समकालीन जनमत
कविता

उम्मीद की दूब के ज़िंदा रहने की कामना से भरी ज्योति रीता की कविताएँ

कुंदन सिद्धार्थ


 

“जब धरती पर सारी संवेदनाएँ

समाप्ति पर होंगी
तब बचा लेना प्रेम अपनी हथेली पर कहीं
जब धरती बंजरपन की ओर अग्रसर होगी
तब बिखेर देना धरती की छाती पर
ताकि उम्मीद की दूब जिंदा रहे
हर समय, हर काल”

हमारे समय के दुखों, चिंताओं और परेशानियों को बड़े करीब से महसूस करतीं संभावनाशील कवयित्री ज्योति रीता की कविताएँ छीजती संवेदनाओं और टूटते जीवन-मूल्यों के इस निष्ठुर संक्रमण काल में आशा और उम्मीद की संभावनाएँ जगाती हैं। प्रेम बचा रह जाये तो सब कुछ बचाया जा सकता है। इसी प्रेम को बचाने के आग्रह से भरी ज्योति रीता की कविताएँ सहज रूप से ध्यान आकृष्ट करती हैं और समकालीन हिंदी कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं।

“इस नक़ाबी दुनिया का
सबसे बड़ा सुख
मुट्ठी भर अनाज
चूल्हे से उठता धुआँ
किलकारी भरता बच्चा
गीत गाती औरतें
और
आँखों में प्रेम लिये खड़े
प्रेमी का होना है”

कवयित्री दुनिया को नक़ाबी कहती हैं। यहाँ सबने चेहरे पर नक़ाब डाल रखी है। असली चेहरा खो गया है। आदमी परेशान है कि कहाँ खोया उसका असली चेहरा, कब खोया! बावजूद इसके, इस दुनिया का सबसे बड़ा सुख भी तो कुछ है। उस सुख के जो पाँच चित्र खींचे हैं ज्योति रीता ने, सुंदर हैं। मैंने गौर किया, पहला सुख जीवन को बचाने का है, मुट्ठी भर अनाज और चूल्हे से उठता धुआँ — यह प्राथमिक आवश्यकता है। यही नहीं हुआ तो बाद के सुख बेमानी हो जायेंगे। पेट भरा हो, तभी किलकारी भरते बच्चे सुख देंगे, तभी गीत गाती औरतें सुख देंगी। और अंत में, कवयित्री आँखों में प्रेम लिये खड़े प्रेमी की उपस्थिति को सबसे बड़ा सुख कहती हैं। प्रेम की यह प्यास आदिम प्यास है, अंतिम है यह, अल्टीमेट। ज्योति ने इसे बारीक़ी से पकड़ा है।

हमारे समाज में आज भी स्त्रियों की स्थिति महाभारत के अभिमन्यु की तरह है, जैसे कि वह किसी चक्रव्यूह में हो, फँसी-उलझी हो, कब-कहाँ से आक्रमण हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ प्रतिशत समर्थ, समृद्ध स्त्रियों की बात अपवादस्वरूप छोड़ दी जाये तो बहुसंख्यक स्त्रियों, ख़ासकर कामकाजी स्त्रियों की दशा बहुत ख़ुशगवार नहीं है। स्त्री के लिए यह समाज रणभूमि हो, यह चिंता की बात है। ‘रणभूमि’ कविता में कवयित्री के भीतर की वेदना मुखरित हुई है-

“सिर्फ हथियारों से नहीं

आत्मविश्वास से भी
जीती जाती है बाजी
उसी आत्मविश्वास की डोर पकड़
रणभूमि के आख़िरी छोर पर
परचम लहरा आती हूँ मैं”

ज्योति रीता की औरतें सीरीज की कविताओं में स्त्रियों के दैनंदिन जीवन की तकलीफ़ों, कठिनाइयों को महसूस किया जा सकता है। जबकि कवयित्री स्वयं भी स्त्री हैं, शिक्षिका हैं, इसलिए भी उनकी कविताओं में स्त्रियों की, ख़ासकर कामकाजी स्त्रियों की व्यथा-कथा कई-कई रूपों और दृश्यों के सहारे सामने आती हैं। ‘आसान नहीं होता चुप्पी साधे रहना’ कविता में कवयित्री का आक्रोश द्रष्टव्य है।

“आसान नहीं होता
बच्चियों के मामलात में
चुप्पी साधे रहना

खींचती है नसें
आत्मा पर हथौड़े का प्रहार
हृदय छलनी
चुप्पी साधे रहने की तिलमिलाहट”

‘गाँव ना लौट पाने की पीड़ा’ कविता में कोरोना की भयावहता के बीच लॉक डाउन में बड़े शहर में रोजी-रोटी के लिए आ बसे दंपति की पीड़ा को बड़े मार्मिक ढँग से कहने की कोशिश ज्योति रीता करती हैं। समकालीन परिदृश्य के हालातों से बाख़बर संवेदनशील मनुष्य ही कवि की चेतना अर्जित कर पाता है। यदि देश, समाज और दुनिया के बनते-बिगड़ते हालात कवि के हृदय को छूते हैं, मस्तिष्क को मथते हैं, कविता में उनकी सहज अभिव्यक्ति स्वाभाविक है। ज्योति बड़ी स्वाभाविकता के साथ देश-दुनिया के हालात को हमारे सामने रखती हैं।

समय के सच को गहराई से देखती-परखती कवयित्री ‘आदमी’ कविता में कहती हैं —

“बंद हैं ट्रेनें
बंद बसें
नहीं चल रहे ऑटोरिक्शा भी
सुनसान पड़ी हैं सड़कें
बंद खिड़की-दरवाजे
बंद कारखाने
ठंडी पड़ रही चूल्हे की आग भी

परंतु
खौल रहा है आदमी
निरंतर
खौलता ही जा रहा है आदमी”

हमारे समय में जाति और संप्रदाय के नाम पर जो घृणा और वैमनस्य की उन्मादग्रस्त राजनीति हो रही है, उससे ज्योति रीता अनभिज्ञ नहीं हैं। प्रेम के पक्ष में खड़ा मनुष्य कभी भी मनुष्य से मनुष्य के बीच जाति, लिंग और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। हर भेदभाव प्रेम के ख़िलाफ़ एक बर्बर साज़िश है, जिसका प्रतिरोध होना चाहिए। मॉब लिंचिंग निहायत ही गंदा शब्द है, और मनुष्य जाति के शब्दकोश में इसे नहीं होना चाहिए। यदि यह शब्द हमारे प्रचलन में बना रहता है तो यह मानवता के लिए अभिशाप होगा। ‘भीड़ या मॉब लिंचिंग’ कविता में ज्योति बड़े भारी मन से युग-सत्य से साक्षात्कार करती हैं।

“हत्यारों ने ढूँढ़ लिया है
हत्या का नया तरीका
जिसमें साँप भी मरता है
और लाठी भी नहीं टूटती
वे साजिशों के तहत
हमला करते हैं
मारकर बेशर्मी से रफू-चक्कर हो जाते हैं

ज्योति रीता की कविताएँ बड़ी मुखरता के साथ मनुष्य के पक्ष में खड़ी रहती हैं। मनुष्य के पक्ष में खड़े होना प्रेम के पक्ष में खड़े होना है। ये कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि लाख अँधेरा घना हो चारों ओर, हम रोशनी की उम्मीद नहीं छोड़ सकते। यही उम्मीद, यही भरोसा हमें ज्यादा से ज्यादा मानवीय बनाये रखता है।

घटनाओं और परिस्थितियों के सरलीकरण से कवयित्री को बचना चाहिए क्योंकि इससे कविताएँ कमजोर पड़ती हैं। कविता अपने कहन से ज्यादा अनकहे में मौजूद होती है, और यह कुशलता कवि या कवयित्री की होती है कि उस अनकहे को कैसे, किस विध अभिव्यक्ति कर दिया जाये।

 

ज्योति रीता की कविताएँ

 

1. उम्मीद की दूब

जब धरती पर सारी संवेदनाएँ समाप्ति पर होंगी
तब बचा लेना प्रेम अपनी हथेली पर कहीं
जब धरती बंजरपन की ओर अग्रसर होगी
तब बिखेर देना धरती की छाती पर
ताकि उम्मीद की दूब जिंदा रहे
हर समय, हर काल

 

2. सबसे बड़ा सुुुख

इस नक़ाबी दुनिया का
सबसे बड़ा सुख
मुट्ठी भर अनाज
चूल्हे से उठता धुआँ
किलकारी भरता बच्चा
गीत गाती औरतें
और
आँखों में प्रेम लिये खड़े
प्रेमी का होना है

3. रणभूमि

रोज सुबह
खुलते ही आँख
मैं तैयार होती हूँ
रणभूमि संभालने को
आगे-पीछे
दाँये-बाँये
हर तरफ के वार से
वाकिफ हूँ मैं
हर शस्त्र का जवाब
बखूबी देती हूँ
मैं आगे दौड़ाती रथ
ऊबड़-खाबड़
जमीन पर
कई बार गड्ढे में
पड़ जाते हैं पहिये
हिचकोले खाती
हिलती-डूलती
हर शख़्स का
वार सँभालती
बढ़ जाती हूँ आगे

सिर्फ हथियारों से नहीं
आत्मविश्वास से भी
जीती जाती है बाजी
उसी आत्मविश्वास की डोर पकड़
रणभूमि के आख़िरी छोर पर
परचम लहरा आती हूँ मैं

 

4. आसान नहीं होता चुप्पी साधे रहना

आसान नहीं होता
बच्चियों के मामलात में
चुप्पी साधे रहना

खींचती है नसें
आत्मा पर हथौड़े का प्रहार
हृदय छलनी
चुप्पी साधे रहने की तिलमिलाहट

 

5. गाँव ना लौट पाने की पीड़ा

मैं लौटना चाहता हूँ घर
करना चाहता हूँ छप्पर की मरम्मत
बनाना चाहता हूँ द्वार पर एक मचान
भोरे-भिनसारे गाय को कुट्टी-सानी देकर
बुहारना चाहता हूँ गौशाल
अपने छोटे से खेत में
लगाना चाहता हूँ गरमा धान
पिता जो कल तलक कर्कश थे
आज बैठना चाहता हूँ देह लगकर
पत्नी कहती है
माँजी से मिलने का बड़ा मन कर रहा
अब माँजी के साथ रहकर सेवा करूँगी
चूल्हा लिपूँगी
खाना पकाऊँगी
साग खोटूँगी
नून संग रोटी खा लूँगी
पर शहर कभी ना लौटूँगी
आज याद आ रहे साटूँ गँवार दोस्त
जामुन- बेर की डाली
आवारगी से लौटने पर
गरम-गरम रोटी थापती माँ
दौड़कर पानी लाती बहन
पर सुना है
गाँव के आखिरी मुंडेर पर
बड़ा सख्त पहरा है
जो लोग जाते ही गले लगाते थे
आज लाठी-डंडे लेकर खड़े रहते हैं

 

6. आदमी

बंद हैं ट्रेनें
बंद बसें
नहीं चल रहे ऑटोरिक्शा भी
सुनसान पड़ी हैं सड़कें
बंद खिड़की-दरवाजे
बंद कारखाने
ठंडी पड़ रही चूल्हे की आग भी

परंतु
खौल रहा है आदमी
निरंतर
खौलता ही जा रहा है आदमी

 

7. भीड़ या मॉब लिंचिंग

हत्यारों ने ढूँढ़ लिया है
हत्या का नया तरीका
जिसमें साँप भी मरता है
और लाठी भी नहीं टूटती
वे साजिशों के तहत
हमला करते हैं
मारकर बेशर्मी से रफू-चक्कर हो जाते हैं

ना फिर कोई सुराग
ना कोई हत्यारा
पुलिस ढूँढ़ती है उन्हें फाइलों में
रोज छापेमारी
और सुबूत खोजे जाते हैं
सरकारें दोषारोपण से बच जाया करती हैं
मुआवजे देकर
इस बौखलाहट को शांत किया जाता है
जो हुआ बुरा हुआ
कहकर सांत्वना देते हैं
और सब सामान्य स्थिर

भीड़ ने दूसरे
निहत्थे की
तलाश जारी की है

 

8. एक बरगद उग आया है भीतर

इन दिनों
एक बरगद उग आया है भीतर
गहरी जड़े लिए
तन कर खड़ा
फैला रहा छाँव
तले जिसके सुकून है बहुत
मरुस्थल में किसी हरे-भरे द्वीप-सा
भटके पंछी-सी मैं
उसके पीठ पर सुस्ता रही हूँ
कुछ देर से

हाँलाकि
नक्शे पर वह बरगद कहीं नहीं है
पर नक्शे पर
मरुस्थल हमेशा से रहा

 

(कवयित्री ज्योति रीता
जन्मदिन -24 जनवरी, 1986
जन्मस्थान – रानीगंज, पोस्ट-मेरीगंज,
पिन – 854334, जिला- अररिया (बिहार)।

प्रारंभिक शिक्षा-रानीगंज से,
स्नातक, संत कोलंबस महाविद्यालय हजारीबाग ,
M.A. , M.Ed.(हिन्दी) – विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग।
अररिया के इंटर कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापिका ।

Email- jyotimam2012@gmail.com
Mo- 8252613779
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित ।

 

(टिप्पणीकार कवि कुंदन सिद्धार्थ जन्मतिथि: 25 फरवरी 1972। जन्मस्थान: पश्चिमी चंपारण, बिहार. शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य) राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, पहला काव्य-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

संप्रति: पश्चिम मध्य रेल, जबलपुर, मध्यप्रदेश में कार्यरत)

सम्पर्क: 7024218568

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