समकालीन जनमत
कविता

मनोज चौहान की कविताएँ समाज के संवेदनशील विषयों की पड़ताल करती हैं।

गणेश गनी


कवियों की भीड़ में मनोज चौहान निरन्तर क्रियाशील हैं और सजग भी। बाजारवाद के इस युग में कविता का भी बाजारीकरण हुआ है। कुछ चुस्त और चालाक कवि कविता का विज्ञापन करके इस बाजार में टिके रहना चाहते हैं। उन्हें यहां के नियम पता हैं। कवि ने ठीक कहा है-

हर रोज खुलता है बाज़ार
और शाम को बंद होते – होते छोड़ जाता है कई सवाल।

मनोज चौहान की कविताएँ समाज के संवेदनशील विषयों की पड़ताल करती कविताएँ हैं। मनोज की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में ग्रामीण परिवेश उभरता है-

देखना कभी नजदीक जाकर
उस पहाड़ी औरत के हौंसले को
जब वह खींचती है झूले को
और पार कर जाती है उफनती नदी को।

कवि का मन बेचैन रहता है। उसके अंदर तोड़ – फोड़ चलती रहती है। मनोज काव्य-कर्म तथा काव्य-लक्ष्य को लेकर अत्यंत सजग और सतर्क नज़र आते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी कई कविताओं में कविता के उद्देश्य को उदघाटित किया है। अपनी एक कविता वे लिखते हैं-

कोई बात छू जाती है जब
हृदय तल की गहराइयों को
या कभी
पीड़ा और तकलीफ़ देते दृश्य
कर देते हैं बाध्य
भीतर के समुद्र में
गोता लगाने के लिए

जन्म लेती है
इस तरह एक कविता।

सदियों से कमज़ोर का शोषण ताकतवर करता आया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आदमी के बीच से संवेदनाएँ गायब होती जा रही है। चुप्पी की आदत खतरनाक होती है। समाज को सही दिशा देने का काम मौन होकर नहीं, मुखर होकर किया जा सकता है। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना भी कवि का ही काम है। आदर्श समाज का निर्माण तभी संभव है जब हम सब मिलकर सकारात्मक योगदान दें। सच का साथ दें-

सच कभी मरता नहीं
गुम हो जाता है बेशक।

सच मरा नहीं
सुकरात को ज़हर देकर भी।

जीवन के कठोरतम संघर्ष से उपजी घुप्प अंधेरे में ढिबरी की रोशनी की तरह उम्मीद की किरणें यहाँ नज़र आती हैं। मनोज की भाषा एकदम सरल है। कविताओं में बिम्बों, रूपकों और प्रतीकों की कमी खलती है। शैली और शिल्प साधारण होते हुए भी काव्य भाव आकर्षित करता है-

याद आती हैं
खाना खाते समय
पिता की दी गई नसीहतें
दादी की चिंताएं।

दादा का
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
लेना रिपोर्ट सभी से।

कवि ने अपनी कविताओं में अत्यंत मोहक और विषयानुकूल शब्दों का चयन किया है। सभी कविताओं में एक बेहतरीन प्रवाह है, जो काव्य-पाठ सा आनंद देता है। कई कविताएँ लोकसंस्कृति पर थोड़ा रुककर सोचने की मांग करती हैं। मनोज चौहान की कविताएँ समाज के संवेदनशील विषयों की पड़ताल करती कविताएँ हैं। सभी कविताएँ मार्मिक हैं और हृदय को बड़ी ही गहराई तक स्पर्श करती हुई आगे बढ़ती हैं। मनोज चौहान की कविताएँ समाज के संवेदनशील विषयों की पड़ताल करती कविताएँ हैं। स्थानीयता से सराबोर हैं। इनमें पहाड़ की ठंडी बयार है और खेतों की खुशबू भी। कभी- कभी ठहराव अच्छा होता है, भीतर का ठहराव-

मैं पाता हूँ कभी – कभार
एक ठहराव अपने भीतर।

 

मनोज चौहान की कविताएँ

1. ढिंढोरची

साहब
ढिंढोरची हैं वे
बगुले के माफिक
मार आते हैं चोंच इधर-उधर
ताकि कुछ केंचुओं को बना सकें
अपना शिकार ।

उनकी तथाकथित गैंग
भरती है दंभ
बेहतर मनुष्य होने का
इसीलिए आये दिन
सोशल मीडिया पर दिखते हैं उनके फोटू
व्हाट्स एप्प पर शेयर होती है
उनकी मनुष्यता
पीड़ा और अवसाद को वे महसूसते नहीं
महज प्रचारित करने के हुनर में माहिर हैं ।

क्या कहा
समाजसेवक !
अरे नहीं
अपनी ही जमात के
दूसरे ढिंढोरचियों के मध्य
उन्हें कायम रखना है
अपना बनावटी रसूख
इसलिए एक- आध महीने में
यह उपक्रम करना
उन्हें लगता है जरूरी ।

एक मूल प्रश्न जो खड़ा है
दशकों से सामने
अनुत्तरित है आज भी
अस्तित्व के मूल प्रश्न से सामना होने पर
उनके कानों में मानो
पिघल जाता है शीशा
तालु में चिपक जाती है उनकी जीभ
साथ न चलना पड़े
इसलिए उन्हें लकवा मार जाता है

सच्चाई को देखने मात्र से
उनकी आंखों में छा जाता है मोतिया ।

मुठ्ठी भर चंद लोग
जो लड़ रहे हैं उनके भी हिस्से की लड़ाई
उन्हें वे अपना विरोधी मानते हैं
भागते हैं कोसों दूर
उनकी घबराहट उनके कृत्यों से
साफ नजर आती है ।

वे ढिंढोरची हैं साहब
आप उन्हें मान सकते हैं
मौकापरस्त
सुविधाजीवी
और तुच्छ दर्जे के स्वार्थी भी
समय आने पर
वे केंचुली बदलकर डस लेंगे
उन्हें शय देना
संकट को पोषित करना है
वे असल में
किसी के भी सगे नहीं हैं !

 

2. भूख से कुलबुलाती आंतों का गणित

महज दो जून की रोटी ही
शामिल रही तुम्हारी महत्वकांक्षा में
जिसके खातिर तुमने
तपाया अपना जिस्म
निर्बाध धधक रही
मेहनत की भट्टी में
तुम्हें छला गया हर बार
क्योंकि बहेलिये जानते थे
हमेशा से ही
भूख से कुलबुलाती
आंतों का गणित ।

गांव की मिट्टी को छोड़ा था तुमने
इसी उम्मीद में
तुम्हारे हाथों ने गढ़ी
नित निर्माण की परिभाषाएं
कदमों ने मापे विकास के आयाम
मगर तुम्हें देखा गया हमेशा ही
हेय दृष्टि से
किसी सुंदर देह पर उभर आए
फोड़े की तरह ।

जिस दौर में
आत्ममुग्ध हों तमाम व्यवस्थाएं
भुनाई जा रही हों
बची-कुची संवेदनाएं
अदनी सी मदद को
तकनीक की आंख में कैद कर
हो रहा हो
अहम का तुष्टीकरण
ऐसे भयावह समय में
हैरान नहीं करता
तुम्हारा लौट जाना
अपनी जड़ों की ओर ।

तुम्हारी बदहाली देख
चींटियों का स्मरण करना
प्रतीत होता है लाजमी
जिनकी भूख, दर्द और तकलीफों पर
चिंतन करना समझदारी नहीं
क्योंकि चींटियों के मसले जाने पर
नहीं किया जाता विलाप
बल्कि धर लिया जाता है मौन
मात्र नियति जानकर ।

जानता हूँ साथी
यह सब लिखकर
मैं नहीं बदल पाऊंगा कुछ भी
मेरे शब्द नहीं दे सकते तुम्हें
दाल-भात
नहीं भर सकते
तुम्हारे पैरों के नासूर घाव
नहीं सहला सकते
तुम्हारे वर्षों से थके हुए शरीर
नहीं लौटा सकते
तुम्हारी आंखों से बह चुका
खारा जल ।

मगर मैं फिर भी
लिखूंगा यह सब
क्योंकि यह घटनाक्रम
चलता आ रहा है सदियों से
और जारी रहेगा
हर दौर में
क्योंकि तुम चाहकर भी
नहीं छोड़ पाओगे अपनी महत्वकांक्षा
हो जाआगे असफल हर बार
और नहीं सुलझा पाओगे
भूख से कुलबुलाती
आंतों के गणित को !
कोरोना संक्रमण के दौरान मजदूरों के पलायन से आहत होकर लिखी गई रचना l

 

3. मील का पत्थर

हाँ मैं हूँ
मील का पत्थर
दिख जाता हूँ तुम्हें
किसी राजमार्ग
या सुदूर इलाके की किसी सड़क पर
मत बिगाड़ो भाई
मुझपर लिखी लिखावट ।

सफर करती सवारियों के लिए
आज भी करता हूँ मार्गदर्शन
बताता हूँ उनको
अमुक जगह का नाम
भले ही आज चिढ़ाते हों मुझे
गूगल मैप
और जीपीएस की आधुनिक तकनीक ।

नौकरी पर जाते हुए
सफर करते शख्स के फ़ोन पर
सुनाई देता है जब स्वर
उसके परिजनों का
कि ‘कहाँ पहुंचे’
तो झांकता है वह
आँख मलते हुए
बस या ट्रेन की खिड़की से बाहर
उसकी आंखें खोजती हैं मुझे ही
ताकि बता सकें वह
उस स्थान के बारे में ।

मैंने देखे हैं सड़क निर्माण के दौरान
मजदूरों के दुःख-तकलीफें
मुंशी और इंजीनियर बाबू की डांट
हर मौसम में काम करते
मेहनतकश लोग ।

मुझपर लिख रखे
किलोमीटर के आंकड़े को
नापा होगा किसी ने
कभी अपने कदमों से
हालांकि उपहास मात्र के लिए
बदल देते हो तुम
किसी जगह के नाम को
कुछ मात्राओं के हेर-फेर से ।

वर्षा, बर्फबारी
या जेठ की तपती दोपहरी में
मैं खड़ा हूँ अडिग
अपनी जगह पर
मुझे खोजती है
पथिक की आस भारी आंखे
और उनमें लौट आती है चमक
इस अनुभूति के साथ
कि मंजिल अब
इतनी भी दूर नहीं !

 

4. गडरिये

ऊब हो गई है उन्हें
इस हद तक
कि उन्हें चाहिए
उल्लास और उत्सव के क्षण
जीवन में
हर कीमत पर
किसी भी
तरीके से ।

भेड़ों के उस झुंड को हांकना
उन्हें लगता है सहज
और रोमांचक
जिनकी जरूरतें
आत्मकेंद्रित हैं ।

कभी हांके गए थे
वे स्वयं भी
लेकिन वर्षों के अंतराल में
उनकी तथाकथित समझ
हो गई है विकसित
इस क़द्दर
कि हांकने के हुनर में
वह स्वयं को
माहिर मानते हैं ।

आत्मसम्मान को
वे धकेल चुके हैं
किसी अंधेरी कोठरी के
उपेक्षित कोने में
मानो ठिकाने लगा आए हों
कोई गठरी
कटे-फट्टे पुराने कपड़ों की ।

नेतृत्व करने की गफलत पाले
वे पीट रहे हैं ढोल
बजा रहे हैं तूती
रात-दिन
बिना रुके
बिना थके
अपने इस कार्य को
बताते हैं राह
परोपकार और जनकल्याण की ।

वे नहीं करेंगे बात कभी
सशक्तिकरण और
स्वावलंबन की
स्वाभिमान जैसे लफ्ज
मौजूद नहीं
उनके शब्दकोश में ।

उनकी बुद्धि पर जम चुका है
स्वार्थ का मवाद
उन्हें केवल हांकना है भेड़ों को
और पानी है पदवी
हर हाल में
एक कुशल
गडरिये की !

 

5. खिलौने

पिता के साथ रह रहे बच्चे
दूर हो जाते हैं
जब कभी
अल्पकाल के लिए ही
अक्सर ढूंढता है वह
उनकी मुस्कान
और निश्छलता
उनके खिलौनों में ।

ड्रमर पर बना डोरेमोन
दिलाता है याद
उनकी खिलखिलाहट
तमाम खिलौने जैसे
रिमोट वाली कार
बैटरी से चलने वाले
ऊंट, गिटार या फिर
डांसिंग गुड़ियों की जोड़ी
उन्हें छूने भर से ही
महसूसता है वह
बच्चों के उसी
कोमल स्पर्श को ।

तकनीक के इस दौर में
वीडियो कॉल पर
दूर गांव से
जब जिद करते हैं बच्चे
देखने को अपने वही खिलौने
तब पिता मन ही मन
भावुक हो उठता है
उनकी इस फरमाइश को
मानता है वह
आदेश की तरह ।

कृतज्ञता का भाव लिए
स्मरण हो आता है उसे
उस कारीगर का
जिसने निर्मित किया होगा
इस पृथ्वी का
सबसे पहला खिलौना ।

खिलौने
बचाए रखते हैं संवेदना
और बांधे रखते हैं
पिता और बच्चों को
विछोह में भी
नदी के दो छोरों
पर बने
पुल की तरह !

 

6. अम्मा का संदूक

दूध, दही और मक्खन
संजोने के लिए रखा
अम्मा का वह आयताकार
काले रंग का संदूक
जिसके ढक्कन के भीतर की तरफ
एक खास मौसम में
आ बैठती थी मधुमखियाँ ।

घर के बच्चों को दी जाती थी
खास हिदायतें
कि उस कमरे में जाना बर्जित है
कहीं डंक ना मार ले कोई मधुमखी
अम्मा वैसे ही रखती रहती
दूध, दही और मक्खन
मजाल कि कभी काटा हो उन्हें
किसी भी मधुमखी ने ।

दरवाजे और खिड़की पर
भिनभिनाती मधुमखियाँ
ऐसे लगती थी
मानो कर रही हों पहरेदारी
अम्मा के संदूक की ।

दो कमरों का पुरखों का
पुराना घर टूटा
और बन गया नया घर
कई बार अदला-बदली में
बदली गई जगह
संदूक की भी
लेकिन मधुमखियाँ आती रही
और ढूंढ लिया
हर बार
अम्मा का संदूक ।

जब चली जाती मधुमखियाँ
तो उस जगह पर बच जाता
उनके छत्ते का निशान
मोम के अवशेष की
उस आकृति को
हम बच्चे देखते थे
स्पर्श करके
और खुरच-खुरच कर चबाते
बचे हुए मोम को ।

अम्मा नहीं रही
लेकिन उनका संदूक
रहा वर्षों तक इंतजार में
लेकिन मधुमखियाँ
फिर नहीं आई
शायद अम्मा का स्नेह ही
खींच लाता था उन्हें
यह बात
हम आज समझे हैं !

 

7. विचारक

वे विचारक हैं
उत्तम दर्जे के
उनकी बौद्धिकता की धार
कहीं कुंद ना पड़ जाए
इसीलिए
अपने तथाकथित अर्जित ज्ञान से
वे चाहते हैं लाभान्वित करना
हर आमो- खास को ।

उनका रोम-रोम
हर्षित हो उठता है
जब मानवता की केंचुली पहने
वे तौलते हैं
अपनी विचारधारा के तराजू में
हर उस व्यक्ति को
जिसमें दिखता है उन्हें
विरोधाभास ।

इस गहरे भ्रम की
अवस्था को
वे मानते हैं अपनी अकूत पूंजी
उन्हें लगता है कि
उनके शब्द अकाट्य हो गए हैं
मानो ब्रहम वाक्य
हो गया हो
उनका हरेक कथन ।

वे देते हैं दुहाई
उच्चतम मानव मूल्यों के साथ
संस्कारों व परिवेश की
मतभेदों को
मान बैठे हैं मनभेद
थोपना चाहते हैं
हर हाल में
स्वयं की सोच को दूसरों पर
इसके लिए वे
अथक परिश्रम करते हैं
ताकि फलती-फूलती रहे
समाज में निर्मित
उनकी कृत्रिम छवि ।

सुनो विचारक !
जिन्हें लड़ना है वो लड़ेंगे ही
तुम्हारे भी हिस्से की लड़ाई
क्यों परेशान हो तुम ?
हर जगह
दर्ज कराते हो अपनी सहमति
और रुष्ट नहीं करना चाहते
किसी को भी ।

हितैषी हो असल में
मनुष्यता के
तो असहमति दिखाने की भी
हिम्मत रखो
वर्ना व्यर्थ होगा यूं
कल्पवृक्ष की तृष्णा में
तुम्हारा ढोल पीटना !

 

8. संभावनाएं

संभावनाएं बनी रहती हैं
हमेशा ही
उदासियों का कोहरा छट जाने की
बंजर धरा पर
बीज के उग आने की
और अरसा पहले घर छोड़ कर गए
बेटे के लौट आने की ।

संभावनाएं मौजूद रहती हैं
बर्षों से सूखे पड़े
किसी झरने, कुएं या बाबड़ी में
शीतल जलधारा के प्रस्फुटन की
या फिर बहुत आत्मीय से किसी
दूर छूटते जा रहे
रिश्ते को सहेजने की ।

संभावनाएं होती हैं
घटाटोप अंधेरे में
किसी जुगनू के प्रकाश की
भीषण जाड़े के मौसम में
ठंड से ठिठुरती गौरेया के पंखों में
अपने बच्चों के लिए
स्नेहिल ताप की
और कचहरी में सालों से लंबित पड़े
किसी मुकद्दमे में जीत की ।

जरूरी हैं संभावनाएं
ताकि पतन से उत्थान की ओर
ले जाई जा सके
कलुषित मनुष्यता
संवारा जा सके
पृथ्वी का सबसे उपेक्षित कोना भी ।

संभावनाएं
स्त्रोत हैं ऊर्जा का
संभावनाओं का बने रहना
आवश्यक है
वह पोषित करती हैं जिजीविषा
और बचाए रखती हैं
उम्मीदों को !

 

9. यात्राएं जरूरी हैं

यात्राएं जरूरी हो जाती हैं तब
जब एक अनकही उदासी
घर कर जाए हमारे भीतर
निर्धारित हो लक्ष्य
मगर अदृश्य से बंधन
जकड़े रखते हों पांव ।

यात्राएं जरूरी हैं
इसलिए भी
ताकि भीतर की तमाम
रुग्णताओं और कुंठाओं को
छोड़ दिया जाए
यात्रा के किसी
निर्जन पड़ाव पर ।

यात्राओं का महत्व
खास हो जाता है
इसलिए भी
ताकि हासिल हो सके
थकान से चूर हुए
पावों के छालों को
सहलाने का सु:ख ।

यात्राएं आवश्यक हैं
ताकि बाधाओं के बीच कहीं
जवाब दे जाए हिम्मत
तो अंजुरी भर
झरने के शीतल जल में
महसूस हो
संजीवनी सा असर ।

यात्राएं की जानी चाहिए
ताकि भीतर की क्षमताओं का
हो सके आत्मबोध
नकारात्मक ऊर्जा का क्षय
भर दे हमें
गहन आत्मिक संतोष से
और प्रस्फुटित कर दे
हमारे भीतर
रूपांतरण के बीजों को !

 

10. पहाड़ का दरकना
दरक गया पहाड़
फिर से
ग्रास बना है
अनमोल जीवन
दिखाया है प्रकृति ने
विध्वंसक रूप
झिंझोड़ दिया है भीतर तक
मानव सभ्यता की
चेतना को l

उसे भी तो कुरेदा गया था
बड़े दांतों वाली
भारी भरकम मशीनों से
उसकी सिसकियाँ
दब गई थी
बारूद के धमाकों और
मलवे की ढूलाई करते
टीपरों के शोर के बीच l

नहीं सुना गया था
उसकी देह पर उगे
बृक्षों का विलाप
पहाड़ जख्मी था
उसे कहाँ मिल पाया था
अपेक्षित उपचार ?

स्थिर रहा वो
जिजीविषा की
अंतिम सांस उखड़ने तक
संजोए रहा हलाहल
अपने भीतर
उसे दी गई यातनाओं का l

उसके वश में
था ही नहीं अब
खड़े रहना
इसीलिए
दरक गया वह l

यह सब
अनायास नहीं हुआ
उसके बजूद का मिटना
आत्महत्या नहीं
त्रासदी के संकेत देती
उसकी तिल-तिल मरती
मौत का
आँखों देखा
उपेक्षित हुआ
तमाशा है l

(हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के कोटरोपी में 12 अगस्त, 2017 को हुए भारी भूस्खलन पर)


कवि मनोज चौहान
जन्म तिथि – 01 सितम्बर, 1979
जन्म स्थान- हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के अंतर्गत गाँव महादेव (सुंदरनगर) में किसान परिवार में जन्म l
शिक्षा – कला स्नातक, इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, पीजीडीएम इन इंडस्ट्रियल सेफ्टी l
सम्प्रति- एसजेवीएन, शिमला (भारत सरकार एवं हिमाचल प्रदेश सरकार का संयुक्त उपक्रम) में प्रबन्धक के पद पर कार्यरत l

कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं/कविता कोश/गद्य कोश में कविता, लघुकथा, फीचर, आलेख, समीक्षा आदि प्रकाशित एवं संकलित l कुछ अहिन्दी पत्रिकाओं में भी प्रकाशन।
‘पत्थर तोड़ती औरत’(कविता संग्रह) – 2017 (अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश) l
‘देवता झूठ नहीं बोलता (लघुकथा संग्रह ) – 2023 (अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश) l
डेढ़ दर्जन से अधिक साँझा संग्रहों में कविता, लघुकथा, व्यंग्य, संस्मरण आदि संकलित l

स्थायी पता : गाँव व पत्रालय – महादेव, तहसील- सुंदर नगर , जिला- मंडी (हिमाचल प्रदेश), पिन -175018
सम्पर्क- 94180 36526, 70183 21598
ई-मेल : mc.mahadev@gmail.com
ब्लॉग : manojchauhan79.blogspot.com

 

 

टिप्पणीकार टिप्पणीकार गणेश गनी का जन्म: 23 फरवरी 1972 को पांगी घाटी (चम्बा) हिमाचल प्रदेश में।
शिक्षाः पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.बी.ए., पी.जी.जे.एम.सी. (इग्नू), जम्मू विश्वविद्यालय से बी. एड.
सृजनः हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, साहित्य – संवाद की एक पुस्तक ‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ 2018 में प्रकाशित और हिंदी साहित्य जगत में चर्चित। कविता की पुस्तक ‘वह सांप-सीढ़ी नहीं खेलता’ 2019 में प्रकाशित और पाठकों में चर्चित।
सम्प्रतिः कुल्लू के ग्रामीण क्षेत्र में एक निजी पाठशाला ‘ग्लोबल विलेज स्कूल’ का संचालन।
सम्पर्कः एम.सी. भारद्वाज हाऊस, भुट्टी कॉलोनी, डाकघर शमशी, कुल्लू -175 126 (हिमाचल प्रदेश)
मोबाइलः 09736500069
ई-मेलः gurukulngo@gmail.com

 

 

 

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