समकालीन जनमत
कविता

प्रियंका दुबे की कविताएँ भारत की नई स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति हैं

देवेश पथ सारिया


इक्कीसवीं सदी के इक्कीस वर्षों में भारत के आम जनजीवन में बहुत फ़र्क़ आया है। इसका सबसे अधिक असर भारतीय मध्यमवर्ग पर पड़ा है। साहित्य के विभिन्न विमर्शों की नई परिभाषाएं भी इस बीच गढ़ी जा रही है। भारत में युवा स्त्रियों की एक पीढ़ी है जिसके संघर्ष अलग हैं। ये सुशिक्षित भारतीय लड़कियां हैं। इन्हें समझने के लिए एक नए दृष्टिकोण की ज़रूरत है। इनके प्रेम करने का ढंग अलग है। इनके विरह की अभिव्यक्ति निराली है। प्रियंका दुबे भारत की इसी नई स्त्री के प्रेम और विरह को दर्ज करने वाली कवयित्री हैं।

प्रियंका ने लंबे समय तक बीबीसी के लिए पत्रकारिता की है। अंग्रेजी में प्रकाशित उनकी रिपोर्ताज पुस्तक ‘नो नेशन फॉर वीमन’ चर्चित एवं पुरस्कृत रही है। हिंदी कविता में वे अपना पुराना लिखा दोहराने की अपेक्षा अंतर्मन की कविताओं को लिखने पर ध्यान दे रही हैं। वे भारत की युवा स्त्री के प्रेम को अभिव्यक्त करती हैं।

प्रियंका की ‘नाभि’ कविता इस बात का सशक्त उदाहरण है। रसायन शास्त्र के हमारे एक शिक्षक परमाणु और नाभिक का सिद्धांत समझाते समय उदाहरण देते हुए कहते थे कि नाभि मनुष्य के शरीर का लगभग मध्यबिंदु होता है। जब प्रियंका लिखती हैं:

“जब तुमसे प्रेम किया
तो दिल से भी पहले
नाभि से ही जुड़कर किया”

तो यहां उनका भाव हृदय की अपेक्षा, अपने अस्तित्व के संतुलन बिंदु पर प्रेमी को ठौर देना है। जब इस कविता में बिछोह का जिक्र आता है, तो शिशु का प्रसव होता है। गर्भनाल भी शिशु की नाभि से ही जुड़ी होती है।

प्रियंका ने ख़ूब यात्राएं की हैं। इनकी कविताओं में इन यात्राओं के ठिकाने हैं, वहां की प्रकृति है। और हर जगह प्रकृति के अपने करतब होते हैं, जो प्रेम के साथ गुंथकर कवयित्री की कुछ कविताओं में सामने आते हैं। इस तरह की कविता साधना मुश्किल है, क्योंकि कोई भी तत्व आनुपातिक मात्रा में थोड़ा सा इधर-उधर हुआ और संतुलन बिगड़ा। अभी तक प्रियंका दुबे यह संतुलन बना पा रही हैं। यह देखना होगा कि अपनी आगे की कविता यात्रा में वे किस तरह इस पतली पगडंडी पर चलेंगी। फिलहाल तो वे ‘हर की दून’ की बर्फ़ीली घाटी में रास्ता भी भटकती हैं, तो उस भटकाव में एक सार्थक कविता संभव कर जाती हैं।

‘स्त्री के पैरों पर’ एक महत्वपूर्ण कविता शृंखला है। यहां स्त्री के पैर, स्त्री-पुरुष संबंधों के मध्य रोचक संदर्भ बनते हैं। कहीं पैरों का अंतरंगता में प्रवेश होता है:

“बिस्तर पर यूं पड़े-पड़े ही
कंधे पर रख देती हूं एक पैर
उसी पैर के अंगूठे से फिर
तुम्हारे कान को गुदगुदाती हूं”

तो कहीं प्रियंका रेगिस्तान की धूल फांक, थकी हुई रिपोर्टर की पीड़ा बयान करती हैं। वहीं पुरुष मिट्टी में सने स्त्री के पैरों को चूम रहा है। पुरुष को अपनी मां के चिता पर रखे महावर लगे पैरों की स्मृति हो आती है और वह अपनी प्रेमिका को महावर लगाने से मना कर देता है। यह कविता श्रृंखला एक उत्सुकता छोड़ जाती है। कहां है ऐसे भारतीय पुरुष? इतने प्रेमिल, इतने प्रतिबद्ध? और यदि हैं, तो वे संख्या में बहुगुणित क्यों नहीं हो जाते? अच्छाई क्यों किसी संक्रामकता की तरह नहीं फैल जाती?

 

प्रियंका दुबे की कविताएँ

1. नाभि:

जब तुमसे प्रेम किया,
तो दिल से भी पहले
नाभि से ही जुड़कर किया था.

जब मित्र माना, तो भी नाभि से माना.
जैसे मेरा दिल नाभि में उतर आया हो?

जब मुक्ति की बारी आयी
तब भी,
दिल से पहले
नाभि से ही मुक्त करना पड़ रहा है तुमको.

मुक्ति के लिए जब नाभि खोलती हूँ अपनी
तो खून बहता है
बहता ही रहता है.

जैसे मैं तुम्हारी मुक्ति को नहीं,
बल्कि संतान को जन्म दे रही हूँ?

फिर इस असहनीय पीड़ा में तड़पते हुए सोचती हूँ
कि क्या गहरे बिछोह की अर्जना
संतान की अर्जना से कम है?

और यह कि
प्रेम से जन्मी संतानों वाली इस सृष्टि में
प्रेम की अनुपस्थिति से जन्मने वाली संतानों की
क्या जगह है ?

 

2. लाड़

उत्तरी ध्रुव के समंदर में तैरते
बर्फ़ के एक विशाल पहाड़ पर खड़ी हूँ
तुमसे हजारों मील दूर
बीते वर्षों का सारा एकांत ख़ुद में समेटे.

यहां,
हर रात सूर्योदय की उतनी ही प्रतीक्षा करती हूँ,
जितनी प्रेम की.

रात के तीसरे पहर जब बर्फ़ का यह पहाड़
तैरते-तैरते नाचने सा लगता है
तूफ़ानी समंदर में,
तब अक्सर लहरों के शोर से
नींद टूट जाती है मेरी.

लेकिन अंतिम स्वप्न की स्मृति
इन बर्फीली अन्धेरी रातों में भी
मेरा पीछा नहीं छोड़ती.

उस आख़िरी ख़्वाब में,
आसमान का एक टुकड़ा दिखाई पड़ता है.

हिंदुस्तान के उत्तर में
पराशर झील से सिर्फ़ थोड़ा आगे,
हम हरी घास पर लेटे हुए
आसमान का वही साझा टुकड़ा देख रहे हैं.

मैं भरी हुई हूँ इतना कि रो रही हूँ खुशी से.

ख़्वाब में,
जब मुझे लाड़ आता है तुम पर
तो जम चुका नारियल का तेल पिघला कर
तुम्हारे बालों में लगाती हूँ.

ख़ूब हंसती हूँ और कहती हूँ,
“कलमों में चाँदी के तार झांकने लगे हैं अब तुम्हारी”

हम इतना हंसते हैं फिर जैसे रो रहे हों.

लेकिन लाड़ के उस नर्म ख़्वाब से बाहर,
असल में तो मैं
यहां बर्फ़ के इस पहाड़ पर हूँ !

यहां,
काँच से दिखने वाले
बर्फ़ के इस टुकड़े के
सूरज में पिघल कर
पानी हो जाने तक ही है मेरी उम्र बाक़ी.

इसलिए तो,
हर रात इस बर्फ़ के पिघल जाने की आकाँक्षा में,
सूर्योदय की उतनी ही प्रतीक्षा करती हूँ
जितनी प्रेम की.

कभी कभी समझ नहीं आता
कि मैं तुमसे लाड़ कर रही हूँ
या अपनी मृत्यु से?

 

3. विरह का साझा कोयला

उस रात,
जब लौट रही थी
तो सारे रस्ते पेट में
कोई फावड़ा सा चलता रहा.

‘कमरे’ पर आते आते
तुम्हारे पथरीले वाक्य
मेरी नाभि के तल में
जमा हो गए थे.

सुबह उठी तो लगा जैसे
एक रात नहीं,
तीन सौ साल लंबी रात से जागी हूँ.

पेट में रात के आंसुओं का पानी
अब भी जमा था.

फिर उस रात के बाद आयी रातों में भी,
जब जलती ही रही मैं,
तब समझ आया
कि विरह की उस
तीन सौ साल लंबी रात को तो
मेरे नाभि में पड़े पत्थर सारे
कोयला बन गए थे !
और अतडियां सारी,
कोयले की खुली खदान में बदल चुकी थीं.

धरती की तरह ही
मैं भी
जन्मों की विरहणी हूँ,
इसलिए तो हमारी नाभियों में जमा
विरह का कोयला भी सारा
साझा ही रहा है हमारा.

पृथ्वी और मैं
अपनी अपनी धुरियों में
जलते ही रहते हैं,
साथ साथ, सालों साल.

लेकिन विरह का यह कोयला
ख़त्म ही नहीं होता.

 

 

4. ‘हर की दून’* का कुत्ता

‘हर की दून’ की बर्फीली घाटी में
रस्ता भटक गयी हूँ.

युधिष्ठिर की नैतिकता भले ही न हो साथ मेरे
लेकिन शायद कभी यहीं से गुजरी
पांडवों की अंतिम यात्रा की तरह ही
आज भी एक कुत्ता ज़रूर
मेरे आगे-आगे चल रहा है.

तो क्या यह मेरी भी अंतिम यात्रा है?
लेकिन पांडवों के उलट,
स्वर्ग की तो मुझे कभी आकाँक्षा ही नहीं रही !

और उसपर भी,
अगर द्रौपदी का अर्जुन से अतिरिक्त प्रेम पाप था
तो यह पाप मैं कितनी ही बार कर चुकी हूँ!

अपने सभी भले प्रेमियों को छोड़
इक तुम्हें
सबसे ज़्यादा प्यार करने का पाप !

अगर प्रेम पाप है,
तो उनकी ही तरह
सबसे पहले मर जाने को भी तैयार हूँ !

लेकिन यह प्यारा पहाड़ी कुत्ता
मुझे मर जाने भर की भी
मोहलत नहीं देता.

दिन भर लम्बे ट्रेक के बाद अब यहाँ
‘स्वर्गरोहिणी’ पहाड़ के ठीक नीचे
हमने अपना तंबू गाड़ लिया है.

तुम्हें याद करते हुए,
हेड-लैम्प की रौशनी में जब
प्रेम कविताएं पढ़ती हूँ,
तब युधिष्ठिर का भेजा यह कुत्ता
टुकुर टुकुर देखता है मुझे

खामोश बर्फ़ और तारों वाली
ठिठुरती रात के इस एकांत में,
अपनी डूबी पनियल आंखों से
भोर तक
इस गहरी करुणा से
देखता ही रहा है वह मुझे

जैसे इसी घाटी में कभी
द्रौपदी
और उनके प्रेम के साथ हुए अन्याय का
प्रायश्चित कर रहा हो !

जैसे आज युधिष्ठिर के इस कुत्ते ने भी
अंततः मान ही लिया हो
कि
किसी भी मनुष्य की तरह
प्रेम में डूबी स्त्री भी
पतित नहीं,
सिर्फ़ प्रेमी होती है.

* ‘हर की दून’ की घाटी भारत के सबसे पुराने ट्रेकिंग मार्गों में से है. कहा जाता है कि यह वही रास्ता है जिसे पांडवों से अपने अंतिम प्रस्थान के लिए चुना था

‘स्त्री के पैरों पर’ श्रृंखला की कविताएँ

 

5. होंठों के जूते

होंठ चूमने वाले
प्रेमियों से भरे इस संसार में,
तुमने हमेशा
पिछले दिन की थकन में डूबे
मेरे सोते पैरों को चूम कर
सुबह जगाया है मुझे.

“फुट फ़ेटिश है तुम्हें”,
कहकर अपने पैर कंबल में समेटते हुए
झिड़क सा दिया था मैंने तुम्हें
एक दुपहर.

जवाब में तुमने,
कुछ कहा नहीं.

सिर्फ़ इतना प्रेम किया मेरे पैरों को,
कि मुझे लगने लगा जैसे
मैं जूतों की जगह
तुम्हारे होठों को पहने घूमती रही हूँ.

 

 

6. आतुर पैर

तुम्हारी दुलारती गोद में आते ही,
किसी रिपोर्टर के धूल सने बीहड़ पैरों से
एक प्रेमिका के आतुर पैरों में
तब्दील हो जाते हैं
मेरे पांव.

दाहिने पैर के अंगूठे को
यूं ही सहलाते बैठे तुम
जब भी डूब कर टॉमस मान को पढ़ते हो,
तो इतना प्यार आता है मुझे तुम पर !

बिस्तर पर यूं पड़े पड़े ही
कंधे पर रख देती हूँ एक पैर
उसी पैर के अंगूठे से फिर,
तुम्हारे कान को गुदगुदाती हूँ.

मुझ में कामना की आग
चेहरे से नहीं,
अपने पैरों पर
तुम्हारे
अलसाए स्पर्श से चढ़ती है.

 

 

7. जुराबें

खिड़की से झांकते देवदारों
पर झरती बारिश की अनवरत बूँदों को
सारी रात सुनती रही हूँ.

पहाड़ों के पीछे,
उफक तक जाती है मेरी तृष्णा

क्या कोई अंत है इस प्यास का
जो हर बारिश के साथ बढ़ती ही जाती है ?

कंबल में भी,
बर्फ़ से ठंडे पड़े मेरे पैर
हर बूँद की आवाज़ पर
तुम्हारे होने की चाहना से
और भर जाते हैं.

देखो न,
कितना चले हैं तुम्हारी याद में!

कितनी भी जुराबें पहन लूँ,
यूं ही पत्थर से ठंडे पड़े रहते हैं.

तुम्हारी हथेलियों के खोल के सिवा
जैसे कोई अलाव ही नहीं
जो इन्हें नर्म कर
फिर से ज़मीन पर खड़ा कर पाए.

 

 

8 . टोनी गटलिफ़ के लिए

गर्मियों की इन दुपहरों में
घंटों तुम्हारे पैर अपनी गोद में रखे,
पड़ा रहता हूँ,
यूं ही कमरे में.

और तुम?
तुम अपनी किताब के पन्नों में मशगूल
मेरी छाती पर सुलाकर अपने पैर
भूल ही जाती हो जैसे !

जब धीरे से चूमता हूँ
तुम्हारे दाहिने पैर के अंगूठे को
तब जाकर याद आता तुम्हें !

‘अरे, मिट्टी लगी है पैरों में !’

हंसते हंसते कहती हो जब,
तो तुम्हारे साथ साथ
तुम्हारे मीठे शब्द भी सारे
फ़र्श पर बिखरने लगते हैं.

‘तुम्हारे पैरों में मेरा दिल है. है ना?’
पूछते हुए,
मैं खींच लाता तुम्हें अपने पास.

‘नहीं, टोनी गटलिफ़ का दिल है’

फिर उन शीरी पैरों को
सीने से लगाकर
चूमते हुए
यही सोचता हूँ
कि मेरा यह फ़्रांसीसी रक़ीब
आख़िर किस आसमान का सितारा है ?

तुम हंसते हंसते थक जाती जब
तो मेरे बालों को सहलाते हुए कहतीं,
‘स्त्री के मिट्टी सने गंदे पैरों को सबसे सुंदर प्रेम
टोनी गटलिफ़ की फ़िल्मों में ही किया गया है
इसलिए, मेरे पैरों में सिर्फ़ उसी का दिल है’

*टोनी गटलिफ़ की फ़िल्म ‘गाडजो डिलो’ की स्मृति में.

 

9 . पैरों जितना प्रेम

“मैं वहीं हूँ, तुम्हारे पैरों के पास”
यही तो होता है
याद में धंसते
मेरे हर मेसेज का जवाब.

न होठों के पास,
न सीने पर.
वह हमेशा यूं ही बैठा रहा है
मेरे पैरों के पास.

 

10. चुंबन का महावर

उसे माँ का आख़िरी चेहरा तो नहीं,
बस चिता पर रखे उनके पैर याद थे.

महावर में रंगे
उनके मृत पैरों की वह अंतिम स्मृति,
अक्सर ख़ाली दुपहरों में
उसके भीतर बजने लगती.
तब नींद में डूबे मेरे पैरों को
अपनी बाहों में खींच कर,
वह अपनी भीगी पलकें
उन पर रख देता.

मद्धम सिसकियों में डूबी
उसकी बुदबुदाती आवाज़ से
फिर नींद टूटती मेरी.

“तुम महावर मत लगाना कभी.
मैं चूम-चूम कर
यूं ही
लाल रखा करूँगा तुम्हारे पैर”.

 

 

11. बोसों का मलहम

मई की गर्मियों में
जैसलमेर के रेगिस्तान में उलझी पड़ी हूँ.
चुनावी रिपोर्टिंग का बीसवाँ दिन.

पचास डिग्री पे खौलती रेत पर
जब-जब जूते-बंद पैर उतारती हूँ
तो जुराबों से भाप उठती है.

जलते कोयले सी रेत.

चलते चलते सोचती हूँ,
जब ऊपर इतनी जल रही है,
तो भीतर से कितना जलती होगी धरती?

या यह कि
अग्नि परीक्षा के दौरान क्या सीता को
यूं ही आग पर चलना पड़ा होगा?

और, मेरी कौन सी परीक्षा हो रही है यहाँ?
कमबख़्त, इस बीहड़ तक तो नेता भी वोट माँगने नहीं आ रहे.
सारी परीक्षा सिर्फ़ रिपोर्टर की?

इस जलते आसमान के नीचे भी,
तुम्हारी याद के बादल मुझे घेरे हुए हैं.

जब लौटूँगी,
तब न जाने कितने दिन
अपने सीने पर रख कर ही सोया करोगे
यह ज़ख़्मी पैर.

इक तुम्हारे बोसों से ही तो
सूखते रहे हैं
मेरे पैर के छाले.

 

 

12 . लड़की के पैर

कटी फूटी एड़ियों वाले
अपने रूखे पैरों की ओर
हमेशा उसी करुणा से देखती आयी हूँ
जिस करुणा से शायद
प्रेम के क्षणों में
पृथ्वी सूरज़ को देखती होगी.

जब से जन्मी,
तब से अब तक
हमने साथ ही नापा पूरा देश

पहाड़, जंगल, बीहड़ हो,
नदी या जलता कोयला.
भटकती रहे हैं हम यूं ही
कभी देश में प्रेम
तो कभी प्रेम में देश तलाशते हुए.

पैरों में पहनने के लिए बने जूते
जब भी संसार ने फेंके मुझ पर
तब बिना जूते वाले
मेरे इन पैरों ने ही
तेज दौड़ लगाकर
हमेशा बचया मुझे.

किसी भी लड़की के
सबसे पुराने प्रेमी
उसके पैर ही तो हैं.

पैर,
जो उसे सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं,
अपने होने के लिए
खुद खड़ा होना सिखाते हैं.

 

 

 (द्विभाषी लेखक और पत्रकार कवयित्री प्रियंका दुबे बीते एक दशक से सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती रही हैं. जेंडर और सोशल जस्टिस पर उनकी रिपोर्टिंग को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं जिसमें 2019 का चमेली देवी जैन राष्ट्रीय पुरस्कार, 2015 का नाइट इंटरनैशनल जर्नलिज़म अवार्ड, 2014 का कर्ट शोर्क इंटरनैशनल अवार्ड, 2013 का रेड इंक अवार्ड, 2012 का भारतीय प्रेस परिषद का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2011 का राम नाथ गोईंका पुरस्कार शामिल हैं. उनकी रेपोर्टें 2014 के ‘थोमसन फ़ाउंडेशन यंग जर्नलिस्ट फ़्रोम डिवेलपिंग वर्ल्ड’ और 2013 के ‘जर्मन डेवलपमेंट मीडिया अवार्ड’ में फ़ायनलिस्ट थीं. स्त्री मुद्दों पर उनकी सतत रिपोर्टिंग के लिए उन्हें तीन बार लाड़ली मीडिया पुरस्कार भी दिया जा चुका है. 2016 में वह लंदन की वेस्टमिनिस्टर यूनिवर्सिटी में चिवनिंग फ़ेलो थीं और 2015 की गर्मियों में भारत के संगम हाउस में राइटर-इन-रेसीडेंस. 2015 में ही सामाजिक मुद्दों पर उनके काम को इंटरनैशनल विमन मीडिया फ़ाउंडेशन का ‘होवर्ड जी बफेट ग्रांट’ घोषित हुआ था. साइमन एंड चिश्टर द्वारा 2019 में प्रकाशित ‘नो नेशन फ़ोर विमन’ उनकी पहली किताब है. इसे 2019 के ही इसे शक्ति भट्ट फ़र्स्ट बुक प्राइज़, टाटा लिटेरेचर लाइव अवार्ड और प्रभा खेतान विमेन्स वोईसे अवार्ड के लिए शॉर्ट लिस्ट लिया गया था.

लम्बे समय से कविताएँ लिखकर संकोचवश छिपाती रहने वाली प्रियंका का दिल साहित्य में बसता है. priyankadubeywriting@gmail.com पर सम्पर्क करें.

 

देवेश पथ सारिया कवि, गद्यकार और अनुवादक हैं। उनका प्रथम कविता संग्रह ‘नूह की नाव’ (2021) साहित्य अकादमी, दिल्ली से  प्रकाशित हुआ है। उन्होंने ताइवानी कवि ली मिन-युंग के कविता संग्रह ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ का अनुवाद किया है। देवेश‌ की कविताएं लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं और वेब माध्यमों पर प्रकाशित हैं। संपर्क : deveshpath@gmail.com)

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