समकालीन जनमत
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‘उम्मीद चिनगारी की तरह’ संग्रह की कविताएँ अपने समय को रचतीं, अभिव्यक्ति के ख़तरों को धता बताती हैं

दिविक रमेश


कौशल किशोर प्रारम्भ से ही एक सजग और ज़िम्मेदार कवि के रूप में अपनी राह बनाते हुए आज उम्मीद से लबालब भरी चिंगारी की तरह बहुत जरूरी कविताएँ लेकर प्रस्तुत हैं, बिना किसी जल्दबाजी के। जब मैं बहुत जरूरी कहता हूँ तो आशय ऐसी कविताओं से होता है जो बस चमत्कृत करके बुझ नहीं जाती बल्कि युग स्रष्टा की तरह अपने समय को रचते हुए एक संभावित समय का भी सृजन करती हैं या उसके द्वार खोलती हैं। उनकी एक कविता है- ‘मोर्चे की ओर’ जो 1970 में प्रकाशित हुई थी। उसमें कुछ पंक्तियाँ यूँ ज्वलंत हुई थीं- ‘अब खेत/नहीं पैदा करेंगे फसलें/अब खेत/पैदा करेंगे गुरिल्ले दस्ते/अब खेतों की ओर/नहीं जाएगा कोई गुलाम/बंधुआ मजदूर/अब वहाँ बनेंगे/युद्ध के मोर्चे।…../आओ/दे दें अपनी कविताएँ/उनके हाथों में/जिनके लिए सही अर्थों में/कविताएं होनी चाहिए’।

कौशल किशोर के भले ही मैं तीसरे कविता-संग्रह “उम्मीद चिनगारी की तरह ” को ध्यान में  रखते  हुए बात कर रहा हूँ लेकिन इसकी पीठ को मजबूती से थामे उनकी शुरुआती कविताओं का संग्रह ‘नयी शुरुआत’ और बाद की कविताओं का कविता-संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ भी मेरे साथ हैं। ‘नयी शुरुआत’ की कविताओं से गुजरते हुए यह हो नहीं सकता कि आप अन्य अनेक  कविताओं  के साथ खासकर कविता ‘मैं’ और कविता ‘कहीं ऐसा ना हो’ को उलट-पलट कर ही रह जाएँ। आपको  थमना होगा, सोचना होगा और गतिशील होना होगा। समझने के लिए दोनों कविताओं से एक-एक अंश  देना ही काफी समझ रहा हूँ- ‘जो लोग पूरी दुनिया में/भूख, बीमारी/और आत्महत्या का सौदा करते हैं/उन्हीं के खिलाफ एक आवाज हूँ मैं’ ( मैं )। ‘दिनभर की थकान/जब मुझे थपकियां देकर सुला देती है/तो सपने में/खाकी वर्दीधारियों के मजबूत बूटों/और डण्डों की आवाज में/किसी खूंखार जंगली जानवर के/दहाड़ने का स्वर सुनाई पड़ता है’ ( कहीं ऐसा न हो)।

भ्रामक जालों में फंसने से खुद को बचा कर रखना भी जरूरी होता है। इस ओर समझदार बनाती एक कविता है- ‘कल और आज’ जिसमें ये पंक्तियाँ आई हैं-‘समाजवाद मुट्ठी भर लोगों का मंच बन गया है/या भाषणों में व्यक्त होने वाला मात्र विचार/और समाजवाद ऐसा ठूंठ विचार बन टापता रहता है/जिसका व्यवहार से कोई सरोकार नहीं।’ वस्तुतः कौशल किशोर एक समर्पित एक्टिविस्ट या कार्यकर्ता भी हैं। अतः वे सिद्धांत और व्यवहार में संतुलन के स्वाभाविक तौर पर पक्षधर नजर आते हैं।

ध्यान देने की बात यह भी है कि ‘नयी शुरुआत’ में जहाँ कवि अपने देखे से उपजे को निचोड़़़ की शैली में साझा करने की शब्दावली अपनाता है, वहाँ आगे की कविताओं में अर्थात ‘वह औरत नहीं महानद’  की कविताओं में अनुभवों के गहरे और साक्षात चित्रों से भी रूबरू कराने की मंशा रखता नजर आता है- ‘झुलसा देने वाली सूरज की ताप से/कहीं ज्यादा गरम होती है  मशीन की गरमी/और इसके बीच दिन काटने के बाद/कहाँ बचती है सुबह की ताजगी। (कारखाने से लौटने पर)। अथवा ‘ये जो कटे पड़े हैं पेड़/इनके अंतर में है बड़ी ज्वलन शक्ति/तपने दीजिए इन्हें कड़ी धूप में/थोड़ा धैर्य रखिए, प्रतीक्षा कीजिए/ये धधक उठेंगे/बस, इन्हें आग का स्पर्श दीजिए। (पेड़)

‘वह औरत नही महानद थी’ वैविध्यपूर्ण अनुभवों से भरपूर कविताओं का संग्रह है। विचार दृष्टि पहले ही वाली है लेकिन कहन शैली व्यक्तिगत (पर्सनलाइज्ड) अथवा  व्यक्तिपरक (सबजेक्टिव) होती दिखती है। यहाँ कवि के मन में ऐसे सवाल उपजाती कविता भी उभरती है – ‘क्या है आज सबसे दुर्लभ हमारे जीवन में’ अथवा ‘खेती’ कविता में प्रतिपक्ष का स्वर यूँ उभरता है – ‘नहीं, नहीं/इस होने से पहले भी/बहुत कुछ होना है/वे आएं/कंक्रीट का जंगल  उगायें/मुझे धरती  में बीज बोना है।‘ एक कविता लखनऊ केंद्रित है। एक अंश इसका भी देखिए-‘रिक्शेवाले हों या बग्गी वाले/बड़ी मीठी है इनकी जबान/इसीलिए तो आप इन सब के कायल हैं/तनाव और उदासी/जो चिपकी थी आपके साथ/इसके भव्य दरवाजे से दाखिल  होते ही/गायब हो गई इस कदर/ऐसे छू-मंतर/जैसे गर्म तवे पर पड़ी जल-बूँदें/जनाब! इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं/और आप उसमें कहां खो गये/किस भूलभुलैया में?’

वस्तु और अभिव्यक्ति की दृष्टि से विविधिताओं से भरी कौशल किशोर की कितनी ही कविताएँ  हैं जो पाठक को अपने साथ ले चलने में पूरी तरह सफल हैं। ‘चिड़िया और आदमी: एक’  कविता के इसी अंश को देख लीजिए- ‘आदमियों को मारा गया/इसलिए कि/वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त/हवा की तरह बहना चाहते थे स्वछंद/जल स्रोतों की तरह अपना तल/स्वयं तलाश रहे थे।’  इस संग्रह की  कविताएँ इमरजेंसी के बाद की कविताएँ हैं।

खैर, अधिक बात तो ‘उम्मीद चिनगारी की तरह’ की कविताओं पर करनी है। इस संग्रह में दो खण्ड हैं – ‘भेड़िया निकल आया है माँद से’  और ‘कोरोना का…का..रोना’ । पहले खण्ड में 27 कविताएँ हैं तो दूसरे में 21 हैं। ‘भेड़िया निकल आया है मांद से’ कौशल किशोर की एक कविता है जिसकी प्रेरक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘भेड़िया’ रही है और जो ‘उम्मीद चिनगारी की तरह’ में तो पहली कविता है ही,  उनके संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ में भी संकलित हुई थी। स्पष्ट है कि ‘भेड़िया’ दोनों ही कविताओं  में प्रतीक के रूप में आया है। कौशल किशोर ने 2014 की अपनी कविता में लिखा है – ‘वह आ सकता है/लोकतंत्र के रास्ते आ सकता  है/स्मृतियों को रौंदता/संस्कृति का नया पाठ पढ़ाता/वह आ सकता है/जैसे वह आया है इस बार/ढ़ोल, नगाड़ा, ताशा .. /एक ही ध्वनि-प्रतिध्वनि/अबकी बार..बस..बस अपनी सरकार’।

इस पहले खण्ड की कविताएँ पूरे अर्थों में राजनीतिक परिदृश्य से प्रेरित राजनीतिक समझ की कविताएँ हैं। इन्हें हम सहज ही अपने समय को खंगालती, रचती और अभिव्यक्ति के खतरों को धता बताती सजग-सघन कविताएँ कह सकते हैं। ये कविताएँ वैश्विक दृष्टि से सम्पन्न जरूर हैं, जो अंततः मनुष्यता या औसत आदमी के हक में खड़ी उसी को समर्पित होती है, लेकिन आज के चालू  अर्थ में ‘राजनीति’ न करते हुए ‘राजनीति’ की बखिया जरूर उधेड़ती नजर आती हैं, दो टूक शैली में।  ‘भेड़िया निकल आया है मांद से’ के अगले पाठ के रूप में ‘फासिस्ट’ कविता को पढ़ा जाना चाहिए। इससे इन कविताओं के बारे में बनी मेरी अवधारणा की पुष्टि ही होगी। कुछ पंक्तियाँ देखिए – ‘दुनिया में/जहाँ भी फासिस्ट आये हैं/वे चुनाव लड़कर आये हैं/जर्मनी से लेकर इटली तक/अंतर्राष्ट्रीय विरासत है उनके पास।’

स्वप्निल श्रीवास्तव ने ठीक ही लिखा है कि ‘कौशल किशोर सावधान कवि हैं। उनके पास स्पष्ट वैचारिकी है। यह उन्होंने आंदोलनों और अपनी चेतना से हासिल किया है।‘ कवि कौशल किशोर के पास महीन व्यंग्य के जरिए अपने आसपास को जकड़ी विडम्बनाओं और प्रतिगामी शक्तियों के राज खोलने का कौशल है। उन पर समझ की ऐसी चोट करता है कि उन्हें कहीं से बच निकलने का मौका ही नहीं मिलता। आजकल अपने देश में देशभक्ति का जाप होता नजर आता है। खासकर समर्थ खित्तों में। लेकिन कवि उसे गहरा गोता लगाकर पकड़ लाता है- ‘देशभक्ति के लिए/प्रधान के सुर  में सुर मिलाना/देशभक्ति के लिए/आँख, कान, मुँह सब बंद  रखना/या अपने अंदर उबाल  आ जावे/सब पी जाना/जरूरी है देशभक्ति के लिए।’

कुछ को अभिव्यक्त करने के लिए कवि ने सवाल पूछने के जरूरी क्राफ्ट को अपनाया है। एक कविता तो है ही ‘मेरे सवाल’। कवि सवाल हवा में नहीं पूछता। जमीनी हकीकत से जुड़ते हुए, उसका जायजा लेते हुए मानों विवश होकर पूछता है, झूठ के मूल्य को जीते सत्ताधारियों के द्वारा ‘देशद्रोही’ घोषित किए जाने का जोखिम उठाते हुए – ‘मैं  पूछता हूँ/यह माता फोटो-तस्वीरों में ही क्यों रहती है/यह क्यों नहीं दिखती है हाड़-मांस में/जब हम दुखों से घिरे होते हैं/माता हमारे पास क्यों नहीं फटकती है?’

बहुत ही गहरे में जाकर संवेदना का खनन करती एक कविता है – ‘वह हामिद था …’। प्रेमचंद का हामिद आज के भारत में क्या बना दिया गया है, इसका बहुत ही दर्दनाक लेकिन सचेतक चित्र इस कविता में उभर कर आया है –हामिद मारा गया/नहीं, नहीं, हामिद नहीं मारा गया/मारी गई संवेदनाएँ/हत्या हुई भाव-विचार की/जो हमें हामिद से जोड़ती हैं/जो हमें आपस में जोड़ती हैं/जो हमें इंसान बनाती हैं/जो हमें हिंदुस्तान बनाती है।…… वह हामिद था/और यही उसका अपराध था।’

इसी कविता के साथ कविता ‘मुगलसराय’ को पढ़ा जाएगा तो ऊपर से नाम भर बदलने की हरकत का पूरा पिछवाड़ा नंगी हकीकत बयान करता नजर आने लगता है। वस्तुतः ‘जीत का नशा’ निरंकुशता का हथियार भी सत्ता के हाथ में  थमा दिया करता है। जरूरी मुद्दे हाशियों के भी बाहर करने की माहिरी हाथ  आ जाया करती है। लेकिन वह सब सजग कवि की आँख से बच पाए तब न। कवि जानता भी है और सब के द्वारा जाना जाए की चाहत  भी रखता है और कविता रची जाती है ‘गोली, गाली और आवाज’। इसी कविता से एक अंश है – ‘क्या खत्म हुई आवाजें/क्या वे खत्म कर पाये हैं/उन आवाजों को/जो कलम से निकलती हैं/झूठ के साम्राज्य पर/उसके कारोबार पर/और व्यापार पर प्रहार करती हैं?’

इसके साथ ही कवि वरवर राव को समर्पित कविता ‘कविता रहेगी’ तो कलम की ताकत, कवि के सपनों और उसकी जरूरी दृष्टि की अमरता का सहज बोध हो जाता है। दो अंश देखिए- ‘कहते हैं कलम कुछ कर नहीं सकती।………फिर कलम से/इस कदर क्यों डरती है सत्ता’…..‘उसे क्या पता है कि/एक आदमी खत्म हो सकता है/जीवन खत्म नहीं हो सकता/एक कवि मर सकता है, मारा जा सकता है/कविता कभी मर नहीं सकती’। ऐसा ही कवि किसान और उनके सच्चे सरोकारों और आंदोलनों का पक्षधर बना नजर आता है और ‘किसान मोर्चा’ तथा ‘बार्डर पर किसान: तीन कविताएँ’ जैसी खूबसूरत कविताओं को रचता है। “आँख मारनाः दो कविताएँ” अपने ढंग की एक अलग कविता है।

सग्रह के दूसरे खण्ड में कोराना की उपस्थिति है और अनेक बेहतरीन कविताओं का समावेश है। ऐसी कुछ कविताएँ हैं – रोटियाँ उनकी हत्या की गवाही दे रही थीं, दौर-ए मुश्किल, लौटना, लोकल-वोकल, कमीज, ठेंगे से, कविता रहेगी, माहामारीः कुछ कविताएँ, फिलीस्तीन आदि। कोराना के दौर में सता की अदूरदर्शिता के कारण मजदूरों की दुर्गति, उनकी मौत आदि के विचलित करते सच तो हैं ही, साथ ही इस महामारी के कारण बिखरते-उपेक्षित होते रिश्ते, भय के आगे-आगे दौड़ती मानसिकताएँ आदि भी साक्षात हुई हैं। भयावह समय में भी सार्थक रचनाशीलता कुछ बहुत ही उम्मीदों और बेफिक्री की पौध भी लगा दिया करती है, चीजों के नये-नये पाठों के साथ- ‘ठेंगे से, मैं तो सदियों से बंद रही हूँ/नहीं स्वीकारती/यह मेरा जीवन है/चाहे अकेले उडूँ या तुम्हारे साथ या कोई और हो/या चाहे न उडूँ।……देखता हूँ उसके चेहरे पर खौफ नहीं/न अंदर का, न बाहर का/उसके डैने खुल गये थे।’

कौशल किशोर ने कोराना के लॉकडाउनी बंदिशों में, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में  जिस तरह गतिशीलता और जीवंतता का परिचय दिया था वह अविस्मरणीय है। इसी समय में ‘दर्द के काफिले’ शीर्षक से कोरोना केंद्रित कविताओं का बेहतरीन संकलन अपने संपादन में प्रकाशित किया। सही मायने में, जैसा शुरुआत में संकेत दे चुका हूँ, कौशल किशोर की कविताएँ अपने समय को उसके भीतरी-बाहरी रूपों सहित गहरे से पकड़े हुए ऐसे रचती हैं कि वे इतिहास बोधक हो जाएँ ताकि आगे के समय को जीने की दिशा मिल सके। बहुत ही लक्ष्यवेधी कविताएँ हैं ये और इसीलिए सम्प्रेषणीयता से लबालब भरी हुई भी। सोच का कोई झोल नहीं। प्रतिरोध का स्पष्ट रचाव ईंट दर ईंट हुआ है। वस्त्तुतः ये हक की, हक में, हक के लिए कविताएँ हैं। भाषा और लोक स्वाद की दृष्टि से बहुत बार नागार्जुनी भी लगती हैं। यूँ कौशल किशोर स्वयं बहुत अच्छे अध्येता और आलोचक भी हैं अतः इनके यहाँ दृष्टि सम्पन्न कवियों की स्मृतियाँ तो हैं ही, उनकी रचना-दृष्टि की अनुगूँजें भी मिलती रहती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि कवि के इस जरूरी संकलन को पाठकों का बेहद प्यार और अपनापन मिलेगा। इसे रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज ने सुन्दर तरीके से छापा है।

एल-1202, ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
सेक्टर-74, नोएडा-201301

उम्मीद  चिनगारी  की तरह (कविता संग्रह)

कवि – कौशल किशोर
प्रकाशक : रुद्रादित्य प्रकाशन, ओ.पी.एस.. नगर, कालिंदीपुरम, इलाहाबाद -211011
पृष्ठ संख्या : 144 
मूल्य : रूपये : 225

KAUSHAL KISHOR

EX. NATIONAL ORGANISING SEC.
PRESIDENT
JAN SANSKRITI MANCH
UTTAR PRADESH

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