अनुपम त्रिपाठी
‘यह उनींदी रातों का सफर है’ ज्योति चावला का नया कविता संग्रह है। इस संग्रह में उनकी पचास कविताएँ संकलित हैं जोकि उनके स्त्रीवादी, राजनीतिक और कलात्मक समझ के प्रतिनिधि हैं।
इस संग्रह की कविताओं के केंद्र में एक स्त्री है जोकि दफ्तर जाती है, बच्चों का लालन पोषण करती है, उनके साथ खेल रही है और उनके मासूम परामर्शों को सुन रही है, अपने और अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोच रही है, वक्त वक्त पर अपनी माँ को याद कर रही है, और इस स्मरण के माध्यम से समूची स्त्री जाति के बारे में सोच रही है, वर्तमान समय में हो रही क्रूरताओं से वाकिफ है, खबरें देख रही है और उनके दुष्प्रभावों को समझ रही है, प्रेम में है, सोशल मीडिया पर एक्टिव है आदि आदि… यानी अपनी जीवनचर्या में घटित तमाम गतिविधियों को देखने सुनने वाली स्त्री। इन घटित गतिविधियों पर मनन करती स्त्री। वह जो देख सुन रही है सब लेकिन उसकी चुप्पी कहीं और व्यक्त हो रही है-
इतनी चुप कि ठूंसे ही जा रही हो चूल्हे में ईंधन
न जाने कितने बरसों से और उसकी आवाज़ तक नहीं देती सुनाई
मतलब यह कि ज्योति के इस कविता संग्रह में आपको परोक्ष रूप से एक स्त्री का आभास मिलेगा जोकि विभिन्न प्रकरणों के माध्यम से अपनी चिंताओं-भावनाओं को व्यक्त करती चलती है।
कविताओं में जो ‘मैं’ है वह कई वर्ग की स्त्रियों की पीड़ा को लेकर आती है। ज्योति रंगों का सहारा लेती हैं। रंग उनकी कविताओं के प्रॉप्स हैं। इस संग्रह में रंग कई रास्तों से आते हैं। रंग अभिव्यक्ति बनते हैं और इस तरह कि बेहद सामान्य– परिचित, जाने पहचाने, रोजनामचा में घुले हुए–दिखते हुए भी उनका किसी कविता में आना एक सच को लिए हुए आना है, ऐसा सच जो हमारी दिनचर्या में होते हुए भी ध्यान न दिए जाने योग्य हो। जैसे एक कविता है: उसे क्या पसंद है, इसकी परवाह किसी को नहीं — का एक हिस्सा देखें :
उसे रंगों में सबसे अधिक सफ़ेद रंग पसन्द था
बादलों के फाहों-सा उज्ज्वल, सफ़ेद कबूतरों-सा निष्पाप
आँख की पुतली के नीचे दबा अपनी पहचान तलाशता सफ़ेद रंग
लेकिन सफ़ेद को लेकर उसके भीतर ऐसा डर बसाया गया कि वह ख़्वाब में भी ख़ुद को सफ़ेद कपड़ों में नहीं देख पाती
उसके सपनों में नहीं आते थे सफ़ेद फूल
सफ़ेद अब उसकी ज़िन्दगी में केवल उसकी हँसी में रह गया था निश्छल और धुला – धुला
यह जो सफेद रंग है, जिसे हम देखते हैं, जीते हैं, जो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है, जैसे हवा। लिए–छोड़े। जो ध्यान देने से परे है। ऐसा ही रंग है सफेद। जो प्रतीक है शांति का लेकिन शक्ति का भी। सांस्कृतिक उत्सवों का। पुरुष वर्ग उसे सभ्य का वरेण्य समझता है।
आयोजन, उत्सव, यज्ञ, हवन में वह श्वेत धारण करता है। उसे भाषण देना होगा तो श्वेत धारण करेगा। सुसंस्कृत दिखना होगा तो श्वेत धारण करेगा। लेकिन वही श्वेत जब स्त्री की इच्छाओं के इलाके में आए तो कैसे अपशगुन हो जाता है, अशुभ हो जाता है। याने जो तत्त्व जाने अनजाने एक पक्ष के लिए शुभ हो, दूसरे के लिए बाखबर अशुभ सिद्ध है।
यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि जीवनचर्या के बहुत हल्की घटनाओं से भी कैसे शोषण को प्रायोजित कर दिया गया है। इन छोटी छोटी बातों को जब कोई कविता में उतार लाता है तब उनसे बड़ी सचाइयों को उभारा जाता है।
इसी तरह वह एक कविता में कहती हैं कि :
समय जिसमें असहाय होकर रह जाएँ रंग, कलाएँ और भाषाएँ ऐसे समय को लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता।
–कैसे एक सधे हुए वाक्य में वह हमारे समाज में चल रहे तमाम आंदोलनों को कह जाती हैं। यह इशारा किस ओर है? इसपर सोचने की जरूरत है। यह कैसा समय है जिसे लंबी प्रक्रिया के चलते निर्माण किया गया है जिसमें जो मनुष्य के लिए सबसे जरूरी है, जिनके होने से मनुष्य को मनुष्येतर भिन्न किया जाता है उसे ही असहाय कर दिया गया है। रंगों के अर्थ नहीं बचे। कलाएं वापस दरबार की ओर मुड़ती दिख रही हैं, उनके भीतर का ‘मुक्त’ कैद हो चुका है। और भाषा — जो सबसे अधिक असहाय हो चुकी। ऐसा नहीं कि चुप्पी हो, न — कहने सुनने से ज्यादा चिल्लाना चीखना और डराना धमकाना है। पत्रकारिता में जो आतताइयों की पैठ हो गई है, उससे समस्या को बताया नहीं, बल्कि कुछ अन्य सुनहरा दिखा कर उसे ढांक लिया जा रहा है।
एक कविता है ‘मेरे समय की भाषा’। इन दिनों जब अपराध और हिंसा बहुत ही ट्रेंड तरीके से, बहुत ही प्रायोजिक ढंग से बढ़ चुकी है, तब उसके प्रतिकार में एक अजीब सी सीधी चुप्पी दिखाई पड़ती है। कोई कुछ कहना नहीं चाहता है। घटनाएं देखना सुनना या उसका परिणाम झेलना — इतना तक समाज स्वीकृत कर रहा है लेकिन कह नहीं रहा कुछ। कहना बंद है। बोलने को संदिग्ध बना दिया गया है। यूं बहुत बहुत बोलने वाले बहुत बोल रहे हैं। और उनके श्रोता करालगाले बढ़ चुके हैं। ऐसे में यह चिंता इस कविता में दिखलाई पड़ती है।
इस कविता में एक पंक्ति है –
मेरे समय की भाषा ने ओढ़ ली है मृत देह की सी ठंडक
कैसा पैना वाक्य है। कितना मारक। ऊपर जिस न चुप्पी की बात कर रहा था उसका जैसे निचोड़ हो यह वाक्य। मरी देह की ठंडक– सोचने पर भी ध्यान नहीं आता कि अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी वाक्य रचना और किसने की होगी!
तो हमारे समय की ऐसी चिंताओं को तथा इन असहाय स्थितियों को कविता में कहना एक जिम्मेदारी का काम है। कहना न होगा कि ज्योति की कविताएं हमारे समय की विसंगतियों का रिकॉर्ड हैं।
संग्रह की एक कविता है ‘तुम्हें गढ़ रही हूं मैं’। बहुत अच्छी कविता है। बहुत ही वैचारिक कविता भी। यह भी कह सकते हैं कि यह इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता है। यह कविता ‘जिन्हें गढ़ा है पुरुषों ने’ से ‘तुम्हें गढ़ रही हूं मैं’ तक की यात्रा करती है। यह ‘रसोई से लेकर किताबों तक’ बढ़ आई स्त्री की कविता है। इस कविता के केंद्र में एक मां और उसका बच्चा है। यह कविता सीधे सीधे पितृसत्ता के सामने एक विकल्प रखती है। वह बच्चा जिसे मां गढ़ रही है वह एक नए समाज का प्रतीक बनता है जहां स्त्री पुरुष बराबरी का भेद मिटता है। वह कहती है —
कि धीरे-धीरे आकार लेते तुम
इस धरती को सुन्दर बनाने की दिशा में उठा हुआ एक कदम हो।
‘स्वप्न-पुरुष’ भी ज्योति की ऐसी ही एक कविता है जिसमें उस पुरुष की इच्छा जाहिर की गई है जो अपने पितृसत्तावादी रवैए को छोड़कर स्त्री के जीवन में प्रवेश करे :
एक ऐसा पुरुष जो नदी के जल-सा ठहरा हो अपने ही तटबंधों में
जिसमें हो तारों-भरे आसमान के बावजूद
झुककर सब कुछ लुटाने की सलाहियत
एक ऐसा पुरुष जो अपने पुरुष होने के एहसास को छोड़ आए
दरवाज़े से बाहर
और फिर प्रवेश करे एक स्त्री में
ज्योति की इन कविताओं की एक खास बात यह है कि यहाँ परिवार की उपस्थिति भी है। समझने की चीज है कि पितृसत्ता का गढ़ है परिवार संस्था और इन कविताओं में आने वाली स्त्री, बेटी, माँ, बेटा और पति पारिवारिक सूत्र में गुंथे हुए भी पितृसत्ता को तोड़ते हैं। उसे बदलने का स्वप्न देखते हैं। लेकिन इससे कहीं भी संबंधों में अनबन नहीं है। बल्कि उनमें परिपक्वता है। और आदर है।
पितृसत्ता को जो चीजें पोषती हैं यानी पारिवारिक ‘संस्कार’ / ट्रेनिंग / अनुशासन — यह कविताएँ उसे बदलती हैं। एक नई संभावनाएं रचती हैं।
बेटा और बेटी का भेद इन कविताओं में ख़त्म होता जाता है। जैसे बेटे को माँ गढ़ रही है वैसे ही अपनी बेटी में वह अपनी कल्पनाओं में बसी स्त्री का रूप देखती है —
तुम सिर्फ मेरी बच्ची नहीं
मेरी कल्पनाओं में बसी स्त्री का वह रूप हो
जिसे मैं हर पल और अधिक खिलते हुए देखना चाहती हूँ
और इस तरह तुम्हें जन्म देकर सृष्टि को बेहतर बनाने के क्रम में
अपनी भूमिका अदा करती हूँ।
क्रूरताओं से भरे हमारे समय में मनुष्यता की परवाह हैं ज्योति की कविताएँ। अपराध विकृतियां शोषण हिंसा का जिस तरह फैलाव है उससे एक भय पैदा होता है असुरक्षा का। असुरक्षित महसूस करना खुद का, अपने बच्चों का, अपने प्रियजनों का। इस संग्रह में कई ऐसी कविताएं हैं जिनमें इस भय को महसूस किया जा सकता है और उससे उपजी परवाह के मर्म को समझा जा सकता है। यह भय एक मां को अपने बच्चों से न मिल पाने की दुश्चिंताओं की हद तक है। —
अँधेरी खोहों और काले सायों से घिरा
यह कैसा समय है
इन दिनों मुझे हर शै डूबती-सी नज़र आती है
जैसे उसके पैरों की ज़मीन सिर्फ़ आभासी हो
मैं सड़क पर चलती हूँ तो लगता है कि
यूँ ही चलते-चलते जब दूर निकल आऊँगी मैं
यह सड़क बदलकर अपना चेहरा समा लेगी मुझे अपने भीतर और
मैं कभी लौट नहीं पाऊँगी इन्तज़ार करते अपने बच्चों तक
— यह चिंता किसी एक निम्न मध्यवर्गीय स्त्री की ही नहीं बल्कि हमारे समाज में घट रहे अपराधों के चलते उन सभी व्यक्तियों की चिंता है जो अपने परिजनों से प्यार करते हैं। ‘ये नन्ही बच्चियां हैं जिन्हें हिज्जे भी नहीं आते बलात्कार के’ ऐसी ही एक मार्मिक कविता है।
इस संग्रह में कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो भिन्न भिन्न वर्गों की स्त्रियों की दशाओं की व्यथा कहती हैं। एक कामकाजी स्त्री और एक गृहिणी स्त्री। याने एक स्त्री जो दफ्तर जा रही है, किताब पढ़ रही है और एक स्त्री जो घर के कामों में लगी है बेसुध। ‘वे बेसुध औरतें’ उन स्त्रियों पर केंद्रित है जोकि दिनभर घर के कामों में लगी रहती हैं। वह जिनके होने से घर के बाकी सदस्य सुखी हैं। बच्चे समय से स्कूल जा सकें, पति दफ्तर। वगैरह वगैरह। वह स्त्रियां जिनके हिस्से अनंत काम हैं लेकिन उसकी महत्ता को कभी परिवार में समझा नहीं गया। यह बहुत अच्छी कविता है। इसे पढ़ते ही अपने आस पास की महिलाओं पर ध्यान जाता है कि कैसे वो अपने कामों में डटी हुई हैं निःस्वार्थ भाव से :
बेसुध औरतें न हँसती हैं, न मुस्कुराती हैं
उन्हें तो यह भी वहम नहीं कि
उन्हीं के हाथों पर टिकी है उनकी गृहस्थी
संग्रह में संकलित ‘चांदनी ने नहीं देखी है चांदनी’ और ‘अफसाना नहीं जानती अफसाना होने का मतलब’ कविताएं भी बहुत अच्छी हैं। पहली कविता पहचान के संकट को बड़े ही जीवंत तरीके से पेश करती है। और दूसरी शोषण और यातना :
मैं पूछती हूँ अफ़साना से उसके होने के मानी
और वह खिड़की से बाहर पहरा दे रहे अपने
शौहर को देखती है तिरछी आँखों से
और चुपचाप उठकर चल देती है
मुझे उसकी पीठ पर दिखाई देती है एक कहानी
जिसका कोई सुखांत नहीं है।
ज्योति की कविताओं में जो दृश्य आते हैं वह बहुत ही सधे ढंग से व्यष्टि दुख को समष्टि दुख में तब्दील कर देते हैं। यानी एक सामान्य घटना भी परंपरा से चले आ रहे स्त्रियों के प्रति शोषण को पाठकों के सामने रख देती है।
‘मेट्रो और वह औरत’ ऐसी ही एक कविता है। ‘नौ माह की गर्भवती महिला और आत्महत्या’ इतनी मार्मिक कविता है कि क्या कहें। उसपर कुछ कहना अमानवीय होना है। पाठक उसे जरूर पढ़ें। इसी तरह ‘यह अभिनंदन युग है’ और ‘आजादी’ गहरी राजनीतिक बोध की कविताएँ हैं।
इस संग्रहणीय संग्रह का आवरण चित्र मशहूर फ्रांसीसी चित्रकार हेनरी मातीस का बनाया रेखांकन है।
टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, साहित्य और संगीत में अभिरुचि।