समकालीन जनमत
कविता

मंजुल भारद्वाज की कविताएँ दमनात्मक व्यवस्था की त्रासदी को उजागर करती हैं

मेहजबीं


मंजुल भारद्वाज एक मंझे हुए रंगकर्मी हैं और एक ज़िम्मेदार कवि भी। उनकी अभिव्यक्ति के केन्द्र में लोकतंत्र संविधान और देश की जनता है। भारत आज़ाद हो गया, अंग्रेजी शासन से आज़ादी हासिल कर ली, मगर पूंजीवादी व्यवस्था और उसकी अमानवीयता से आज भी देश के नागरिकों को आज़ादी नहीं मिली है। देश तो आज़ाद हुआ मगर सिस्टम में कोई बदलाव नहीं आया। समय-समय पर सिर्फ़ चेहरे बदलते रहते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें मानवीय संवेदना नहीं होती। मंजुल भारद्वाज जी की कविताएँ पूंजीवादी व्यवस्था की अमानवीय असंवैधानिक अलोकतांत्रिक शोषणकारी परिस्थितियों को पाठकों के सामने पेश करती हैं।

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
मुठ्ठी भर पूंजीपति
जो लूट रहे हैं भारत के
जल,जंगल,ज़मीन और आसमान
सब लूटकर बांट रहे हैं
भूख,गरीबी,बेरोजगारी और कर्जबाजारी !

मंजुल भारद्वाज की कविताएँ अपने वर्तमान समय की आर्थिक सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण करती हैं। इन कविताओं की भाषा बहुत आम बोलचाल की भाषा है। कविता पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे रंगमंच पर कोई क्रांतिकारी व्यक्ति आमने-सामने आपसे संवाद कर रहा है। मंजुल जी की कविताओं में रंगमंच की भाषा दिखाई देती है। मंजुल जी की कविताएँ राजनीतिक चेतना की कविता हैं। व्यवस्था द्वारा फैलाए गए झूठ प्रोपेगेंडे का यथार्थ चित्रण इन कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है।

झूठ सत्ता और धर्म का शोषण हथियार है
सत्य शोषण से मुक्ति का मार्ग है!

झूठ महलों में रहता है
मखमल पर सोता है
सत्य कांटों के मार्ग पर चलकर
सिद्ध किया सादगी भरा आसमान है !

पूंजीवादी व्यवस्था के आर्थिक राजनीतिक शोषण तंत्र की चक्की में आम आदमी लगातार पिस रहा है। आर्थिक असमानता चारों ओर फैली हुई है। ग़रीब आदमी दिन-रात परिश्रम करता है उसको पर्याप्त मेहनताना नहीं मिलता, बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी परेशान रहता है। दिन रात प्रेम कहानी प्रेम कविताएँ लिखने वाले लेखक भी बाज़ दफ़ा आम आदमी की त्रासदी को अपनी लेखनी से अनदेखा कर देते हैं। आज जो भी थोड़ा अच्छी स्थिति में है उसे मनोरंजन चाहिए दिल बहलाने के लिए। अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम सिनेमा भी नब्बे फीसदी घटिया मनोरंजन परोस रहा है। आम आदमी की त्रासदी से थोड़ा बहुत कोई सरोकार रखे हुए है तो रंगकर्मी और कुछ बचे-खुचे कवि कहानीकार हैं। मंजुल मानवीय सरोकार के कवि हैं। उनकी कविता के केन्द्र में आम आदमी और उसकी संवेदनशील परिस्थिति है।

आज़ादी, संविधान सम्मत भारत
मौलिक अधिकारों से सम्मानित जीवन
आम आदमी की कल्पना से परे है
उसके लिए बस रोटी मिल जाए
पेट भर जाए
फ़िर तन पर कपड़ा आ जाए
और कहीं किसी रहमों करम
या पिछले जन्म के पुण्यों से
झोपड़ी बन जाए तो
बस धरती पर स्वर्ग मिल जाता है !

वर्तमान समय में लोकतंत्र संविधान की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। ग़रीब आदमी की कोई हैसियत नहीं रही। अपने राजनीतिक लाभ के लिए सत्तारूढ़ दल झूठ प्रोपेगेंडा नफ़रत दिन रात फैला रहे हैं और इसमें सत्ता का मददगार मीडिया बना हुआ है। लोकतंत्र का अहम पिलर मीडिया है, मगर वर्तमान समय में जितना नीचे गिर सकता है उससे भी अधिक नीचे गिरता जा रहा है। जनता और सत्ता के बीच संवाद स्थापित करने का काम मीडिया का है। सत्ता से शासकीय कार्य से संबंधित सवाल पूछने का काम मीडिया का है। वर्तमान समय में मुख्यधारा का मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी और विशेषता को अपनी पहचान को अपने स्तर को मिटा चुका है। मंजुल भारद्वाज जी की कविताएँ इसी दलाल मीडिया की हक़ीक़त और विडंबनिय परिस्थिति को सामने रखती हैं।

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहा है मुनफाखोर मीडिया
झूठ,अफ़वाह,नफ़रत,दलाली और चापलूसी बेचकर
दे रहे हैं धोखा देश के लोकतंत्र को
सत्य को,जनता के विश्वास को
पत्रकारिता को !

लोकतंत्र के तमाम पिलर ढह चुके हैं। कुछ बचे-खुचे ज़िम्मेदार नागरिक हैं जिनमें नागरिक बोध बाक़ी है, लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, जनांदोलन के माध्यम से अपनी सशक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से। कहीं भी कभी भी किसी के भी दरवाज़े पर नोटिस चिपका कर चंद घंटों में उसका आशियाना ढहा दिया जाता है। न्याय व्यवस्था चुपचाप बैठी तमाशा देख रही है। बीच-बीच में कुछ हस्तक्षेप करती भी तो वह मात्र औपचारिकता है। मंजुल भारद्वाज एक जिम्मेदार नागरिक की तरह अपनी कविताओं के माध्यम से इन शोषणकारी अमानवीय घटनाओं पर बोलते हैं।

यह समय मर्यादाओं के तार तार होने का है
यह समय हर पल शर्मसार होने का है
यह समय झूठे के राज का है
यह समय अर्धसत्य के शोर का है
यह समय सत्य की चीखों का है
पर उसे सुनने वाला कोई नहीं है
यह समय न्याय की अवधारणा को
बुलडोजर से रौंदने का है !

लोकतंत्र के केन्द्र में मनुष्य है और उसके मौलिक अधिकार हैं। जनता के लिए, जनता द्वारा जनता का चयन, लोकतंत्र कहलाता है। जनता के बुनियादी मुद्दे चुनाव का मेनीफेस्टो होना चाहिए। मगर वर्तमान समय में धर्म जाति बिरादरी क्षेत्र को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़ा जाता है और विडंबना यह है कि मीडिया ने ऐसा माइंडसेट किया है नफ़रत फैलाई है कि लोग भी धर्म जाति बिरादरी क्षेत्र के आधार पर मत देते हैं। सत्ता सिर्फ़ जुमला परोसती है, जनसरोकार से जुड़े मुद्दे उसके लिए मायने नहीं रखती। वे चुनावी सभा में जुमला परोसती हैं। झूठ प्रोपेगेंडा विभाजनकारी सोच को धर्मांधता को परोसती है। यह स्थिति न देश के लिए लाभकारी है न जनता के लिए, मगर कोई समझने के लिए तैयार नहीं है। लोगों के विवेक को जैसे ग्रहण लग गया है। इन्हीं विडंबनाओं का सजीव चित्रण मंजुल भारद्वाज की कविताएँ करती हैं।

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
चंद विकारी,झूठ,नफ़रत फैलाने वाले
जुमलेबाज नेता
हर रोज़ हार रही है भारतीयता
सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारा
हार रही है धर्मनिरपेक्षता और विविधता !

जनता को शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार संबंधी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। इन सुविधाओं के लिए छोटे गाँव क़स्बे का आदमी शहरों में जाकर भटकता है। विकास ग़ैरबराबरी के आधार पर किया जाता है। छोटे गाँव कस्बे में सुविधाएँ रोजगार के साधन उच्च शिक्षण संस्थान मल्टीनेशनल कंपनियाँ नहीं हैं। यही कारण है कि महानगरों की ओर आज भी तेज़ी से प्लायन हो रहा है। जनसरोकार के मुद्दों को छोड़कर सरकार नाम बदलती रहती है। नाम बदलने से किसी की आर्थिक सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं आता। पिछले एक दशक में यह सब तेजी से हुआ है। मंजुल भारद्वाज जी की कविता में इसका वर्णन किया गया है।

झूठ का तिलिस्म ज्यादा
वक्त चलता नहीं
शहर,गली,कूचों का नाम बदलने वालो
याद रखो इतिहास कभी मिटता नहीं !

मंजुल भारद्वाज जी की काव्यात्मक शैली मूल संवेदना को क़रीब से गहराई से अवलोकन करने के लिए उनकी कविताओं को पढ़ना होगा। यहाँ उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं, आईये पढ़ते हैं कवि और रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज जी की कविताएँ।

 

मंजुल भारद्वाज जी की कविताएँ

1. अपनी राजनीतिक चेतना का सौदा मत कीजिये !

इतिहास देख लीजिये
जिस जिस ने
अपनी राजनीतिक चेतना को
दो जून के भोजन
नौकरी
चाकरी
सुख,भोग के लिए
सत्ताधीशों को बेच दिया
वो भीड़ बन गए
भीड़ बनकर मर गए
ईश्वर,अल्लाह,मसीह
कोई भी उनको बचा नहीं पाया !

इसलिए मनुष्य बनिए
अपनी राजनैतिक चेतना का
सौदा मत कीजिये
संविधान सम्मत
देश के मालिक होने का फर्ज़ निभाइए !

मेरा राजनीति से
क्या लेना देना के
भ्रम से निकलिए
और भीड़ से निकल
नागरिक बनिये !

आपका भाग्य बदल जाएगा
सारे भगवान आपका साथ देंगे
ग़रीबी,लाचारी,भुखमरी
दूर हो जायेगी
यह मैं नहीं
इतिहास कहता है
मनुष्य अपना मुक़द्दर
ख़ुद लिखता है !

 

2. सत्य किसी का नहीं होता !

सत्य सीधा,सरल
दो टूक होता है
सत्य भ्रम की चाशनी में
पगा नहीं होता
सत्य रूखा,शुष्क और
अलोकप्रिय होता है !

सत्य भावनाओं को
आहत करता है
भावनाएं ही भगवान है
इसलिए
सत्य नास्तिक है !

सत्य
धर्म,सभ्यता,संस्कृति के
पाखंडो को खंड खंड करता है
इसलिए
सत्य अधर्मी है
सत्य विध्वंसक है !

सत्य सर्वोपरि है
सत्य अहंकारी है
सत्य घमंडी है
क्योंकि
सत्य किसी के सामने नहीं झुकता
सत्य किसी से समझौता नहीं करता
सत्य किसी से नहीं हारता !

सत्य का कोई दोस्त नहीं है
सत्य को कोई नहीं चाहता
सत्य का व्यवहार से 36 का आंकड़ा है
सत्य दुनियादारी नहीं समझता
दुनिया सत्य से नहीं
दुनियादारी से चलती है
वरना जिस देश का उद्घोष
सत्यमेव जयते हो
वहां की जनता क्या किसी
झूठे को अपना राजा चुनती ?

सत्य गिरोहबाज नहीं है
सत्य भीड़ नहीं है
सत्य अकेले खंडहरों
सहरावों,बियाबान में भटकती
एक अतृप्त चेतना है !

सत्य किसी का नहीं है
और
कोई उसका नहीं है !

सत्य ना मौत है
सत्य ना जन्म है
सत्य ना ज़िंदगी है
सत्य सत्य है !

 

3. त्रासदी

सबसे बड़ी त्रासदी है
आम आदमी को संविधान में मिले
मौलिक अधिकारों की जानकारी नहीं
थोड़ा बहुत है तो आधी अधूरी
उसमें भी अपने मौलिक अधिकारों की
त्याग भावना सर्वस्व है !

आज़ादी, संविधान सम्मत भारत
मौलिक अधिकारों से सम्मानित जीवन
आम आदमी की कल्पना से परे है
उसके लिए बस रोटी मिल जाए
पेट भर जाए
फ़िर तन पर कपड़ा आ जाए
और कहीं किसी रहमों करम
या पिछले जन्म के पुण्यों से
झोपड़ी बन जाए तो
बस धरती पर स्वर्ग मिल जाता है!

कमोबेश यही कहानी
खुद को आम समझने वाले
व्यवस्था के मध्यमवर्ग की है
फ़र्क झोपड़ी की जगह फ्लैट
कार और उसकी अकड़ का होता है
मौलिक अधिकारों की जानकारी होते हुए भी
उनके लिए लड़ना इनकी कल्पना से बाहर है !

आम आदमी हाथ जोड़कर
पांव पकड़ कर व्यवस्था में
जीने के नाम पर रेंगते हैं
मुफ़्त अनाज के बदले
वोट बेचकर
आपका मुकद्दर आपके हाथ की
कहावत को चरितार्थ करते हुए
अगले पांच साल की दुर्गति
अपने नाम लिख लेते हैं !

खुद को आम आदमी समझने वाला मध्यमवर्ग भी
व्यवस्था की चापलूसी करता है
कहीं बिक जाता है
कहीं खरीद लेता है
पर व्यवस्था के चरणों में लेटकर
जीवन का आनंद लेता है!

आम और मध्यम वर्ग
कुल आबादी का नब्बे फीसदी तबका है
जब नब्बे फीसदी तबका
गुलाम रहकर खुश हो
तो उन्हें कौन देगा
मौलिक अधिकार, नौकरी
सम्मान ?
कैसे बनेगा संविधान सम्मत भारत?
कैसे चरितार्थ/साकार होगी
‘ हम भारत के लोग ‘ की संकल्पना !

भारत क्यों गुलाम रहा है
वर्णवाद का
भारत क्यों गुलाम है धर्म का
भारत क्यों सदियों गुलाम रहा अंग्रेजों का
भारत क्यों गुलाम है सांप्रदायिकता का
भारत क्यों गुलाम है पूंजीवाद का …

वर्ण,जात,धर्म,फासीवाद,साम्राज्यवाद
धार्मिक द्वेष,धार्मिक श्रेष्ठता,पूंजीवाद
यह सत्ता सूत्र हैं
भारत में नब्बे फ़ीसदी आबादी का
राजनीति और सत्ता से कोई लेना देना नहीं
भारत की नब्बे फ़ीसदी आबादी
सभ्य,संस्कारी,ईमानदार और गैर राजनैतिक आबादी है..
उसके लिए गुलामी सहने का एक ही
मंत्र काफ़ी है
राजनीति गंदी होती है…

भारत में गुलामी का मूल है
नब्बे फीसदी आबादी
जिसे व्यवस्था से
उसके बदलाव से
लोकतंत्र को रौंदते फासीवाद और तानाशाही से
लोकतंत्र से
संविधान से कोई लेना देना नहीं !

 

4. धर्म

प्रकृति की एकात्मकता को
विखंडित करने का
षडयंत्र है धर्म !

ज़िंदा कौम को पराधीनता के
चक्रव्यूह में फंसाने का
जाल है धर्म!

मनुष्यता को लहूलुहान करने का
पाषाण युगीन शस्त्र है
धर्म !

धर्म
हमेशा संकट में रहता है !

धर्म से उपजे अवतार
हमेशा युद्ध के लिए
सभ्यताओं को उकसाते हैं !

क़त्ल-ओ-ग़ारत को
इतिहास में दर्ज़ करा
भगवान बन जाते हैं !

 

5. समय लिख रहा है भारत के पाषाण युग में अस्त होने की दास्तां

यह समय मर्यादाओं के तार तार होने का है
यह समय हर पल शर्मसार होने का है
यह समय झूठे के राज का है
यह समय अर्धसत्य के शोर का है
यह समय सत्य की चीखों का है
पर उसे सुनने वाला कोई नहीं है
यह समय न्याय की अवधारणा को
बुलडोजर से रौंदने का है !

यह समय अपने सामने
अपना सब कुछ लुटा
धर्म और जात से गौरांवित होने के भ्रम का है !

यह समय हत्यारों को सत्ता पर बिठा
अपराध रोकने की दिव्य मूर्खता का है !

यह समय विविधता,भाईचारे,
सद्भाव को जलाकर
अखंड झूठ की भस्म लपेटकर मोक्ष प्राप्ति का है !

यह समय सौंदर्य को नष्ट कर
कुरूप और वीभत्स होने का है!

यह समय अपने ही मवाद में लिपटकर
अमृतकाल में जीने का है !

यह समय प्रेम को द्वेष से भस्म कर
नफ़रत में जलने का है !

यह समय लिख रहा है इतिहास
कैसे भारत के लोगों ने झूठे गर्व के लिए
अपने आपको तबाह कर लिया !

कैसे भारत के लोग झूठ से लड़ नहीं पाए
कैसे भारत के लोगों ने सत्य को सूली चढ़ाया
झूठे तानाशाह को लोकतंत्र की गद्दी पर बिठाया
और अस्मिता, न्याय,शांति ,सद्भाव को सड़क पर
दौड़ा दौड़ा कर पीटा,मारा और ज़िंदा जला दिया !

यह समय लिख रहा है भारत का इतिहास
कैसे लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान से
हासिल हुई आज़ादी को
भारत के लोगों ने लुटा दिया !

यह समय लिख रहा है इतिहास
कैसे भारत में 3 महीने,3 साल से लेकर 80 साल की
बच्चियों ,औरतों, महिलाओं के गोश्त को
सरे आम भेड़ियों ने नोचा
और लोगों द्वारा चुनी गई सत्ता ने
भेड़ियों का सम्मान किया !

समय लिख रहा है
भारत के पाषाण युग में
अस्त होने की दास्तां !

 

6. कभी फुर्सत मिले तो सोचना

तुम स्वयं
एक सम्पति हो
सम्पदा हो
इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में
कभी पिता की
कभी भाई की
कभी पति की
कभी बेटों की !

आदि काल से आज तक
युद्ध
तुमको हासिल कर जीते गए
हार गए तो तुम्हें
जीते हुए को सौंपकर
तख़्त-ओ-ताज बचाए गए !

रिश्ते भावनात्मक जाल हैं
जिससे पितृसत्तात्मक व्यवस्था
शोषण करती है तुम्हारा
कभी देखो रिश्तों की
परत खोलकर
उनमें गज़ बजाती कीडनाल
नज़र आएगी !

यह किताब पढ़कर
यह बाज़ार में बदन बेचकर
तुम स्वतंत्र नहीं हुई
उल्टा और गहरे
झेरे में फंस गई हो !

कभी अंदाज़ा लगाया है
शोषण,अमानवीयता के
अंधे गह्वर में
युगों –युगांतर में फंसी हुई हो तुम !

पितृसत्तात्मक व्यवस्था के श्रृंगार से सजी
वो चंद्रयान भेजने वाली
तुमने मणिपुर में
उस महिला का बयान सुना
उस महिला ने कहा
मेरे बेटे ने, मेरी कौम के लिए
महिलाओं को निर्वस्त्र करके
सरेआम घुमाया !

माँ का यह कैसा रूप है?
सोचा?
हाँ एक ने कहा तो …
सब एक जैसी थोड़े ना है …

दहेज़ में जलने वाली
भूखा मरने वाली
लड़के को मर्द बनाने वाली
लड़का –लड़की में भेद करने वाली
यह एक एक करके अनेक हो जाती हैं !

कभी सांस लो
शरीर के अलावा
मुक्त इंसान बनकर !

धर्म ने, जात ने तुम्हें
इंसान नहीं माना
पर संविधान ने
तुम्हें इंसान भी माना
और बराबरी का संवैधानिक हक़ भी दिया !

पर 70 साल में तुमने
कभी संविधान को नहीं समझा
बस धर्म के कर्मकांडों में उलझी रही
ऐसे बेटों को जनती रही
जो कौम के लिए
महिलाओं से बलात्कार करें !

आधी आबादी हो
लोकतंत्र में हो
क्यों नहीं
अपने बहुमत का
परचम संसद में लहराती !

कभी फुर्सत मिले तो सोचना …

 

7. हे पुरुष

हे
मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
तुम कौन हो?
तुम्हारे पास क्या है?
आत्म बल
शारीरिक बल
वैचारिक शक्ति ?
या सांप की तरह
बहन, बेटियों की पुश्तैनी जायदाद पर
कब्ज़ा करके फुंकार रहे हो!

हे पुरुष
मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
कौन हो तुम ?
मां,बहन,बेटी ,पत्नी के
रक्षक या भक्षक !
मां को बचपन से गाली
लात खाते देखते देखते
तिरस्कार सहते हुए
तुमने देखा है…
बाप की ज्यादतियों को
सहते हुए तुमने देखा है
क्या तुमने मां की रक्षा की ?

उसके ठीक उल्ट तुम बाप की तरह बन गए
तुमने वही अपनी पत्नी के साथ करना शुरू किया
तुम अपने बाप की तरह
अपनी पत्नी के साथ अत्याचार करने लगे
तुम क्या हो पत्नी के साथी
रक्षक , मालिक या भक्षक !

हे मर्द
अपनी मूंछों को ताव देने से पहले
सोचो तुम कौन हो?
बहन के रक्षक या भक्षक?
बहन को तुम बिना अकल की समझते हो
उसको कैद में रखना
उस पर निगरानी रखना
वो किसी पुरुष से बात ना करे
कहीं अपनी मर्ज़ी से आ जा ना सके
ऐसे बिना आधार की रेंगती हुई
अमर बेल बनाकर तुम उसे
किसी बरगद के गले में लटकाकर
भाई होने का
बाप होने का फ़र्ज़ निभाते हो
यानी एक व्यक्ति की
उसके व्यक्तित्व की हत्या कर
उसके शरीर की रक्षा करते हो
क्यों ?
पर यह रक्षा तुम कर पाते हो ?
हर साल रक्षाबंधन का पाखंड करने वालों
क्या तुम बहनों की रक्षा कर पाते हो
अगर कर पाते तो
देश में हर रोज 87 बलात्कार नहीं होते
यह तो लिखाए जाते हैं
जो लिखवाए नहीं जाते
उनका क्या ?
अगर आज हर औरत शिकायत कर दे
तो 99 फ़ीसदी पुरुष जेल में होंगे
हालात यह हो जाएगी की
सारी पुलिस और अदालत
जेल में होगी !

हे पुरुष
मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
बहन , बेटियों की शादी के लिए
क्यों गिड़गिड़ाते हो ?
क्यों दहेज देते हो ?
क्यों लड़के वालों की गालियां खाते हो
बहन की बेइज्जती करवाते हो
इसके उल्ट उसे पढ़ा लिखा कर
स्वतंत्र नागरिक बनने में मदद /क्यों नहीं बनाते ?

हे पुरुष
मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं
अब जात पात,धर्म की बेड़ियों से बाहर निकलो
संविधान सम्मत देश बनाओ !

हे मर्द
मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
तुम महिला को संपत्ति क्यों समझते हो?
क्योंकि तुम पितृसत्तात्मक व्यवस्था के गुलाम हो
तुम्हें पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया गया है
औरत सिर्फ़ एक संपत्ति है तुम्हारी
तुम्हारे वंश को आगे बढ़ाने
और उसका पालन करने वाली
गुलाम है वो
औरत का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है
अपना वजूद नहीं है
वो सिर्फ़ और सिर्फ़ मर्द की गुलाम है!

यही तुम्हारी संस्कृति है
यही तुम्हारे संस्कार हैं
यही तुम्हारे शास्त्र तुम्हें सिखाते हैं
अग्नि परीक्षा हमेशा महिला देगी
मर्द हमेशा सच्चा होगा
मनुस्मृति हो या रामायण ..
हर समय एक औरत की रक्षा
एक पुरुष करेगा !
क्यों ?

हे मर्द
अपनी मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
क्यों तुम्हारे लिए एक औरत
दो स्तन
दो नितंब
एक गर्भाशय
एक योनि के सिवाय कुछ नहीं है!
क्यों वो एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं है?

हे मर्द
अपनी मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
मां को किस मुंह से पूजते हो
जब महिला का शरीर तुम्हारे लिए
भोग्या के सिवाय कुछ नहीं !

हे पुरुष
अपनी मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
उस राखी का क्या मान है
जब दूसरे की बहन ,बेटी का तुम बलात्कार करते हो ?

हे मर्द
अपनी मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
तुम्हारे पाखंडों ने
जायदाद की हवस ने
तुम्हें संस्कारी नहीं
अत्याचारी बना दिया
रक्षक नहीं भक्षक बना डाला
तुम इंसान नहीं दरिंदे हो गए
इंसान का शरीर लिए
अपनी मां,बहन,बेटियों का
शरीर नोंचने वाले भेड़िए हो गए !

हे पुरुष
अपनी मूंछों पर ताव देने से पहले सोचो
तुम इंसान क्यों नहीं बन पाते
हिंसक और अत्याचारी मर्द क्यों बने रहते हो ?

हे पुरुष
मूंछ प्राकृतिक हैं
तो प्रेम प्राकृतिक है
आओ प्रेम का सबक लें
किसी को कमतर समझना
किसी की रक्षा का ठेका लेने की बजाए
उसे अपनी रक्षा करने के लिए सक्षम बनाएं!

मूंछ हैं इसलिए हम ताकतवर है के भ्रम से बाहर निकलें
प्रकृति ने हर इंसान को शक्ति दी है
उस शक्ति के रूप अलग हैं
आओ विविधता का सम्मान करें
महिला कहां जायेगी / आयेगी
किसके साथ रहेगी
किसके बच्चे को जन्मेगी या नहीं जन्मेगी
यह महिला का निर्णय और अधिकार है
उसका संपत्ति पर अपना अधिकार है
यह संवैधानिक और मौलिक अधिकार हैं
आओ संविधान और प्रकृति का सम्मान करें
आओ समता मूलक समाज बनाएं
आओ मर्द नहीं इंसान बने !

 

8. झूठ हमेशा पूजा जाता है!

झूठ (भगवान)हमेशा पूजा जाता है!
सत्य (विवेक) कुचला जाता है!

झूठ आस्था के अंधकार में बसता है
सत्य ज्ञान के सूर्य से चमकता है!

झूठ जन्मजात है
सत्य साधना पड़ता है!

झूठ अपने आप पसरता है
सत्य को पहुंचना पड़ता है!

झूठ का कोई प्रमाण नहीं होता
सत्य का प्रमाण होता है!

झूठ बोलने के लिए
कोई योग्यता नहीं हासिल करनी पड़ती
सत्य बोलने के लिए
आत्मबल हासिल करना पड़ता है!

झूठ बर्बादी,हिंसा,तबाही और विध्वंस करता है
सत्य अमन,समता,न्याय और विविधता का
सम्मान करता है!

झूठ सत्ता और धर्म का शोषण हथियार है
सत्य शोषण से मुक्ति का मार्ग है!

झूठ महलों में रहता है
मखमल पर सोता है
सत्य कांटों के मार्ग पर चलकर
सिद्ध किया सादगी भरा आसमान है !

झूठ अहंकार है
सत्य निर्मल इंसानी अहसास है !

झूठ को साहित्यकार
सत्य बनाकर परोसते हैं
लिखते हैं सत्य ही ईश्वर है
जबकि सत्य से साक्षात्कार होने पर
ईश्वर यानी झूठ विलुप्त हो जाता है !

 

9. सत, सूत और सूत्र

अचंभित करने वाला
भ्रमित दौर है
‘लोकतंत्र’ संख्या बल का शिकार हो गया
पैसा और जुमला हावी हो गया
‘विवेक’ और विनय पर अंहकार छा गया
संविधान, तिरंगा खिलौना हो गये
अपने अपने रंग में सब नंगे हो गए
भगवा,हरा,लाल और नीला
चुनकर सब निहाल हो गए
इन्सान और इंसानियत लहूलुहान हो गए
भारत की विविधता के विरोधाभास
स्वीकारने का साहस,
गांधी का उपहास हो गया
बनिया है,बनिया है के शोर में
हर भारतीय से संवाद एक सौदा हो गया
सत्य के प्रयोग भ्रम हो गए
खुलापन और सबकी स्वीकार्यता
गाँधी के पाखंड हो गए
जिनको चाहिए था बस अपना
तुष्ट हिस्सा
वो तुष्टीकरण का शिकार हो गए
आज़ादी का जश्न मातम हो गया
गांधी के चिंतन की चिता पर
अपने अपने रंगों की ताल ठोक
पूरी युवा पीढ़ी को भ्रमित कर
कई राम,कई अम्बेडकर और
कई मार्क्स की सन्तान हो गए
अस्मिता,स्वाभिमान और पहचान
के नाम पर जपते हैं अपने अपने
भगवान की माला
और आग लगाते हैं उसी धागे को
जो जोड़ता है,पिरोता है
एक सूत्र में विविध भारत को
अपने सत और सूत से
जिसका नाम है ‘गांधी’ !

 

10. तत्व

पत्तियां रंग बदलती हैं
जैसे मौसम बदलता है
कभी हरी,कभी पीली
कभी लाल, कभी बहुरंगी
और अंततः
पेड़ से गिर जाती हैं
….

पेड़ है जो खड़ा रहता है
हर मौसम में
अपनी जड़ों को संभाले हुए!

मनुष्य भी पत्तियों की तरह
व्यवहार के वशीभूत हो
रंग बदलता है
यही अवसरवाद है
पर इतने रंग बदलने के बाद भी
पत्तियों की तरह
जीवन को छोड़ना पड़ता है!

मनुष्य को व्यवहार के वशीभूत ना होकर
तत्व निष्ठ जीवन जीना चाहिए
पेड़ की तरह
जैसे पेड़ की जड़ें हैं
वैसे मनुष्य के जीवन तत्व
देह ख़ाक में मिलती रहेगी
पर मूल्य – तत्व जीवन को
जीवन बनाते रहेंगे !

 

11. भारत हर रोज़ हार रहा है

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
मुठ्ठी भर पूंजीपति
जो लूट रहे हैं भारत के
जल,जंगल,ज़मीन और आसमान
सब लूटकर बांट रहे हैं
भूख,गरीबी,बेरोजगारी और कर्जबाजारी !

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
चंद विकारी,झूठ,नफ़रत फैलाने वाले
जुमलेबाज नेता
हर रोज़ हार रही है भारतीयता
सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारा
हार रही है धर्मनिरपेक्षता और विविधता !

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
सत्ता की आस्तीन में पलते
मासूम बच्चियों,बहनों ,बेटियों
माताओं का मांस नोचते
लहू पीते गिद्ध
हार रहा है भारत हर रोज़
अपनी बेटियों की अस्मिता लुटता देखकर
उनकी चीखें सुनकर स्तब्ध है भारत !

भारत हार रहा है हर रोज़
जीत रहे हैं
न्याय का गला घोंटते
मुठ्ठी भर न्यायधीश
न्याय व्यवस्था और न्याय को सलीब पर चढ़ा
देश के सारे संसाधनों का उपभोग करते
यह मिलोर्ड
चंद अमीरों और नेताओं को न्याय बांटते हैं
करोड़ो जनता न्याय की राह तकते ताकते
मर जाती है!

भारत हार रहा है हर रोज़
जीत रहे हैं
संसद में बैठे मूर्ख,गंवार,धर्मांध गुंडे
हार रही है संसदीय गरिमा
परंपरा और संसद!

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहे हैं
चंद अफ़सर
जो संविधान की रक्षा की कसम खा कर
चंद रुपयों के बदले
संविधान खा गए हैं!

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रहा है मुनफाखोर मीडिया
झूठ,अफ़वाह,नफ़रत,दलाली और चापलूसी बेचकर
दे रहे हैं धोखा देश के लोकतंत्र को
सत्य को,जनता के विश्वास को
पत्रकारिता को !

भारत हार रहा है हर रोज़
जब जनता मुफ़्त अनाज के बदले
अपना वोट बेचती है
सरकार से सवाल करने की बजाए
लुटेरी सरकार का जयकारा लगाती है!

भारत हर रोज़ हार रहा है
जीत रही है अज्ञानता
धर्म और पाखंड !

 

12. इति…ह्रास

वो आए और हवा हो गए
तख़्त-ओ-ताज स्वाह हो गए !

हुकूमत के गुरुर में रौंदा
जिन्होंने रियाया को
वो दोजख़ में दफन हो गए !

माना बहकावे में आती है
सियासी छलावों के रियाया
ठगे जाने के पर
दौड़ा दौड़ा के मारती है रियाया !

ऐ बेहया, बेइमान जुमलेबाज़
कालचक्र करेगा तेरा हिसाब
विकार कभी टिकते नहीं
विचार कभी मरते नहीं !

झूठ का तिलिस्म ज्यादा
वक्त चलता नहीं
शहर,गली,कूचों का नाम बदलने वालो
याद रखो इतिहास कभी मिटता नहीं !

 

13. फेसबुक

विश्व की सबसे बड़ी
मुनाफाखोर पत्रिका है
फेसबुक

दुनिया की विविधता को
पिरोने वाली एक मात्र पत्रिका है
फेसबुक

इंसानी सूचनाओं को तानाशाहों को
बेचने वाली एक मात्र पत्रिका है
फेसबुक

चन्द छुट्टभैये महान संपादकों
महान लेखकों के गुरुर को
चकनाचूर करने वाली पत्रिका है
फेसबुक

तमाम विषैली
मानसिक विकृति
नफ़रत के गंदे नालों को
प्रवाहित करती धाराप्रवाह पत्रिका है
फेसबुक

हर समय
हर अभिव्यक्ति को
स्वीकारने वाली पत्रिका है
फेसबुक

चाहत और नफ़रत
एक साथ बटोरने वाली पत्रिका है
फेसबुक

जीवन,मरण
जन्मदिन ,प्रेम दिन
साल गिरह मनाने वाली पत्रिका है
फेसबुक

अमीर गरीब को
एक साथ लाने वाली
एक साथ लाकर
भेद करने वाली पत्रिका है
फेसबुक

भड़ास के साथ
कोमल भाव समेटे
उद्वेलन को आंदोलित करती पत्रिका है
फेसबुक

सत्ता की गोद में बैठे
बिके हुए मीडिया के बरक्स
लोकतंत्र को सहेजती पत्रिका है
फेसबुक

पूंजीवाद के गलाघोंटू साम्राज्य को
उखाड फेंकने के जोश की
हवा निकालने वाली पत्रिका है
फेसबुक

षड्यंत्र भी है
साजिश भी है
मार्ग भी है
अभिव्यक्ति भी है
स्वेच्छा से स्वीकारी लत
और ट्रोलर की लात भी है
फेसबुक

जीवन की हर घटना का
दस्तावेजीकरण करने वाली पत्रिका है
फेसबुक

मरे हुए मनुष्य को
ख़रीद- फरोख्त के युग में
लाइव करती करामात भी है
फेसबुक !

 

14. मेरा वोट, मेरा इंकलाब

मेरा वोट,मेरा इंकलाब है
शहीदों को मेरा सलाम है
वतन की आज़ादी के लिए
जो मिट गए,उनका कर्ज़ है
वतन को सम्भाले रखना
हम सबका फर्ज़ है
अपने लहू के क़तरे क़तरे से
सींचा मातृभूमि का ज़र्रा ज़र्रा
उन वीरों की क़ुर्बानी का सैलाब है
मेरा वोट,मेरा इंकलाब है

अपनी जात से प्यारा
जिनको वतन था प्यारा
अपने धर्म से प्यारा
जिनको वतन था प्यारा
उन बलिदानियों का ख़्वाब है
मेरा वोट,मेरा इंकलाब है

जिन्होंने मिलकर देश बनाया
सर्वसम्मत संविधान बनाया
लोकतंत्र का परचम फ़हराया
देशवासियों के स्वाभिमान
तिरंगे का आसमान है
मेरा वोट,मेरा इंकलाब है

आज देश के सामने
झूठ,प्रपंच का पाखंड है
लोकतंत्र पर भीड़तन्त्र का संकट है
देश की विविधता पर
एकाधिकार का साया है
देश का शासक झूठों का सरमाया है
भेड़,भीड़ और भक्तों का जमघट है
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया
सत्ता के जयकारे में व्यस्त है
साम्प्रदायिक,पूंजीवादी फ़िरकापरस्त गिद्ध
देश की अस्मिता,किसान,महिला,
नौजवानों को नोचने को तैयार है
ऐसे विध्वंसक दौर में
मेरा सरोकार है
मेरा वोट,मेरा इंकलाब है

आओ अब ठान लें
सरोकारों को समझ लें
जात-पात,धर्म से उपर उठें
देश का भविष्य संवार लें
विकारी सत्ताधीश को बाहर करें
उन्मादी काल में
विवेक मेरी ढाल है
मेरा वोट,मेरा इंकलाब है !

 

15. हर चुनाव

हर चुनाव करता है
लोकतंत्र पर गहरा घाव
सत्यमेव जयते की
सत्ता के लिए
खूब बिकता है
झूठ, छद्म और अलगाव !

डरा धमका
शराब,कबाब,साड़ी
नगदी से होती है
हर तरफ़ बिकवाली
सरेआम वोट
खरीदते हैं मवाली !

कुर्सी पर बैठने वाला नेता
यह षड्यंत्र रचता है
वो इसका कर्ताधर्ता है
न्याय की कुर्सी पर बैठे
न्यायधीश को पता है
जो इसे वैधानिक ठहराता है
चुनाव आयोग को पता है
जो इस लूट को सम्पन्न कराता है
पुलिस को पता है
वो गुंडों को खुला छोड़ देती है
देश की जनता को पता है
जो संविधान सम्मत मालिक होने के हक़ को
चंद सिक्कों के लिए
हर चुनाव में बेच देती है
सब सरेआम होता है
पर किसी के ज़मीर को
देशप्रेम नहीं झकझोरता
सब कीड़े मकौड़ों की तरह
हिंदू – मुसलमान
धर्म परिवर्तन
छोटी जात – बड़ी जात
आतंक – पाकिस्तान के गंदे नाले में
नेता के कहने पर डुबकी लगा
गंदगी को चुन
गद्दी पर बैठाते हैं
गंदगी में खिला कमल
हिंदू राष्ट्र सा मुस्कुराता है
भारत की आत्मा सिसक कर रोती है
भूख,गरीबी,महंगाई
महामारी,बेरोजगारी
तिल तिल कर भारत को मारती है
कमल कट्टा बिकाऊ मीडिया में
विश्वगुरु बनकर अवतरित होता है
विकार की दलदल से
असंख्य कमल कट्टे जयकारा लगाते हैं
भारत लहूलुहान बिलखता रहता है
सुरक्षित बेटी का नारा
बलात्कारों की चीख से दब जाता है
हर चुनाव लोकतंत्र को
एक गहरा घाव दे जाता है !

अतीत से कहीं
आज़ादी के संघर्ष की दास्तां
भरी आंखों में
धुंधली सी उम्मीद जगाती है
पूंजीपतियों का पत्थर
उम्मीदों के पानी पर पड़ता है
पानी पुनः गंदला हो जाता है
गांधी,नेहरू,भीम,भगत के ठेकेदार
पूंजीपतियों के तलवे चाटते हैं
गद्दार सुभाष बाबू का गुणगान करते हैं
राम को लूट
सीता की अग्नि परीक्षा
द्रौपदी का चीरहरण करने वाले
हर चुनाव में लोकतंत्र को
एक नया घाव दे जाते हैं !


 

 

 

कवि मंजुल भारद्वाज, जन्म स्थान – गाँव दहकोरा, जिला रोहतक (अब झज्जर) हरियाणा। विगत 37 वर्षों से मुंबई में निवास। विज्ञान में स्नातक। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत के सृजनकार !

मूलतः रंग चिंतक और कवि हैं। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंग दर्शन को बनाया। 32 वर्षों से बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी ,कॉर्पोरेट फंडिंग के जन सहभागिता से थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत आंदोलन के प्रेणता। देश-विदेश में हजारों नाट्य प्रस्तुतियां और कार्यशालाएँ। दो दर्जन से अधिक हिंदी, मराठी और अंग्रेजी में लिखे हुए नाटक। फिलहाल नए नाटक ‘ द… अदर वर्ल्ड’ के साथ यूरोप का दौरा करते हुए !

सम्पर्क: theatrethinker@gmail.com

टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्मस्थान दिल्ली। रिहाइश दिल्ली
शिक्षा एम .ए हिन्दी, दिल्ली विश्वविद्यालय
पत्रकारिता, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
व्यवसाय सेल्फ टीचिंग
लेखन कार्य कविता, नज़्म, संस्मरण,संस्मणात्मक कहानी, फिल्म समीक्षा, टिप्पणी, आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

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