कुमार मुकुल
आज कस्बों और उपनगरों की युवा कविता से जो संघर्ष की धार और तार्किकता गायब होती जा रही है वह जितेन्द्र कुमार की कविताओं की पहचान है, इन अर्थों में वह युवाओं से युवा मालूम पड़ते हैं।
लोक की स्थानीयता को जिस बारीकी से जितेन्द्र जी की कविताएँ दर्ज करती हैं वह दुर्लभ होता जा रहा है आज। विकास की विडंबना को यह साफ-साफ दर्शाती हैं।
इन कविताओं में लोक की त्रासद कथा जिस तरह आकार लेती है वह उदाहरण की तरह है। गाँव-जवार के तमाम नाम अपने उल्लास और उससे बढ़कर अपने त्रास के साथ यहाँ मौजूद और जीवंत हैं। पढ़े गए उपन्यासों, कविताओं आदि के पात्रों की स्मृति इनकी कविताओं में शक्ल लेती है।
प्रकृति के माध्यम से जो लोग काबिज होते रहे इस मुल्क पर उनकी सहज आलोचना ‘यूकेलिप्टस’ कविता में है –
दिखता बहुत बड़ा
मालिक-सा चुप खड़ा
श्वेतवर्णी ऊँचा ब्रिटिश रक्षक-सा
कवि का सुख अभी भी प्रकृति की स्मृति से जुड़ा है। प्रकृति चेतना अभी ठूँठ नहीं हुई है –
नदियों में उभर आए रेत के पठार
रेत में धंसी
खाली और उदास नावों को
मल्लाहों के तलुओं के आत्मीय स्पर्श का इंतजार है
इसीलिए वह आम का पेड़ हो जाने के सपने देखता है। इस वीरान और मरुस्थल समय में हरितिका की कल्पना और दूसरों को छाँव देने की इच्छा सहज मानवीय, करुण दृश्य रचते हैं। यह देखना सुखद है कि प्रकृति अब भी उन्मेष पैदा करती है कवि में, बीच में फाइबर ग्लास की दीवार है, फिर भी।
दूर के प्रदेश का सूखा विचलित करता है। कवि की पर प्रदेश प्रवेश की क्षमता दिखती है, समता की भावना और मनुष्य मात्र के लिए स्नेह का बंधन दिखता है।
अर्धनग्न भस्म विभूषित शिव को
पूजती हैं गाँव की स्त्रियाँ
पिता तुल्य दक्ष भी अगर करे अपमानित,
ध्वंस कर दे दक्ष के यज्ञ को शिव समान पति
गाँव व शहर की लड़कियों की पीड़ा के सुर्ख रंग कई कविताओं में उभरे हैं। उनकी ताकत अभिव्यक्त होती है। सनातन पर उठे विवाद के संदर्भ में परंपरा के अंतरविरोधों को दर्शाता है कवि और सनातनियों को निरुत्तर करता है –
सनातन राजनीति का खिलौना भी है
यह धर्मसत्ता की साजिश भी है
सनातन होता तो…
अभी सतयुग होता
कवि का परम सत्य अलग है –
जिसका आदि है उसका अंत है
सुनिश्चित है यही विज्ञान है
यही परम सत्य है
समय के सवालों से जूझने की कुव्वत है कवि में और यह सुखकर है कि वह सवाल जिन्हें उठाना भूल रहे आज के कविगण, जिन्हें बस दुर्घटनाओं की शक्ल में अखबार परोसते हैं, नमक-मिर्च लगाकर, उन्हें भी कवि उठाता है। नए जीवन पर निगाह है कवि की।
इस एक संग्रह में जितने जीवित रंग हैं जीवन के, वह अद्भुत है। दुख है कि अपने इस अग्रज, जवारी, समकालीन रचनाकार के इस कवि रूप से मैं अब तक अपरिचित था।
जितेन्द्र कुमार की कविताएँ
1. मेरे गाँव की अंगूठा छाप औरतें
सुबह अंधकार को ठेलने में
मदद करती हैं सूरज की
सूरज के थकने के बाद ढिबरी जलाकर
छोटी करती हैं रात की लंबाई
चूल्हे के धुएं से संकेत करती हैं
दिन के शुरू होने का
आंगन में उनके थिरकते पांव की
पदचाप सुनकर गोशाले में
बछड़ा बोलता है —
बां! बां!! बां!!!
अर्धनग्न भस्म विभूषित शिव को
पूजती हैं गाँव की स्त्रियाँ
पिता तुल्य दक्ष भी अगर करे
अपमानित, ध्वंस कर दे दक्ष के यज्ञ को शिव समान पति
चूल्हे की आग में भात की तरह
पकती हैं गाँव की स्त्रियाँ
कूटान पीसान करती हैं
सावन में रोपनी के गीत गाती हैं
तालाब के शांत जल में उठती है तरंग
उनके गीतों की लय से
खेतों से खलिहान तक ढोती हैं
पेट की भूख
वे सरिता की नीर हैं
उनकी आंखों में सदियों की पीर है
मनुज के पिता के लिए उनके वक्षों में क्षीर है
नरम देह वाली नदी
शिकायत करने लगी है…
मुखिया से
सुखिया से
राजशाही से
तानाशाही से
डूबने लगा है शिलाखंड
नदी की नरम देह में
खाकी वर्दी से नहीं डरतीं अब
हाथ में हंसिया लेकर
विधानसभा का घेराव करने
राजधानी चली जाती हैं
अधूरा होगा कवि का अनुभव संसार
मेरे गाँव की अंगूठा छाप
औरतों के जिक्र बिना।
2. नीम का पेड़
विक्रम संवत् दो हजार बहत्तर
चैत कृष्णपक्ष की चतुर्थी
पर आज रात चार घड़ी बीत जाने के बाद
क्षितिज से चंद्रमा उगेगा
अभी
दोपहर में धूसर आसमान के नीचे
बगीचे की छांव में
विश्राम कर रही हवा
नीम का पेड़ मेरा पड़ोसी निर्निमेष
मेरी खिड़की के पारदर्शी फाइबर ग्लास से मेरे कमरे में झांकता है
मैं उसे क्षणभर निहारता हूं अपलक लगता है जैसे नीम को
अच्छी तरह जानता हूं
मेरा मन उससे एकात्म हुआ जाता है
धूसर चमकीली धूप में
नीम धूप स्नान कर रहा
उसकी हरी-हरी पत्तियां
धूप में प्रकाश-संश्लेषण में
व्यस्त हैं नीम का पड़ोसी झाड़ीदार अड़हुल केले के सात
वयस्क पौधे जमीन पर पसरी
दूब घास सब प्रकाश-संश्लेषण में
मस्त हैं
सूर्य से गहरा रिश्ता है उनका
मेरे पड़ोसी मौन व्रत में हैं
सृजन का क्षण है उनका।
3. सूखा
(मराठवाड़ा-बुंदेलखंड के प्रसंग में)
उषाकाल में
आवाज़ नहीं मिलती चिड़िया चुरगुन की
प्रात वेला में जगाने वे नहीं आतीं
बारिश हुए कितने वर्ष बीते
याद नहीं किसी को
पहले जंगल कटे
पहाड़ों के सिर फूटे
बारिश चली गयी
और किसानों की तकदीर फूटी
पाताल में चला गया कुएं का जल
चापाकल के पेट में पानी नहीं
धरा का जल-स्तर कई फीट नीचे
नदियों में उभर आए रेत के पठार
रेत में धंसी
खाली और उदास नावों को
मल्लाहों के तलुओं के आत्मीय स्पर्श का इंतजार है
पोखरे के मस्तुल पर बैठी
चिड़िया को पोखर में
पानी का इंतजार है
फसलें मारी गई
छूटे से आजाद कर दिये गए मवेशी एक तिहाई किसान
गांव से चले गए उनकी आंखों की
नमी सूख गई कुछ हरी घासें
कुछ झाड़ीदार हरे पौधे
कुछ उदास मगर हरे वृक्ष
उम्मीद जगाते हैं कि
सूखा बीतेगा और बारिश होगी
बारिश जल को यों अब
बहने नहीं देंगे
जंगल कटने नहीं देंगे
पहाड़ फोड़ने नहीं देंगे।
4. आम का पेड़ हो जाऊँ
देखता हूँ…
पीले-पीले मंजरों से लदराये गदराये आम का पेड़
है रसभीनी गंध से महमह हवा
मुनादी करती कोयल
आगत मीठे-मीठे फलों की
सपनों में चमकते हैं झोंप के झोंप
आम्रफल
नृत्य-गान में मस्त भृंग और भृंगराज
रूप रस गंध स्पर्श स्वाद की आस में असंतृप्त इंद्रियां
सुख की आहटों से थरथराता मन
मन होता है
आम का पेड़ हो जाऊँ
जनम जाऊं
किसी धूसर चारागाह में
बिताएं मवेशी और चरवाहे
दुपहरिया मेरे साये में
उग जाऊँ
नदी किनारे पुल के पास
साये में बैठ पथिक
घड़ी भर निहार ले जल-प्रवाह
रोप दे अमोला कोई मेरा
तक मह ठीक बगल में स्कूल परिसर के
निकसार के
तोड़ ले कोई बच्चा ढेला मारकर
कुछ फल
या उग जाऊँ पगडंडी किनारे
छतनार हो जाएं मेरी शाखाएं
टपक पड़े फल जब कोई राहगीर
या कुटुम्ब गाँव का कदम बढ़ाये
गांव की ओर।
5. युक्लिप्टस
दिखता बहुत बड़ा
मालिक-सा चुप खड़ा
श्वेतवर्णी ऊँचा ब्रिटिश रक्षक-सा
मिलता यह प्रचुर जल-भक्षक
खेतों की मेड़ों पर
मैदानों में खलिहानों में
सड़क किनारे पठारों पर
मजबूत होते जा रहे सर्वत्र
इसके वंशज
तना लंबा आकाशचुंबी
छाया इतनी विरल कि
पथिक को तपिश में
तनिक आराम नहीं
संरक्षक इसके ऊंची कुर्सियों पर
इनकी छाया तले
पनप पाती कोई घास नहीं
बंजर बनती धरती
पास इनकी जड़ों के
भयंकर तपिश में
छाल बदलते तने
करते जैसे कायांतरण
चमकता कितना गोरा शरीर
लगता ऐसा जैसे
एक सुचितित योजना के तहत
फेलाने को बंजरता
नष्ट करने को हरीतिमा
रोप गई उर्वरा धरती में
युक्लिप्टस सा फलहीन पेड़
गोराशाही
यथावत् इनके कई प्रतिरूप
कई विरासतें
कई आदतें
कई प्रवृत्तियां
जीवन दृष्टियां
लगता जैसे
दाग उपनिवेशन का मिटा नहीं पूरा।
6. कविताई
कविताई इसलिए
कि बचा रहे नदियों में जल
बचे रहें जंगल और पहाड़
बची रहे पृथ्वी की हरियाली
बची रहें बेटियां
घर… आंगन में गूंजती रहे
बच्चों की किलकारियां
और जब कभी विध्वंस का सामना करना पड़े
हम एकजुट हो जाएं।
7.
बाथे -1
मुंह लुकान तक उस शाम
बच्चे खेलते रहे
कबड्डी
सोन के बालू पर
छोटी-छोटी हथेलियां
जिनकी कमर में लंगोट भर थी
अंतिम बार उछाल रही थीं
बालू
सूरज का पीला चक्का
उदास था
पहली दिसंबर की रात
मलिन और ठंडी थी
विकल था सूरज
प्राची के कंदरा में समा जाने को
बच्चे अनभिज्ञ थे कि
वे अंतिम बार
सोन की हवा को
अपने नथुनों में भर रहे थे
अरविंद चौधरी पांच साल का
छह का सोहर राजवंशी
तीन की अनिता कुमारी
सविता पांच की चार का मनोज पासवान
रोहन पासवान दस का
और कुंवर छह का
अनुज कुमार को दूसरा वसंत
देखना बाकी था
उसे मालूम नहीं था कि
वह अंतिम बार
सोन का बालू अपनी मुट्ठियों में
दबाता था और छोड़ देता था
यही उसका खेल था
वह अधिक से अधिक आज खेल
लेना चाहता था
सोन की गोद छोड़कर उसे
कोई जल्दी नहीं थी
घर वापस लौटने की।
बाथे -2
स्त्रियां सब्जी के खेतों से
हंसुआ और खुरपी के साथ
लौट रही थीं
खपड़पोस घरों की ओर
धान के पौधे पक रहे थे
कटने के इंतजार में
कुछ खड़े थे कुछ पड़े थे
माथे पर घास का बोझ उठाये
लौट रही थीं घसगढ़िनें
घरों की ओर
जहां उन्हें अंतिम बार चूल्हा सुलगाना था
जमूरती और राजरानों के
जीवन में पचास पतझड़
पचास वसंत आये गए थे
शिशिर भी पचास ही बार
आया-गया था
धनरजिया और सोनवा के पास
तीस शिशिरों की स्मृतियां थीं
पतझड़ और वसंत को वे ठीक से
याद नहीं कर पायीं
एतवरिया रूपकलिया रजमतिया
साठवें पतझड़ तक पहुंचते-पहुंचते निचुड़ चुकी थीं फिर भी
उनके जीने की सार्थकता
उनकी श्रम-शक्ति के कारण थी
शीला और तरेगनी का सोलहवां साल था बसंती का पन्द्रहवां
लाख दुखों में जिजीविषा दीपित थी उनके आनन पर
सत्तर की बुढ़िया मुनी देवी
व्यर्थ नहीं जी रही थी
आंगन सफाई
पोते-पोतियों की खेलाई
उसके जिम्मे था
टोले की जीवंतता में
उसकी भागीदारी थी।
बाथे -3
पक्षी झुंडों में
लौट रहे थे
अपने घोंसलों की ओर
गायों भैंसों बकरियों के चरवाहे जब
अपने खपड़पोस घरों की ओर पहुंचे
उदास थे दरवाजे पर खिले-अधखिले गेंदे के फूल
जीवन उनके लिए एक जंग था
दिन की पाली में लड़कर
वे लौटे थे रात्रि विश्राम के लिए
काली कुरती वाले भेड़ियों ने
घेर लिया चौदह घरों को
सब्बलों की चोट से
दरवाजे टूट गए
कोई नाद में छिपना चाहा
कोई डेहरी के पीछे
डेढ़ साल के अनुज को
मां ने भांड़ी में छिपाया
भेड़ियों की दहकती आंखों ने
अनुज को ढूंढ लिया
नेजे की नोक पर टांग दिया
वह अंतिम समय तक चीत्कार कर प्रतिवाद करता रहा।
बाथे -4
भेड़ियों की जीभ लपलपाई
तलवार गंडासे टांगे चाकू
रात के अंधेरे में चलने लगे
बंदूकें गरजने लगीं
कराह आह चीत्कार
पास पड़ोस के गांवों तक
दहशत फैलने लगी
किसी की गरदन कट गई
किसी के पेट में तलवार घूस गई
कई स्तन कट गए
जांघों के बीच हथियार घूस गए
दहशत में थी रात
हवाएं चीख रही थीं
सोन रो रहा था
खून में डूबे थे इकसठ शव
उस दिन
पैंतीस वर्षीय शिववचन रविदास
अपने हमसफर नरेश चौधरी और
राम निवास के साथ झंडा लेकर
प्रतिरोध मार्च में शामिल होने
सुबह निकलने वाले थे
जवानी की दहलीज पर खड़े
रामपुलिस शिवकलश और गोरख
शहीद हो गए
सपने छोड़ गए
मुक्ति के सपने मुक्ति-संघर्ष के सपने
सुबह की धूप ने देखा
बाथे की रक्तरंजित धरा को
स्पर्श मिला नेताओं के
चरणों के प्रणेताओं के
पांवों के कुछ ने बाथे की मिट्टी को
मस्तक से लगाया
कुछ अभागे नेता दिल्ली-कोलकाता की
अपरिहार्य मीटिंगों में फंसे रहे
अपने बहुमूल्य समय का एक कतरा
बाथे को नहीं दे पाये
रक्त में सने सपनों के पंख फड़फड़ाने लगे
सोन के अरार पर पीपल के विशाल वृक्ष पर
बगुले बैठने लगे
बाथे की धरती प्रतिरोध के लिए
और उर्वर हो गई है।
कवि जितेंद्र कुमार, जन्म 18 जनवरी 1952 भोजपुर, बिहार। बिहार विश्वविद्यालय से बी. एस. सी. की पढ़ाई। जनवरी 2012 में सहायक डाक निदेशक, पटना से सेवा निवृत्त। संप्रति अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच, बिहार।
संपर्क: फोन- 9931171611
ईमेल : jitendrakumarara46@gmail.com
टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.