, जन संस्कृति मंच में 25 वर्षों से अधिक समय से सक्रिय। संपादक, स्तंभ लेखक, आलोचक-कवि-रंगकर्मी। फिलहाल समकालीन जनमत के संपादक मंडल का सदस्य और जसम, बिहार का राज्य सचिव। संजीव और यशपाल की कहानियों पर शोध। विगत ढाई वर्ष से झारखंड के एक काॅलेज में अतिथि शिक्षक के बतौर अध्यापन।
सम्पर्क: 09431685572)