राग रंजन
अपने किसी मित्र की कविताओं पर कुछ लिखते हुए तटस्थ रह पाना मुश्किल होता है। यह सतर्कता बरतनी होती है कि आपकी घनिष्ठता कविताओं की अर्थवत्ता में हस्तक्षेप न करने लगे। प्रशांत सिन्हा को जो लोग रेडियो की आवाज़ के तौर पर जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि अपने आसपास और अपने भीतर की हलचल के प्रति वे कितने संवेदनशील और सजग हैं। यही संवेदनशीलता और सजगता उनकी कविताओं में भी दिखाई देती है।
पाब्लो नेरुदा का एक प्रसिद्ध कथन है – “कविता की व्याख्या उसे तुच्छ बना देती है”। यह बात अपने आप में किसी भी सच्ची कविता के होने भर की पक्षधर है। प्रशांत की कलम नई है, कविताओं में एक डायरीनुमा सचाई है – यही इन कविताओं की ताकत भी है। प्रशांत जब आत्म-संवाद करते हैं, तो उनकी आवाज़ आपकी अपनी आवाज़ -सी सुनाई देती है –
कब तक ये मायूसी रहेगी
खामोशी से दोस्ती कब तक रहेगी
ये शामे कब तक सुनी रहेंगी
कब तक सुबह की राह ताकोगे
सवालों का अंतहीन सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा
कब तक तुम एक अच्छे मौसम का इंतज़ार करोगे
आओ बातें करें, चलें रौशनी की तरफ़
करें ईजाद नए मौसमों की
अपने ही बरअक्स बैठ कर जीवन की जटिलताओं की पड़ताल करते हुए प्रशांत गाहे बगाहे उन भावनात्मक पहलुओं को विस्तार देते हैं, जिनकी सतह के नीचे अतीत की पीड़ाएँ सुगबुगाती रहती हैं, जिनसे हम खुद को बचाए चलते हैं और एक दिन उन्हें किसी कविता में ढाल देते हैं –
“वक़्त बे वक़्त जब खुद पे रोना आये
आंखे जब किसी बात पे नम हो जाएँ
तो एक सवाल खुद से दोहराना तुम
सही गलत का फर्क क्या तुमने जाना था ?
क्या आइने से ज्यादा तुमने खुद को पहचाना था ?
गर मिल जाये जवाब तुम तो वापिस मत लौटना …
और ना मिले तो इसे एक और गलती समझना।”
“एक और बार प्यार” कविता की इन पंक्तियों में अतीत की आत्मालोचना के तहत सही – गलत की जद्दोजहद बखूबी दिखाई देती है। किन्तु इसी जद्दोजहद से भविष्य के सबक भी सामने आते हैं, जो कविता के शीर्षक को चरितार्थ करते हैं-
“अब जो थोड़ा बचा हुआ है
उसमें फिर से प्यार कर लेना
मगर इस बार वो सिर्फ प्यार ही हो, ये याद रखना …”
प्रशांत की कविताओं में अतीत किसी जड़ वस्तु सा नहीं बल्कि जीवित, तरल और गतिमान तत्व सा दिखाई देता है; कुछ भी छूटता नहीं है, बस समय के साथ रूप बदल लेता है। इसका प्रभाव यह होता है कि अतीत के कतिपय कटु अनुभव भी कविता में आकर अपनी कटुता त्याग देते हैं।
जहाँ एक ओर वे कहते हैं –
“मैंने कभी नहीं सोचा था उसके जाने के बाद
घड़ी की टिक-टिक में गहरा सन्नाटा बचेगा मेरे पास …
वो मुझे सिगेरट पीने से मना करती थी”
(साइड नोट: यह पंक्तियाँ पढ़कर मैंने चाहा कि प्रशांत कि उँगलियों में तुरंत एक सिगरेट थमा दूँ)
वहीं एक अन्य कविता में प्रेम वीतराग की तरह न आकर नियति के आईने में झिलमिलाता दीखता है –
“अपने सामर्थ्य के हिसाब से मैं कही भी जा सकता हूँ
पृथ्वी के दूसरे छोर तक
क्षितिज तक मैं जा सकता हूँ
या आसमान के उपर अंतरिक्ष तक
लगातार चलते हुए कई घाटियाँ पार कर सकता हूँ
खाई में उतर सकता हूँ शायद पाताल में भी
मगर अब कोई ऐसी जगह नहीं है इस पृथ्वी पर जहाँ मैं उससे दुबारा मिल सकूँ …”
प्रशांत एक लेखक के रूप में किसी पहचान की दावेदारी या मोहताजी से आज़ाद हैं। इंस्टाग्राम पर उनका क्रिएटिव हैंडल “दो कौड़ी का राइटर” (2kaudi_ka_writer) के नाम से है, जिसकी टैग लाइन है – 2 कौड़ी का राईटर हूँ जो देखता, सुनता महसूस करता हूँ लिख देता हूँ। उनका लिखा हुआ वाकई देखा – सुना – महसूस किया हुआ है, जो किसी भी मौलिक, प्रतिभावान रचनाकार के लिए ज़रूरी है। उनकी यही लेखकीय ईमानदारी उनकी कविता को साहित्यिक मानदंडों पर किये जाने वाले आकलन से मुक्त करती है। अपनी दिलकश आवाज़ से प्रशांत कई अन्य कवियों की कविताओं का पाठ भी करते रहे हैं। उनकी आवाज़ बुलंद रहे, वे खूब लिखें, सतत बेहतर लिखें।
प्रशांत सिन्हा की कविताएँ
1. ऐसी कोई जगह
अपने सामर्थ्य के हिसाब से मैं कही भी जा सकता हूँ
पृथ्वी के दूसरे छोर तक
क्षितिज तक मैं जा सकता हूँ
या आसमान के उपर अंतरिक्ष तक
लगातार चलते हुए कई घाटियाँ पार कर सकता हूँ
खाई में उतर सकता हूँ
शायद पाताल में भी
मगर अब कोई ऐसी जगह नहीं है
इस पृथ्वी पर जहाँ मैं उससे दोबारा मिल सकूँ …
2. जब तुम नहीं होगे उसके पास
जब तुम नहीं होगे उसके पास
और जब तुम्हें फ़िक्र हो रही होगी उसकी
तब ये हवायें उसके आस पास होंगी हमेशा
हर रात चाँद निहारता होगा उसे एकटक
सूरज सूबह से ही पहरेदारी करता होगा उसकी ….
जब तुम नहीं होगे उसके पास
तो पूरा ब्रह्मांड उसके साथ होगा उसके लिए ।
3. सच और झूठ
सच और झूठ के बीच का फ़र्क़ कितना हो सकता है ?
कभी -कभी सिर्फ़ एक धाग़े जितना
या फिर एक खाई जितना ।
क्या इस फ़र्क़ से फ़र्क़ पड़ता है भी ?
झूठ और सच अपने अर्थों के साथ स्थिर होते हैं
अपनी अपनी जगह
इंसान जो इन दोनो के बीच यात्रा में रहता है ।
सच झूठ से है भारी तो फिर
झूठ कभी-कभी इतनी ख़ुशियाँ क्यूँ दे देता है
ज़ो सच पर भी भारी पड़ जाती हैं ?
झूठ के साथ रहने वाले लोगों को
क्या कभी सच की ज़रूरत नहीं पड़ेगी ,
मरने के ठीक पहले भी नहीं ?
और जब सबकुछ आसान ही है उसके साथ
तो सच का वजूद क्यों ?
क्या दुनिया का कोई कोना है
जहाँ सिर्फ़ सच होगा अकेले
और झूठ वहाँ फटकता भी न हो
जहाँ जाने पर
उसे भी सच की तरह घुटन हो
ऐसी कोई जगह है ?
4. आख़िर कब तक
कब तलक तुम खुद को अकेले रक्खोगे
वक़्त बस गुज़रता जाएगा
कब तक दर्द को सहते रहोगे
कब तक अंधेरे में रहोगे
ये आसान नहीं है मगर
कब तक आखिर
चुप रहोगे
कब जागोगे , कब तक खुद से झूठ बोलोगे
आखिर साँस नहीं लोगे कब तक
यूँ ही लिखते रहोगे
कब तक सवालों के जवाब ढूंढोगे
कब तक हँसी रोकोगे अपनी
कब तक ये मायूसी रहेगी
खामोशी से दोस्ती कब तक रहेगी
ये शामे कब तक सूनी रहेंगी
कब तक सुबह की राह तकोगे
सवालों का अंतहीन सिलसिला यूँ ही कब तक
कब तक तुम एक अच्छे मौसम का इंतज़ार करोगे
आओ बातें करें, चलें रौशनी की तरफ़
करें ईजाद नए मौसमों की
5. एक और बार प्यार
वक़्त बे वक़्त जब खुद पे रोना आये
आंखे जब किसी बात पे नम हो जाएँ
तो एक सवाल खुद से दोहराना तुम
सही गलत का फर्क क्या तुमने जाना था ?
क्या आइने से ज्यादा तुमने खुद को पहचाना था ?
गर मिल जाये जवाब तुम तो वापिस मत लौटना …
और न मिले तो इसे एक और गलती समझना ।
वक़्त सब ठीक कर देता है, दिलासा देना
थोड़ा जो बचा हुआ है उसमें फिर से प्यार कर लेना
मगर इस बार वो सिर्फ प्यार ही हो, ये याद रखना …
6. ‘काश से शुरू होने वाले ख़्याल’
काश से शुरू होने वाले ख़्याल
दुःख देते हैं हमेशा
ख़ुद को बहलाने हम चुनते है इनको ।
ऐसी ही नामुमकिन सी बातों में
हम ‘काश’ लगा देते है …
कुछ ख़ास परिस्थितियों में चलो माना
किसी से मिलना , बातें करना , साथ चलना , कुछ खाना , कही बाहर घूम आना , गले लग जाना हो सकता है ,
मगर निरंतर ये नहीं हो सकता ये कभी भी ।
कभी-कभी संयोग ही इसका कारण होता है ।
और संयोग हमेशा नहीं बनते है जीवन में चलो माना कि संयोग हमने बना लिए ख़ुद के लिए
मगर उसमें छिपे हों स्वार्थ कहीं
हो तों वो संयोग नहीं रहता।
इसीलिए बेहतर होगा
हर वो ख़्याल छोड़ना
जो “काश” से शुरू होते हैं
पर काश ऐसा हो पाता
7. सज़ा
सज़ा …… दुनिया में सज़ा की क्या परिभाषा है ?
किसी को जेल में बंद कर देना
फाँसी पर लटका देना
शायद हाँ , दुनिया सज़ा को इन्ही नामों से जानती है।
मगर अकेलापन भी एक बड़ी सज़ा है
जिसे हम सभी काट रहे हैं टुकड़ा टुकड़ा ।
कहते हैं नर्क और स्वर्ग दोनो हैं धरती पर
नर्क में होने का अहसास आपको अकेलेपन में होगा ।
जब एक अकेले कमरे में बस आप हों ,
दुनिया के शोर से हट के
नल से टपकती हुईं पानी की टप टप साफ़ सुनाई देती रहे एक अभिशाप से कम नहीं होता ये एहसास ।
टप टप के बन्द हो जाने के बाद की चुप्पी
आपको और मारती है
ऐसा लगता है की अब ये काम भी ख़त्म हों गया
जो करने को बाक़ी था, अब क्या ?
अकेलेपन में आपकी आवाज़ भी आपसे बातें
करना छोड़ देती है ,
ज़ोर से चिल्लाने पर वो दीवारों से लौट के नहीं आती बल्कि इस अनंत ब्रह्मांड में कहीं खो जाती है ।
अकेलापन इंसान को मारता है
और इसकी रफ़्तार
सिगेरट के लिए हुए हर कश से ज़्यादा ख़तरनाक होती है ।
8. अधूरा
मैंने कभी नहीं सोचा था उसके जाने के बाद
घड़ी की टिक-टिक में गहरा सन्नाटा बचेगा मेरे पास …
वो मुझे सिगेरट पीने से मना करती थी
फिर भी मैं छिप के पी ही लेता था
कभी दोस्तों के साथ
कभी अकेले काम के प्रेशर से ,
एक बार उसने मुझे सामने से पकड़ लिया सिगेरट पीते हुए
फिर एक वादे के साथ सब कुछ सामान्य हो गया था ।
ऐसे बहुत से छोटे- छोटे वादों के साथ
मैंने अपने आप को बदलना शुरू किया था ।
मेरे पास अभी भी शब्द कम पड़ जाते हैं
कुछ भी लिखने को,
उसके रहते कुछ-कुछ नए शब्द जानना शुरू ही किया था कि सब अधूरा सा ही रह गया |
‘अधूरा’ कितना अभागा सा है न
ये शब्द बोलते ही सिहर जाता है मन
मगर अब क्या करें
यही शब्द अब मेरे हर वाक्य को पूरा करता है ।
9. बंद दरवाज़े
बंद दरवाज़े के पीछे होते हैं कई राज़
कई यादें बीती बातें
दिवाल पर कुछ निशान आड़े तिरछे
कुरेद कर लिखा गया ABCD
झगड़ो के शोर , ज़ोर के ठहाके
उन्हीं दरवाज़ों के पार
एक खिड़की भी खुलती है
जिससे दिखता है एक संकरा रस्ता
एक गली जो जाती है सड़क तक
बंद दरवाज़े के पीछे एक खूँटी है जिसपर
टंगा है एक लाल कुर्ता पिता जी का
माँ का दुपट्टा , मेरा फुल्ल पैंट
बंद दरवाज़ों के पीछे बंद है ज़िंदगी …
कवि प्रशांत की कलम नई है। चंपारण में 1994 में जन्मे और वही से अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने वाले प्रशांत, घर पर रेडियो खोल कर अंदर क्या है, देखने की ललक से यात्रा शुरू कर रेडियो पर कैसे बोलना है सीखा और सीख रहे हैं।
जागरण पत्रकारिता संस्थान से ग्रैजूएशन पूरा करने के बाद, RJ बनने के सफ़र के बीच प्रशांत को कविताओं से मुहब्बत हो गयी. कई शहरों के बीच रहने के बाद, रेड FM में अपनी पहली नौकरी और बचपन का सपना दोनों पाया. कहीं पहुँच जाने के बाद सफ़र के साथी की याद बहुत आती है, तो प्रशांत ने कविताओं को अपना साथी बना लिया. प्रशांत, वर्तमान में मुज़फ़्फ़रपुर के लिए मॉर्निंग शो करते हैं, साथ ही कई कवियों की मशहूर कविताओं को पढ़ कर उन्हें फ़िर से ताज़ा करने की कोशिश करते हैं.
सम्पर्क: prashantsinha52@gmail.com
टिप्पणीकार राग रंजन, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक, पेशे से कंपनी सेक्रेटरी। लेखन स्वांतः सुखाय। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, ब्लॉग्स में रचनाएं प्रकाशित। कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। विगत दस वर्षों से बैंगलोर में रह रहे हैं। आजीविका के अतिरिक्त सामाजिक मनोविज्ञान (Transactional Analysis) में सक्रिय रुचि।
संपर्क: 9686694459