समकालीन जनमत
कविता

केतन की कविताएँ वैचारिकी और परिपक्व होते कवित्त का सुंदर समायोजन हैं

अणु शक्ति सिंह


कविताओं से गुजरते हुए एक ख़याल जो अक्सर कौंधता है वह कवि की निर्मिति से जुड़ा होता है। वह क्या है जिससे एक कविता ‘कविता’ बन जाती है और कवि ‘कवि’। 2017 में बॉब डिलन को जब अपने कवित्त के लिए साहित्य का नोबेल मिला था, एक तूफान खड़ा हुआ था, कविता के अस्तित्व को लेकर। उस समय न्यू यॉर्क टाइम्स के कविता संकाय के कॉलमकार और कॉर्नेल विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डेविड ऑर ने कविता को यह कहते हुए परिभाषित किया था कि कवित्त में असाधारण रूप से विस्तृत फलक और किसी भी स्थापन से आगे बढ़कर बिम्ब रचना की संभावनाएं होती हैं। यह आलेख मेरे कुछ बुकमार्क किए हुए अर्थात करीने से सँजोये हुए डिजिटली पन्नों में शामिल है। इसे गाहे-बगाहे पढ़ लेती हूँ ताकि कविता को लेकर संशयमुक्त रहूँ।

आज केतन की कविताओं को पढ़ते हुए डेविड ऑर की पंक्तियाँ जीवंत हो उठीं। पहली कविता, शुरुआती दो पंक्तियाँ –

हिंसा के नवीनतम दृश्यों की आदी हो चुकी आँखें
कुछ भी देख सकती हैं अब; अपेक्षाकृत और क्रूर

यह ‘आह’ है। वह वेदना जो ज्ञानेन्द्रियों की सहज अनुभूतियों को निर्मूल करती हैं। एक छठी इंद्री उदित होती है। वह इंद्री अधिक संवेदनशील है। अल्फ़ाज़ में तनिक अधिक बल दिया जाए तो यह नई इंद्री अधिक समझदार है जो हिंसा, मिथ्या, सड़ांध, घृणा की अभ्यस्त हो चुकी ज़ाहिर इंद्रियों से आगे बढ़कर उस चेतना को ज़ाहिर करती जो मनुष्य होने की सहजता है। यह कविता की निर्मिति है और कवि की भी।

‘शब्द’ कवि की पहचान है। एक कविता का उन्वान भी। कवि की एकमात्र पूंजी भी। वह कवि जिसका कौशल ही लफ़्ज़ हैं, जिसकी कुल निधि अक्षरों के भिन्न संयोजन हैं, उसके पास खर्चने के लिए शब्द के अतिरिक्त क्या बचेगा? विश्वास भी तो आख़िरी पनाह उसी निधि के पास लेता है, जो साथ निभाए। ईश्वर कवि का साथ छोड़ सकते हैं। शब्द नहीं।

सबसे मुश्किल समय में
मैं ईश्वर पर नहीं
अपने शब्द पर भरोसा कर पाता हूँ।

देश का विस्तार बदलता है, बिम्ब के प्रकार साथ निभाते हैं। एक लफ़्ज़ जगह बदलते कई खेल दिखा सकता है। खेल दिखाने का कौशल कवि के हाथ में हो तो दृश्य जागृत हो साथ निभाने लगते हैं। गंगा के मैदान में बाँस अपने समस्त श्लील-अश्लील, कथित रूप से संसदीय-संसदीय, अतीतपूर्ण-भविष्यमय रूपकों में उपस्थित है और बंसवारी खेतों के बेहया अतिक्रमण की पहचान, वहीं थोड़ा पूरब चलते ही बाँस पूज्य हो जाता है। जीवन की धारा बन जाता है पर अनुभवी आँखों को ज्ञात है दावानल सबसे तेज़ तब लहकता है जब ठूँठ होते बाँस एक दूसरे से टकराते हैं। बाँस तब भी अमंगल लाता है जब उस पर आग की रंगत लिए फूल खिल उठते हैं। इस कविता ने कवि ने बिम्ब का अचूक संधान किया है। बाँस कविता देश के पूर्वोत्तर की अवस्था की बेहतरीन बयानगी है।

चारों तरफ बाँस के झुरमुटों में साँय-साँय की आवाज़ है
कोई भी कभी भी आकर बाँस कर सकता है किसी को
इतना खौंफ बच्चों ने पहली बार देखा
और बूढ़ों ने अबतक कभी नहीं
मणिपुर की वृद्धाएँ एक साथ कह रही हैं
बाँस फर आया है मणिपुर में
भीषण भयानक तबाही लिए
अकाल से पहले ही विनाश हो रहा है आज शायद
अमंगल का फूल खिला है पूरब में
जरूर बाँस के फूल खिल आए हैं मणिपुर में ।

युवा कवि केतन पल्लवित हो रहे हैं, वैचारिकी और कवित्त के मूल के सुंदर समायोजन के साथ। भाषा बरतने की समझ और देखने की कला उन्हें कही जा चुकी चीज़ों को भी नयेपन से कहने का हुनर देती है। परिपक्वता उनकी कविता की भाषा है जिससे आने वाले दिनों की बेहतर उम्मीद लगाई जा सकती है।

 

केतन की कविताएँ

1. परिपक्वता

हिंसा के नवीनतम दृश्यों की आदी हो चुकी आँखें
कुछ भी देख सकती हैं अब; अपेक्षाकृत और क्रूर

अद्यतित संस्करण में बहरे हो चुके कान
अभ्यस्त हैं हर चींख अनसुनी करने के लिए

कितना भी ताज़ा पाप हो, कितनी भी तड़पी हो लाश
आत्मा पर हर सड़ी दुर्गंध बर्दाश्त कर सकती है ये नाक आज

कोई भी झूठ निगलने पर नहीं पड़ते छाले
चीभ से ढकेल सकते हैं हम डकार भर की आह भी

कोई भी स्पर्श महसूस नहीं होता है अब
न प्यार का न घृणा का

ओह! मेरी इंद्रियाँ
कितनी परिपक्व हो चुकी हो तुम ।

2. आस्था

ईश्वर पर
अटूट आस्था रखने के लिए
हमें उन हिस्सों को
करना होगा खारिज
जिन हिस्सों में
वह सुन नहीं सकता।

3. विमर्श से चूके

न पेड़ों ने कौशल सीखा
न पशुओं ने तकनीक
धरा पर जैव विविधता के हिस्सेदार बहुत थे
पर विकास का सारा ठेका मनुष्यों के ही पास था
(और विकास के मुँह पर खून एकदम ताजा-ताजा)

वे जो नहीं बन पाए किसी भी विमर्श का हिस्सा
और न ही विमर्शकारों का पेट
जिनके आसन के नीचे दबे हैं घरौंदे कई
उनके बालकनी के बाहर केवल मातम है
जिनका क्रंदन मनुष्य की विलासिता है
रील्स में देखता है अब वह विनाशलीलाओं को ।

न पेड़ और अधिक पेड़ हो पाए
न पशु और अधिक पशु
बस मनुष्य ही और मनुष्य बनता गया
इतना मनुष्य कि —
सड़क के कुत्ते और पालतू कुत्ते के बीच
अपनी जातियों की तरह अंतर कर पाता,

वे बैल पुन: साँड़ हो चुके हैं आवारा रेस के
जो न खेत के रहे न कोल्हू के,
नाक में अनमने कुँचे लगाम के खिंचने पर
वायुवेग से दौड़ते थे जो घोड़े
अब न अश्वमेध के रहे न युद्ध के,
जब बछड़ा मर गया अचानक
तो आदमी ने अपनी युक्ति से उसकी खाल में
भूसा भर दिया और पेन्हा लिया गाय को भरपूर
जब टूटा भ्रम गऊ माता का —
तब भी वह बीफ तो बन ही सकती थीं

‘दोहन करने की कला मनुष्य ने
माँ की गोद से ही सीख ली थी।’

बरसों से सिखाया गया जंगलवासियों को
वनगीतों में —
जंगल इस पृथ्वी के फेफड़े हैं
( जब इस दिल से पुकार उठती है
तो आसमान फट जाता, बारिश हो जाती )
घने सैकत कूल पहाड़ पृथ्वी के माथ-केश
और बहती हुई नदियाँ उसकी नसें हैं
कितना जरूरी है नसों में पानी का बहना
क्या ये समझते हैं जंगल के बाहर के
उत्तर आधुनिक मेट्रो पॉलिटन बाजार के इंसान ?

जब मन किया पेड़ हिलाकर
झार लिए महुए ,
अद्धा इटा चलाकर तोड़ लिए नन्हे टिकोरे
बिना सलीके सुकोमल पत्तियों सहित
नोच डाले डाल से अमरूद
उक्ताया था मन पेड़ का भी
सोचता है कि काश टांग देता ताड़ की तरह अपना फल
थोड़ा उससे अधिक ऊपर ।

एक दिन जो अगर हो गये वे सचेत
तुम्हारे षड्यंत्रों के विरुद्ध एक
हो जाएँ लामबंद
नाखून तेज और टहनियाँ धारदार करके
शाखाओं के घुमाव से बाँधने लगें हवा
नदियाँ और समुद्र उड़ेलने लगें जो सारा जल
पहाड़ गोलाबारी के साथ बढ़ने लगें आगे
तुम कह भी न सकोगे उसे कुदरती आपदा
बीचों बीच खड़े-खड़े मूक दर्शक बने
देखोगे उसका नया सौंदर्य।

4. साइकिल से

आज जब सबके पास बाइक है
और हर चौथे घर में कार
साइकिल तब भी मौजूद है
जैसे भाषा सीखने की शुरुआत स्वर से होता है
वैसे ही ड्राइविंग की शुरुआत साइकिल से होती
साइकिल से कितने बार गिर पड़ते हैं हम
लड़ते-भिड़ते ,ऊँच-खाल, नापते पगडंडियाँ
हाँफते हुए पहुँचते हैं मंजिल को

गाड़ियाँ कितना तेल खाती हैं
और साइकिल केवल हवा खाती है
बचपन के कितने इलाके और
बचपने की कितनी गलियों को
साइकिल के सहारे तय किया है हमनें
साइकिल से उतरकर धीमे चलते हुए हम
समय को आहिस्ता काट लेते थे
और कभी सरसराते समय से आगे
चले जाना चाहते थे इसी साइकिल से

मुझे याद है स्कूल के आखिरी दिन
जब उसकी सफेद शर्ट पर उसकी दोस्तों ने
हर जगह लिख दिया था नाम
और मैं दूर खड़ा देख रहा था
वह मिली मुझे साइकिल-स्टैंड पर
उसने अपना रुमाल मेरे हाथ में थमा दिया
और हम दोनों ने एक-दूसरे का नाम
रुमाल पर लिख दिया
साइकिल की पीठ के सहारे

उस समय को पहिए से
बस होले से डुगराना चाहता था
मैं साइकिल से धीरे-धीरे बढ़ रहा था
वो साथ पैदल चल रही थी ।

5. शब्द

कुछ शब्द मुझे दादी से मिले
कुछ माँ ने दिए
कुछ शब्द शिक्षकों ने समझाया
और कुछ शब्द दोस्तों ने सिखाया !

मेरे शब्द-संसार में जितने भी शब्द थे
वे सब मैंने तुमसे प्यार करने में
खर्च कर दिए ,

अब मेरे हर शब्द किसी न किसी संदर्भ में
तुमसे जाकर जुड़ जाते
तुमको याद करता हूँ—
वह भी केवल शब्द में ही

ले-देकर केवल शब्द ही हैं मेरे पास
प्यार करने के लिए,
समझाने के लिए, भरोसा करने के लिए भी
शब्द ही थे , जिनसे टूटा वे भी ;
जुड़ता हूँ तो भी किसी शब्द से ही

सबसे मुश्किल समय में
मैं ईश्वर पर नहीं
अपने शब्द पर भरोसा कर पाता हूँ।

6. मापनी

केवल
दुख की मापनी से
मपता है प्रेम ।

7. रोपनी के गीत
(पूरबी के लोकधुन से प्रेरित , पूरबी को अर्पित)

पंकिल जलमल खेत में पाँव‌ डुबोए‌
स्त्रियाँ सपरिवार गाड़ रहीं
किसी मंगल परब का धान
वही जो रंगाया जाएगा शुभही में –
हल्दी से चाउर , किसी दुलहन‌ के‌ खोंइछा में
भरा जाएगा जो , मंडप में बहिना के आंचर में
सजल आँखों गिरेगा जो लावा फूटकर
बाँधा जाएगा हाथ में संकल्प धरे फूल-अक्षत
छींटा जाएगा जो किसी सुहागन अर्थी के पीछे
बो रही हैं वह सब
गीतों में पोर-पोर डूबे ।

अधिया खेत‌ में बो आई पूरे सपने
अबकी फसल पर दाँव है
बड़की का ब्याह और छुटके के‌ दसवीं का अगला एडमिशन
रिश्ते का बयाना दे आए हैं बड़की के बाउजी
देकर चार बोरिया पुराना चावल , कहकर –
जितना पुराना पका चाउर है उतना निभाएगी हमार बबुनी
खदबद नरम भात पकाएगी भिनसार ।

सब कुछ अब धान भरोसे है
पेट भी पतीला भी
एक पंक्ति में बराबर खड़े-खड़े
रोपा गया‌ सब दुख सब आस
प्ररधान जी के खेत में

रोपनी के गीत‌ गा-गा कर
रोपा गया धान
सपने‌ में लहरा रहा बार-बार
बरखा को भेज देना इंदर महराज
तुम्हारे नाम होगा पहला ज्योनार
रख लेना अक्षत भर लाज बस ।

8. बाँस के फूल

सात बहिनों वाले देस में
प्रकृति दुल्हन का जोड़ा कभी नहीं उतारती है
पूरब में सबसे पहले सूरज झाँकता है अचल‌ अरुणाचल से
तो‌ किरणें सीधे
पर्वत के किरीट मणि पर पड़ती हैं
मणिपुर चमक उठता है
बाँस के झुरमुटों के बीच से आती मुलायम पीली धूप से

सतरंगी शिरोई के फूलों से पट जाती हैं पगडंडियाँ
पूरे आश्चर्य के साथ केवल यहीं उगती हैं ये
पूरब के स्विड्जरलैंड में पर्यटक
सुकून तलाशने आते रहे हैं बरसों से
चाय की पत्तियाँ यहाँ लहराते हुए उड़कर आती हैं
जैसे असम से पोलो‌ खेलने आई हों
घरों के दीवारों पर लटके धान के गुच्छे
किसी दुर्दांत अकाल से बचने की कामना लिए लटके हुए हैं

उनकी पूरी संस्कृति
बाँस के इर्द-गिर्द घूमती है
बाँस के मचान पर बैठे शिकारी के हाथ बाँस का तीर
बाँस के खंभे दरवाजे और बाँस की ही दीवारें
बाँस की कुर्सी और बाँस की चटाई
बाँस के गोलाकार छाते ही बचाते हैं मूसलाधार वर्षा से
बाँस की टोपियाँ ही छत हैं
टोकरी, डोंगा, परात, बक्सा, सूप, डलिया
पंखा, खिलौने सब बाँस के

ऊँची-ऊँची लहराती बाँस की पत्तियाँ
मानों मणिपुर के आदिवासियों का आदिम ध्वज हों
जो प्रकृति की सत्ता को बता रही हों सर्वोच्च
सूखे गिरे बाँस के खोखलों में से गुजरती हवा
कोई आदिम धुन छेड़ रही है
बाँस से ही बनती है बांसुरी
और बाँस की अर्थी ही ठुमुक कर चलती है मसान

बाँस के बेहया खेत
जो उगते हैं बिना खाद पानी के
बाकि जगहों पर बँसवारी बन उपेक्षित रहते हैं
पर इस अंचल में पूजनीय हैं
रोजी-रोटी है बाँस
हालाकि बाँस होना ठूँठ होना है
शाप है बाँस होना

बाँस की सर्वाधिक प्रजातियाँ हैं पूरब में
मणिपुर में दूर‌-दूर तक बाँस हैं
पर जो बाँस पोषक थे आज उनकी बन रही हैं केवल लाठियाँ
टकरा रही हैं जनजातियाँ बाँसभूमि की
बाँस के गाँठों से खून बहने लगे हैं अब
इतना कि लोकटक झील लाल है पूरी तरह
बराक भी हो चुकी है लाल
ब्रह्मपुत्र भी लालपन लिए बढ़ रही
मेघना भी

चारों तरफ बाँस के झुरमुटों में साँय-साँय की आवाज़ है
कोई भी कभी भी आकर बाँस कर सकता है किसी को
इतना खौंफ बच्चों ने पहली बार देखा
और बूढ़ों ने अबतक कभी नहीं
मणिपुर की वृद्धाएँ एक साथ कह रही हैं
बाँस फर आया है मणिपुर में
भीषण भयानक तबाही लिए
अकाल से पहले ही विनाश हो रहा है आज शायद
अमंगल का फूल खिला है पूरब में
जरूर बाँस के फूल खिल आए हैं मणिपुर में ।

9. थोड़ी सी मृत्यु कितना सारा जीवन है

बहुत जगह पर होना न होने का आडंबर है
बहुत जगह उदासी मुस्कुराहट का प्रपंच है
बहुत सारी बातें चुप्पियों की आपबीती हैं
बहुत सारी कविताएँ बहुत सारी हताशा हैं
बहुत सारी भीड़ बहुत सारा अजनबीपन है
बहुत सारी वासना बहुत सारी अतृप्ति है प्रेम की
बहुत सारी इच्छा बहुत सारे संन्यासियों की आत्महत्या है

बहुत सारे सपने में बहुत सारा बचपन है
बहुत सारे पतझड़ में बहुत सारा वसंत है
बहुत सारे समुद्र में बहुत सारी नदियाँ हैं
बहुत सारी नदियों में बहुत सारी मछलियाँ हैं
बहुत सारी मछलियों में बहुत सारा पानी है
बहुत सारे पानी में बहुत सारी आग है

बहुत सारे दीवारों में बहुत सारा घर है
बहुत सारे घरों में बहुत सारी खिड़िकियाँ हैं
बहुत सारी खिड़कियों में बहुत सारी घुटन है
बहुत सारी घुटन में बहुत सारी साँसें हैं
बहुत सारी साँसों में बहुत सारा यौवन है
बहुत सारे यौवन में बहुत सारी सड़कें हैं

बहुत सारे बीज में बहुत सारी पृथ्वी है
बहुत सारी पृथ्वी में बहुत सारा आकाश है
बहुत सारे आकाश में बहुत सारी रेखाएँ हैं
बहुत सारी रेखाओं की बहुत सारी आकृतियाँ हैं
बहुत सारी आकृतियों में बहुत सारी शून्यता है

बहुत सारे में बहुत थोड़ा भी है
और बहुत थोड़े में बहुत सारा भी
बहुत सारा बहुत सारा हो जाता
बहुत थोड़ा बहुत थोड़ा नहीं होता

बहुत सारे में थोड़ा
थोड़े में बहुत सारा

इन आँखों से बहुत सारे दृश्य देखे
इन हाथों से बहुत सारे हाथ छुए
मुँह से बहुत सारे शब्द उचारे
बहुत सारी गंध पहचानी इस नाक से
चीभ पर बहुत सारे स्वाद रखे ,

पर तसल्ली से कभी मौत नहीं चखा
उसे देखना , सुनना , छूना, बोलना , पुचकारना
कैसा लगता है ?
इसलिए मौत मुझ तक तू
पूरी तैयारी के साथ आना
इत्मिनान से बैठना मेरे पास

हे मृत्यु ! ठहर जाना कुछ क्षण
घेरे रखना आगोश में
धीरे-धीरे मेरी जान लेना
पता चल सके मुझे तेरी संपूर्ण आत्मकथा ;
पता चल सके कि
‘ थोड़ी सी मृत्यु कितना सारा जीवन है ’

 


कवि केतन यादव, जन्म : 18 जून 2002। शिक्षा : बी. कॉम (2020) हिंदी से एम ए(2022), वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध छात्र

कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स आदि पर कविताएँ प्रकाशित।संग्रह – लौटती हुई साँझ नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित

संपर्क – 208 , दिलेजाकपुर , निकट डॉ एस पी अग्रवाल,गोरखपुर -273001 उत्तर प्रदेश।

ईमेल – yadavketan61@gmail.com, मो . 8840450668

 

 

टिप्पणीकार अणु शक्ति सिंह, विद्यापति पुरस्कार 2019 से पुरस्कृत हैं।  जन्मः 19 अगस्त 1985, सहरसा (बिहार)शिक्षाः माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता स्नातकप्रकाशन – दो उपन्यास शर्मिष्ठा और स्टापू , भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। सम्पर्क: singh.shaktianu19@gmail.com

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