सोनी पाण्डेय
कविता मनुष्य की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। वह संसार के दुःख को महसूस करता है और कभी गीत, कभी ग़ज़ल तो कभी किस्से, कहानी के रूप में अनुभव जगत की उस अनुभूति को व्यक्त करता है।
राहुल द्विवेदी की कविताएँ द्वन्द, यथार्थ और अन्तर जगत की छटपटाहट से उपजी कविताएँ हैं। इस बात का ज़िक्र करना यहाँ ज़रूरी है कि छात्र जीवन से कविता/कहानी लिखने वाले राहुल द्विवेदी का साथ लेखन से लम्बे समय तक पत्नी की कैंसर की बीमारी के कारण छूटा रहा। अपने सामने किसी प्रियजन की बेहद तकलीफ़देह बीमारी, नौकरी, घर, बच्चों की जिम्मेदारियों के बीच राहुल से कविता/ कहानियों के साथ- साथ साहित्य की दुनिया से सम्पर्क ही छूट गया।
पत्नी पूर्णिमा की मृत्यु के बाद राहुल ने एक कविता लिखी ” मैं ,तुम और ईश्वर”, इस कविता में वह लिखते हैं-
मैं
यानि दंभ
या फिर पुरुष?
दोनों की ध्वनि
अलग हो सकती है
पर अर्थ?
भटकता ही रहा यों ही व्यर्थ..।
उपरोक्त कविता में एक पुरुष की आत्मस्वीकारोक्ति, प्रश्न,द्वन्द, घुटन,संत्रास का जो वितान है उसे पढ़ते हुए बार – बार निराला की सरोज स्मृति याद आती है। पत्नी के जाने के बाद एक पुरुष जीवन के जिस सन्नाटे में घिरता है उसका मूल्यांकन उसे आत्मग्लानि से भर जाता है, यह बात राहुल की इधर की तमाम कविताओं में देखी जा सकती है। नींद शीर्षक कविता में लिखते हैं-
उस समय
अजीब लगता था
जब सुनता था
किसी से
कई रातों से सोये नहीं हम
सोचता था
लोग सहानुभूति के लिए
कितना झूठा संसार रचते हैं
नींद तो स्वाभाविक क्रिया है
आ ही जाती है कमबख्त
बिना किसी रूकावट के मुसलसल
पर किसी चीज के खोने के बाद ही
समझ आती है उसकी कीमत…
उपरोक्त कविता में नींद को सहज क्रिया मानने वाले राहुल बड़ी ईमानदारी से स्वीकारते हैं कि किसी स्नेहिल साथ के छूटने के बाद जीवन से सुकून और चैन कैसे छूट जाता है ! नींद न आने की बेचैनी कैसे अवसाद में ढल जाती है ! हर क्षण स्थायी अनुपस्थिति सालती है।
दरअसल कविता जीवन संघर्ष के बीच एक उम्मीद की तरह है जो हमें एक सकारात्मक राह दिखलाती है। राहुल की कविताओं से गुज़रते हुए यह बात बार-बार सामने आती है।
राहुल द्विवेदी की कविताएँ
1. नींद
उस समय
अजीब लगता था
जब सुनता था
किसी से
कई रातों से सोये नहीं हम ।
सोचता था
लोग सहानुभूति के लिए
कितना झूठा संसार रचते हैं
नींद तो स्वाभाविक क्रिया है
आ ही जाती है कमबख्त
बिना किसी रुकावट के मुसलसल ।
पर
किसी चीज के खोने के बाद ही
समझ आती है उसकी कीमत
वह ‘प्रियतम’ हो या फिर
ख्वाबों में उसे दिखाने वाली
नींद ।
अब
कई कई रातें
ज्यों ज्यों बीती हैं
पलकें बोझिल होती गईं
रातों की तरह …
रातें हो गई हैं
जेठ की दुपहरिया अब
जैसे उसकी तपिश में
फट जाती है धरती
कुछ वैसे ही फैल जाती हैं
आँखें
गहराती रातों के साथ
नींद
दूर सफ़र पर निकले उस साथी की तरह हो गई है
जो मिलने का वादा कर
गायब है कई चाँद-रातों से।
2. वेणी
(1)
उस रास्ते पर–
जहां से मुड़ता हूँ
मैं घर के लिए …..
एक चौराहा है
जहाँ मिलती है लाल बत्ती
बहुत लंबी —–
उदासियों जैसी ।
एक वृद्धा
मोंगरे की वेणी ले
हर कार के दरवाजे पर
दस्तक देती थी
जिन्दगी की तरह ।
लोग या तो स्वीकार करते
या फिर नकारते
और वह चली जाती
दूसरे दरवाजे पर
दस्तक देने-
समय की तरह….. ।
(2)
उस दिन ,
उसने मेरे दरवाजे
दस्तक दिया
मैंने मुस्कराते हुए कहा
क्या है अम्मा !
उस ने बढ़ा दिया
एक वेणी मेरी तरफ ।
और बोली –
बेटा ! बस तीस रुपये
की है ।
अब ! क्या करूंगा मैं …. ?
उस ने अपने मतलब का सुना
और मुस्करा उठी…..
सलज्ज , निर्मल
फिर फुसफुसा गई मेरे कानों में … !
यदि प्रिया रूठी होगी तो
मान जायेगी
और यदि मानती है
तो प्यार और बढ़ जायेगा
मैं क्या कहता
अपना दुखड़ा क्या रोता
चुपचाप वेणी ली
वह मुस्करा कर चली गई
इस बार जिन्दगी की तरह ।
वह वेणी
बगल के सीट पर
पड़ी-पड़ी मुरझा चुकी है
उसकी सूखी पंखुड़ियों में
कुछ महक बाकी होगी शायद …।
(3)
वह चौराहा अब भी
पड़ता है हर
रोज ….
लाल बत्ती लंबी होती है
उसी तरह —
………………. ।
पर अब ,
दो किशोर वय बच्चियाँ
खट खटाने लगी हैं दरवाजे
वेणियों के साथ …..
जबकि मेरी आँखें
आज भी
ढूंढती हैं उस वृद्धा को ,
उसकी मासूम मुस्कराहट को,
महज तीस रुपए मे
महकती वेणी और अपनी ज़िंदगी को …।
3. रास्ता
इतना लंबा रास्ता
कि जो जन्म जन्मांतर तक
जाता हो ,
पाप पुण्य के हिसाब-किताब
के साथ —
तय ही नही कर सकता ..।
मैंने तो तुम तक पहुँचकर ही
खत्म कर दिया युगों -युगों का हिसाब…
4. हर रोज़
सोचता था कि
मैं भी
लिखूंगा कुछ नया सा
हर सुबह
कि सुबह की सुनहली धूप
घास पर बिखरे मोती
मैं भी निहारूँगा
अपनी नजर से
हर रोज़ ….।
पर….
हर रोज एक कविता ?
हो न सका…
कमबख्त !
महीनों हो गए
कुछ सोचे हुए
कुछ लिखे हुए
मैं
विचारशून्यता को
जी रहा हूँ अब
समय के साथ साथ..
5. चूँकि पुरुष रोते नहीं हैं !
(1)
याद आता है मुझे
कि बचपन में,
भाई के गुजर जाने पर ,
जब आँसू छलक ही आए थे
पिता की आंखों में …
हौले से कंधे को दबाकर
रोक दिया था बाबा ने…
और कहा था
तुम पुरुष हो…
देखना है तुम्हें बहुत कुछ
संभालना है परिवार
और जंग लड़नी है तुम्हें
बनना है एक आदर्श…..
इसलिए गांठ बांध लो तुम
पुरुष रोते नहीं हैं.
(2)
बाबा को निश्चित ही
परंपरा में मिला रहा होगा
यह सबक….
पीढ़ी दर पीढ़ी
सतत…
शायद इसीलिए वो,
जूझते रहे ताउम्र……
अपने आपसे,
अपनी बेबसी से,
गरीबी से ….
चूंकि वह एक पुरुष थे,
(और पुरुष रोता नहीं है भले ही झुक जाएँ उसके कंधे)
वो हमेशा दिखते रहे एक चट्टान की तरह…
उनका चेहरा हमेशा रहा भावना शून्य
जबकि आजी,
कितनी ही रातों को सिसकती रही
उस घटना के बाद …
पर,
नामालूम क्यों
मुझे आज भी रात के सन्नाटे में
सुनाई देती है एक हूक
अक्सर—
जैसे कि घोंट ली हो
किसी ने अपनी आवाज ….
निश्चय ही वो हूक
मुझे लगता है
बाबा की है,
जो सुनाई देती है बदस्तूर
लमहा दर लमहा
साल दर साल
उनके चले जाने के बाद भी……..
(3)
इधर जज़्ब हो गए
आँसू पिता के……
चूंकि उन्हें देखना था परिवार
संभालना था छोटे भाइयों को
बूढ़ी माँ को,
उस बाप को भी—
जो कि था एक पुरुष….
और हाँ,
अपने परिवार को भी…….
सचमुच—-
नहीं देखा मैंने कभी
रोते हुये अपने पिता को
जबकि,
ये महसूसा है मैंने
कि अचानक बूढ़े हो गए
उस दिन के बाद से वो…….
बेसाख्ता ठहाके नहीं गूँजते अब घर में
कुछ कुछ कठोर से हो गए हैं
मेरे पिता….
गुमसुम से रहने लगे हैं वो
अब…..
ना जाने क्या क्या ढूंढते रहते हैं
किताबों में,
कोई पुराने पन्ने
जिसमे छिपी हो कोई मुस्कान
शायद……
और फिर चुपके से
देख लेते हैं सूनी निगाहों से
आसमान की तरफ.
(4)
बचपन में मुझे भी
समझाया था उन्होनें कितनी बार
नहीं रोते इस तरह…
जब मैं मचल उठता था किसी बात पर
और चुप हो जाता था मैं
ये सुनकर कि,
पुरुष रोते नहीं हैं….
पर मालूम है- मेरे पिता !
तुमसे छिप कर,
न जाने कितनी – कितनी बार,
बाथरूम में खुले नल के नीचे ,
गिरते पानी के धार में
धुल गए हैं मेरे आँसू…
जब मैं हारता था
अपने आप से .
……..और उस बार तो,
खूब रोया था सर रख कर
पत्नी के कंधों पर
जबकि वह थी बीमार
बहुत- बहुत बीमार….
पर आश्चर्य है !
वह बन गई थी एक पुरुष उस क्षण……
उसके कमजोर कंधे हो गए थे बलिष्ठ—-
उसने ही,
हाँ सचमुच उसने ही
पोछे थे मेरे आँसू—
ये कहते हुये एक फीकी हंसी के साथ
कि कुछ नहीं होगा मुझे……
(5)
क्षमा करना मेरे पुरखों !
मैं रोक न सका अपने आँसू
और अक्सर ही——
मैं नहीं दे पाता सांत्वना
अपनी पत्नी को,
या फिर किसी भी स्त्री को
जब वह रोती है
तब मैं नहीं बन पाता पुरुष
छलक ही जाते हैं मेरे आँसू
उनके आंसुओं के साथ…।
हे पूर्वजों ,
फिर से क्षमा करना मुझे !
कि नहीं रोक पाता मैं बेटे को
जब रोता है वह, तब……
नहीं बताता मैं उसे
कि पुरुष हो तुम
और पुरुष रोते नहीं है !
जी हाँ ,
नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
हावी हो उस पर….
रात के अंधेरे में अकेले वह जब भी निकले बाहर
तो सहम जाय
जैसे कि बेटियाँ……..
(6) मैं, तुम और ईश्वर
(1)
मैं
यानि दंभ,
या फिर पुरुष ?
दोनों की ध्वनि
अलग हो सकती है
पर अर्थ ?
भटकता ही रहा यों ही व्यर्थ….. !
तलाशता रहा प्रकृति
जो ठहर गया अनायास —
तुम तक आ कर….. ।
और तुमने —
लाकर रख दिये सारे रंग
मेरी गोद में ……
जिससे सिंझता रहा तुम्हारा
समर्पण …..
और फलता रहा मेरा पौरुष ….!!
(2)
तुम
प्रकृति थी
तुम
धारिणी थी…
सब कुछ धारण किया
बिना किसी प्रश्न के चुपचाप…।
कहती थी अक्सर ही–
स्त्रियों और धरती में
यही समान है ,
कि जैसा बीज दिया–
वैसा का वैसा अंकुरण लौटाया
बिना राग द्वेष के…।
धारण करने की विलक्षणता
बनती गई तुम्हारी कमजोरी
तुम धारण करती रही
तमाम दुश्वारियां
और जज्ब करती रही
अंदर तक बहुत गहरे ….
सहती रही पीड़ाएँ –-
और पूजती रही पत्थरों को,
कि पुरुष और संतति बने रहे….
बदले में लेती रही उनके हिस्से
की भी पीड़ाएँ सघनतम रूप में…..
सम्भालते और
सँवारते अपना नन्हा
आकाश ,
खुद ही, एक दिन
विलीन हो गई
धरती–
धारिणी में …।
(3)
तुम्हें
छीन कर मुझसे,
खुश तो
ईश्वर भी न हुआ होगा
न ही उसे मिला होगा कुछ
अप्रत्याशित…..
किसी ने दंड भी तो न दिया —
इस जघन्य
अपराध के लिए उसे ?
मैं भी नहीं ले पाया
कोई भी बदला
उस तथाकथित ईश्वर से …।
कितनी अजीब सी बात है –
शनैः – शनैः …..
समय के साथ-साथ
भुला दिया जाता है दोष
उस हत्यारे का ….
जिसे सब
ईश्वर कहते हैं …..।
अब ईश्वर और
पुरुष याकि कापुरुष …..?
अभिशप्त हैं
अपने अपने अकेलेपन के लिए ।
(कवि राहुल द्विवेदी
मूल निवास : जौनपुर
शिक्षा : परास्नातक (रसायन शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
जन्मदिन :पाँच अक्टूबर
सम्प्रति :अवर सचिव, दूर संचार विभाग,भारत सरकार
{पूर्व में आकाशवाणी, इलाहाबाद से प्रसारित एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित ।लम्बे समयान्तराल के बाद लेखन मे पुन:सक्रिय ।
सम्पर्क : rdwivedi574@gmail.com
टिप्पणीकार सोनी पाण्डेय। पहली कविता की किताब “मन की खुलती गिरहें”को 2015 का शीला सिद्धांतकर सम्मान, 2016 का अन्तराष्ट्रीय सेतु कविता सम्मान, 2017–का कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित ” माँ धनपती देवी कथा सम्मान”, 2018 में संकल्प साहित्य सर्जना सम्मान, आज़मगढ से विवेकानन्द साहित्य सर्जना सम्मान, पूर्वांचल .पी.जी.कालेज का “शिक्षाविद सम्मान”,रामान्द सरस्वती पुस्तकालय का ‘पावर वूमन सम्मान’ आदि से सम्मानित कवयित्री सोनी पाण्डेय का ‘मन की खुलती गिरहें’ (कविता संग्रह) 2014 में और ‘बलमा जी का स्टूडियो’ (कहानी संग्रह)2018 में प्रकाशित इसके अतिरिक्त कुछ किताबों का संपादन. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.
ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com
ब्लाग: www.gathantarblog. com)