विनय सौरभ
राही डूमरचीर की कविताएँ पढ़ते हुए कुछ साधारण चीज़ें असाधारण तरीक़े से उनकी कविताओं में आती दिखती हैं। जैसे उनकी कविताओं के विषय। उनके पास अपने सामाज और प्रेम को देखने की एक विरल दृष्टि है, वे उन्हें जिन रूपकों में बांधकर देखते हैं, वह हमें विस्मित करता है।
सच मानिए, मुझे पहली बार एक ऐसा कवि मिला जो अपने कहने- लिखने और जीने को लेकर किसी द्वंद्व में नहीं दिखा। उन्होंने झारखंड के एक शहर दुमका पर कुछ छोटी-छोटी कविताएँ लिखी हैं। पहली बार जब इस कवि की इन कविताओं को पढ़ा था तो मैं बौरा- सा गया था। किसी जगह को देखने, उसके प्यार में पड़ने और उसे उसी सरलता से व्यक्त कर देने की उनकी कला पर मैं मुग्ध था। दुमका मेरा भी शहर है पर मैं कहाँ देख पाया था इसको इस तरह से ..
दुमका नहीं आता
तब पता ही नहीं चलता
बोलने में थोड़ा सुर मिलाने से
गीत बनता है
चलते हुए थोड़ा हिलने से नृत्य बनता है
दस कविताएँ उन्होंने दुमका पर लिखी हैं। यह शहर कितनी जीवंतता से उनके भीतर धड़कता है। देखिए- छोटे छोटे बिम्ब है वहाँ । इस शहर के प्रति कवि मन के सम्मोहन को बहुत गहरे और आत्मीय तरीक़े से पाठक महसूस करता है। कवि अपने एक दोस्त को फ़ोन करके पूछता है कि
क्या कुएं का पानी का स्तर
अब भी उतना ही है ऊपर?
जवाब पाकर वह आश्वस्त होता है और सोचता है कि उसका शहर अभी भी बचा हुआ है।
राही डूमरचीर की संवेदना के केंद्र में ऐसी ही चीज़ें मौज़ूद हैं जो किसी को भी साधारणतया दिखाई न दें। वह कहते हैं –
दरख्तों को उनके नाम से
न पुकार पाना
अब तक कि हमारी सबसे बड़ी
त्रासदी है
वे सखुआ के पेड़ देखना चाहते हैं और उसे उसके नाम से बुलाना चाहते हैं । प्रकृति का सौंदर्य अपने पूरे वैभव में झारखंड में बिखरा पड़ा है पर कितने कम पेड़ों फूलों -पत्तियों को हम उनके नाम से जानते हैं ? अपरिचय का यह बोझ हमारे भीतर कोई ग्लानि नहीं जगाता ! लेकिन कवि के भीतर यह बोझ लगातार हमें दिखता है और एक कचोट हमारा भी पीछा करती है।
सरई फूल एक ऐसी ही बड़े प्रभाव वाली प्रेम कविता है जिसमें अनोखे ढंग से कवि इस बात को कह पाता है –
एक पेड़ से सामने रुक
तोड़कर फूल उसकी डाली से
अपने जुड़े में खोसते हुए
पलट कर कहा मुस्कुराते हुए
“अब चाहोगे भी तो
भुला नहीं पाओगे”
आह ! राही की यह शैली और कहन का यह अंदाज़ हमें अभिभूत कर डालता है। कवि के पास प्रेम पर लिखने के लिए अनोखे बिम्ब हैं। उनके पास सरल ढंग से अपनी भावनाओं को शब्द देने की कला भी है –
तुम्हारे रंग में रंग कर
कौन से रंग का हो जाता हूँ
दुनिया को उसी रंग के झंडे में देखना
चाहता हूँ
यहाँ पर उनकी यह कविता “तुम्हें सोचता हूँ” पढ़िए। ये प्रेम कविताएँ हमें एक अनिर्वचनीय सुख और जीवन दृष्टि से वह हमारा परिचय कराती हैं।
राही की एक कविता है- “हम लौट रहे हैं ”
यह थोड़ी लंबी कविता है। कवि की जैसी चिंता अपने आदिवासी समाज को लेकर बार-बार मुखर होती है और वे परेशान दिखते हैं, वे चिंताएं वे सवाल यहाँ इस अकेली कविता में पूरी तरह पारदर्शी हैं –
आँखों पर इतना प्यार बरसाने वाले
तुम लोग ऐसी आँखें कहाँ से लाए
जो पहाड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
नदी देखती हैं तो पैसा देखती हैं
पेड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
हमें देखती हैं तो पैसा देखती हैं
झारखंड में पहाड़ों का धीरे-धीर क्षरण
नदियों से रेत का गायब होते जाना
पेड़ों का लगातार कटना , राही की कविताओं में किसी न किसी रूप में बार-बार आते हैं। ये चिन्तायें, यह हताशा इन कविताओं में एक स्थायी भाव की तरह हैं। अपने प्राकृतिक वैभव और सौंदर्य के प्रति दिकू समाज(संथाल परगना में रहने वाले गैर आदिवासी लोगों को दिकू कहा जाता है) कवि को बेचैन करती दिखती है। यह आदिवासी जीवन और समाज के प्रति उनके कंसर्न को गहरे रूप में दिखाता है।
यहाँ प्रस्तुत कविताएँ इस बात की तस्दीक करेंगी ।
राही डूमरचीर की कविताएँ
1. इस दुनिया में ही
सारी उम्मीदों को तुमसे जोड़कर
खोना नहीं चाहता तुम्हें
बनाना-बिगाड़ना जिन्हें आता है प्यार में
वे किसी दूसरी दुनिया के होते होंगे
शायद अभी तक उनकी दुनिया में
काम के घंटे बाँधने की लड़ाई नहीं लड़ी गई
वहाँ दास प्रथा को दूसरे नामों से जाना जाता हो
हो सकता है वहाँ आज भी
बेहतर समाज का सपना देखने वाले
छुप-छुपकर मिलते हों
इसलिए तुम्हें न पा सकने की नाउम्मीदी
तुम्हें पा सकने की उम्मीद से बड़ी है
क्योंकि हमारे इस अपनी दुनिया में
बहुत नहीं
पर
लड़ाई बड़ी है
2. दुमका
एक खड़िया दोस्त का ख़त
(एक)
इससे पहले
महज़ उपराजधानी था मेरे लिए
अब मेरी रातों में
जागता है दुमका
अपने छोटे-छोटे धड़कते
सपनों के साथ
(दो)
नदियाँ जो चारों तरफ़ से
दुमका को घेरे हुए हैं
नदियाँ जो वीरान हो गईं
लूट लिया गया
जिनके बालू और पानी को
दुमका की कहानी कहती हैं
(तीन)
दुमका नहीं आता
तब देख ही नहीं पाता
कि दुनिया में इतने संताल भी बसते हैं
झारखंड के एक बड़े नेता के
आलीशान आवास के ठीक बाहर
अब भी एक वृद्ध संताल दंपति बेचता है हड़िया
(चार)
दुमका नहीं आता
तब पता ही नहीं चलता
बोलने में थोड़ा सुर मिलाने से
गीत बनता है
चलते हुए थोड़ा हिलने से
नृत्य बनता है
(पाँच)
दुमका नहीं आता
तब पता नहीं चलता
भूखे-प्यासे दुमका के हाथ
भात खिलाते हैं बंगाल को
बांग्ला कविताओं में हरियाली की वजह
कुछ यह भी है
(छह)
दुमका का पानी
दुमका के बाँध में रुकता है
पर जाता है बंगाल
बंगाल के खेत सींचता
रोता रहता है
दुमका
(सात)
बांग्ला साहित्य में
बारंबार आए दुमका के बंगाली,
दुमका में कम
‘सोनार बांग्ला’ में ज़्यादा जीते हैं
दुमका आज भी उनके लिए कॉलोनी सरीखा है
और वे यहाँ के बाबू साहब
(आठ)
दिकू होता जा रहा
बहुत भ्रमित है दुमका
मारवाड़ियों, बंगालियों, बनियों के बीच
अपनी पहचान को पाने के लिए
तड़प रहा है
दुमका
(नौ)
बाहर की छोड़िए
उपराजधानी होते हुए
राँची में अल्पसंख्यक है
दुमका
दुमका कहने से
राजधानी में आप
झारखंडी होने का बोध नहीं पा सकते
(दस)
बहरहाल, फ़ोन करता हूँ दुमका
पूछता हूँ—कुएँ में पानी का स्तर
क्या अब भी उतना ही है ऊपर?
जवाब पाकर होता हूँ आश्वस्त
कि अब भी बचा हुआ है
दुमका!
3. आख़िरी बार
(एक)
घर थमा हुआ-सा लगता है
वापस लौटने पर
बिखरी हुई चीज़ों के साथ
बटोरना पड़ता है ख़ुद को
तुम्हारी दी हुई एक घड़ी ही है
जो कभी नहीं रुकती
टिक-टिक करती
हमेशा आगे बढ़ती दिखती है
तुम आगे बढ़ गई हो
तुम तुम्हारी दी हुई घड़ी हो गई हो
(दो)
पिता प्रवासी थे धनबाद में
गाँव वापस लौट आए,
मेरे पैदा होने के बाद
फिर
नदियाँ धमनियाँ बन गईं
जंगल साँसों की हरियाली
और पहाड़ चिर सखा
फिर क्या जाता धनबाद
आज इसी शहर के
स्टेशन से
विदा ली तुमने आख़िरी बार
अब क्या ही जाऊँगा धनबाद
(तीन)
नहीं मिलना था,
पर मिल ही गए
फिर से राँची में
नहीं देखना था,
पर देखा
साथ-साथ प्रपात
नहीं जाना था,
पर गए
पत्थलगड़ी वाले
ख़ूबसूरत गाँवों में
साँसें इतनी हरी थीं
शाल की छाँव में
कि समझ ही नहीं पाया
रास्ते भटक रहे थे
जंगल-जंगल
या हम
राँची से
ट्रेन दुमका जा रही थी
शायद
इस बार मैं जा रहा था
आख़िरी बार
(चार)
साथ-साथ
देखा था बहते
तुम्हारे
कोयल-कारो को
फिर भी
तुम्हें बेहद पसंद थी
मेरे गाँव की बाँसलोई
किनारे बैठा
पसंदीदा चट्टान पे
बाँसलोई को देख रहा हूँ
मौज से बहते
कैसा नासमझ था
तुम्हें तो होना ही था नदी
और मैं चला था बाँधने
4. थोड़ी सी नमी (अप्रकाशित)
(1)
तुम्हारे रंग में रंग कर
कौन से रंग का हो जाता हूँ
दुनिया को
उसी रंग के झंडे में
देखना चाहता हूँ
(2)
थोड़ा और करीब आओ
कि मौसम बदले
दरमियाँ न झरें फूल
खिलें कहीं
रगों में दौड़े प्यार
आँखों को टपकना आ जाये
(3)
खटकर रात को लौटते हुए
दुर्घटनाओं से ज्यादा
आशंकाओं से रहता हूँ बेचैन
सोचते हुए
अपनों के बारे में
अपनों से दूर
तुम्हारे ख्याल से होता हूँ मुतमइन
जानते हुए मुअय्यन है एक दिन
(4)
एक नए कवि की
कविताओं पर
लिखना चाहता हूँ
तुमसे
थोड़ी सी
नमी चाहता हूँ
5. तुम्हें सोचता हूँ (अप्रकाशित)
(1)
तुम्हें सोचता हूँ
तो
नाज़िम हिकमत ‘पत्नी की चिट्ठी’ लिए
घूमने लगते हैं आस-पास
बालम के गेह आने की गीत
गाने लगते हैं कबीर
और तो और
मार्खेज़ के अफसानों के सारे किरदार
छेड़ने लगते हैं मुझे
चाहता हूँ स्थगित कर दूँ
सोचना तुम्हारे बारे में
ताकी मेरे साथ
तुम्हें भी तो चैन मिले
इतने सारे लोगों से
(2)
तुम्हें याद करता हूँ
तो
अमरूद की मिठास से भर जाता है मुँह
चिड़ियों की चहचहाहट से
गूंजने लगता है मन
तुम्हें याद करता हूँ जैसे
पीली साड़ी पहने बच्चियों का कोई झुण्ड
साइकिल चलाते गुज़र जाता है पास से
तुम्हें याद करता हूँ
जैसे नहीं याद करने को
खुद को याद दिलाता ही रहता हूँ
(3)
नदियों के पानी का न रुकना ही
पगाता है हजारों गांवों-शहरों को उनके प्यार में
नदियों को जैसे रोका नहीं जा सकता बहने से
बसंत को भी कहाँ रोका जा सकता है आने से
प्यार आता है
जैसे बसंत की थाप पर मांदर की गूँज
जैसे महुए की गंध के साथ पलाश का फूल
जैसे खूब साफ आसमान का कोई तारा
हमारा हो जाता है
प्यार जब भी आता है
मौसम कोई भी हो
बसंत लाता है
प्यार जाता नहीं
अर्थ बदलकर फिर आ जाता है
6. नाना की बाड़ी
जब से बुढ़ापा और बीमारी ने
हड्डियों की ताकत छीनी है
घर के पास पड़े
खाली जगह को ही
नाना ने अपना कार्य- क्षेत्र बना लिया है
वह अपना अधिकांश समय
यहीं गुजारते हैं
कहीं कुछ बैंगन के पौधे
सर उठाते सरसों के फूल कहीं
कुछ मिर्च और टमाटर की क्यारियां
तरह -तरह के साग
पालक पुदीना कहीं – यह सब
नाना ने खाली समय में
यहाँ लगाया है
अब उनका उठना बैठना
इन्हीं के साथ है
टमाटर की क्यारी में पानी देना है
सेम की लत ठीक करनी है
बैंगन के पौधे की भराई करनी है-
यही चिंता रहती है
मैं उनकी बाड़ी के बीच
खड़ा हो महसूस करता हूं
ये बैंगन के पौधे छाया तो नहीं देते
मगर आत्मा तक धंसे चले आते हैं
मिर्च, टमाटर और साग की हरियाली
दिल पर छाती चली जाती है
मैने जब भी उन्हें देखा
बाड़ी में व्यस्त देखा
पैर छूने गया तो
एक हाथ से आशीर्वाद और
दूसरे हाथ में खुरपी लिए देखा
सोचता हूँ
जब नाना नहीं होंगे
तब भी नाना की यह बाड़ी होगी
और मैं देखूंगा नाना को
एक हाथ से आशीर्वाद
और दूसरे हाथ में खुरपी लिए
7. बातें
(1)
बातों का थम जाना
रुकना होता है साँसों का
बातों का खत्म होना
उस सिलसिले को काट देता है
जन्म से ही हम जिससे नाभिनालबद्ध होते हैं
बातें खत्म होने से
माँस और खून का स्वाद चला जाता है
अस्थि-मज्जा बेजान हो जाते हैं
कि शिकारी जानवरों तक की
दिलचस्पी खत्म हो जाती है हममें
बातें खत्म इसलिए नही होतीं
कि सिलसिले को जारी रखा जा सके
जिया जा सके बहने की तरह
बातों का होना किसी का होना होता है
किसी का जीना होता है हमारी वजह से
(2)
बातें होती हैं
पर हम कह नहीं पाते
डरते हैं कि जुबान से ढुलककर
कहीं खो न दे अपना नमक
असल में जब बोल नहीं पाते
तब बेचैनी से ढूँढ रहे होते हैं सही तरीका
उसे कहने का
जैसे सद्य जन्मा बच्चा बोल नहीं पाने के कारण
रोना शुरू कर देता है
हम भी जब बोल नहीं पाते
तब रो रहे होते हैं
पर डरते हैं
कहीं आँखों से ढुलककर
स्वाद खो न दे अपना
(3)
बातें भी रोती हैं
कलपती-छटपटाती हैं
कराहती हैं
सिर पटककर जान दे देना चाहती हैं
जब वे खो देती हैं अपना असर
बेअसर होने का डर
मौत से भी पीड़ादायक होता है उनके लिए
पर ऐसा करती नहीं
वे कुरेद-कुरेद कर
अपनी केंचुली उतारती हैं
हासिल करती हैं नया रूप
अपने ही खिलाफ करके संघर्ष
झुठला देती हैं
वे बिसूरते रहने को
(4)
कहते हैं
एक बार बोली गई बात
अनंत काल तक रहती है जिंदा
और इस तरह हम रहते हैं जिंदा
अनंत काल तक
अपने स्याह-सफ़ेद वजूद के साथ
8. जवाब लिखना पड़ रहा है
पत्र आपका मिला है
साथ में ढेर सारे समाचार
आगे लिखा है आपने
दिल्ली से आने वाले अनौपचारिक पत्र
गुम हो जातें हैं पहुचने तक
अक्सर आने वाले फोन की जगह
पत्र का आना बेहद ख़ुशी देता है
पत्र आपका मिलते ही
जवाब लिख रहा हूँ
दिल्ली से मै
सोना कम हो गया है मेरा
घूमना फ़िरना
तबीयत से बातें करना भी
लगता है
किसी बड़े षड्यंत्र में
फांस लिया गया हूँ
नज़र में चढ़ी चकाचौंध की चादर से
नपता-नापता है हर कोई यहाँ
हर किसी के सुख-दुःख का पैमाना
अलग है और विरोधी भी
इसीलिए ‘अहस्तक्षेप’ प्रिय शब्द है
यहाँ के जीवन में
और ‘आत्मालोचन’ बुनियादी शर्त
भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी
बढ़ती कटुता
घटते पेडों की समस्या
का हल निकलने वाले
स्वयं कार में अकेले बैठे होने पर भी
बढ़ते ट्रेफ़िक पर
अफसोस और भड़ास जताने के
आदी हो चुके हैं यहाँ
सच कह रहा हूँ
कूदकर बस में चढ़ने
और कूदकर बस से उतरने के बीच
महसूस ही नहीं कर पाया
दिल्ली को कभी
इसीलिए मैं गाँव वापस आना चाहता हूँ
अपने अंदर के गाँव को
बचाना चाहता हूँ
9. टायर
संताल परगना का एक छोटा सा गांव
मेरा नानी घर ‘डूमरचीर’
जहाँ एक नौकर काम करता है
नाम है उसका ‘टायर’
सुबह पॉँच बजे उठता है
गोहाल की सफ़ाई से शुरु होता है
गाय और घोड़े की नाद में
पहले पानी फिर सानी की व्यवस्था करता है
मजबूत कंधो पर भरिया रख कर
घर में पूरे दिन का पानी इकट्ठा कर देता है
बासी भात और एक आम का अंचार
रोज़ नाश्ते में लेना पसंद करता है
बाड़ी की सफाई से क्रम आगे बढ़ता है
गायों और बछड़ों को दूर
पहाड़ पर छोड़ कर आता है
घोड़े पर बैठ पहाड़ से
महुआ कोचड़ा ढो कर लाता है
दोपहर के खाने में
भात के साथ दाल पसंद करता है
फिर खेत और खलिहानों में
मुश्तैदी के साथ डट जाता है
पूरा दिन कभी बैठता नहीं
“दिन भर टायर की तरह
घिसता है पर घिसता नहीं”
जब भी उससे पूछता हूँ –
कैसे हो टायर?
वह संताली में कहता है
‘अडी मौज’!मतलब ‘बहुत अच्छा’
आप ही बताइए एक आदमी
हर दिन हर पल
‘अडी मौज’ कैसे हो सकता है?
फिर उससे इतना काम करने पर भी
नहीं थकने का कारण पूछता हूँ-
बड़ी सहजता से
खैनी ठोकता हुआ
मेरे सवाल पर हंसने लगता है
मानों उसकी आँखें पूछ रहीं हों-
‘दूसरा उपाय…..’
10. बाँधकोय
संताल परगना के
पाकुड़ जिला के अमड़ापाड़ा प्रखंड में
डूमरचीर ग्राम पंचायत है
जिससे पाँच किलोमीटर दक्षिण
छोटी सी चढ़ाई पर
बाघापाड़ा गाँव आता है
फिर सखुआ के जंगल से गुज़रने पर
आता है बाँधकोय
जहाँ बाहा किस्कू और रिमिल टूडू के घर
एक असाधारण घटना
आज बेहद साधारण तरीके से रूप लेने वाली थी
बाहा गर्भवती थी
आज उनके बच्चे की होने की तारीख थी
सारा घर हड़िया की खुशबू से भरा पड़ा था
दादा और दादी की खुशी
बाप की खुशी से भी ज्यादा थी
अचानक जच्चा का चिल्लाना शुरू हुआ
दो-तीन घंटे हुए
चार-पाँच घंटे हुए
जच्चा का चिल्लाना बंद न हुआ
फिर किसी बड़े बुजुर्ग के कहने पर
खटिया पर लादकर
खेतों की पगडंडियों के ऊपर से
बाँधकोय से बाघापाड़ा होते हुए
डूमरचीर लाया गया
दो घंटे के इंतजार पर मिली
सवारी से अमड़ापाड़ा पहुँच
बस से
पाकुड़ के जिला अस्पताल ले जाया गया
जच्चा बच्चे को लिए अंदर गई
बच्चा बाहर आया
पर
जच्चा अंदर ही रह गई
वे लोग फिर से वापस जा रहे थे
उस बच्चे के साथ-
पाकुड़ से
अमड़ापाड़ा
डूमरचीर
बाघापाड़ा होते हुए
बाँधकोय
11. उगाया जाता है शहर
दरमियाँ एक तालाब था
जो नदी सा बहता था
अब कंक्रीट के महल हैं दरमियाँ
जो पानी की कब्र पर उगे हैं
यूँ ही नहीं गँवाया
शहरों ने आँखों का पानी
चुराई हुई मिट्टी डालकर
सुखाया गया है
इंतज़ार किया है शिद्दत से
शहर ने
तब से सिलसिले हैं
प्यास के
तरसता है शहर पानी के लिए
दर-ब-दर भटकते हैं शहरी
आँखों में पानी की ख्वाहिश लिए
12. जिताती रहीं हार कर
जिसके होने से
ज़िन्दगी
बचपन की तरह
फुदकने लगती है
वही अंजान शहर की
सूनी गालियाँ हो जाता है
जिसके आने से
फिर से लौट आता है जादूगर
वही बारहा कोशिश से
आई रुलाई की तरह
हो जाता है
एक आदमी जो
एक स्त्री से प्यार करता है
बेइंतहा प्यार करता है
वह प्रेमी से
खालिस आदमी बन जाता है
सारी समस्याएँ यहीं से शुरू हुईं
आदमी ने स्त्री से प्यार करने का
दावा किया
दलील की तरह साबित की
अपनी मोहब्बत
उसके मुतमइन होने तक
उसने सारी तरकीबें अपनाईं
स्त्रियाँ हार कर इश्क में
जिताती रहीं प्रेमियों को
अनगनित तोड़े गए भरोसों के बावजूद
मौका देती रहीं आदमियों को
इस तरह
सहभागिता का एक युग जो शुरू हो सकता था
वह ताक़त के युग में बदल गया
13. तुम्हारा स्टेशन
तुम्हारे शहर के
स्टेशन से गुज़रते हुए
तुम याद आई
सामान्य कथन है यह
सामान्य ही होता सचमुच
इसमें गर तुम नहीं होती
स्टेशन से दिख रहे
ठीक तीसरी पहाड़ी के पीछे है
सखुआ के जंगलों से घिरा तुम्हारा गाँव
वहाँ जाने वाली
लचकती वह सड़क भी दिखी
और वह झरिया पर की टूटी हुई पुलिया भी
जहाँ ख़राब हो गई थी तुम्हारे गाँव जाते हुए बस
सवारियों की उकताहटों से बेख़बर
बतियाते ही रहे थे बेपरवाह
हर बार की तरह उस रोज
थाम कर रख लेना चाहता था
दूर पहाड़ियों से आ रही
मोती झरने की आवाज़ को
घर लौट रहे लोगों
चिड़ियों की चहचहाहट में
डूबती शाम को
थामे रहना चाहता था
मांदर पर थिरकते उस रात
नाचते हुए मेरी हाथ को थामे
तुम्हारे हाथ को
तुम्हारे गाँव से बहुत दूर
गंगा के दियारे में भाग रही है ट्रेन
भाग रहा है मन मांदर की थाप संग
तांग धितिंग धितिंग तांग
तांग तांग तांग धितिंग
धितिंग तांग धितिंग तांग तांग
14. हम लौट रहे हैं
रिमिल ने
सामने की तरफ दिख रहे
पहाड़ को दिखाते हुए कहा-
हमारी चिंता इसे बचाने की है
हँसी आई न?
तुम्हारे सभ्य चेहरे की
इस खास कुटिल मुस्कान को
समझने लगे हैं अब
हमें मुस्कुराहटों में ज़हर
घोलने की आदत नहीं
इसलिए समझते देर लगी
कितना कुछ समझते?
हमारे फुटबॉल के मैदानों को
कब तुमने क्रिकेट के मैदानों में बदल दिया
हम समझ ही नहीं पाए
मैदान में खेलने वाले
तुम्हारे लोगों की संख्या बढ़ती गई
हमारे फुटबॉल मैच को जितने लोग नहीं देखते
उससे कहीं ज्यादा तुम्हारे खेलने वाले होने लगे
एक ही मैदान पर बारह-बारह पिच बन गए
इस भीड़ में तुम लोग खेलते कैसे थे?
हम तो देखते हुए भी ओझरा जाते थे
हमें तो खुले आसमान के नीचे
एक मैदान पर एक ही मैच खेलना आता है
खेल ही तो है
सोच कर खेलते देखते रहे तुम्हें
पर खेल तो कहीं और रहे थे
जब तक समझ पाते
हम शहरों की पराई गलियों में धकेल दिए गए थे
अपने ही घर में परदेशी बना दिए गए थे
हमारे ही गांव, टोला, मुहल्लों से
हमारे लोग एक-एक कर ओझल होते गए
तुम्हारे तेजी से बढ़ते घरों की कतारों ने
हमारी ज़मीन पर
गलियों का सैलाब ला दिया था
तुम्हारी उन गलियों से गुजरते
तकलीफ होने लगी थी हमें
हमीं से बुलंदी चढ़ते रहे
और तुम्हारी आंखों में हमीं चुभते रहे
अरे हाँ,आंखों पर खूब गीत कविता लिखी हैं
तुमलोगों ने तो
तीर, कमान, झील, दरिया पता नहीं कितना कुछ कहा है।आँखों को?
ठग तक कहा है
हम ही नहीं समझ पाए
बार-बार ठगे जाते रहे
और तुम्हारे ही बनाए गाने
मशगूल हो अपने खिलाफ गाते रहे
आंखों पर इतना प्यार बरसाने वाले तुमलोग
ऐसी आँखें कहाँ से लाए
जो पहाड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
नदी देखती हैं तो पैसा देखती हैं
पेड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
हमें देखती हैं तो फायदा देखती हैं
सचमुच इतने कमाल की आंखें
कहाँ से पाई
कहो अपने गीतकारों से
कसीदें पढ़ें फिर से तुम्हारे इन मतवाली आंखों की
पूछो कि काले चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता काला चश्मा?
हमारे चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता?
हमारी नहीं तो
अपने ही घर के कालों की फिक्र कर लेते
जो बेचारे ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ लिखी गाड़ियों में
खुशियों से लहराते फिरते हैं
खैर
तुम्हारी तुम जानो
हमारा भी अब हम ही जानेंगे
जंगल,पहाड़,नदियों के उजड़ने से
सरना माँ नाराज़ हो जाती हैं
कोप बरसाने लगते हैं सिंग बोंगा
मिलों मिल पैदल चल कर
हम वापस लौट रहे हैं
तुम्हारी कभी न खत्म होने वाली गलियों से
अपने खुले आसमान में वापस जा रहे हैं
डरो मत
तुम्हारे काटे हुए पेड़ों का हिसाब
तुम्हारे बच्चों से नहीं मांगेंगे
ऑक्सीजन! हमारे हिस्से के पेड़
पहुँचाते रहेंगे उन तक
बस हो सके
तो अगली बार जब धूप में निकलो
अपने बच्चों को
इमारत की छांव और
पेड़ की छांव में
फ़र्क़ करना सिखाना
(कवि राही डूमरचीर, जन्म: 24 अप्रैल 1986 दुमका ( झारखण्ड)
दुमका (झारखण्ड) में शुरुआती तालीम के बाद शांतिनिकेतन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की।
वागर्थ, हँस, सदानीरा, चौपाल, समकालीन जनमत,प्रभात खबर, दैनिक भास्कर आदि में लेख, कविताएँ एवं अनुवाद प्रकाशित।
सम्पर्क: राजीव कुमार, प्राध्यापक, आर.डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर (बिहार)
मो.-7093196127
ईमेल: rajeevrjnu@gmail.com
टिप्पणीकार विनय सौरभ झारखंड के नोनीहाट, दुमका में जन्म. समकालीन कविता का जानामाना नाम हैं। अपनी ‘जिल्दसाज़’ और ‘बख़्तियारपुर’ जैसी कविताओं के लिए चर्चित रहे।
टी.एन. बी. कॉलेज, भागलपुर और भारतीय जनसंचार संस्थान,दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई। नब्बे के दशक में तेजी से उभरे युवा कवि. सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन. पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. झारखंड सरकार के सहकारिता विभाग में सेवारत
संपर्क:nonihatkakavi@gmail.com
फ़ोन: 7004433479)