समकालीन जनमत
कविता

लीना मल्होत्रा की कविताएँ स्त्रीस्वर का स्थापित मुहावरा हैं

प्रिया वर्मा

महत्वाकांक्षाओं की चिड़िया
औरत की मुंडेर पर आ बैठी है
दम साध शिकारी ने तान ली है बन्दूक
निशाने पर है चिड़िया
अगर निशाना चूक गया
तो औरत मरेगी

लीना मल्होत्रा स्त्रीस्वर का स्थापित मुहावरा हैं जो दिनोंदिन शब्दबाण को और भी पैना बनाने में संलग्न है ताकि एक प्रहार से ही इस हृदयहीन वन में अचूक संधान करें, नब्ज़ टटोलें और आवाज़ में अपराजेय बनी रहें। साथ ही सब स्त्रियों को उनकी पीड़ाओं और अभिलाषित सुखों का साथ दर्ज़ करती रहें।

पीढ़ी की स्त्रीविषयक कविता में एक सुगढ़ स्वर लीना जी का है, जो पहचाने जा सकने में सक्षम है।  प्रेम पर बात करते हुए भी वे स्त्री के एकान्त और अनंत दुःख का विचार नहीं भुलातीं। वे दर्ज़ कराती जाती हैं सब, जो एक आधी दुनिया का एक आँख से देखा हुआ दर्द है।
आज जब संचार क्रांति ने बहुत तरह के संवाद के साधन मुहैया करा दिए हैं तब लीना मल्होत्रा कविता ‘तुम्हारी हत्या’ में हत्या के परंपरागत साधनों के आगे निकलकर एक एप् को शामिल करती हैं।
तकनीक के मार्फ़त हत्या की बात करती हुई यह कवि, आवश्यकता जनित विसंगतियों से उपजते कटु एकांतिक यथार्थ को उजागर करती हैं जहाँ रक्तपात नहीं है पर हिंसा भरपूर है।
इतनी हिंसा जो स्त्री को चोट पहुंचाने के ऐतिहासिक प्रमाणों पर एक पूर्ण विराम लगाते हुए सशक्त किन्तु क्रूर स्त्री की स्थापना करे। पुरुष को पागल बना दे। बिना चोट किए, एक गहरे, एकदम निजी और कोमल एकान्त पर आघात करती हत्या जैसी ही एक दूसरी तरह की आपराधिक घटना।

जलाकर नहीं मार डाला
तेजाब फेंक कर भी नहीं
न ही माल की ऊपरी मंजिल से धकेल कर
न मेट्रो के सामने धक्का देकर ही की मैंने तुम्हारी हत्या !
तुम्हारा हाथ पकड़ा और एक हिंसक ऐप में घुस गई
जहां तुम अभी खेलने को तैयार भी न थे कि तुम्हें गोली मार दी

कविता की यह गहरी और समयभेदी दृष्टि है जो भविष्य की ओर सघन सतर्कता से आगाह करती है। अंतिम पँक्ति में लीना स्त्रियोचित निरीह भावुकता का ज़िक्र कर उसके सम्भावित दुःख का कारण लिखती हैं –

इस तरह प्रेम में हुई हिंसा का बदला
चुकाया मैने खेल में हिंसा से
स्त्री थी इससे अधिक कर भी क्या सकती थी

‘वे जो चुप हैं’ कविता कहती है कि वर्तमान में भी सामंतवादी चुप का नियम लागू है। एक स्त्री के अच्छेपन का पारंपरिक मानक चुपचाप काम में रत रहना है। अपने काम से काम और खुद को श्रेष्ठ मानने के भ्रम में पितृसत्ता को पोषित करते चले जाना।

तुम्हें अच्छी लगती हैं
वे जो चुप हैं
और अपने खाली वजूद के पात्र को भर्ती रहती है घर के सामान से
उनके आंसुओं के इतिहास अपनी ही नमी से गल चुके है
युद्ध के मैदान से सपाट उनके चेहरों के नीचे छुपाये मिटाये गए अगर कभी कोई निशान तुम ढूंढ पाए
तो वह यह कर टाल देंगी
कि वह पिछले जन्म के स्मृति चिन्ह हैं जो जन्मजात हैं

कविता में विडंबना जनित चुप्पी पर गंभीर दृश्य मौजूद हैं जो पीढ़ियों के अनंतर स्त्री-स्त्री के बीच संवाद की अचूक जगह बनाता हुआ यह स्पष्ट करता है कि स्त्री के दुख पूरी पृथ्वी पर कमोबेश एक जैसे हैं।

सबसे संहारक युद्ध प्रेम के मैदान में लड़े जाते हैं
वे निर्विकार देखती हैं
प्रलयकारी महानद से उल्टी नाव से उबरते शब्दों को
अर्थ डूब गए जिनमें अपने वजन की वजह से
वह उन डूब गए अर्थों के शोक में चुप हैं

एक स्त्री, यात्रा में किसी पुरातात्विक महत्व की जगह पर क्या विचार कर सकती है, इसकी एक करीब की पड़ताल है लीना जी की कविता ‘भीमबेटका’ जहाँ कल्पना और वास्तविकता के बीच एक सेतु बनकर प्रागैतिहासिक काल और महाभारत काल से वर्तमान तक की यात्रा करती हुई पंक्तियां हैं।

एक हिरन
जीवन और मृत्यु के संधि पल पर टिका
पीछे मुड़ कर देख रहा है दस लाख वर्ष से
एक आदमी हाथ में भाला लिए अपने शिकार का पीछा कर रहा है

भित्तिचित्रों में उकेरे गए आकारों का कम शब्दों में लिखित शिलालेख देखें

कुछ लोग त्रिभुजाकार उदर लिए,
मृदंग और ढ़ोलक पर भूख का उत्सव मना रहे हैं

एक कछुआ है क्षितिज के पार कुछ खोजता हुआ
एक स्त्री की आकृति है
जिसके धड़ पर सर रखा है
जो न की मुद्रा में हिलते ही टूट कर गिर पड़ेगा
मुझे लगता है ये शिलाएं नहीं हठयोगी हैं
अपने तप में लीन
कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए

जाओ, द्रौपदी को बाल से पकड़ कर सभाकक्ष में खींच कर ले आओ
यही भरी सभा में उसे नंगा कर दो
जाओ किसी निर्दोष को मार कर उसके शव के हाथ में बन्दूक रख दो

कविता ‘मधुमेह’ में व्यक्तिनिष्ठ से सृष्टिनिष्ठ दिखती हुई कवि लीना, मधुमेह से रोगग्रस्त प्रेमी के प्रति एक लचीली स्त्री और एक नर्स की भांति रोगी की मनःस्थिति पर लिखती हैं।

वह कहेगा कि
उसके दिल को लगातार एक चूहा खा रहा है
तुम उस चूहे को मार डालो
कहीं चूहा कुतर कुतर कर उसके पूरे दिल को न खा जाए

साथी की तीमारदार वह एक प्रेयसी है अतः परकाया-प्रवेश जैसी मनोवैज्ञानिक स्थिति पर सत्यता की मुहरबंदी कर रही है।

उसके मुँह की दुर्गन्ध से मत करना घृणा
उसमे हिरनों की तरह सहमे हुए कुछ घायल दांत हैं
मदद करना
मत छोड़ देना अकेला साथी को

मानवीय संबंधों में प्रेम, स्त्री और पुरुष के बीच संकुचित नहीं है। ‘बनारस में पिंडदान’, कविता में पिता की मृत्यु उपरांत पुत्र के अनदेखे पश्चाताप और अनकहे की ग्लानि का सजीव एक विस्तृत कैनवास पर मिलता हैं जिसमें बनारस के घाट पर मृतक के लिए सामाजिक संस्कार की रस्म अदा करते हुए पुत्र के मन में वीतराग उत्पन्न होता है। मृत्योपरांत घटित होती आत्मीयता में पुत्र, पुत्री या पिता, माता का भेद खत्म हो जाता है जो कुछ शेष रहता है वह है एक आप्तमन-

नहीं कह पाते वो शिकायतें
जो इतनी सरल थी की उन्हें बेटों के अलावा कोई भी समझ सकता था
और इस नासमझी पर बेटे को शहर से निकाल दिया जाना चाहिए था
किन्तु
जानते थे तब भी पिता बेटे के निर्वासन से शहर वीरान हो जायेंगे
भूखे पिता यात्रा पर निकलने से पहले खा लेते हैं
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से
चूम कर विवश बेटे का हाथ एक बार फिर उतर जाते हैं पिता घाट की सीढ़ियां

विदा को रचती हुई लीना जी ‘भ्रम’ कविता में स्वयं और आभास के मध्य अनुभूति के तमाम स्तरों में गाढ़ी घुसपैठ करती हैं।

मैं कभी उसे ट्रेन तक छोड़ने नहीं जाती
ट्रेन की आवाज़ मेरी धड़कन में बस जाती है
जब तक वह लौट नहीं आता
मेरा दिल,
विदा होती ट्रेन की गति सा चलता है सरपट
धड़कता है छुक-छुक कि और कुछ सुनाई नहीं देता उसके शोर में
मैं उसके साथ गए बिना ही
एक सफर में शामिल हो जाती हूँ
पाठक की आत्मा को टटोलती हुई लिखती हैं

विरह एकांगी हो, सम्बन्ध का इससे बड़ा क्या दुर्भाग्य हो सकता है! आत्मीय के मन में विदा उपरांत जो अनुभूति उत्पन्न होती होगी उसको परखती हुई वे लिखती हैं

तब
कई-कई दिन तक मुझे लगता है
वह सब्जी लेने गया है
या हजामत बनवाने,
बस,
आता ही होगा
भ्रम पालने में
वैसे भी हम मनुष्यों का कोई सानी नहीं।

वह हमसे इस तरह जुड़ती हैं कि

वीरान पड़े मन्दिरों की तरह
मैं अकेली हो जाती हूँ
जब भी वह शहर से दूर जाता है
मैं उसे स्टेशन के बाहर से ही छोड़ कर चली आती हूँ

भौतिक युग में आत्मीयता का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि अर्थोपार्जन और घड़ी के घण्टे के 24 बार बजने के मध्य हम निपट अकेले हैं। साथ ही ऊब से बुरी तरह गूंजते रहते हैं। इसी ऊब और किञ्चित नैराश्य से भरी कविता ‘ऊब के नीले पहाड़’ में वे बड़ी आत्मीयता से लिखती हैं-

तुम चले जाया करो अपने लम्बे लम्बे टूरों पर
तुम्हारा जाना मुझे मेरे और करीब ले आता है
तुम्हारे लौटने पर मैंने संवरना भी छोड़ दिया है
तुम्हारी निगाहों से नही देखती अब मै खुद को

यह कितनी अजीब बात है कि ये धीरे धीरे मरता हुआ रिश्ता
कब पूरी तरह मर जाएगा इसका अहसास भी

वे सरल भाषा में एक ज्ञात नियम लिखती हैं, जो कि इतना सामान्य है कि कहीं खो ही गया है – वह है परस्पर प्रीति और परवाह जो कि रिश्ते का प्रथम चरण है। एक दूसरे को जानना। फिर एक का, दूसरे का, जानने को जानना। इस तरह कि

*सिर्फ तुम ही जानते हो इस पूरी दुनिया में
कि सर्दियों में मेरे पैर सुबह तक ठंडे ही रहते हैं
कि मुझे बहुत गर्म चाय ही बहुत पसंद है

हम लीना के विडंबना को लिखने की सटीक और समझदार व्यंग्य की बानगी यहाँ पढ़ते हैं –

तुम पूछते हो क्या कर रही हो
मैं कहती हूँ
बॉय फ्रेंड की हंटिंग के लिए जा रही हूँ
तुम शुभकामनाएं देते हो
और कहते हो कि
इस बार कोई अमीर आदमी ही ढूँढना
ये डार्क ह्यूमर हमारे रिश्ते को कितनी शिद्दत से बचाए रखता है

आठों रसों में सबसे आकर्षक और बांधने वाले विप्रलंभ की व्याख्या समकाल में कुछ अधिक स्पष्ट और क्रूर यथार्थ से लिखी जा रही है।  लीना जी की कविता ‘प्यार में धोखा खाई लड़की’ अपनी कुछ ही पंक्तियों में सूखते हुए मन और बिखरते हुए जीवन को साथ लिए एक ईमानदार रास्ते पर चलती लड़की में, प्यार में चोट खाई हुई हर लड़की के मर्म में प्रवेश मिलता है

प्यार में धोखा खाई लड़की
शीशा नहीं देखती
सपने भी नहीं
वह डरती है शीशे में दिखने वाली लड़के से

कविता ‘स्त्री’ में एक नौकरी पेशा औरत की पारिवारिक विसंगतियों से लड़ने और दहलीज़ के बाहर खुद से दोस्ती करने पर मानो वे नमक से लिख रही हैं जो वर्तमान पीढ़ी की औरतों के पांव के छालों पर मरहम का काम करता है।

क्यों नहीं रख कर गई तुम घर पर ही देह
क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था
बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त न थी वह उंगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा भेज देती जिस पर टँगा सकती उसका बस्ता
तुमने तो शहर के ललाट पर यूं कदम रखा
जैसे
तुम इस शहर की मालकिन हो

स्त्री विषयक संसार की प्रतिसृष्टि करती कवि लीना ‘वह’ कविता में प्रकट रूप से सामाजिक अन्धता को स्वीकार करती हैं।

कविता की पंक्तियों में चली आई
और भूख के बिम्ब की तरह बैठ गई
मैं जब भी कविता खोलती
उसके आज बाजू में बैठे शब्द मक्खियों की तरह उस पर भिनभिनाने लगते
जिन्हें हाथ हिलाकर वह यदा कदा उड़ा देती।

उनकी कविताओं में आई ढेर सारी स्त्रियों के बिंब के सच का बयान, एक दृश्यादृश्य  स्त्री पर आकर टिकता है जो हर ओर मौज़ूद होकर भी किसी को दिखती नहीं। वह होती है बड़ी ही स्पष्ट और एकदम करीब। इतनी कि हमारे प्रतिदिन के मार्ग पर बैठी होती है, दिखाई दे जाती है गली कूचों मोहल्लों प्लेटफार्मों और फुटपाथों पर। बिल्कुल हमारे आसपास…

लीना मल्होत्रा की कविताएँ

 

तुम्हारा हाथ पकड़ा और एक हिंसक ऐप में घुस गई
जहां तुम अभी खेलने को तैयार भी न थे कि तुम्हें गोली मार दी
इस तरह प्रेम में हुई हिंसा का बदला
चुकाया मैने खेल में हिंसा से
स्त्री थी इससे अधिक कर भी क्या सकती थी।

 

2. वे जो चुप हैं

तुम्हें अच्छी लगती हैं
वे  जो चुप हैं
और अपने खाली वजूद के पात्र को भर्ती  रहती है घर के सामान से
उनके आंसुओं के इतिहास अपनी ही नमी से गल चुके है
युद्ध के मैदान से सपाट उनके चेहरों के नीचे छुपाये मिटाये गए अगर कभी कोई निशान तुम ढूंढ पाए
तो वह यह कर टाल देंगी
कि वह पिछले जन्म के स्मृति चिन्ह हैं जो जन्मजात हैं
दादी कहती थी ऐसे निशान और तिल  पूर्व जन्म में रही महारानियों को मिलते है
कि कभी उन्होंने भी जुल्म किये होंगे
जबकि वह जानती है
कि  सत्ता सिर्फ राजनीतिक शगल नहीं है
सबसे संहारक  युद्श प्रेम के मैदान  में लड़े जाते हैं
वे निर्विकार देखती हैं
प्रलयकारी महानद से  उल्टी नाव से उबरते शब्दों को
अर्थ डूब गए जिनमें अपने वजन की वजह से
वह उन डूब गए अर्थों के शोक में चुप हैं

 

3. भीमबेटका

कभी ‘भीमबेटका’ गये हैं आप
इन गुफाओं के अँधेरे,
रहस्य की चादर ओढ़े
आप  की प्रतीक्षा कर रहे हैं
बस
एक ही कदम दूर रखे हैं यहाँ दस लाख वर्ष !
गाईड चन्द्रशेखर दिखाता है कई चित्र लाल और सफ़ेद रंगों के
एक हिरन
जीवन और मृत्यु के संधि पल पर टिका
पीछे मुड़ कर देख रहा है दस लाख वर्ष से
एक आदमी हाथ में भाला लिए अपने शिकार का पीछा कर रहा है
एक घोडा
अपनी दोनों टाँगें हवा में उठाए
अगली सभ्यता में छलांग लगाने को आतुर है
दस लाख वर्ष से
कुछ लोग त्रिभुजाकार उदर लिए,
मृदंग और ढ़ोलक पर भूख का उत्सव मना  रहे हैं
दस लाख वर्ष बाद
कुछ पर्यटक अचम्भे की आँखें फाड़े
उस पीड़ा को ढूंढ रहे हैं जिसके रंग में कूँची डुबो
चित्रकार ने भविष्य का  ऐसा चित्र बनाया, जो कभी अतीत नहीं हुआ
इन्हीं पर्यटकों में मैं भी शामिल हूँ
ज़मीन पर एक वृत्त खींच दिया गया है
चन्द्रशेखर गाईड उसके भीतर बुलाता है
— यहाँ से देखिये खुला हुआ बाघ का जबड़ा
जबड़े के भीतर बने चित्र
मैं देखती हूँ  बाघ के जबड़े में टिकी निडर सभ्यता को
जो अपने सहजीवियों के साथ संतुलन में है
एक कछुआ है क्षितिज के पार कुछ खोजता हुआ
एक स्त्री की आकृति है
जिसके धड़ पर सर रखा है
जो  न की मुद्रा में हिलते ही  टूट कर गिर पड़ेगा
मुझे लगता है ये शिलाएं नहीं हठयोगी हैं
अपने तप में लीन
कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए
इन गुफाओं की  दीवारों पर कुछ प्याले नुमा गड्ढे हैं
गाईड बताता है यह अवनल हैं  इन्हें हवा और पानी ने काट कर बनाया है
मैं उसे स्पर्श करती हूँ
तभी अवनलों  में बसी बूढ़ी पीड़ा अपनी आँखें खोल देती है
उसकी पीड़ा में अपनों से ही आघात पाने का मर्म है
जो उसे दस लाख वर्ष से जीवित रखे हुए है
अब हम एक रिक्त सभा कक्ष में आते हैं
जिसके मध्य में एक ऊंचा पत्थर रखा है
चन्द्रशेखर बताता  है यह राजा  के बैठने का स्थान था
संभवतः यहीं पर बैठकर राजा अपनी सेनाओं को निर्देश देता था
बैठिये बैठ कर देखिये
मैं उस दस लाख वर्ष पुराने पत्थर पर बैठती  हूँ
अब मैं राजा हूँ
सत्तावान
मेरे सामने अब  अक्षौहिणी सेना है
जिसे मैं कहता हूँ
जाओ, द्रौपदी को बाल से पकड़ कर सभाकक्ष में खींच कर ले आओ
यही भरी सभा में उसे नंगा कर दो
जाओ किसी निर्दोष को मार कर उसके शव के हाथ में बन्दूक रख दो
जाओ
सीरिया के  तेल के नीचे दबे जैविक हथियार नष्ट कर दो
मेरी बड़बड़ाहट सुन कर चन्द्रशेखर मुझे झिंझोड़ता है
मैं हड़बड़ा कर अपने सत्तावान होने पर शर्मिंदगी से उठ खड़ी होती  हूँ
लौटते हुए मेरी नज़र एक फूलदान के चित्र पर पड़ती है
जिसमे से एक फूल दस लाख वर्ष से सजा हुआ झाँक रहा है
और मुरझाया नहीं है

4. मधुमेह

हो जाए अगर साथी को मधुमेह
मत छोड़ देना उसे उसके हाल पर
रगड़ देना थोड़े पाँव
एड़ी ऐसे में साथ छोड़ देती है
अन्तरिक्ष में गिरी वस्तु की तरह
नहीं महसूस होता उसे गुरुत्वाकर्षण
हो सकता है तुम्हारा साथी कहे
की ठोक दो एड़ी पर घोड़े की नाल
ताकि
महसूस कर सकूं इसे मैं अपने शरीर के एक अंग की तरह
वह कहेगा कि
उसके दिल को लगातार एक चूहा खा रहा है
तुम उस चूहे को मार डालो
कहीं चूहा कुतर कुतर कर उसके पूरे दिल को न खा जाए
उस दिल पर तुम्हारा नाम लिखा है
वह तुम्हे अपनी टांगो पर उभरे लाल फफोले दिखायेगा और कहेगा देखो
ये चींटियों की एक बस्ती है
जो रात भर उसकी टांगो को एक सड़क समझ कर दौड़ती रहती हैं
इन की बस्ती को कहीं और स्थानांतरित कर दो
यह मुझे सोने नहीं देती
अपने बढे हुए रक्तचाप के बारे में
वह तुमसे कहेगा
कि उसके सर पर एक बन्दर सवार है
जो
झाड़ की तरह उसके सर को यूं झिंझोड़ रहा है
कि उसे लगता है कहीं टप टप करती हुई लीचियां न गिरने लगें
जिसके छिलके उसके सर के बालों के नीचे छिपे उसे चुभते रहते हैं
कभी घर का सबसे  छोटा बच्चा भागता हुआ आएगा
और कहेगा कि बाथरूम में चींटियों की सू सू पार्टी चल रही है
अपने दर्द को छिपा कर वह भी हँसेगा ठठा कर
तब तुम उसकी हंसी के साथ दर्द में भी शामिल रहना
शांति से सुनना  उसकी बीमारियों की सूची
यह मधुमेह है जो अकेले नही आता
साथ लाता है किडनी की छलनी का ढक्कन
कोलेस्ट्रोल जमने लगता है धमनियों के नाले नालियों में
अंतड़ियाँ मचाती हैं  मंदिर के बाहर बैठे याचको की तरह हर समय भूख की चीख पुकार
हाथ भर की दूरी पर रखना बिस्कुट  या रोटी
उसके मुहं की दुर्गन्ध से मत करना घृणा
उसमे हिरनों की तरह सहमे हुए कुछ घायल दांत हैं
मदद करना
मत छोड़ देना अकेला साथी को
जिसका शरीर
कसाई के हाथ में लटके मुर्गे की तरह
तडफता है जीवन के लिए

 

5. बनारस में पिंडदान

घाट जब मंत्रो की भीनी मदिरा  पीकर बेहोश हो जाते हैं
तब भी जागती रहती हैं घाट की सीढियां
गंगा खामोश नावों में भर भर कर लाती हैं पुरखे
बनारस की सोंधी सड़कों से गिरते पड़ते आते हैं पगलाए हुए पुत्र,
पिंड के आटे में पुत्र चुपचाप गूंथ देते हैं अपना अफ़सोस
अंजुरी भर उदासी जल में घोल नहला देते हैं पिता को
रोली मोली से सज्जित कुपित पिता
नही कह पाते वो शिकायतें
जो इतनी सरल थी की उन्हें बेटों के अलावा कोई भी समझ सकता था
और इस नासमझी पर बेटे को शहर से निकाल दिया जाना चाहिए था
किन्तु
जानते थे तब भी पिता बेटे के निर्वासन से शहर  वीरान हो जायेंगे
भूखे पिता यात्रा पर निकलने से पहले खा लेते हैं
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से
चूम कर विवश बेटे का हाथ एक बार फिर उतर जाते हैं पिता घाट की सीढियां
घाट की सीढ़ियाँ बेटियों सी पढ़  लेती हैं अनकहा इस बार भी
सघन हो उठती है रहस्यों से  हवाएं
और बनारस अबूझ पहेली की तरह डटा  रहता है
डूबता है बहता नही….

6. भ्रम

मैं
कभी उसे  ट्रेन तक छोड़ने नहीं जाती
ट्रेन की आवाज़ मेरी धड़कन में बस जाती है
जब तक वह लौट नहीं आता
मेरा दिल,
विदा होती  ट्रेन की गति सा चलता है सरपट
धड़कता है छुक-छुक कि और कुछ सुनाई नहीं देता उसके शोर में
मैं उसके साथ गए बिना ही
एक सफर में शामिल हो जाती हूँ
रात सोते समय भी मेरे बिस्तर पर धूप उतर आती है
और भागते हुए पेड़ मेरे जीवन की स्थिरता को तोड़ते रहते हैं
सड़कों के किनारे खाली खेतों में
वीरान पड़े मन्दिरों की तरह
मैं अकेली हो जाती हूँ
जब भी वह शहर से दूर जाता है
मैं उसे स्टेशन के बाहर से ही छोड़ कर चली आती हूँ
तब
कई-कई दिन तक मुझे लगता है
वह सब्जी लेने गया है
या हजामत बनवाने,
बस,
आता ही होगा
भ्रम पालने में
वैसे भी हम मनुष्यों का कोई सानी नहीं।

(2001)

7. रिक्त

तुमने दिया ही नहीं
कभी कोई फूल
नहीं तो मैं भी रखती
पंखुडियां
किताबों में सम्हाल सम्हाल कर

(1986)

8. ऊब के नीले पहाड़

कितना कुछ है मेरे और तुम्हारे बीच इस ऊब के अलावा
यह ठीक है तुम्हारे छूने से अब मुझे कोई सिहरन नही होती
और एक पलंग पर साथ लेटे हुए भी हम अक्सर एक दूसरे के साथ नही होते
मै चाहती हूँ कि तुम चले जाया करो अपने लम्बे लम्बे टूरों पर
तुम्हारा जाना मुझे मेरे और करीब ले आता है
तुम्हारे लौटने पर मैंने संवरना  भी छोड़ दिया है
तुम्हारी निगाहों से नही देखती अब मै खुद को
यह कितनी अजीब बात है कि ये धीरे धीरे मरता हुआ रिश्ता
कब पूरी तरह मर जाएगा इसका अहसास भी नही होगा हमें !!
लेकिन फिर भी
तुम्हारी अनुपस्थिति में जब किसी की बीमारी कि खबर आती है
तो मुझे तुम्हारे सुन्न पड़ते पैरों कि चिंता होने लगती है
कोई नया पल जब मेरी जिंदगी में प्रस्फुटित होता है
तो बहुत दूर से ही पुकार के मै तुम्हे बताना चाहती हूँ
कि आज कुछ ऐसा हुआ है कि मुझे तुम्हारा यहाँ न होना खल रहा है
कि तुम ही हो जिससे बात करते वक्त मैं  नही सोचती की यह बात मुझे कहनी चाहिए या नहीं.
और  जब मुझे ज्वर हो आता है
तुम्हारा हर मिनट  फ़ोन की  घंटी बजाना और मेरा हाल पूछना
शायद वह ज्वर तुम्हारा ध्यान खींचने का बहाना ही होता था शुरू में
लेकिन अब
इसकी  मुझे आदत हो गई है
और मै दूंढ ही नही पाती
वो दवा
जो तुम रात के दो बजे भी घर के किसी कोने से ढूढ़ के ले आते हो मेरे लिए
और सिर्फ तुम ही जानते हो इस पूरी दुनिया में
कि सर्दियों में मेरे पैर सुबह तक ठंडे ही रहते हैं
कि मुझे बहुत गर्म चाय ही बहुत पसंद है
कि आइस क्रीम खाने के बाद मै खुद को इतनी कैलरीज खाने के लिए कोसूँगी  ज़रूर
कि तुम्हारे  ड्राईविंग करते हुए फ़ोन करने से मैं कितना चिढ जाती हूँ
कि जब तुम कहते हो बस अब मै मर रहा हूँ
तो मै रूआंसी नही होती
उल्टा  कहती हूँ तुमसे
५० लाख कि इंशोरेंस करवा लो ताकि मैं बाकी जिंदगी आराम से गुज़ार सकूँ
और फिर कितना हँसते हैं हम दोनों
इस तरह मौत से भी नही डरता ये हमारा रिश्ता
तो फिर  ऊब से क्या डरेगा ??
ये हमारे बीच का कम्फर्ट  लेवल  है न
यह  उस ऊब के बाद ही पैदा होता है
क्योंकि
किसी को बहुत समझ लेना भी जानलेवा होता है प्रिय
कितनी ही बाते हम इसलिए नही कर पाते कि हम जानते होते हैं
कि क्या कहोगे तुम इस बात पर
और कैसे पटकुंगी  मैं बर्तन जो तुम्हारा बी पी बढ़ा देगा
और इस तरह
ख़ामोशी के पहाड़ों को नीला रंगते हुए ही दिन बीत जाता है.
और उस पहाड़ का नुकीला शिखर हमारी नजरो की छुरियों से डरकर भुरभुराता रहता है
और जब तुम नही होते शहर में
मैं कभी सुबह की चाय नही पीती
अखबार भी यूँ ही तह लगाया  पड़ा रहता है
खाना भी एक टाईम ही बनाती हूँ
और
और वह नीला रंगा पहाड़ धूसरित रंग में बदल जाता है
फोन पर चित्र नही दिखते इसलिए जब शब्द आवश्यक हो जाते हैं
और तुम
पूछते हो क्या कर रही हो
मैं कहती हूँ
बॉय फ्रेंड की हंटिंग  के लिए जा रही हूँ
तुम शुभकामनाये देते हो
और कहते हो की इस बार कोई अमीर आदमी ही ढूँढना
ये डार्क ह्यूमर हमारे रिश्ते को कितनी शिद्दत से बचाए रखता है
और इस ऊब में उबल उबल कर कितना गाढ़ा हो गया है ये हमारा रिश्ता

(2011)

 

9. आज मैं संहारक हूँ

कि  आज मेरे पास मत आना
मैं  प्रचंड वायु
आज तूफ़ान  में तब्दील हो रही हूँ..
निकल जाना चाहती हूँ
आज दंडकारन्य  के घने जंगलों में
कुछ नए पत्तों की  तलाश में जिनसे सहला सकूँ  अपनी देह
जो मेरे झंझावत  में फंस कर निरीह होकर उड़े मेरी ही गति से
अपनी सारी इच्छाएं जिन्हें जलाकर धुएं में  उड़ा देती थी मैं
आज बहुत वेग में उड़ा ले चली हैं मुझे
समय की परिधि से परे
मनु की नौका की पाल खोल दी है  मैंने
और जोड़ो में बचाए उसके बीजो को नष्ट कर दिया है
मनु!
आज  मै उसी  मछली की  ताकत हूँ  जिसके सींग से बाँधी थी नौका तूने
मैं आज तेरे  चुने  शेष बचे एक बीज को अस्वीकार करती हूँ
जाओ आविष्कार करो नए विकल्पों नए बीजो का
मेरी इन्द्रियों को थामे हुए सातो घोड़े बेलगाम हो गये हैं
और मैं अनथक भागती हूँ
अपने दुस्साहस  के पहिये पर
किसी ऐसे पहाड़  से टकराने के लिए जिसे चूर करके मैं अपने सौन्दर्य  की  नई परिभाषाये गढ़ लूं
या जो थाम सके  मुझे
ओ साधारण पुरुष !
तू हट जाना! मेरे रास्ते में मत आना !
मैं एक कुलटा हवा
भागती फिर रही हूँ चक्रवात सी
सब रौंद  कर बढती हूँ आगे
तेरी चौखट
तेरी बेड़ियाँ
तेरे बंद कमरे
बुझा दी है सुलगन अग्नि कुण्ड की
उड़ा के ले चली हूँ राख
आज मैं संहारक  हूँ

(2000)

 

 

 

10. चाँद पर निर्वासन

मुअन जोदड़ो के सार्वजानिक स्नानागार में एक स्त्री स्नान कर रही है
प्रसव के बाद का प्रथम  स्नान !
सीढ़ियों पर बैठ कर देख रहे हैं ईसा, मुहम्मद, कृष्ण,  मूसा और ३३ करोड़ देवी देवता !
उसका चेहरा दुर्गा से मिलता है
कोख मरियम से
उसके चेहरे का नूर जिब्राइल  जैसा है !
उसने  जन्म दिया है  एक बच्चे को
जिसका चेहरा एडम जैसा, आँखे आदम जैसी, और पैर मनु जैसे हैं!
यह तुम्हारा पुनर्जन्म है  हुसैन !!
तुम आँखों में अनगिनत रंग लिए उतरे हो  इस धरती पर
इस बार  निर्वासित कर दिए जाने के लिए
चाँद पर
तुम वहां जी लोगे
क्योंकि  रंग ही तो  तुम्हारी आक्सीजन है
और तुम अपने रंगों का निर्माण खुद कर सकते हो
वहां बैठे तुम कैसे भी चित्र बना सकते हो
वहां की बर्फ के नीचे दबे हैं अभी देश काल और धर्म
रस्सी का एक सिरा ईश्वर  के हाथ में है हुसैन
और  दूसरा धरती पर गिरता है
अभी चाँद ईश्वर कि पहुँच  से मुक्त है
और अभी तक धर्मनिरपेक्ष है
चाँद पर बैठी बुढ़िया ने इतना सूत कात दिया है
कि  कबीर  जुलाहा
बनायेगा उससे कपडा तुम्हारे कैनवास के लिए
और धरती की इस दीर्घा से हम देखेंगे तुम्हारा सबसे शानदार चित्र
और तुम तो जानते हो चाँद को देखना सिर्फ हमारी मजबूरी नही चाहत भी है.

(2011)

11. शिकारी

महत्वाकांक्षाओं की चिड़िया
औरत की मुंडेर पर आ बैठी है
दम साध शिकारी ने तान ली है बन्दूक
निशाने पर है चिड़िया
अगर निशाना चूक गया
तो औरत मरेगी !

(2011)

12. प्यार में धोखा खाई लड़की

प्यार में धोखा खाई किसी भी लड़की की
एक ही उम्र होती है,
उलटे पाँव चलने की उम्र
वह
दर्द को
उन के गोले की तरह लपेटती है,
और उससे एक ऐसा स्वेटर बुनना चाहती है
जिससे
धोखे की सिहरन को
रोका जा सके मन तक पहुँचने से
वह
धोखे को धोखा
दर्द को दर्द
और
दुनिया को दुनिया
मानने से इनकार करती है
और  मुस्कुराती है
उसे लगता है
कि
सरहद के पार खड़े उस बर्फ के पहाड़ को
वह अपनी उँगलियों
सिर्फ अपनी उँगलियों की गर्मी से
पिघला सकती है
फिर उँगलियाँ पिघल जाती हैं
देह दिल फिर आत्मा
और सर्द पहाड़ यूँ ही खड़ा रहता है

रात के दो बजे नहाती है
और खड़ी रहती है
बालकनी में सुबह होने तक,
किसी को कुछ पता नहीं लगता
सिवाय उस ग्वाले के
जो रोज़ सुबह चार बजे अपनी साइकिल पर निकलता है !
उसका
दृश्य से नाता टूटने लगता है
अब वह चीज़ें देखती है पर कुछ नहीं देखती
शब्द भाषा नहीं ध्वनि मात्र हैं
अब वह चीज़े सुनती है पर कुछ नहीं सुनती
पर कोई नहीं जानता …
शायद ग्वाला जानता है
शायद रिक्शा वाला जानता है
जिसकी रिक्शा में वह
बेमतलब  घूमी थी पूरा  दिन  और कहीं नहीं गई थी
शायद माँ जानती है
कि उसके पास एक गाँठ है
जिसमें धोखा बंधा रखा है
प्यार में धोखा खाई लड़की
शीशा नहीं देखती
सपने भी नहीं
वह डरती है शीशे में दिखने वाली लड़के से

 

13. स्त्री!

क्यों नहीं रख कर गई  तुम घर पर ही देह
क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था
बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त न थी वह उंगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा भेज देती जिस पर टँगा सकती उसका बस्ता
तुमने तो शहर के ललाट पर यूं कदम रखा
जैसे
तुम इस शहर की मालकिन हो
और बाशिंदों को खड़े रहना चाहिए नज़रे झुकाए
अब वह  आग की लपट की तरह तुम्हें निगल जाएंगे
उन्हें क्या मालूम तुम्हारे सीने में रखा है एक बम
जो फटेगा एक दिन
उन्हें ध्वस्त करता हुआ
वे तो ये भी नहीं जानत
तुम भी
उस बम के फटने से डरती हो।

 

14. वह

वह अपने अधनंगे फूले पेट वाले बच्चे को उठाये
मेरी कविता की पंक्तियों में चली आई
और भूख के बिम्ब की तरह बैठ गई
मैं  जब भी कविता खोलती
उसके आज बाजू में बैठे शब्द मक्खियों की तरह उस पर भिनभिनाने लगते
जिन्हें हाथ हिलाकर वह यदा कदा उड़ा देती।
उस निर्जन कविता में
उसकी दृष्टि
हमारी नाकमी का शोर रचती
जिससे मैं दूर भाग जाना चाहती
किन्तु अफसोस कविता  गाड़ी नहीं थी जिसके शीशे चढ़ाकर उसे मेरी दुनिया से बेदखल किया जा सकता।
वह आ गई थी
और अपना हक  मांग रही थी।

 

कवयित्री लीना मल्होत्रा (जन्म 3 अक्टूबर 1968 को गुड़गाँव, हरियाणा में हुआ) इस दौर में लिखी जा रही स्त्री कविता का महत्वपूर्ण नाम हैं। 

‘मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान’ और ‘नाव डूबने से नहीं डरती’ उनके काव्य-संग्रह है। इसके अतिरिक्त उनकी कविताएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 
उन्हें ‘युवा कविता सम्मान’ और ‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान’ प्रदान किया गया है।  कवित के साथ ही उनकी रूचि नाट्य लेखन, रंगमंच अभिनय, फ़िल्मों एवं धारावाहिकों के लिए स्क्रिप्ट लेखन में रही है। विजय तेंदुलकर, लेख टंडन, नरेश मल्होत्रा, सचिन भौमिक, सुभाष घई आदि के साथ कार्य करने का अनुभव रखती हैं। उनकी सक्रियता फ़िल्म निर्माण एवं निर्देशन में भी रही है।

 

टिप्पणीकार कवयित्री प्रिया वर्मा
अंग्रेज़ी साहित्य से परास्नातक व बी.एड.
शिक्षण कार्य, स्वतंत्र लेखन व विचार
जन्म: 23 नवम्बर 1983 बीसलपुर(पीलीभीत)
निवास सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित

पाँच से अधिक साझा-संग्रहों में विभिन्न रचनाएं शामिल
स्वतंत्र संग्रह विचाराधीन
सम्पर्क :- itspriyaverma@gmail.com
मो. नम्बर 9453388383

 

 

 

 

 

 

 

 

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