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सुकुल की बीवी: व्यक्तित्वांतरण, प्रेम और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की नयी व्यावहारिकता

‘सुकुल की बीवी’ निराला की चर्चित कहानी है। यह लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सुधा’ में 1937 ईस्वी में छपी। इसी नाम से निराला की कहानियों का एक संकलन भी छपा था। इस कहानी का समय ‘कुल्ली भाट’ और बिल्लेसुर बकरिहा के छपने के आसपास ही है।
कहने का आशय यह, कि उस समय तक निराला सांस्कृतिक, सामाजिक और सियासी मसलों पर एक निर्णायक और परिवर्तित विचार तक पहुँच रहे थे। मसलन वर्णवाद, जाति, हिंदू-मुस्लिम आदि समस्याओं को अपनी रचनाओं में नये बोध या  आधुनिक प्रगतिशील बोध के साथ प्रस्तुत कर रहे थे। ‘सुकुल की बीवी’ कहानी की अंतर्वस्तु में यह सब है। इस कहानी में निराला कहानी-वाचक भी हैं और कहानी के पात्र भी।

कहानी यह है कि निराला के स्कूल के मित्र सुकुल  पड़ोस में रहने वाली ग्रेजुएट छात्रा से प्रेम कर बैठते हैं। बाद को उसके साथ रहने लगते हैं लेकिन दोनों के विवाह में एक दिक्कत है। सुकुल की प्रेमिका, बाद में बीवी, ब्राहमण स्त्री के पेट से पैदा हुई है लेकिन पली-बढ़ी है मुसलमान के घर में। सुकुल चाहते हैं, कि निराला उसे अपनी बहन बनाकर यह विवाह संपन्न कराएं। निराला ऐसा ही करते हैं और सुकुल का विवाह करवाते हैं।
मुख्य कथा बस इतनी है। लेकिन, इतनी सी कथा में हिंदी समाज का यथार्थ, स्त्री  की समाज में, परिवार में हैसियत और इसी बहाने 1930 के दशक में हिंदू-मुसलमान समस्या का अंतर्गुंथन निराला करते हैं। और, इन्हीं के बीच  से सुकुल,  कुंवर और खुद निराला का व्यक्तित्वांतरण सामने आता है।

सुकुल स्कूल के दिनों में चोटीधारी ब्राह्मण युवक थे।  साथ ही, हिंदूवादी संस्कृति और विचार के मुख्य प्रवक्ता हैं, लेकिन यही सुकुल बाद में खुद के जीवन के विकास में एक आधुनिक प्रगतिशील मनुष्य और व्यक्ति बनकर उभरते हैं। कुंवर पैदा होती है जरूर ब्राह्मण स्त्री के पेट से, लेकिन वह है पूरी तरह से मुस्लिम रीति-रिवाज, परंपरा और संस्कृत में पली हुई। बाद में वह भी प्रेम में होकर बदलती है। सुकुल के मातृविहीन  बच्चे को पालती है और एक आधुनिक स्त्री  के रूप में उभरती है।

लेकिन यह आधुनिकता नयी नागरिकता के साथ है। निराला दोनों को उनकी धार्मिक पहचान से बाहर निकालकर नयी पहचान देते हैं। यह पहचान आधुनिक, स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष है। यही निराला का पक्ष है। निराला यहाँ भावी राष्ट्र की परिकल्पना भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जहां वे एक व्यक्ति, परिवार के बुनियादी मूल्यों को स्पष्ट कर देते हैं। निराला अपनी कहानी के माध्यम से उस बहस में अपना पक्ष रख देते हैं, जो 1930 के दशक में चल रही थी।

1929 ईस्वी  के पूर्ण स्वराज्य के कांग्रेस के प्रस्ताव के बाद से ही भावी राष्ट्र को लेकर कई विचार सक्रिय हो गए थे। लेकिन इन सभी में मुख्य टकराहट धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्र बनाने के विचार और आधुनिक, धर्म निरपेक्ष विचार के आधार पर राष्ट्र बनाने के बीच थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग आदि जहाँ एक धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्र की अपनी परिकल्पना  लिए हुए थे,  तो दूसरी तरफ कांग्रेस, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी, कम्युनिस्ट  पार्टी,  अखिल भारतीय किसान सभा तथा अंबेडकर का संगठन एक आधुनिक, लोकतांत्रिक राष्ट्र की परिकल्पना  लिए हुए थे।

इसमें उदार और क्रांतिकारी दोनों धाराएँ थीं। इनके बीच भी आपस में मतभेद थे, लेकिन इन सभी की टकराहट धर्म आधारित राष्ट्र  की परिकल्पना  के साथ थी। हिन्दी के रचनाकार भी इसमें  अपना पक्ष लेकर रचनारत थे। वे अपनी रचनाओं में, विचारों में, निबंधों में इसे व्यक्त कर रहे थे।

यहाँ एक बात पर ध्यान स्वाभाविक रूप से जाना चाहिए,  कि हिंदी का कोई भी बड़ा रचनाकार या प्रायः रचनाकार धर्म आधारित राष्ट्र के पक्ष में नहीं थे। बल्कि, उसके मूल्यों से टकराव में था।

हिन्दी रचनाशीलता और कला  में भी इस दशक में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति को लेकर एक द्वन्द्व तो दिखता है, लेकिन इसी के साथ आधुनिक और प्रगतिशील विचार के प्रति सम्बद्धता भी दिखती है।

भारतीयता और पाश्चात्य के द्वन्द्व में ऐसा नहीं हुआ कि हिन्दू समाज की बुराइयों या वर्णवादी मूल्यों की तरफ कला और साहित्य बढ़ा हो! जाति विभाजन, छूआछूत आदि को लेकर भी हिन्दी रचनात्मकता मुखर है। प्रेमचंद और निराला तो इसके दो बड़े उदाहरण हैं।

हिंदी नवजागरण जातीय सुधार से चलकर आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और समाजवादी राष्ट्र की परिकल्पना से जुड़ता है।  इसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। और इस दशक में निराला के भीतर जो बदलाव होते हैं, उसे तो जरूर देखना चाहिए क्योंकि 1940 के बाद की हिन्दी रचनात्मकता की लगभग सभी धाराएं  निराला से प्रभावित हैं।

कुल मिलाकर निराला ने हिंदी को व्यापक सामाजिक यथार्थ के दायरे से जोड़ा। उसमें स्त्री, दलित, वंचित तबकों के सुख-दुख व्यक्त हुए। साथ ही, स्वाधीनता और भावी राष्ट्र  को लेकर जो विचार चल रहे थे, उसमें वे आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के हामी बने। निजी रिश्ते  से लेकर सामाजिक रिश्ते में निराला उदार, मानवीय मूल्यों को अपनाते हैं। ‘सुकुल की बीवी’ कहानी में भी इसे देखा जा सकता है।

‘सुकुल की बीवी’ कहानी का एक पक्ष यह भी है, कि इस कहानी में भी निराला कुंवर की माँ के माध्यम से उच्च वर्णीय अमानवीय मूल्यों को उद्घाटित करते हैं। कुंवर के पिता कुंवर की माँ को त्याग देते हैं। वे दूसरी शादी कर लेते हैं।  कुंवर की माँ भटकते हुए एक मुसलमान के यहाँ शरण पाती है। ब्राह्मण स्त्री,  ब्राह्मणों के यहाँ शरण नहीं पाती।

यह निराला बेवजह नहीं लाते। कहानी में इन सब का सीधा संबंध उस दशक की बहसों  से है,  जिसमें हिंदू-मुस्लिम धर्म के आधार पर राष्ट्र  बनाने की बातें चल रही थीं। और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा का मानना था, कि हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं, जो एक साथ नहीं रह सकते। निराला की इस कहानी में इसका प्रकारांतर से प्रत्याख्यान ही है।

दूसरे, धर्मों के अगुआ सवर्ण जातियों के भीतर, ब्राह्मण जाति या असराफ वर्ग के भीतर जो वर्णवादी पितृसत्तात्मक मूल्य प्रभावी हैं, वे ही एक धर्म आधारित राष्ट्र में प्रभावी रहेंगे। कुंवर की माँ ब्राह्मण परिवार  से निकाली जाती है और कुंवर मुस्लिम असराफ के घर से निकल आती है।

निराला ने सुकुल  के स्कूल के जीवन-प्रसंग  को भी व्यंग्य  का हिस्सा बनाकर इस पर ही चोट की है। पुरातनपंथियों और हिंदूवाद की ही खिल्ली उड़ाई है।

“सुकुल का परिचय आवश्यक है। सुकुल मेरे स्कूल के दोस्त हैं, साथ पढ़े। उन लड़कों में थे जिनका यह सिद्धांत होता है, कि सिर कट जाए चोटी न कटे। सुकुल-जैसे चोटी के एकान्त  उपासकों से चोटी की आध्यात्मिक व्याख्या कई बार सुनी थी, पर सग्रन्थि बालों के बल्ब में आध्यात्मिक इलेक्ट्रिसिटी का प्रकाश न मुझे कभी देख पड़ा, न मेरी समझ में आया। फलतः सुकुल की और मेरी अलग-अलग टोलियाँ हुई।  उनकी टोली में वह हिंदू लड़के थे, जो अपने को धर्म की रक्षा के लिए आया हुआ समझते थे, मेरी में वे लड़के, जो मित्र को धर्म से बड़ा मानते हैं, अतः हिंदू, मुसलमान, क्रिस्तान सभी।”

यहाँ निराला की ‘टोली’ से ध्यान में  आती है ‘चतुरी चमार’ कहानी। इसमें निराला अपने घर पर गोश्त पकाते हैं,  जिसमें सब दलित जाति के लोग आमंत्रित हैं, कुछ उसके पकने की खुश्बू से आप ही आमंत्रित हो जाते हैं। इस पर निराला लिखते हैं, कि मेरा घर ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ हो गया। इससे निराला के समाज और राष्ट्र सम्बन्धी परिकल्पना का साकार रूप सामने आता है। खैर

निराला की ‘टोली’ में बाद में सुकुल  भी आ
जाते हैं।  सुकुल की निराला की टोली में आने की यह यात्रा दिलचस्प है। सुकुल एक क्रिस्तानी कॉलेज में प्रोफ़ेसर बनते हैं। और उसके व्यवहार को निभाते हैं। इसी दौरान वे मुस्लिम लड़की कुंवर से प्रेम करते हैं, मुर्गी खाते हैं और अंत में निराला की मदद से उससे विवाह करते हैं।

सुकुल की बीवी कहानी में  आर्य समाज के 1930 के दशक में इस्लाम-विरोधी या मुस्लिम-विरोधी हो जाने का भी निराला संकेत करते हैं। कुंवर की माँ जब एक मुस्लिम के यहाँ शरण पाती हैं तो आर्य समाज के लोग उनके पीछे पड़ जाते हैं और पुलिस में सूचना देते हैं। इससे उन्हें मुश्किलें आती हैं और वे दर-दर भटकती  हैं।

कहानी में आर्य समाज की इस भूमिका को चिन्हित करने के पीछे निराला की वह चेतना है, जिसमें वे यह जान जाते हैं, कि भावी राष्ट्र निर्माण की गति में बाधक कौन लोग होने वाले थे। आज अगर देखा जाए तो आर्य समाज की कोई भी संस्था राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ से बची नहीं है। लगभग सभी हिंदूवादी राजनीति के अगुआ बन चुके हैं तथा राष्ट्र के निर्माण के लोकतांत्रिक मूल्यों, आधारों के या तो खिलाफ हैं या उसे खत्म करने में सक्रिय हैं। सुकुल  की बीवी कहानी को इस संदर्भ से भी देखना चाहिए। इसलिए, कि निराला यह बहुत सोच समझकर करते हैं। जबकि 1920 के दशक में वे आर्य समाज के सामाजिक कार्यों से प्रभावित थे। उनकी शुरू की कहानियों में आर्य समाज की इन भूमिकाओं का वर्णन है। इसमें सुधारवादी तत्व थे। अर्थात जातीय सुधार के तत्व। और आर्य समाज अपने प्रारम्भ में योरोपीय तर्कवाद के तत्व लेकर चला था। लेकिन 1930 के दशक के उत्तरार्ध तक जैसे-जैसे एक आधुनिक लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के पक्ष में व्यापक जन गोलबंदी होने लगी, वैसे-वैसे जातीय सुधार की संस्थाओं में भी विभाजन होता है। इसमें कुछ वर्णवाद और धार्मिक संकीर्णता में सिमटने लगते हैं और कुछ आधुनिकता का रास्ता पकड़ते हैं। निराला की नजर इन सब पर है। खुद उनकी कहानियों में आर्य समाज के विकास को देखा जा सकता है।

हिंदू-मुसलमान में  विभाजन करने वाली,  नफरत, अविश्वास फैलाने वाली बातों या उस समय हिंदूवादी संगठनों के मिथ्या प्रचार, झूठे गौरव आदि को निराला संज्ञान में लेते हैं और उसको अपनी रचना में जगह देते हैं। एक और कहानी ‘कमला’ में भी वे ऐसा प्रसंग लाते हैं जिसमें एक ब्राह्मण स्त्री दंगे के दौरान मुसलमान द्वारा बचायी जाती है और उसके घर में शरण पाती है। ‘कुल्ली भाट’  में तो कुल्ली मुसलमान स्त्री से प्रेम और विवाह करते हैं।

सुकुल की बीवी कहानी में कुंवर जब अपनी कहानी सुनाती है, तो वह इस पर ही केंद्रित करती है।
“वाजपेयी जी को एक ब्याह से संतोष नहीं हुआ। दूसरी शादी की। तब मैं  पेट में थी।  बिहटा मेरा ननिहाल है।… किसी तरह गुजर न हुई, तब, लोटा-थाली बेचकर, उस खर्च से मा लखनऊ गयीं। घर में पैर रखते, ससुर और पति ने तेवर बदले। पति ने कहा, इसके हमल है, हमारा नहीं। ससुर ने कहा, बदचलन  है,  धरम बिगाड़ने आयी है, भली होती, तो चली न आती- वहीं के लोग परवरिश करते। पड़ोसियों की भी राय थी। सौत ने धरती उठा ली। एक रात को पति ने बाँह पकड़कर निकाल दिया। मा रास्तों पर मारी-मारी फिरीं। सुबह जिस आदमी ने उनके ऑंसू देखे,  वह मुसलमान था। उस वक्त मा के दिल में हिन्दू, धर्म और भगवान के लिए कितनी जगह थी, आप सोच सकते हैं। निस्सहाय, अन्तःसत्त्वा, अबला केवल आश्रय चाहती थी, सहानुभूतिपूर्ण मनुष्यतायुक्त; वह एक मुसलमान से प्राप्त हुआ।”

निराला यहाँ एक तो यह सामाजिक सत्य देते हैं, कि एक से अधिक  विवाह करना हिंदू-मुसलमान दोनों में प्रचलित था। यह एक पितृसत्ता और पुरुष प्रधान तथा पीछे के समाजों की अपनी विशेषता  थी, जो उनके धर्मों की नैतिकता में अमानवीय रूपों में मान्य थी। इसकी मार स्त्री पर ही पड़ती थी।  ‘श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी’ कहानी में भी गजानन्द शास्त्री चार विवाह करते हैं।

दूसरी बात निराला ने इस प्रसंग में जो उठायी है स्त्री के लिए, ‘सहानुभूतिपूर्ण मनुष्यतायुक्त’ व्यवहार। स्त्री को मनुष्य मानना और उसके साथ मनुष्यता का व्यवहार करना, यही नये समाज, परिवार और  राष्ट्र की विशेषता होनी चाहिए। यही निराला का, और तीस के दशक की हिंदी रचनात्मकता का मुख्य स्वर है। जाहिर है, कि हिंदी में यह सब इसलिए भी आ रहा था, क्योंकि अब हिंदी समाज के भीतर स्वाधीनता, बराबरी, सम्मान की बहसें नीचे से भी  आने लगी थी या वह नीचे तक पहुँच रही थी। अब वह सिर्फ बौद्धिकों  तक सीमित नहीं था।  दूसरे, किसी भी धर्म आधारित राष्ट्र में आज तक स्त्री को यह दर्जा, सम्मान, स्वतंत्रता, हैसियत  न मिल पायी। इसलिए निराला की यह कहानी उस दौर की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बहसों के साथ मिलाकर पढ़नी चाहिए। उसमें हिन्दू राष्ट्र या धर्म आधारित राष्ट्र की परिकल्पना का रचनात्मक प्रतिरोध बहुत स्पष्ट है।

खुद कुंवर भी अपनी पहचान छोड़ती है। वह न हिंदू होना चाहती है, न मुसलमान। अपनी कहानी सुनाते हुए वह कहती है, “मुझे जातीय  गर्व से घृणा  हो गयी। मैंने कहा, मैं शादी नहीं करूँगी;
जी-भर पढ़ना चाहती हूँ। बस यही से मेरे विचार बदले।”
यह विचार बदलना ही मनुष्य को बदलता है, व्यक्तित्वांतरण करता है। कुंवर  का भी होता है। वह नये मनुष्य में बदलती है। यही निराला का अभीष्ट  है।  कहानी का उद्देश्य भी यही है। नये मनुष्य में बदलना। नया मनुष्य अर्थात जाति, धर्म आदि की पहचान से अलग होकर एक व्यापक व्यक्तित्व धारण करना। आधुनिक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष जीवन मूल्य को अपनाना। इसी मूल्य के अंतर्गत कुंवर और सुकुल आपसी रिश्ते को विकसित करते हैं। अर्थात स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की नयी व्यावहारिकता को पाना, अपनाना। एक-दूसरे के लिए बराबरी, आदर व मनुष्यता का व्यवहार। निराला के लिए एक राष्ट्र की परिकल्पना में भी यही मूल्य प्रधान थे। स्त्री निराला के राष्ट्र की बुनियाद है, जरूरी नागरिक है। यहीं से निराला अपने समय में औरों से आगे बढ़ जाते हैं।

निराला को इस बात का भी श्रेय जाता है कि हिन्दी नवजागरण को उन्होंने साम्राज्यवाद और सामंतवाद तथा वर्णवाद व ब्राह्मणवाद विरोधी मूल्यों से संयुक्त कर ऐसी जगह पहुँचा दिया, जो बाद की हिन्दी रचनात्मकता की केन्द्रीय धारा बनी रही और वह आज तक है। खैर

‘सुकुल  की बीवी’ कहानी में निराला की अपनी कहानी भी शामिल है। इसमें निराला खूब मजे ले कर अपने स्कूल के दिनों का वर्णन करते हैं। एफ.ए. अर्थात हाई स्कूल की पढ़ाई छोड़ देते हैं। प्रवेशिका की परीक्षा देते हैं लेकिन जब परिणाम आने का समय होता है, वह कोलकाता चले जाते हैं। निराला लिखते हैं, “यहाँ से मेरे नये जीवन की नींव पड़ी।”

यह नया जीवन रचनात्मकता का जीवन था।
“मैं कवि हो चला था, फलतः पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी। प्रकृत की शोभा देखता था। कभी-कभी लड़कों को समझाता भी था कि इतनी बड़ी किताब सामने पड़ी है, लड़के पास होने के लिए सिर के बल हो रहे हैं, वे उद् भिदकोटि के हैं। लड़के अवाक् दृष्टि से  मुझे देखते रहते थे, मेरी बात का लोहा मानते हुए।”

“अन्त में निश्चय किया, प्रवेशिका के द्वार तक जाऊँगा, धक्का न मारूँगा, सभ्य लड़के की तरह लौट आऊँगा, अस्तु, सबके साथ गया। और-और लड़कों ने पूरी शक्ति लगायी थी, इसलिए परीक्षा-फल के निकलने से पहले, तरह-तरह से हिसाब लगाकर अपने-अपने नम्बर निकालते थे, मैं निश्चित, इसलिए निश्चिन्त था; मैं जानता था कि गणित की नीरस कापी को पद्माकर के चुहचुहाते कवित्तों से मैंने सरस कर दिया है; फलतः परीक्षा समुद्र-तट से लौटते वक्त, दूसरे तो रिक्त-हस्त लौटे, मैं दो मुट्ठी बालू लेता आया; घर में पिता, माता, पत्नी, परिजन, पुरजन सबके लिए आवश्यकतानुसार उसका उपयोग किया।”

कुल मिलाकर यह कहानी कई लिहाज से निराला की बेहतरीन कहानियों में से एक है। भाषा के स्तर पर भी इसमें निराला आगे बढ़ते हैं, जो हिंदी-उर्दू क्षेत्र की स्वाभाविक विरासत लिए हुए है। ‘कुल्ली भाट’ में भी यह भाषा दिखती है। जबकि 1930 के दशक की शुरू की कहानियों में यह भाषा नहीं है। हर स्तर पर निराला निरन्तर खुद को बदलते हैं। उनके पात्र भी स्वयं को बदलते हैं। ‘सुकुल की बीवी’ कहानी में इन सभी विशेषताओं को देखा जा सकता है।

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