रंजना मिश्र
बकौल राग रंजन वे ‘साहित्यकारों के मोहल्ले के ऐसे बच्चे हैं जो कभी कभी किसी दरवाज़े की घंटी बजाकर भाग जाते हैं.’ मेरा अपना अनुभव है कि ऐसे बच्चे बमुश्किल पकड़ आते हैं पर इनका मिलना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं होता क्योंकि इनकी जेबें अक्सर खूबसूरत कविताओं से भरी होती हैं ..
वैसे राग की कविताओं के साथ थोड़ा समय गुजारने के बाद यह प्रतीति होती है कि कविताओं और साहित्य की दुनिया में कुछ उपस्थितियाँ बेआवाज़ चुपचाप अपनी एकाकी यात्रा में निमग्न रहती हैं, अपने ही बहाव की मौज में बहती हुई नदी की तरह, आत्मलिप्त और निर्लिप्त पर अपने माहौल और सरोकारों से गहरे जुडी हुईं. कविताएँ और कविताओं का पाठ करना और ब्लॉग् लिखना इनके लिए अपनी व्यावसायिक पहचान से परे अपने अस्तित्व की सार्थकता ढूँढने का एक प्रयास भी है..
राग रंजन के पास संवेदना गझिन, अनूठी दृष्टि और अभिव्यक्ति की सहज सौम्यता है. बिना अतिरंजित हुए ये कविताएँ व्यक्ति और समाज के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं की ओर हमारी दृष्टि मोड़ देती हैं, कला का मर्म और सार्थकता इसी तथ्य में निहित है. ‘पलायन ज़दा मज़दूर को शहरी नसीहत’ कविता में वे कहते हैं :
‘वहाँ ज़मीन छोड़ आये हो
यहाँ आसमान का छप्पर भी उजड़ा हुआ है
नहीं ये कोई साज़िश नहीं है
तुम्हारे खिलाफ
तुम इतने ज़रूरी थे ही नहीं
इस शहर के लिए’
विस्थापन के इस अनछुए पक्ष को इतने कम शब्दों में बयान करना विरल अंतर्दृष्टि की मांग करता है.
‘एक गर्म दोपहर में’ को सिर्फ प्रेम कविता कह पाना मुश्किल जान पड़ता है क्योंकि समय सापेक्ष प्रेम की घुटन और संत्रास इसमें बेहद सघन है. यथार्थ के साथ चलते प्रेम का यथार्थ कब बदल जाता है यह इन शब्दों में मुखर है :
‘लॉन की मिट्टी में
चींटियों की एक रेंगती हुई लंबी कतार
देखता हूं कि सहसा खयाल आता है
कितनी हिंसक हों गई है अख़बारों की भाषा’
ये कविताएँ विरल अंतर्दृष्टि और ज़मीनी यथार्थ को बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों के धागे में इस तरह पिरोती हैं कि न यथार्थ ओझल होता है न ही कवि की अंतर्दृष्टि से कोई समझौता नज़र आता है. इन पंक्तियों पर ठहरकर मनन करना ज़रूरी सा लगता है, यथा –
‘हम लिखे जाएंगे अपने
प्रतिद्वंद्वियों की आत्मकथाओं में
अपने पूर्ण नग्न सत्य में
खुद की सच्चाई कहने के लिए
भाषा का कोई औजार नहीं है हमारे पास’
इन कविताओं को पढ़ते हुए हम अपने भीतर के एकांत की ओर मुड़ते हैं और काफी दूर चलकर कवि के धरातल पर पहुँच पाते हैं, धीमी विलंबित गति का संगीत जिस तरह धीरे धीरे अंतस में घर बनाता है ठीक उसी तरह. हालांकि भाषाई स्तर पर कविताएँ कभी कभी एकलय जान पड़ती हैं, जिसे कविता की विशेषता और कमी दोनों ही दृष्टियों से रेखांकित किया जा सकता है पर यह निश्चित है कि कविताएँ इससे नीरस नहीं होतीं, वे निरंतर अपने कथ्य और भाष्य से पाठक को चमत्कृत करती चलती हैं.
आने वाले समय में राग रंजन सिर्फ साहित्यकारों के दरवाज़े की घंटी बजाकर न भाग खड़े होंगे ऐसी आशा है क्योंकि उन्हें यह न भूलना चाहिए कि कवि समाज के होते हैं और दुरूह समय में अच्छे कवियों की उपस्थिति गहरी आश्वस्ति का बोध कराती है.
राग रंजन की कविताएँ
1. पलायन ज़दा मजदूर को शहरी नसीहत
नए आये हो बड़े शहर में –
देखकर चलो
ये सड़कें तुम्हारे लिए नहीं बनी हैं
गाड़ियों को गुजरने दो
बड़ी गाड़ी देखो तो थम जाओ
वहाँ ज़मीन छोड़ आये हो
यहाँ आसमान का छप्पर भी उजड़ा हुआ है
नहीं ये कोई साज़िश नहीं है
तुम्हारे खिलाफ
तुम इतने ज़रूरी थे ही नहीं
इस शहर के लिए
ये जो अन्याय का शक है तुम्हें
ये सब तुम्हारे मन के संशय से उपजे अनर्थ हैं
छुट्टी है, शायद कोई त्यौहार है शहर में
गुज़ार लो किसी तरह
कल सुबह फिर अपनी थकान की चप्पल
पहन कर चल देना काम पर
और तोड़ना अपने हिस्से के पत्थर
हड्डियों को हथोड़ा करते हुए
एक एक कर
मालिक… खुदा… किस्मत…
2. एक गर्म दोपहर में
मैं एक गर्म दोपहर के सन्नाटे में
कुम्हलाते हुए पौधे को देखता हूं
और मुझे याद आता है
चौंसठ दिनों से हम मिले नहीं
छह दिन हुए किसी अजनबी से
तुम्हारी बातें किये हुए
मैं जब लिख रहा होता हूं डायरी में
किसी और के बहाने तुम्हारी
तमाम छोटी छोटी बातें
अचानक सोचने लगता हूं
कितने दिनों से बारिश नहीं हुई
पेड़ों के पत्तों पर कितनी मिट्टी जम गई है
लॉन की मिट्टी में
चींटियों की एक रेंगती हुई लंबी कतार
देखता हूं कि सहसा खयाल आता है
कितनी हिंसक हों गई है अख़बारों की भाषा
अख़बार पढ़ते पढ़ते सोचने लगता हूं
ट्रेन में सफर करते मुसाफिरों के बारे में
जो बांट लेते हैं अपने अपने हिस्से की
बालूशाही और नमकीन
ऐसी ही एक गर्म दोपहर में
मैं आंसू और पसीने और नमक के
खारेपन के फर्क में उलझकर
तेज़ क़दमों से चलने लगा था
तब से आज तक मैं तेज़ क़दमों से चल रहा हूं
और मेरी दुनिया की तमाम जरूरी चीज़ें
मेरा पीछा कर रही हैं।
3. रात के रास्ते की आग
हम अंधेरों में खिलने वाले फूल हैं
बीहड़ की दर्दनाक हंसी हैं
जो अपने पागलपन में दुनिया की हया खो चुकी है
हम लिखे जाएंगे अपने
प्रतिद्वंद्वियों की आत्मकथाओं में
अपने पूर्ण नग्न सत्य में
खुद की सच्चाई कहने के लिए
भाषा का कोई औजार नहीं है हमारे पास
हम मीठे फलों के दरख़्त हैं
जंगल में खड़े
हमारे फल चुपचाप गिरकर बीज हो जाते हैं
हम पर कोई नहीं मारता लालच के पत्थर
हम अनाम गालियां हैं
हम वे घर हैं जिनके नंबर नहीं पड़े
हम रात के रास्ते की आग हैं
जिन्हें अंधेरे निगल नहीं पाए
हम स्वप्नों की स्मृतियां हैं
बंद आंखों में खुलती हुई।
4. कितने सारे सपने
कितने सारे सपने और पलकें खुलते सब गुम
स्मृतियां ऐसी शातिर कि स्वप्न को चकमा देकर
शून्य में विलीन हो जातीं
ठंडे बिस्तरों पर ठहरे रहते
दो कसमसाते अहसास, पेंडुलम से डोलते
इस शहर की रात से उस शहर की रात तक
होना तो यह था कि
स्वप्न एक जगह होती
महफूज़ उन दोनों के बीच
वे वहां मिलते, ठहरते, लौट आते
एक दूसरे की स्मृतियां समेटे
अपनी अपनी बे-जगह दुनिया में
कितने सारे लोग और सब के सब बस शरीर
शहर की विशाल फैक्ट्री में फिर फिर रोजाना फिर जुते हुए
हर पुर्जे की अलग आवाज़, एक समवेत वृहद कोलाहल रचती
कुछ पुर्जे एक दूसरे से चिपके हुए इस तरह
जैसे पुरानी मजबूर दो आदतें मुंबई लोकल के किसी
अनंत उदासीन सफ़र में चिपकी हिलती डुलती गुजरती हुई
हर देह एक दीवार, जिसके इर्द गिर्द होकर
संबंधों की मुर्दा ठंडक तक पहुंचा जा सकता
पर आत्मा की अकंप लौ तक नहीं
उन दोनों के बीच भी
देह एक दीवार
होना तो यह था कि
उन दोनों के बीच
देह एक द्वार होती
फैली बाहों और सिमटे सीनों के अबोध आलिंगन से होकर
एकात्म चेतना के साझा आलोक तक पहुंचने का
कितनी सारी बातें और कितना कम वक़्त
होना तो यह था कि
वे पहले बहुत पहले मिले होते
लेकिन सच शायद यही,
कि वे पहले बहुत पहले भी मिले हैं
कई दफा
पर इस तरह नहीं
(क्योंकि इस तरह तो कोई यूं ही नहीं मिलता)
होना दरअसल यह है एक दिन
कि दोनों जान पाएंगे
कि ज़िंदगी हमेशा अधूरे प्यार की तरह मिलती है
कि दोनों मान लेंगे
कि प्रेम परिभाषा नहीं अनुभूति मांगता है।
होना बस यही है ।
5. छुओ
अंधेरे को छुओ खुली आंखों से
उजालों को अपनी त्वचा के पोरों से छुओ
उचक कर छू लो लपकती टहनियों को
जड़ों को छुओ पीर बाबा की दुआ की तरह
कंधों से छुओ सूरज की पहली किरण
रुपहली सतह चांद की, अपनी तर्जनी से छुओ
छुओ कि छूना जुड़ने की संभावना है
छुओ कि जुड़ना ही नहीं होता सब कुछ
छुओ कि छूने से तुम रिसते हो ज़रा
ख़ुद को विस्मृति से जगाने की तरह
किसी अजनबी को एक नई याद की तरह
हौले से छुओ
छुओ
6. होना तो यूं था
होना तो यूं था
कि मैं अपनी तमाम उदासियों को
तुम्हारे भूले हुए प्रेम गीतों की तरह गुनगुनाता
किसी सुनसान गोल सड़क पर
सीटी बजाता चलता चला जाता
(कहीं पहुंचने की आकांक्षा
सफ़र के प्रति एक हिंसक क्रूरता है)
तब मैं
कल्पनाओं तक में निपट एकाकी होता
यथार्थ के आईने में भी खुद से अलग
मेरी आवाज के घेरों के बाहर
ठहर जाती मेरी तमाम असुरक्षाएं
मैं खुद
अपने लिए परिपूर्ण होता
हर क्षण में निर्लिप्त भरपूर बसा हुआ
पर आह यह तनाव जैसे
कल्पना और यथार्थ के बीच की
कसी हुई कोई रस्सी, जिस पर
सांस रोके खुद को संभालता हुआ मैं
इस खेल में स्वयं के हाथों
खेला जाता हुआ
जिसमें पहुंचना नहीं है कहीं
होना शायद यही है कि
या तो रस्सी लचक जाएगी
या मैं थक जाऊंगा आखिरकार
एक दिन
गिर पड़ूंगा अपनी ही ज़मीन पर
7. देखना
देखो जब ठहरना
ठहर कर देखना
दोनों आंखों से सधी दृष्टि से भांपकर
देखना सहसा रुकी बारिश की बूंदों को
दूब की नोक से वाष्प होते हुए
और इस तरह आकाश के गुरुत्व को देखना
दो आँखें जो कभी नहीं देख पातीं
एक दूसरे को
उनसे वह सब देखना जो
दो के एक साथ देखने लायक है
आकाश के अनहद कुएँ में झांककर
देखना मुक्ति के नए रास्ते
झपक भर में उतार लाना नयापन
ऊंचे तनों पर टिका देना हरे बादल
और इस तरह फिर बसे हुए वनों को देखना
पृथ्वी पर अपने आसपास
जिन्हें कोई नहीं देखता
उन्हें देखना देर तक देखना
8. पात्र
तुम सुन रहे हो कवि !
जिस बेघर के लिए
तुमने शब्दों का महल गढ़ा था
कल वही तुम्हारा पात्र
भूख से तड़पता
फुटपाथ पर पड़ा मिला था
जिस मजदूर ने, तुम्हारी कविता में
किया था विद्रोह
छटपटा रहा है आज वह
सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर
कल रात मशीन में
कट गया था उसका दाहिना हाथ।
यह कल की बात है
जब शब्दों में रची थी तुमने, सुनहरे कलम से
उस गरीब औरत की निश्छल हंसी
उस किसान का छोटा – सा घर
और बो दिये थे, उसकी नींद में
सतरंगी सपने !
अख़बार कहते हैं
कल रात तूफान में
तबाह हो चुका सबकुछ
इससे बेखबर तुम खोये हो
अब भी हसीन ख्यालों में
तुम्हें शायद नहीं पता
घिर चुका है तुम्हारा अपना ही घर
इस तूफान में
हां, यह सच है कि ईश्वर ने
तुम्हें अपने नाटक का
सबसे हसीन पात्र गढ़ा है
तुम सुन रहे हो न कवि !
9. हम मासूम
हम
सहमत होते रहेंगे हमेशा
सियासत की सब
दिलफरेब चालाकियों से
बहरे पत्थरों से
किया करेंगे
शोरीली फरियादें
और मनाएंगे हर पांचवे साल
अपनी उम्मीदों का
शोक पर्व
हम जो इतने मासूम हैं
कि बर्दाश्त की हदें भूल गए हैं
एक एक करके सौंप देंगे
अपनी सारी आज़ादी
एक दिन
10. आवाज़ें
घर से निकलती डगर पर
लौट आने की आवाज़ ठहरी रह जाती है
परछाइयों में छिपी होती है
उड़ते परिंदों की फड़फड़ाहट
दूरियों के परे भी मिलते रहने में
मिलते रहते हैं
परस्पर एकान्त के ठहरे हुए स्वर
आवाज़ों को भेदकर सुनना
है सुनना समय को
जैसे जड़ों के भीतर
पुनर्जन्म की सुगबुगाहट
साथ की हर टोह में
आगामी विस्मृतियों की आहट
11. साथ, समझते हो तुम ?
जो रोज विदा लेकर लौट आता है
कभी कभी कई बार एक ही दिन में
उसने दूर जाना सीखा ही नहीं
तुम सूरज- से रहना
रोज़ लौट आना
बादलों के बीच भी विश्वास-से उष्म
रातों के पर्दे में रहना उम्मीद-से गुम
सांस सदा साथ चलती है
जाएगी तो सब ले जाएगी
मैं, सांस समझता हूं
साथ, समझते हो तुम?
12. कहानी होती इमारत
वह जर्जर थी परित्यक्ता नहीं थी
इमारत थी एक बहुत ऊंची
उम्र के सुदूर पड़ाव पर
उसके बदन पर छाले थे बहुत
कुछ घाव गहरे जिनसे रिसता था ईंट रंग का खून
उन पर मरहम लगाती काई, घास
दरारों से उगती पीपल की कोंपलें
सब मिलकर उस इमारत का
बिसरा हुआ खानदान बसाते थे
दूर जा चुके थे इमारत में बसने वाले सब
लोग कहते, कुछ साये रहते हैं वहां
मुंहलगी खिड़कियों से झांक कर
वक़्त से चुगलियां करते जब तब
इमारत एक कहानी सुनाती थी
कहानी जो वह खुद थी
कहानी जो वह हो रही थी
खूब रिश्ता है पुरानी इमारत का कहानी से
समय के साथ हर इमारत सो जाती है
खो जाती है विस्मृति की लोरियों में
एक दिन इमारत नहीं रहती
कहानी रहती है हमेशा
(कवि राग रंजन, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक, पेशे से कंपनी सेक्रेटरी। लेखन स्वांतः सुखाय। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, ब्लॉग्स में रचनाएं प्रकाशित। कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। विगत दस वर्षों से बैंगलोर में रह रहे हैं। आजीविका के अतिरिक्त सामाजिक मनोविज्ञान (Transactional Analysis) में सक्रिय रुचि।
संपर्क: 9686694459
टिप्पणीकार कवयित्री रंजना मिश्र, 1970 के दशक में जन्म, शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध. विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाएँ में कविताएँ, कहानी, और लेख। शास्त्रीय संगीत और कलाओं से संबंधित ई पत्रिका – ‘क्लासिकल क्लैप’ के लिए संगीत पर लेखन. चार्ल्स बुकोव्स्की , तारा पटेल और कमला दास की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
साहित्य अकादमी की पत्रिका में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित। . सत्यजीत राय की फिल्मों पर लेखन और कविता संग्रह प्रकाशनाधीन. संपर्क: 7875626070)