देवेंद्र आर्य
ज्योत्सना की कविताएँ स्त्री-मन की करुणा और सम्वेदना का समकालीन पाठ पेश करती हैं , पर उनका समकाल विद्रूप या भौकाल बन कर नहीं आता ।
कविताओं में आयी यह गहरी मानवीयता एक स्त्री में ही होती है कि वह इंस्पेक्टर सुबोध की मौत को आंख के पानी, रिश्तों की गर्मी, जज़्बों , इंसानी सलाहियतों और हुब्बे वतनी की मौत से जोड़ कर देख सके ।
एक मामूली इंस्पेक्टर का मरना ( मार दिया जाना) शासन प्रशासन के लिए फ़क़त दो चार लाख रूपए मुआवजे और परिवार के किसी सदस्य की नौकरी की पेशकश तक ही सीमित है मगर कवि को उसका मरना(मारा जाना) गाय, ममता, मोहब्बत, दोस्ती, भावनाओं और अंतत: भारतीयता का मर जाना( मारा जाना) भी लगता है । मेरे लिए कविता यहीं ख़त्म हो जाती है- ” तुम तो मर ही गए , साथ हम सब मरे ”
एक कवि के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वह अपनी कविता के विषय की पंच लाइन को स्वयं पहचाने । यह सलाहियत लिखते-लिखते ही आ पाती है और नहीं भी आती अगर कवि के भीतर का आलोचक-सम्पादक कमज़ोर हो ।
कविता के बहाव में ख़ुद कवि का बह जाना जितना ठीक है उससे ज़्यादा ख़राब। बहाव में बहते हुए आप अपने आप बहते रहते हैं यानी कहाँ, किधर बहना है इस पर आपका नियंत्रण कम हो जाता है ।
कवि के लिये इस काव्य-आवेग को सार्थक और प्रभावोत्पादक ढंग से कागज़ पर उतारने की कला आना बेहद ज़रूरी है। कला है क्या ? एक हुनर, और हुनर क्या है ? एक अनुशासन, बंदिश, नियंत्रण । हुनर विहीनता की कलात्मकता पर बेशक पाएदार बहस की जा सकती है पर हुनरविहीन हो कर पाएदार कविता नहीं लिखी जा सकती ।
ज्योत्सना के यहाँ भी कविता को अधिक बिम्बदार बनाने के फेर में या बिम्बों के माध्यम से भाषाई छटा बिखेरने के चक्कर में कभी-कभी अंतर्विरोधी बिम्ब आ जाते हैं । ग़ज़ल में जिसे एक मिसरे का दूसरे मिसरे से राब्ता कहते हैं ।
उनकी एक कविता है- ‘खेत और भूख’ । मानव सभ्यता के शुरुआती दौर की कृषि विकास-यात्रा के वर्णन वाली इस ख़ूबसूरत कविता में केचुए, बैल, बादल और बाज़ार का मानकीकरण हुआ है ,परंतु जहां प्रतीक अथवा मानकीकृत जीव या जिंस ख़त्म होते हैं और मनुष्य स्वयं किसान के रूप में स्थापित होता है वहां ‘निरा किसान’ शब्द का क्या औचित्य है :
“दुनिया की बहुत शुरुआत से ही/ निरे मनुष्य की शक्ल में किसान खटते रहे बारहो महीने / धूप बारिश सर्दी में प्रसवित करते रहे धरती/ उगाते रहे अन्न ”
किसान तो स्वयं मनुष्य है, मनुष्य ही किसान है तो ‘निरे मनुष्य’ का क्या मतलब ? एक अत्यंत अच्छी कविता में एक छोटा सा निरर्थक शब्द किरकिराहट पैदा कर देता है. यहीं कवि के सम्पादक को जागृत होना चाहिए ख़ासतौर से नए मगर लम्बी दौड़ के कवि के लिए ।
ज्योत्सना लम्बी दौड़ की कवयित्री हैं, अच्छी बात यह है कि ज्योत्सना इस ओर सतर्क हैं कि कविता अमूर्तन का शिकार न हो जाए ।
उनकी लोक सम्वेदना और लोक तथा रिश्तों की महीन पकड़ आश्वस्त करती है। एक कविता अम्मा के गीत गाए जाने पर है जो न केवल लोकगीत के फार्म में है, बेहद मार्मिक और प्रभावकारी भी है ।
अम्मा घर का सारा काम करते हुए गाती हैं बस प्यार करते हुए नहीं। सुबह से उठकर देर रात तक के गृहस्थ जीवन के काम निपटाते हुए सावन गाती हैं पर उनके पास सावन को झांकने की फ़ुर्सत नहीं है- ” सावन अक्सर तब आता/ जब तुम्हें कुछ काम रहता…../ भींगने के सारे अवसर गंवा देती तुम रसोई संगालने में/ बारिश लौट जाती, तुम्हारे मन की चौखट से नाराज़, मुंह सुजाए/ बाद पलटने के तुम गुनगुनातीं/ नन्ही नन्ही बुंदिया रे फूलों का मेरा झूला ।”
ज़माने के लिए जीती एक औरत का अपने लिए न जी पाने का दर्द पूरी कविता में कराह उठता है -” अम्मा तुम प्रेम गीत कभी नहीं गाती ” यह है स्त्री जीवन में प्रेम की विडम्बना ।
औरत घर-परिवार के लिए प्रेम-पगी तीज-व्रत में सगुन गाती है पर उसके मन का सगुन कभी नहीं होता । हद तो यह है कि उसे याद भी नहीं रहता कि सबको ही नहीं , ख़ुद को भी प्रेम करना चाहिए ।
लिपस्टिक का अस्तित्व ही स्त्री से जुड़ा है । साज-सिंगार स्त्री के नैसर्गिक गुण हैं। स्वयं ठीक-ठाक सलीके से रहा उसकी नैसर्गिक इच्छा है । सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वह सुंदर दिखे बल्कि इसलिए भी कि उसकी सुंदरता देख उसका पति/ प्रेमी प्रमुदित हो और उन्हें खुश देख वह स्वयं वह भी प्रमुदित हो सके ।
स्त्री प्रकृति है । पुरुष या स्वयं प्रकृति-रूपा स्त्री अपनी अनुकृति उजाड़ में नहीं देखना चाहती । दिन भर की धूल-मिट्टी,थकन-उदासी, पीड़ा-शोषण के बाद की शाम तो थोड़ी सुखद, लिपस्टिक सी तरोताज़ा हो जाए ।
एक मजदूरिन जो गर्भवती भी है, दिन भर खटने के बाद शाम ठेकेदार के गलीज़ स्पर्श और मालिक की आंखों में तैर आई गंदगी को घुटक कर, धूल सने मुंह धो कर, उलझे बालों को संवार कर ” घर जाने से पहले, हाथ शीशे में देख/ वो लिपस्टिक लगाती है” । क्यों लगाती है ? क्या उस परिस्थिति में उसकी सजने की मनःस्थिति है ? कतई नहीं ।
वह इस लिए सजती है कि सारी गंदगी घर लेकर नहीं जाना चाहती । बचाना चाहती है अपनी खोली को उदासी से । मगर क्या लिपस्टिक लगा लेने से यह सब सम्भव है ? इसका जवाब हमें ज्योत्सना की दूसरी कविता में मिलता है ।
मेरे जानते इस विषय पर लिखी हिंदी की यह अकेली कविता है । वे कहती हैं कि लिपस्टिक रंग मात्र नहीं है । न ही लिपस्टिक लगे होंठ साकार आमंत्रण मात्र हैं । वह स्वयं के लिए सुंदर(फिट) होने का आत्मविश्वास है, वह सन्नाटों के चेहरे को भी पपड़ियाने नहीं देती और छिपा लेती है होंठों पर पड़े ज़ख़्मों की कसैली स्मृतियों को।
स्त्री के लिए लिपस्टिक एक आलम्बन है, ईश्वर की तरह का आलम्बन जो गिर गिर कर पुनः उठ खड़े होने का भरोसा देता है। आप पहले वाली कविता की गर्भवती मजदूरन के चेहरे की विवशता को याद करते हुए इन पंक्तियों की सार्थकता जांचें ।
स्त्री जिजीविषा से भरी हज़ार मजबूरियों में भी मजबूर नहीं दिखना चाहती । हल्के से सज कर निखर जाती है । याद कीजिए गांव-देहात या शहरनुमा कस्बों की उन स्त्रियों को जो दिन भर उद्योगरत रहकर भी शाम ढलते चेहरा पोछ-पाछ कर अयना में देख मांग में ताज़ा चटक सिंदूर भर लेती हैं कि थका-मांदा आया पति उसे पस्त न देखे और तरोताज़ा हो जाए ।
यह खांटी भारतीय चित्र है । दूसरे के सुख की चिंता में आपनी चिंताएं ढकने का सहारा बनती है यह लिपिस्टिक । इसीलिए लिपस्टिक केवल रंग नहीं है, बीमार चेहरों की फौरी प्लास्टिक सर्जरी भी है । द्वापर से लेकर आज तक समाज विज्ञान कुछ अर्थों में कुछ नहीं बदला है।
द्रौपदियों, कुंतियो, गांधारियों के लिए आज भी समाज-सत्ता दुर्योधनों, और भीरु धर्म-भ्रष्ट युधिष्ठिरों के ही हाथें है । स्त्री यह जानती है । इसीलिए एक तरफ़ लिपस्टिक का सहारा लेती है दूसरी तरफ़ सड़क पर उतरने की तैयारी करती है । नारे लगाते होंठ और लाल हो उठते हैं लिपस्टिक से मिलकर । ज्योत्सना ललकारती हैं- ” बदलना है तो अंत करो/ कोख से जन्मे अमानुष का स्वयं अपने हाथों” …..”तभी सम्भव है कि कुछ बदले ।”
ज्योत्सना की इन कविताओं का संसार बड़ा है और संस्कार प्रगतिशील ।
वे उत्तर प्रदेश की ज़रख़ेज़ ज़मीन से उठ कर प्रस्तर-काया दिल्ली में अपनी सम्वेदनाएं बचाए हुए काव्यरत हैं । तभी उनकी निगाह कूड़ा बीनते नशे का लती बनते बच्चों पर जा पाती है । तभी वे घरेलू कामों को भी कविता का दर्जा दे पाती हैं ।
कविता लिखने से कमतर नहीं है रोटी बेलना, तवे पर सेंकना । मगर दुख वहाँ है जहां स्त्री सब्जियों के साथ अपना ज़ेहन भी पका डालती है और पेट पर पड़ी प्रसव-धारियों को अपनी अलिखित मगर जी हुई कविताओं की गवाह बनाती है । भूल जाती है कि आला लगाकर मरीज़ देखना और बेहतर कविता है ।
ज्योत्सना पेशे से स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं । कविताओं को सांसों की तरह जीती हैं । मरीज़ों से घिरी ज्योत्सना, दुनिया-समाज के मर्ज़ पर हाथ रखना चाहती हैं ताकि उसके चेहरे पर ज्योत्सना बिखेर सकें । हम उनकी कामयाबी की शुभकामना करते हैं ।
ज्योत्स्ना मिश्र की कविताएँ
1. वो चिड़िया
जब उस चिरपरिचित आँगन से
उड़ी होगी ,आखिरी बार
पलट कर देखती ,कुछ सोचती तो होगी
सोचती होगी ओसारे पर रूठी सी पड़ी
सांझ की सुरमई चुनरी को
या सुबह की मुस्कुराहटों पर ,
दुपहरिया के उलाहने को
नदी की सँवलाई उदासियों का खत लिये वो किस दिशा में गयी
ये तो समंदर को भी भान नहीं
चिड़ियायें रास्ता नहीं भूलतीं
पर रास्ते अकसर भुला देते हैं उन्हें
जैसे भूल जाती है दूब अकसर ओस को
जैसे भूल जाती है माँ ,अपने मायके की इमली
या भूलते हैं बाबा बार बार चश्मा और यादें
चिड़िया रास्ता नहीं भूलती
यही उसका सबसे बड़ा दुख है
उड़ती ही चली जाती है वो इस दुख में
न जाने कहाँ कहाँ
बीहड़ों काँटों भरी झरबेरियों में
और फिर वो ,वो रास्ते भी हमेशा याद रखती है
उनके बदल जाने तक .
2.अम्माँ गीत गाती
अम्मां तुम सावन में गीत गाती
छोटी बडी़ सुइयां रे जाली का मेरा काढना !
सावन अक्सर तब आता,
जब तुम्हें कुछ काम रहता
तुम सुबह से उठ ,रात की भीगी दुछत्तियाँ बुहारतीं
रिमझिम से बचते बचाते पकडा़ जातीं
हमारे हाथों मे धूप भरी गिलसियाँ
भीगने के सारे मौके गवाँ देती तुम रसोई संगलाने में
बारिश लौट लौट जाती ,तुम्हारे मन की चौखट से
नाराज़ ,मुँह सुजाये
बाद पलटने के उसके तुम गुनगुनातीं
नन्हीं नन्हीं बुंदियाँ रे झूलों का मेरा झूलना !
और सावन गली से गुजरता ,मुस्कुराता
घर की दीवारों को तुम
भर आँख प्यार से देखतीं
और उनमें
नन्हीं नन्ही खिड़कियाँ उग आती
पल्ले तुम्हारी पलकों से झपकते
आडे तिरछे सरिये
तुम्हारी टूटी चूडि़यो से
क्लीडोस्कोप सजाते सावन का
सावन में तुम व्रत रखतीं
नागपंचमी पर मुझे चुपके से बतातीं
आज गुडि़या भी है ,गुडिया ।
पुरानी चिंदियों की बनी रंगबिरंगी गुडि़याँ
सुबह पुजती ,शाम विसर्जित कर दी जातीं
छोटी बडी सखियाँ रे गुडियों से मेरा खेलना
तुम तीज का बरत रखतीं
और शादी के पहले रखे सोमवार याद करतीं
मां तुमने कभी तीज पर शिव से पूछा ?
उन सारे गेंदे के फूलों ,प्रसाद और सपनों का हिसाब ?
याद में तुम मंदिर की घंटी सी हो जातीं
खनकती बजती रहतीं
तुम पूजा में प्रसाद सी हो जातीं
बँटतीं रहतीं
पीला पीला गेंदवा रे ,माला का मेरा गूँथना
अम्माँ तुम तेरह की हो जातीं
और फिर अपने से पन्द्रह साल बडे़ दुहाजू से ब्याही जातीं
तुम भर हाथ मेंहदी लगाती
कसी कसी हरी चूडियाँ चढातीं
अम्मा तुम मन के ही नहीं
कलाई के नील भी छुपा जातीं
हरी हरी चुडियाँ रे ,मेंहदी का मेरा मांडना
अम्माँ तुम सावन गातीं ,
तुलसी के मँडवे पर मामा का मंगल गातीं
राखी पर भईया का सगुन गातीं
तीजा पर भूखे पेट शिव वंदन गातीं !
अम्माँ तुम प्रेम गीत कभी न गाती ?
3.समय के चौरस्ते
समय के चौरास्ते पर
अजनबी आवाज़ों की भीड़ में
एक चिड़िया भटक गयी है
देखो उसे पंख गवां बैठी है शायद
बीचोबीच चौक पर
उफ्फ कोई बचालो
कहीं कोई पहिया न गुजर जाए उस पर
अक्सर गुजर जाते हैं हादसे मुहब्बतों पर
ये दुनिया सख्त है खाप पंचायतों सी
उफ्फ बचालो उसे, उसका लहू अब भी गर्म है
बर्फीली सर्दियों में नब्जों का ईंधन बनेगा
उसका लहू अब भी रवां है
चल जायेगीं पनचक्कियां !
बस जाएंगी बस्तियाँ
उसके आंसुओं से
भिगो लोगे बीज तो शायद
एक बार फिर धरती हरी हो
चिड़िया को सहेज लो
वो खुश होगी तो गायेगी गीत
बिखेर देगी जिंदगी समूचे ब्रह्मांड में
पेड़ प्रेम करते हैं चिड़िया से
पेड़ों को रांझे की तरह मरने मत दो
पेड़ मरते हैं तो जलजले आते हैं
तुम्हे क्या लगता है ?
ये चौराहे और सड़के ,सैलाब झेल लेंगें
या सोचे बैठे हो ,
ऊंची इमारतों को चिड़ियों की जरूरत नहीं होती ??
4.वो लिपिस्टिक लगाती है
शाम तक
याने कि एक और
एक और मेहनतकश दिन के बाद
बढे हुये पेट के साथ
सारा दिन तीन मंजिल ईंट ढोने के बाद
धूल से सना मुँह धोकर
उलझे बालों को हाथ से सँवार
सर पर पल्ला लेने के बाद
ठेकेदार से झौं झौं कर
हाथ पर गलीज़ स्पर्शों समेत
दिहाड़ी थाम
मालिक की आँखों की गंदगी पर
गले तक आई घिन घुटक जाने के बाद
घर जाने से पहले ,हाथ शीशे में देख
वो लिपिस्टिक लगाती है ।
तो ?
5. क्या लिपस्टिक केवल रंग है?
क्या लगता है तुम्हें ?
लिपस्टिक केवल रंग होती है ?
जिसे होठों पर लगा स्त्री
बन जाती है साकार आमंत्रण!
या इश्तहार किसी आदिम पुकार का
या कोई प्रस्फुटित सिसकारी
दबी हुई जुगुप्साओं की
माफ करना ,पर गलत समझे दोस्त
ये एक छोटी सी रंगीन डंडी
और भी बहुत कुछ होती है
संकेत होती है
दर्पण देखने वाली उम्र का
वो उम्र कि जब
अपनी परछाई पर भी
मुग्ध होने लगती हैं लड़कियाँँ
वो उम्र जब आकाश नीला
और पत्ते हरे होते हैं
रंगों में फर्क सिखाती है
लिपस्टिक
आश्वासन होती है
किसी से पहली बार मिलते
किसी इंटरव्यू को निकलते
या यूँही राह पर चलते
हाथ पकड़ लेती है
दबंग सहेली सा
कहती है कान में
मैं हूँ ।
बढ़ो ,तुम अच्छी लग रही हो ।
भरोसा होती है
कि जीवन बचा रहेगा
थकी हुई शामों को भी
रुकी रहेगी मुस्कुराहटें
नमकीन दोपहरों में भी
लिपिस्टिक
पपड़ाने नही देगी
सन्नाटों को चेहरे पर
पर्दा भी होती है
ढंक देती है
होठों पर पड़े नील !
कसैली स्मृतियों
के सलेटी अवशेष
तिर्यक समय के
विद्रूप व्यंग्य
छिपा देती है बड़ी
कुशलता से
मुस्कुराहटों की
निरर्थकता
ईश्वर होती है लिपस्टिक
जिसके आलंबन से
गिर गिर कर उठती है स्त्री
फिर फिर सिरे तलाशती है
प्रेम की उलझनों के
सौंदर्य और जीवन रचना
जहाँ छोड़ता है ईश्वर
वहाँ से आगे बढ़ाती है लिपस्टिक
किसी किन्नर से पूछना
पूछना सोनागाछी की
किसी शाम से
उतरे बीमार चेहरों को
सजाती पुचकारती लिपिस्टिक
ईश्वर नहीं तो कम भी नहीं
लिपस्टिक केवल रंग नही होती
6.नशे के अंधेरे में
चमकता है दप दप
सफेद जहर का काला चेहरा ।
ठंड ,भूख ,दुख अपमान
सब गुम हो जाता
एक साँस अंदर जाते ही
माँ के पेट से लगे आती थी जैसी नींद
आती फुटपाथ पर ईंट का सिरहाना लगा ।
सारा सारा दिन गुजरता ,बीनते कूडा
मिलता कभी सत्तर तो कभी सौ
इतने में आ सकती चार रोटी सब्जी
या भेलपूरी गुड़पट्टी भी
पर पेट भरे नींद नहीं पडती
याद आती दिन भर की थकन
पुलिसिये की वसूली
रिक्शेवालो की गाली ।
याद आती माई
गाँवघर ,बारिश ,मेड़ और मिट्टी
किस किसा जाता शहर का चाँद
आँख में ।
और बस पचास रुपये खर्च कर
मिल जाता थिनर या वाइटनर ।
बस दो चार साँसे और राहत !
नींद की परी आकर सोहरा जाती
कई दिन के बिना धुले बाल
सत्ताइस लाख का टर्न ओवर है
यूँही कैसे बंद हो जाये ।
सो क्या हुआ कि कलुआ
बस चौदह बरस का है ।
7.
उन्होंने तुम्हारे पड़ोसी को तुमसे अलग कर दिया
दोनों से ये कह कर
कि बीच की दीवार पर तुम्हारा हक है
फिर उन्होंनें करार दे दिया
तुम्हारे सबसे करीबी दोस्त को तुम्हारा दुश्मन !
कह कर कि वो तुम्हारे पड़ोसी
से मिल गया
फिर उन्होंने तुमसे तुम्हारे अध्यापक से अनबन करवा दी
ये कह कर कि उसने
तुम्हें इतिहास गलत पढाया!!
फिर उन्होंने तुम्हारे भाई से एक रोटी छीन कर
तुम्हारी भूख को दी
उसके बाद दूसरी और तीसरी तुम्हारे लालच को !
और इस तरह तुम्हारा भाई तुमसे
छीन लिया
अब वो ताक में हैं
तुम्हें ही तुमसे छीन लेने की !
क्योंकि वो कहने लगे हैं
कि वो !
दरअसल तुम ही हैं !
वो तुम बन जायेंगें !
तो तुम कहाँ जाओगे मेरे देशवासी ?
8.कुछ नहीं बदला
द्वापर से अब तक
वही निर्लिप्त सभा
वही नपुंसक द्वेष में ललकारता दुर्योधन
वही लोलुप चाटुकार दु:शासनों की भीड़
वही कुंठित कर्णो की अविनीत निर्दयता
वही द्रोपदी की अवनद्ध पुकार!
और वही कृष्ण की औपचारिक करुणा !
न कुछ बदला, न बदलेगा कभी
यूँही नग्न खड़ी होंगी
चौराहे चौराहे द्रोपदियाँ
गाँव गाँव नगर नगर
कृष्ण भी थक कर
बैठ गये
तात्कालिक व्यवस्था की सीमा होती है
बदलना है तो उठो!
उठो,हाशियों से बाहर आओ गांधारियों
खोलो पट्टी अंधी ममता की
तेज से,
विध्वंस निरवंश कर दो
अराजकता की विषबेल
चलो किनारों से मध्य में आओ कुंतियों !
बंद करो बाँटना, परोसना,
अपने कायर पुत्रों में स्त्री किसी वस्तु सी
माँओं झरोखों से हट, द्वार पर पहुँचो ,
सड़क पर उतरो ।
बदलना है तो अंत करो
कोख से जनमें अमानुष का
स्वयं अपने हाथों ।
माहुर दे दो निर्लज्ज दु:शासनों और
भीरु धर्मभ्रष्ट युधिष्ठरों को ।
तभी संभव है कि कुछ बदले !
8.
तुमने इतिहास लिखा
मोती से अक्षरों में ,
अपने पूर्ववर्ती शासकों के
विजयरथों
और राजसूय यज्ञों के बारे में
दान दया और क्षमा के बारे में भी
पन्ने भर डाले
नहीं मगर था उनमें उल्लेख उनका
जिन पर की गई दया
या दी गयी भीख
तुमने भविष्य के सुनहरे स्वप्न देखे
अपने अनुरूप मौसमों के
तुम्हारे पास आँख नही
एक कतरनी थी
जिससे तुमने काटा कतरा भविष्य
नाप जोख कर
द्रोही साबित हुई हर वो आंख
जो नही देख सकी
ऐन उसी रंग नाप के सपने
तुमने सोचे विचार
किताबों से छाँट कर
शब्दों को जोड़ कर
परिवर्तन की किसी भी
गुंजाइश को नकार
रची संहिताए
और वो विचार इतने ताकतवर
इतने जिद्दी
कि अंततः धर्म बन गए
इतिहास और भविष्य की तरह
9.खेत और भूख
दुनिया की बहुत शुरुआत से ही
ऐन मानुष की शक्ल के केंचुये
निगलते उगलते रहे मिट्टी
छाँटते रहे पत्थर
बंजरो को बनाते रहे उर्वर
दुनिया की बहुत शुरुआत से ही
ठीक मानुष की शक्ल के बैल
खींचते रहे हल
खींचते रहे लकीरे
कि रास्ता मिले बीजो को
दुनिया की बहुत शुरुआत से ही
बिलकुल मानुष की शक्ल के बादल
निचोड़ते रहे अपने स्वेदसिक्त अगोछे
कि बना रहे पानी नदियों और खेतो में
भरते रहे लहू से चमक
धान की बालियों में
दुनिया की बहुत शुरुआत से ही
निरे मानुष की शक्ल के किसान
खटते रहे बारों महीने ,
धूप बारिश सर्दी में
प्रसवित कराते रहे धरती
उगाते रहे अन्न
और दुनिया की बहुत शुरुआत से
हू ब हू मानुष की ही शक्ल के बाजा़र
ख़रीदते रहे उनसे ,उनका श्रम ,स्वप्न ,आज और कल
रखते रहे बदले में
पसरी हथेलियों पर भूख़!!
11.
जब उन्होंने पूछा
तुम कविता नहीं लिखती?
मैं शाम की धूल में
लिपटे चाँद को
झाड़ कर फलक में टाँकने की
कोशिश कर रही थी
अपने दुधमुँहें के झुनझुने के साथ
मैनें कुछ चौंक कर कहा
हाँ लिखतीं हूँ,
अभी अभी मैनेंं पानी भरा था
एक तो उसमें भी है
उन्होंने कुछ उकता के पूछा
कोई किताब छपी?
मैंने कहा हर दिन!
मैं एक रोटी बेलती हूँ
तवे पर सेंकतीं हूँ
एक कविता बनती है
ऐसी कई कवितायें तह लगा
डब्बे में रखतीं हूँ
किताब बन जाती है
सच मानिये, बड़ा संतोष होता है
हर बार पूरी किताब देख कर
उन्होंने मुझे यूँ देखा,
जैसे मैने
सब्जियों के साथ पका डाला था
अपना जहन
वो तरस खाते, मुस्कुराते जाने लगे
मैंने रोक कर कहा
देखिये तो सही
क्या आपको नहीं दिखती कविता
आँखों में मेरी
बाँहों में?जिनसे बुहारतीं हूँ आँगन
और सज जाता है अंतरिक्ष!
होंठों में? जिनसे, धीमे से बुलाती हूँ
नाम प्रिय का?
अच्छा देखिये तो मेरी कोख
धारियाँ हैं गवाह ,
कि कविता लिखी गयी.
वो हँसें ,
यूँ जैसे मैंनें किया हो मजाक
पर क्यों?
मैं तो रोई थी कई बार!!
12.इंस्पेक्टर सुबोध
तुम अकेले नही मरे
इंस्पेक्टर सुबोध
कितना कुछ मरा
तुम्हारे साथ
आंखों का पानी मरा
रिश्तों की गर्मी मरी
जज़्बे मरे
इंसानी सलाहियतें
हुब्बा वतनी के तमाम
किस्से मरे
गाय भी मरी ,हमेशा के लिए
साथ ममता मरी
मोहब्बत मरी
दोस्ती मरी
भावनाएं मरी
आदमीयत मरी
होशमंदी मरी
इंसानियत तो ऐसी मरी
के दफन करम को जगह न मिली
खाके जहर गंगा जमना मरी
मारे शरम भारतीयता मरी
तुम तो मर ही गये
साथ हम सब मरे
चेहरे सभी मर के भीड़ हो गए
कुकुरदंति तमाशाई प्रेत हो गए
(कवयित्री ज्योत्स्ना मिश्रा पेशे से एम बी बी एस डॉक्टर हैं और स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। बकौल कवयित्री कविता से वही संबंध जो साँसों से है ,मेरे मरीज़ मेरे गुरु है ,और मेरे द्वारा इस दुनिया में आने वाले जीवन मेरे प्रेरणा स्रोत
एक कविता संकलन ; “औरतें अजीब होती हैं “
कुछ कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं में भी छपी हैं
टिप्पणीकार देवेंद्र आर्य केंद्र सरकार के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही सम्मान से सम्मानित हैं। वे कवि होने के साथ साथ आलोचक, संपादक, नाटककार और संस्कृतिकर्मी भी हैं।संपर्क:devendrakumar.arya1@gmail.com)