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The Social Dilemma : नए बाज़ार और शोषण के आधुनिकीकरण को उजागर करती फ़िल्म

अतुल 

“There are only two industries that call their customers ‘users’ : illegal drugs and software.”

– Edward Tufte.

येल विश्विद्यालय में राजनीति विज्ञान और कम्यूटर साइंस के प्रोफेसर एमेरिटस एडवर्ड टुफ़टे का ये कथन अभी हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई एक docudrama ‘ द सोशल डिलेमा ‘ के बीच में एक जगह आता है। टुफ़टे का यह कथन सूचना प्रौद्योगिकी और सॉफ्वेयर उद्योग द्वारा पिछले 10-15 सालों में जनित और लगातार बढ़ती हुई समस्याओं को रेखांकित करने की सफल कोशिश है।

एमी पुरस्कार विजेता अमेरिकी फिल्म निर्माता जेफ ओरलोवस्की ( Jeff Orlowski) द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म की निर्माता लारिस्सा रहोड्स (Larissa Rhodes) हैं, छायांकन है जॉन बेहरेन्स (John Behrens) और जोनाथन पोप (Jonathan Pope) का तथा इसकी पटकथा जेफ ओरलोवस्की, डेविड कूम्बे और विकी कर्टिस ने मिलकर लिखी है। नेटफ्लिक्स पर रिलीज (9 सितम्बर, 2020) से पहले ‘The Social Dilemma’ सनडांस (Sundance) फ़िल्म फेस्टिवल में 26 जनवरी, 2020 को दिखाई जा चुकी है।

ओरलोवस्की और रहोड्स इसके पहले उस वक़्त चर्चा में आये थे जब उन्होंने 2017 में ‘Chasing Coral’ नाम की एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी। Chasing Coral पानी के भीतर पाई जाने वाली मूंगे की चट्टानों (Coral Reefs) के विलुप्त होने के संकट और इसके हमारी पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव जैसे विषय पर बनी थी।

‘The Social Dilemma’ वर्तमान समय में सोशल मीडिया की लत, सर्विलांस कैपिटलिज़्म, data-mining, सोशल मीडिया का राजनीतिक ध्रुवीकरण में इस्तेमाल, बढ़ते मानसिक रोग, आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या में सोशल मीडिया की भूमिका आदि महत्वपूर्ण और ज्वलन्त मुद्दों की ओर हमारा ध्यान खींचने और इन परिघटनाओं को समझाने में सफल होती है।

इस डाक्यूमेंट्री की ख़ास बात यह है कि इसमें ‘Big Tech’ के अंदर वर्षों काम कर चुके महत्वपूर्ण लोगों ने सामने आकर इस उद्योग में निहित विकृतियों और इसकी मनुष्य और समाज विरोधी कारगुजारियों को उजागर किया है। इन लोगों में मुख्य रूप से गूगल में डिज़ाइन ethicist रह चुके ट्रिस्तान हैरिस, फेसबुक लाइक बटन के निर्माताओं में से एक जस्टिन रोज़ेनस्टीन हैं। इनके अलावा इस डाक्यूमेंट्री में अमेरिकी मनोचिकित्सक एवं addiction सम्बन्धी मामलों की जानकार एना लेम्बके, मशहूर किताब ‘The Age of Surveillance Capitalism’ की लेखिका और हार्वर्ड में प्रोफेसर शोशाना ज़ुबोफ तथा ‘Ten Agruments For Deleting Your Social Media Accounts Right Now!’ के लेखक और विज़ुअल आर्टिस्ट जैरन लीनियर शामिल हैं।

सोशल मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र पर हमारी लगातार बढ़ती निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं इसको समझाने में ये फ़िल्म बेहद कारगर है।
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‘If you are not paying for the product, then you are the product’

सोशल मीडिया और सॉफ्टवेयर के बारे में सबसे प्रमुख बात यह है कि ये कम्पनियां अपने उपभोक्ताओं (जिन्हें ये ‘users’ कहती हैं) को फ्री सेवा देने का दावा करती हैं। पहली नज़र में ये बात ठीक भी लगती है क्योंकि आपको फेसबुक/व्हाट्सएप/ट्विट्टर/इंस्टाग्राम आदि इस्तेमाल करने के लिए इन कम्पनियों को प्रत्यक्ष रूप से कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है। तो फिर सोचने की बात है कि कैसे ‘सॉफ्टवेयर/इंटरनेट कम्पनियां अब तक के मानव इतिहास की सबसे अमीर कम्पनियां बन गईं!’ ?

असल में इन कम्पनियों की आय का मुख्य स्रोत होता है : विज्ञापन (Advertising)!

ऐसे में विभिन्न विज्ञापनों को कैसे अधिक सटीकता (certaininty) से लोगों तक पहुंचाया जाए, कैसे लोग उस विज्ञापन को अधिक समय तक देखें, कैसे लोगों को उनकी रुचि के उत्पादों का विज्ञापन दिखाया जाए, कैसे लोगों की वर्तमान भावनाओं को समझते हुए उन्हें पोस्ट्स दिखाए जाएं इत्यादि इन कम्पनियों के लिए मुख्य सवाल हो जाते हैं।

हम आये दिन अनुभव करते हैं कि हम किसी विषय पर बात कर रहे हों और उसके बाद अपना मोबाइल फोन उठाएं तो उसी विषय के बारे में यूट्यूब पर वीडियोज़ के सुझाव आने लगते हैं। हर बार जब आप अपनी स्क्रीन स्क्रॉल करते हैं तो एक नई वीडियो दिखती है जोकि आपकी रुचियों को ध्यान में रखकर आपको दिखाई जाती है। इसी तरह का सर्विलांस सिस्टम लगभग हर एप/ सॉफ्टवेयर के पास है।

शोशाना ज़ुबोफ बताती हैं कि ‘इस उद्योग में सफल होने का मुख्य स्रोत है सटीकता (certainity), लोगों के व्यवहार और रुचियों के बारे में जितना सटीक आपका विश्लेषण होगा उतना ही ज्यादा मात्रा में आप उसे विज्ञापन दिखा पाएंगे तथा मुनाफा कमा पाएंगे। और इस सटीकता को प्राप्त करने का रास्ता है – बड़ी मात्रा में जानकारी (data) !’ हमारे बारे में इस data को इकट्ठा करने के लिए कम्पनियां विभिन्न निगरानी तकनीकों का उप्योग करती हैं। इस निगरानी तंत्र को ही शोशाना अपनी किताब में survillance capitalism कहती हैं।

सर्विलांस इस स्तर तक है कि जब भी आप कोई नया एप्लिकेशन इनस्टॉल करते हैं तो वो आपके मोबाइल में उपलब्ध फोटोज़, माइक्रोफोन, कैमेरा, आपकी लोकेशन इत्यादि तमाम चीजों की इजाज़त चाहता है। आपके गूगल सर्च भी आपकी लोकेशन को ध्यान में रखकर दिखाए जाते हैं; उदाहरण के लिए अगर आप गूगल पर कोई शब्द टाइप करें तो आपको उसके रिज़ल्ट्स आपकी लोकेशन के हिसाब से अलग अलग मिलेंगे। आपको ‘आपके हिसाब की दुनिया’ से परिचित कराने का काम लगातार किया जाता है ताकि आप ज्यादा समय इसी ‘दुनिया’ में गुज़ारें!

इन सब का उपयोग ये लोग आपकी सारी रुचियों, तत्कालिक भावनाओं इत्यादि पर निगरानी रखने में करते हैं। क्रिस्तान हैरिस का कहना है कि इन कम्पनियों के तीन लक्ष्य (goal) होते हैं:- engagement goal जिससे ये आपको ज्यादा वक्त तक स्क्रीन पर कैसे रखें ; growth goal ताकि ज्यादा लोग कैसे जुड़ें; अंत में advertising goal जिससे जब आप स्क्रीन पर बने रहें तब आपको विज्ञापन दिखाकर पैसा कमाया जाय।

यहां आप ही उत्पाद हैं !
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‘Machine Learning’

एक उदाहरण लें कि अगर आप कोई साइकिल खरीदेंगे तो आप यह नहीं कहेंगे कि ये साइकिल तो समाज को बर्बाद कर रही है वगैरह वगैरह.. क्योंकि साइकिल एक tool है। वो तब तक आपका इंतजार करेगी जब तक आपको उसके इस्तेमाल की ज़रूरत न हो। लेकिन इसके ठीक उलट सोशल मीडिया और इंटरनेट मनुष्य द्वारा बनाये गए tool न होकर अब मनुष्य को ही tool की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। साइकिल के उलट सोशल मीडिया आपको अपनी ओर खींचता है, आपको वहां पर ज्यादा समय बिताने पर मजबूर करता है।

सबसे ज्यादा खतरनाक तथ्य यह है कि इस पूरे सिस्टम में कोई भी tool किसी मनुष्य की देख रेख में संचालित नहीं होता। एक बार आपने उसे ईजाद कर दिया फिर वो खुद ही अपना रूप-आकार बदलता रहेगा। वो खुद ही तय करेगा कि क्या करना है, किसे क्या दिखाना है, क्या कब दिखाना है आदि। संक्षेप में यह हर एक ‘user’ की रुचियों आदि पर एक ‘more accurate’ मॉडल बनाने की निरन्तर प्रक्रिया को जारी रखता है। इस परिघटना को परिभाषित करने के लिए ‘मशीन लर्निंग’ शब्द का इस्तेमाल होता है। यह पूरी परिघटना ही अपने आप में अमानवीय, संवेदनहीन और निरंकुशता की समर्थक है।

‘Nothing vast enters the life of mortals without a curse!’

– Sophocles

आज दुनिया भर में धुर दक्षिणपन्थ के उदय, विभिन्न देशों में राजनीतिक संकट बढ़ने, कांस्पीरेसी थ्योरीज़ के बढ़ते चलन इत्यादि समस्याओं के मूल में कमोबेश इस सोशल मीडिया और इंटरनेट की भूमिका रही है। 2016 के अमेरिकी चुनावों में जनता को बरगलाने में सोशल मीडिया की भूमिका उजागर हो ही चुकी है। Pew रिसर्च सेंटर द्वारा 10 हज़ार अमेरिकी वयस्कों पर किये गए एक अध्ययन में पता चला है कि अमेरिकी समाज का ध्रुवीकरण इतना ज्यादा हो गया है जितना कि पिछले 20 सालों में नहीं हुआ था।

म्यांमार में भी रोहिंग्या मुस्लिमों के सम्बंध में गलत खबरें फैलने से रोकने में फेसबुक की नाकामी की वजह भी रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन का एक कारण है। अभी हाल ही में फेसबुक इंडिया की प्रमुख आँखी दास का मामला सामने आया है जिसमें वे भाजपा नीत मोदी सरकार का समर्थन कर रही हैं और उनपर गम्भीर आरोप हैं कि उन्होंने विपक्षी दलों की फेसबुक पर लोकप्रियता गिराने का काम भी किया है। और भी तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें सिर्फ एक फेक न्यूज़ की वजह से लिंचिंग हो गयी हो। फेक न्यूज़ का संकट अपने सबसे विकराल रूप में तब सामने आया जब कोरोना वायरस से सम्बंधित उटपटांग खबरें पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर शेयर हुईं! फेक न्यूज़ और डिसिन्फॉर्मेशन से निपटने में फेसबुक और तमाम प्लेटफार्म्स की नाकामी किसी से छुपी नहीं हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या का समाधान इन लोगों के पास है ही नहीं।

टीन एजर्स में मानसिक स्वास्थ्य तथा आत्महत्याओं की समस्या को बढाने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है। आंकड़ा है कि अमेरिका की 15-19 साल की लड़कियों में 2010-2011 के बाद से आत्महत्या करने की प्रवृत्ति में 70% का इजाफा हुआ है। युवाओं में इन्फिरियरटी के बढने, आपस में बातचीत कम करने, डिप्रेशन आदि के पीछे भी सोशल मीडिया का बड़ा हाथ है। सर्जनों ने एक नया syndrome ऑब्जर्व किया है जिसका नाम है ‘Snapchat Dysmorphia’ इसमें वे युवा शामिल हैं जिन्हीने अपनी त्वचा की सर्जरी अपने स्नैपचैट फिल्टर के तरह की कर ली ताकि वे उस फिल्टर की तरह ही ‘खूबसूरत’ दिखें ! इस तरह की प्रवृत्ति सोशल मीडिया के आगमन के पहले शायद ही देखी गयी हो।

डाक्यूमेंट्री के अंत में जब सवाल आता कि समस्या क्या है, तब कोई भी व्यक्ति सीधा जवाब नहीं दे पाता क्योंकि समस्या सीधी है ही नहीं ! यह समस्या अब बहुफलकीय हो गयी है।

इन सम्याओं का समाधान तलाशने में जो लोग प्रयासरत हैं उनका मानना है कि इस समस्या का समाधान एक ही हो सकता है कि तकनीक को humane (मानवोचित) बनाया जाय। इंटरनेट कम्पनियों पर कुछ लगाम लगे तब भी कुछ चीज़ें सुधर सकती हैं।
सरकारों से सुधार की कोई भी उम्मीद व्यर्थ है। क्योंकि दुनिया भर की सरकारें बड़े पैमाने पर सर्विलांस प्रोग्राम्स चला रही हैं। सरकारें खुद ही जनता को बरगलाकर अपना राज कायम रखना चाहती हैं। सरकारी सर्विलांस कार्यक्रमों का भंडाफोड़ करने वालों में एडवर्ड स्नाउडेन तथा जूलियन असांज का नाम महत्वपूर्ण है। इन दोनों शख्शियतों ने इस अमानवीय कृत्य की खुलेआम मज़म्मत की जिसका इन दोनों को खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा। असांज इस वक़्त अमेरिका की जेल में हैं तथा स्नाउडेन को अपना देश छोड़कर रूस में शरण लेनी पड़ी। बावजूद इसके लोग आगे आएंगे यही उम्मीद की जानी चाहिए।

ट्रिस्तान हैरिस जैसे लोगों ने Center for Humane Technology जैसे प्लेटफॉर्म बनाकर इस दिशा में सराहनीय कदम उठाये हैं। हालांकि जितना नुकसान इस समाज का हुआ है उसकी भरपाई करने के लिए इस दिशा में अभी बहुत काम होना बाकी है।

( अतुल युवा लेखक एवं आइसा एक्टिविस्ट है )

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