प्रभात
इस तरह मेरा झुकना अधर में लटका हुआ छूट गया है..
प्रमोद एन्द्रिकता के कवि हैं। जब वे कविता लिखते हैं उनकी इन्द्रियाँ साँस लेने लगती हैं जो उनके काव्य अनुभव को इतना सघन कर देती हैं कि जब वह काव्य अनुभव कागज पर आ जाता है तो हम उसे पढ़ते हुए विस्मय से भर जाते हैं, फिर पढ़ते हैं और फिर हमें उनके अनुभव की गहराई और उनकी ऐन्द्रिकता फिर विस्मित करती है। यह उनकी कविताओं में जादू की तरह समाया हुआ है।
किसी भी अच्छी कविता की खूबी उसमें खुबी रहती है। उसमें अर्थों की परतें होती हैं, कई कई ध्वनियां होती हैं। प्रमोद की कविता में अर्थों की परतें फूलों की तरह विकसित होती हुई प्रतीत होती है तो उनमें निहित काव्य ध्वनियाँ संगीत की तरह सुनाई देने लगती हैं। जब वे लिखते हैं-
उसकी इच्छाओं में मानसून था
और मेरी पीठ पर घास उगी थी
मेरी पीठ के ढलान में जो चश्में हैं
उनमें उसी की छुअन का पानी चमक रहा है
इस उमस में पानी से
उसकी याद की सीलन भरी गंध उठ रही है
अब यह एक ही साथ किसी प्रेमी जोड़े की भी कविता है तो धरती और समुद्र के नैसर्गिक प्रेम की भी कविता है।
पैरों की चप्पलों को हम सभी देखते हैं वे घर से बाहर खुली रहती हैं। प्रमोद उन्हें देखते हुए उनके पैरों की जीवन यात्रा को देख लेते हैं और उन्हें चप्पलों से ही प्यार हो जाता है। तभी तो वे कह पाते हैं-
इन गुलाबी चप्पलों पर
ठीक जहाँ तुम्हारी एड़ी रखने में आती है
वहाँ उनका अक्स इस तरह बन गया है मेरी जान
कि अब चप्पल में चप्पल कम तुम्हारी एड़ियाँ ज्यादा नजर आती हैं
ऐसी चप्पलों को देखने की प्रमोद जैसे कवि की कोई इन्तहा नहीं है-
रात तनियों के मस्तूल से अपनी नावें बाँध सुस्ताती हैं चप्पलें
और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी
थककर सोए हुए तुम्हारे पैरों का पता देती हैं
इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद ऐसी चप्पलों के थककर सोए पैरों के प्रति कवि की बेकली को हम देर तक सुनते रह सकते हैं।
कोई संत, कोई भिक्षु ही ऐसा कर सकता है कि –
कहे मुताबिक
मैं सब चीजों को बाहर छोड़ आया हूँ
फिर वह आखिर तो कोई संत, कोई भिक्षु नहीं, आखिर तो वह प्रेम में पड़ा कवि है, सो वह लिखता है कि-
अपनी याद को पत्तों के बीच रख आया हूँ
तुम उनके नीचे से गुजरोगी छूते हुए
तो ओस की बूँदें तुम्हारी हथेलियों को नम कर देंगी
ऐसी इच्छाओं, आकांक्षाओं से भरे कवि को उपहार में मुश्क़िल ही मिलती है। वह उस मुश्क़िल को छपटपटाहट के सौंदर्य के साथ रचता है-
तुम्हारी यादों के गुच्छे मेरे दिल को अमलतास के फूलों में तब्दील करते जा रहे हैं
मेरा मन भारी हो नीचे और नीचे की ओर झुका आ रहा है
पर तुम ठीक वहाँ नीचे धरती बनकर नहीं हो
इस तरह मेरा झुकना अधर में लटका हुआ छूट गया है
प्रमोद की कविताएँ बताती हैं कि वे जीवन के ताप और संताप को गहरे राग से महसूते हुए जीने वाले कवि हैं। वरना ऐसा लिखना कैसे हो कि –
रेगिस्तान में पानी की
और जीवन में प्यार की कमी थी
देह और जुबान पर काँटे लिए
अब नागफनी अपनी ही कोई प्रजाति लगती थी
ऐसी कविताएँ लिखने वाले प्रमोद अपनी ही प्रजाति के कोई कवि लगते हैं। उनकी कविता में धरती अपने प्रेमी किसान के कंधे पर सिर रखकर सुस्ताती है।
प्रमोद पाठक की कविताएँ
1. ओक में पानी की इच्छा
उसकी इच्छाओं में मानसून था
और मेरी पीठ पर घास उगी थी
मेरी पीठ के ढलान में जो चश्मे हैं
उनमें उसी की छुअन का पानी चमक रहा है
इस उमस में पानी से
उसकी याद की सीलन भरी गंध उठ रही है
मेरे मन की उँगलियों ने इक ओक रची है
इस ओक में पानी की इच्छा है
मैं उस मिट्टी को चूमना चाहता हूँ
जिससे सौंधी गंध उठ रही है
और जिसने गढ़े हैं उसके होठों के किनारे
2. अकेली स्त्री के लिए मुहब्बत का एक गीत
नींद के हर मैच में रात को हराकर अल सुबह उठ जाती हो
फिर
बच्चे का स्कूल, ऑफिस, कंम्प्यूटर, मजदूरी, फीस, बिल, सब्जी-मंडी, दूध, किराना, किराया
जैसे अर्थों से गुजरती हुई
एक लुहार बनकर
अपने दिन को मेहनत से
रचती हो कविता की तरह
हर शाम एक आखिरी सोनेट होती है
जिसे जोड़ते हुए इस तरफ चली आती हो
अपने लिए कुछ समय बीनती हुई इन घने पेड़ों के नीचे
उँगलियों में सिगरेट फँसाए
ना जाने अपना कौनसा बिछुड़ा प्यार याद करती
चहल कदमी करती हो
इस तरह तुम्हारे लाल जूतों के निशान उस जगह सड़क के दिल पर उभर आते हैं
आसमान के सितारों को रश्क है तुम्हारी सिगरेट में चमकते सितारे से
वे खुद तुम्हारी उँगलियों मे आकर फँस जाने का ख्वाब देखते हैं
ये सरकंडे अपने सफेद फूलों के साथ
सिर्फ स्वागत में लगी झंडियों की तरह तुम्हारे रास्ते में खड़े होने के सिवा कुछ नहीं कर सकते थे
और मैं तुम्हारे इस अकेलेपन में सिर्फ एक गीत लिख सकता था मुहब्बत का
3. चप्पलें
इन गुलाबी चप्पलों पर
ठीक जहाँ तुम्हारी ऐड़ी रखने में आती है
वहां उनका अक्स इस तरह बन गया है मेरी जान
कि अब चप्पल में चप्पल कम और तुम्हारी एड़ियाँ ज्यादा नज़र आती हैं
घिसकर तिरछे हुए सोल में
जीवन की चढ़ाई इस कदर उभर आई है
फिर भी तुम हो कि जाने कितनी बार
चढ़कर उतर आती हो
रात तनियों के मस्तूल से अपनी नावें बाँध सुस्ताती हैं चप्पलें
और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी
थककर सोए तुम्हारे पैरों का पता देती हैं
4 . मगर सपने अड़े हैं
कहे मुताबिक
मैं सब चीजों को बाहर छोड़ आया हूँ
अपनी याद को पत्तों के बीच रख आया हूँ
तुम उनके नीचे से गुजरोगी छूते हुए
तो ओस की बूँदें तुम्हारी हथेलियों को नम कर देंगी
बस!
अपनी चाहत को सौंप आया हूँ सितारों को
किसी अँधेरी रात में एक बार उठा दोगी अपनी नज़र आसमान की तरफ
तो चमकीली लकीर बनाती एक उल्का बढ़ेगी तुम्हारे पाँवों की ओर
उन्हें चूमने की अधूरी इच्छा लिए
बेचैनी मैं अपनी धरती को सौंप आया
और छोड़ दिया उसे घूमने के लिए चौबीसों घंटे
ताकि वह खयाल रख सके इस बात का
कि दिन के समय दिन हो और रात के समय रात
मैंने सपनों से कह दिया
कि ढूँढ़ लें अब कोई और नींद की नदी
वहीं जाकर तैराएँ अपनी कागज की नाव
इस दरिया में अब पानी कम हुआ जाता है
सबने मेरी बात मान ली
मगर सपने अड़े हैं
कहते हैं – हम यहाँ के आदिवासी
इसी किनारे रहेंगे
चाहे जो हो !
5 . नागफनी –1
(के.सच्चिदानन्दन की कविता ‘कैक्टस’ को याद करते हुए)
रेगिस्तान में पानी की
और जीवन में प्यार की कमी थी
देह और जुबान पर काँटे लिए
अब नागफनी अपनी ही कोई प्रजाति लगती थी
कितना मुश्किल होता है इस तरह काँटे लिए जीना
कभी इस देह पर भी कोंपलें उगा करती थी
नर्म सुर्ख कत्थई कोंपलें
अपने हक के पानी और प्यार की माँग ही तो की थी हमने
पर उसके बदले मिली निष्ठुरता के चलते ना जाने कब ये काँटों में तब्दील हो गईं
आज भी हर काँटे के नीचे याद की तरह बचा ही रहता है
इस सूखे के लिए संचित किया बूँद-बूँद प्यार और पानी
और काँटे के टूटने पर रिसता है घाव की तरह
नागफनी –2
समय में पीछे जाकर देखो तो पाओगे
मेरी भाषा में भी फूल और पत्तियों के कोमल बिंब हुआ करते थे
मगर अब काँटों भरी है जुबान
ऐसे ही नहीं आ गया है यह बदलाव
बहुत अपमान हैं इसके पीछे
अस्तित्व की एक लंबी लड़ाई का नतीजा है यह
बहुत मुश्किल से अर्जित किया है इस कँटीलेपन को
अब यही मेरा सौंदर्य है
जो ध्वस्त करता है सौंदर्य के पुराने सभी मानक
6 . मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता
हम सीढ़ियों पर मधुमालती के उस फूल जितनी दूर बैठे थे
जो रात की तरह आहिस्ता से हमारे बीच झर रहा था
समुद्र दूर दूर तक कहीं नहीं था
फिर भी दुख के झाग अपने पूरे आवेग से तुम्हारे दिल के किनारे तक आ- आकर मुझे छू रहे थे
यह दुख किसी मिट्टी से बना होता
तो मैं एक कुम्हार होता और तुम्हारे लिए मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता
7 . इस तरह वह मेरा उधार तुम्हें लौटाएगा
मई की यह दोपहर सन्नाटा रच रही है
और तुम याद आ रही हो
तुम्हारी यादों के गुच्छे मेरे दिल को अमलतास के फूलों में तब्दील करते जा रहे हैं
मेरा मन भारी हो नीचे नीचे और नीचे की ओर झुका आ रहा है
पर तुम ठीक वहाँ नीचे धरती बनकर नहीं हो
इस तरह मेरा झुकना अधर में लटका हुआ छूट गया है
आस-पास बहुत उदासी है
और मेरी आवाज तुम तक नहीं पहुँच रही है
तुम यहाँ से बहुत दूर हो
और तुम्हारी यादों की तितलियाँ
अपनी असफल उड़ानों पर हैं
मैंने तुम्हारे हिस्से के चुम्बन पड़ौस में खड़े गुलमोहर को उधार दे दिए हैं
और वे अब उसकी देह पर लाल-लाल चमक रहे हैं
मुझे उम्मीद है कि तुम कभी इस राह गुजरोगी
तब यह गुलमोहर तुम पर एक फूल गिराएगा
और इस तरह वह मेरा उधार तुम्हें लौटाएगा
8 . धरती का प्रेम
घटाओं के बाल बिखेरे धरती लेटी है
जिस्म से उठ रही बारिश के पसीने की सोंधी गंध
उसके नथुनों में घुस रही है
हल पर झुका वह
चूम रहा उसकी पीठ
यह उनके प्रेम का मौसम है
अभी अभी हामला हुई
उसके गर्भ में छुपा है जो प्रेम
आज नहीं तो कल
दिखने ही लगेगा अपने पूरे हरेपन में उसका वह पेट
आखिर कब तक छिपाएगी !
जनेगी धरती बीजों की संतान
खलिहान के झूले में सुला
होले से झुला
कोई लोरी गुनगुनाएगी
पास ही बैठा होगा प्रेमी किसान
उसके कंधे पर सिर रख फिर कुछ देर सुस्ताएगी
9. एक बबूल का पेड़
एक बबूल का पेड़ गिरा पड़ा है
धीरे-धीरे उसी जगह पड़ा सूख गया है
और अब तब्दील होता जा रहा है एक ठूँठ में
कभी यहीं ठीक इसी जमीन के नीचे रही होंगी इसकी जड़ें
और यह भी रहा होगा हरा
इसकी शाखाओं में भी रहे होंगे जवानी के गट्टे
मछलियों की तरह उभरे हुए
आज जो गिलहरियाँ फुदक रही हैं इसके आस-पास
कभी उन्हीं का आवास रहा होगा यह
और उन्होंने इस पर जने होंगे अपने बच्चे
ये जो चींटे इतने उदासीन हो गुजर रहे हैं इससे
कभी उन्होंने भी बसेरा बनाया होगा इसकी जडों में
इससे फर्क नहीं पड़ता कि अपनी उम्र पाकर गिर पड़ा है
या इसे काटकर गिरा दिया गया है
लेकिन इससे फर्क जरूर पड़ता है
कि अचानक यह आपको अपना बिंब लगने लगे
10. मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता परातों में
दिन भर की मजूरी की थकान
उनकी पोर-पोर में भरी है
सामने परात में भरा पानी
एक गर्वीली मुस्कान के साथ उसे छू रहा है
और वे अपने पाँव धोते हुए उसे उपकृत कर रही हैं
वे अपने पाँव की उँगलियों में पहनी चिटकी को
बड़े जतन से साफ कर रही हैं
मानो कोई सिद्धहस्त मिस्त्री साफ-सफाई करके
किसी बैरिंग में बस ऑइल और ग्रीस डालने वाला है
जिसके बल ये पाँव अभी गति करने लगेंगे
एक दूसरे से बतियाती व अपने पंजे साफ करतीं
वे टखनों की तरफ बढ़ती हैं
उसके बाद पिंडलियों पर आए
सीमेंट-गारे के छींटों से निपटने के लिए अपना लँहगा कुछ उठाती हैं
और अभी-अभी उड़ान भरने के लिए उठे बगुले के पंखों के नीचे बने उजाले सा रोशन कर देती हैं
कस्बे की उस पूरी की पूरी गली को
जहाँ यह दृश्य घट रहा है
मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता उन परातों में
तो मैं भी कोशिश करता
उन पिंडलियों में भरी थकान को धो डालने की
11. भूख को दीमक नहीं लगती
मेरी आँते
एक सर्पिलाकार सड़क है
जिस पर भूख की परछाई गिर रही है
और भूख मेरे महान देश के नागरिकों का पहचान पत्र है
संसद यहाँ से बहुत दूर है
और ऐसे पदार्थ से बनी है जिसकी कोई परछाई नहीं बनती
हमें नागरिक होना सिखाया गया
यह मानकर कि हम अपनी पहचान को छुपाए रखेंगे अपने घुटने पेट में मोड़कर
मगर क्या करें भूख को कोई दीमक नहीं लगती
12. मेरी चमड़ी तुम्हारे जूतों के काम आएगी
मुझे मालूम है कि मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए
मेरा इस लोकतंत्र के जलसे में क्या काम
मैं तुम्हें रोटी के कौर में किरकिराहट की तरह महसूस होता हूँ
मैं जानता हूँ
मेरी चमड़ी तुम्हारे जूतों के काम आएगी
और मेरी फाँसी लगाने की रस्सी से तुम अपने जूतों के तस्में बाँधोगे
(कवि प्रमोद बच्चों व बड़ों दोनों के लिए लिखते हैं। उनकी लिखी बच्चों की किताबें गैर लाभकारी संस्था ‘रूम टू रीड‘ से प्रकाशित हो चुकी हैं। कविताएँ व कहानियाँ समय-समय पर बच्चों की प्रत्रिका चकमक, साइकिल व प्लूटो में प्रकाशित होती रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन हो चुका है। वे वर्ष 2016-19 दिगन्तर, जयपुर से निकलने वाली शिक्षा की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श‘ के संपादक रह चुके हैं। वर्तमान में बतौर फ्री लांसर बच्चों के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागॉजी पर कार्यशालाएँ करते हैं। कुछ समय से शौकिया फ़ोटोग्राफी कर रहे हैं। इनकी खींची तस्वीरों को देखने के लिए आप इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं:https://www.instagram.com/filming_poetry/
सम्पर्क: pathak.pramod@gmail.com
टिप्पणीकार कवि प्रभात ‘युवा कविता समय सम्मान, 2012 और सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, 2010 से सम्मानित ।
राजस्थान में करौली जिले के रायसना गाँव में जन्म। बीते बीस वर्षों में समय-समय पर शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्र कार्य। ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (कविता संग्रह) साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित। बच्चों के लिए गीत,कविता,कहानियों की बीस से अधिक किताबें प्रकाशित। लोक साहित्य संकलन, दस्तावेजीकरण में रुचि। विभिन्न लोक भाषाओं में बच्चों के
लिए बीस से अधिक किताबों का सम्पादन।
सम्पर्क: prabhaaat@gmail.com)