कौशल किशोर
डॉ. हेमन्त कुमार की कविता में ‘कटघरे के भीतर’ जीवन की पड़ताल
हेमंत कुमार की कविताओं में प्रकृति, पर्यावरण, चिड़िया, गौरैया, जंगल, पहाड़, बारिश, बादल, लड़कियाँ, बेटियाँ, औरतें, तितलियाँ, बच्चे व उनका बचपन, आम आदमी की इच्छा-आकांक्षा, उनका श्रम आदि शामिल है अर्थात हमारा समकालीन जीवन है। वह आज ‘कटघरे के भीतर’ है। इसी नाम से उनका कविता संग्रह भी है।
कवि की नज़र में प्रकृति सबसे बड़ी रचनाकार है जहाँ निरंतर सृजन चलता रहता है। यह सृजन जो आम लोगों की नज़र में अदृश्य बना रहता है, उस पर हेमंत जी की पैनी नज़र और सूक्ष्म दृष्टि बनी हुई है। आज प्रकृति संकटग्रस्त है। पर्यावरण असंतुलित हो चुका है। यह सब स्वतः नहीं हुआ है बल्कि इसके पीछे तुच्छ इच्छाएं हैं। तुर्रा तो यह कि इसे सभ्यता व विकास नाम दिया गया है। इसी के नाम पर योजनाएं व उपक्रम चलाए जा रहे हैं । प्रकृति व पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर हेमंत जी ने अनेक कविताएँ लिखी हैं जैसे – चिड़िया, गौरैया से, जंगल, पहले कभी, किसी दिन अचानक, बया आज उदास है, इंतज़ार, सवाल आदि।
‘चिड़िया’ दाने के लिए सुबह गई और जब लौटी तो उसे न पेड़ मिला, न घोसला, न अंडे, न चूजे। पेड़ों को काट जमीन चौरस कर दिया गया। अब यहाँ ‘विकास’ लहलहाएगा। सब रौंद दिया दिया था। अब चिड़िया की दुनिया उजड़ चुकी थी। अब चिड़िया फरियाद करे तो किससे करे? कौन है सुनने वाला? कवि के लिए यह मात्र पेड़ों का उजाड़ना नहीं है बल्कि एक दुनिया का उजड़ना है। कवि इस पर तंज करता हैः
उस बिचारी को कहां पता कि
हम सब सभ्य हो रहे हैं
और हमारा विकास प्रगति पर है
हमें नहीं कोई मतलब चिड़िया के घोसले
और उसके बच्चों से
‘घर की चौहद्दी से बाहर भी
जब निकलती है ये औरत
दुनिया के हर दर्द को
समेट लेती है अपनी मुट्ठी में
अपने मजबूत इरादों से
नापाक मंसूबों को कर देती हैं नेस्तनाबूद
अपने औरत होने की छाप छोड़कर
दुनिया के हर कोने को
और खूबसूरत बनाने की कोशिश करती….
हम सब के सपनों को
बड़ी सुघड़ता से गढ़ने में ही
मशगूल रहती है
ये प्यारी सुंदर सलोनी औरत’
हर धड़कन के साथ है
चिड़ियों का कलरव
झरनों का संगीत
हवाओं की सरसराहट
फूलों की खुशबू
पर्वतों की ऊंचाइयां
और सागर की उत्ताल तरंगों की
गंभीर गर्जना
जागो लड़कियों जागो
बना दो हस्ताक्षर
इतिहास के सीने पर
कविता सवाल की तरह खड़ी हो जाती हैः
यह दौर है जब कोई सवाल सुनना नहीं चाहता। लोगों ने सवाल करना भले ही बंद नहीं किया हो, पर कम जरूर कर दिया है । ऐसे समय में हेमंत कुमार सवाल करने वाले कवि हैं। यह जरूरी सांस्कृतिक कर्म है जो कविता करती है। प्रेमचंद कहते हैं ‘एक रचनाकार स्वभाव से प्रगतिशील होता है’। हेमंत कुमार के यहाँ यह प्रगतिशीलता मिलती है जहाँ वे बराबरी का समाज और ख़ूबसूरत दुनिया की कल्पना करते हैं। वे बच्चों की ख़ुशहाली और बेहतरी में ही समाज की ख़ुशहाली और बेहतरी को देखते हैं। कहते हैंः
एक बहुत बड़ी दुनिया
जिसका विस्तार हो लाखों करोड़ों
अनंत असीमित आकाश के बराबर
जहां हर बच्चे के हाथ में हो
रंग बिरंगे गुब्बारे …
सुंदर खिलौने
हर बच्चे के कंधे पर हो एक बैग प्यारा
हर बच्चे को मिल सके पेट भर खाना’
उसको बेचारी को कहां पता कि हम
सभ्य हो रहे हैं
और हमारा विकास
पूरी प्रगति पर है ।चिड़िया तो खोज रही है
सूनी आंखों से
अपना नन्हां सा घोसला
और नन्हें बच्चों को
जिन्हें वह अकेला छोड़
सुबह उड़ गई थी दानों की खोज में
पर अब तो वहां कुछ भी नहीं
न पेड़ न घोसला न बच्चे ।उसे तो दिख रहा है
दूर दूर तक फ़ैला हुआ
कंक्रीट और इस्पात का
एक अंतहीन जंगल
पिघले हुये
काले तारकोल की बहती नदियां
और धरती के सीने में
उड़ेला जा रहा
खौलता इस्पात ।चिड़िया बेचारी तो
हो गयी है स्तब्ध
हमारी सभ्यता
और विकास की तेज
गति को देखकर ।
आखिर वह अब कहां खोजे
अपना घोसला और बच्चों को
किससे करे फ़रियाद
खाकी वर्दी / खद्दरधारी से
या फ़िर यू एन ओ और
वर्ल्ड पीस फ़ाउण्डेशन के
माननीय सदस्यों से ?
लेकिन चिड़िया तो आखिर चिड़िया है
उसको बेचारी को कहां पता
कि हम सभ्य हो रहे हैं
और हमारा विकास प्रगति पर है
हमें नहीं कोई मतलब
चिड़िया के घोसले
और उसके बच्चों से ।
2. इंतज़ार
इस जंगल के
दरख्तों से
क्यों पूछते हो
इनकी खैरियत ।
इनके
दहशतगर्द चेहरों पर तो
खुद ही चस्पा है
रोज तिल तिल कर
मरते हुए
अपने जिबह होने के
इन्तजार की तस्वीरें ।
3. जागो लड़कियों
जागो लड़कियों जागो
बना दो अपने हस्ताक्षर
इतिहास के सीने पर।
हर गांव गली चौराहों पर
गूंजें बस तुम्हारे ही गाये हुये गीत।
बता दो इस पूरी दुनिया को
कि तुमने भी
सजा लिया है
वक्त की रफ़्तार को
अपनी सुकोमल
पर धारदार हथेलियों पर।
हवाओं से कह दो
वो भी गुनगुनायें
तुम्हारे गीत और राग
हर दिशा में
झरनों की अठखेलियां भी
अब मिला लें ताल
तुम्हारी ही इजाद की हुई
अनोखी नृत्य मुद्राओं से।
बता दो आज पूरी दुनिया को
कि अब नहीं धड़कता है तुम्हारा सीना
खामोश आंगन की चहारदिवारियों में अकेला।
अब तुम्हारी
हर धड़कन के साथ है
चिड़ियों का कलरव
झरनों का संगीत
हवाओं की सरसराहट
फ़ूलों की खुशबू
पर्वतों की ऊंचाइयां
और सागर की उत्ताल तरंगों की
गम्भीर गर्जना।
जागो लड़कियों जागो
बना दो हस्ताक्षर
इतिहास के सीने पर।
4. लड़कियाँ
लड़कियां हर सुबह
रोपती हैं
सपनों के कुछ पौधे
अपनी हथेलियों पर।
चलो सींचो उन पौधों को
डालो कुछ खाद और पानी
बनाओ उनके सपनों को
वटवृक्ष
जो दे सके शीतल छांव
हम सभी को
उन सभी सपने रोपने वाली
लड़कियों के
हर अपनों को।
5. खुद से बतियाती औरत
सुबह से शाम तक
दोपहर से रात तक
खुद से ही बतियाती
रहती है
घर के हर कोने को
सजाती संवारती ये
खूबसूरत औरत।
अलस्सुबह शीत के खौफ को
चिंदी चिंदी करके
बच्चों के सपनों को
बड़े करीने से संवारने में
जुट जाती है
घर के कोने कोने से
उदासियों को बुहार कर
खुशियों के गीतों से
घर को खूबसूरती से संवार देती है
ये प्यारी औरत।
पति के बिस्तर की सारी सलवटें चुराकर
धीरे से चूम कर उसका माथा
उसे देखती
कभी मुस्कराती कभी हंसती है
ये सुन्दर सलोनी औरत।
कभी थकती नहीं
कभी झुकती नही
कभी टूटती नहीं
कभी बिखरती नहीं
हजारों कामों का बोझ
अपने कंधों पर लादे
चेहरे पर बिना कोई शिकन लाये
बड़े ही करीने से घर के सारे कामों से
सारा सारा दिन बतियाती ही रहती है
ये सुन्दर सलोनी औरत।
घर की चौहद्दी से बाहर भी
जब निकलती है ये औरत
दुनिया के हर दर्द को
समेट लेती है अपनी मुट्ठी में
अपने मजबूत इरादों से
नापाक मंसूबों को कर देती है
नेस्तनाबूद।
और अपने औरत होने की
छाप छोड़ कर
दुनिया के हर कोने को
और खूबसूरत बनाने की कोशिश करती
दुनिया को समझाती
सारा सारा दिन
खुद से ही बतियाती
कभी हंसती कभी मुस्कुराती
हम सबके सपनों को
बड़ी सुघड़ता से गढ़ने में ही
मशगूल रहती है
ये प्यारी सुन्दर सलोनी औरत।
6. उसकी उमर
उसकी उमर ग्यारह साल है।
वह अपना दिन
शुरू करता है
चाय की चुस्कियों से
और रात/समाप्त करता है
बीड़ी के धुएं में।
वह अपने पेट से
साइकिलों में हवा भरता है
आंखों से दुनियादारी देखता है
हाथों से चाकू खेलता है
दिमाग से
नई नई गालियों का उत्पादन करके
जुबान से
उन्हें निर्यात करता है।
उसकी उमर ग्यारह साल है।
7. उनकी दुनिया
मैं बनाना चाहता हूं
एक बहुत बड़ी दुनिया
जिसका विस्तार हो
लाखों करोड़ों और अनन्त असीमित
आकाश के बराबर।
जहां हर बच्चे के हाथ में हों
रंग बिरंगे गुब्बारे
रूई और ऊन से बने
सुंदर खिलौने
हर बच्चे के कन्धों पर हो
एक बैग प्यारा सा।
बैग में हों ढेरों
नई नई कहानियां
खूबसूरत दुनिया के हसीन गीत
हर बच्चे को मिल सके
पेट भर खाना।
जहां हर बच्चा
मुक्त रहे दुनिया के दुर्दान्त
बमों के धमाकों और संगीनों के
भयावह सायों से।
न पड़े उनके ऊपर
कोई मनहूस साया
खद्दरधारियों की लिजलिजी
और सड़ान्धयुक्त राजनीति का।
और न सेंक सके
कोई भी बड़ा अपनी अपनी
रोटियां किसी मासूम की
असमय हुयी मौत पर।
जहां हर बच्चा खेल सके
सुन्दर हरे भरे मैदान में
फ़ूलों की रंग बिरंगी क्यारी के बीच।
और हर बच्चे की आंखों में
तैर रहे हों कुछ खूबसूरत
तितली के पंखों से कोमल सपने
जिनके सहारे वो बिता सके
अपना अनमोल जीवन
और महसूस कर सके
इस दुनिया में अपने वजूद को।
तो बताइये क्या आपने भी
कोई ऐसी दुनिया बसाने
का ख्वाब अपने मन में संजोया है?
8. अस्तित्व (1)
नेस्तनाबूद करने की
करो हजार कोशिशें
कर दो जमींदोज मुझे
पाताल की गहराइयों में ।
पर मैं ऊपर आऊंगा जरूर
एक दिन धरती का सीना फ़ाड़ कर
तुम्हारी खैरियत पूछने
क्योंकि मैं एक बीज हूं ।
9. अस्तित्व (2)
माचिस उठाने से पहले
देख तो लेते
मैं फ़ूस का नहीं
बारूद का ढेर हूं ।
10. फोटो फ्रेम से झांकते चेहरे
फोटो फ्रेम से झांकते हैं
एक दो तीन नहीं
कई कई चेहरे।
कुछ हँसते हैं
कुछ रोते हैं
कुछ गाते हैं
कुछ बतियाते हैं
कमरे या बिस्तरों पर
खाली हो चुकी अपनी
जगहों और वहां
पसर चुके घनघोर
सन्नाटों से।
कभी आपस में करते है बातें भी
अपने बीते दिनों की
खोलते हैं कुछ गठरियाँ
छोटी मोटी या बड़ी सी
बहुत सहेज कर संजोये हुए
अपने सपनों की।
कभी कभी बहुत खुश
होकर मुस्कुराते
या खिलखिला भी पड़ते है
फोटो फ्रेम से झांकते ये चेहरे
अपनी रोपी हुयी पौध की
मासूम प्रार्थनाओं को सुनकर
ख़ुशी में उठ जाते हैं उनके हाथ
आशीष की मुद्रा में।
देखो कभी ध्यान से
इन चेहरों की आँखों में
लिखी मिलेगी ढेरों बातें
अनेकों कहानियां
बहुत सारे गीत भी
खुशियों भरे
जो शायद रह गए है
शब्दों का आकार लेने से
और वाक्य बन कर
अभिव्यक्त हो पाने से
किसी के समक्ष
तुम्हारे हमारे और उन फोटो फ्रेम
से झांकते हर चेहरे के अपनों के सामने।
11. कटघरे के भीतर
खून से रंगी सडकों पर
अपने कदमों के निशान बनाते हुए
निकल पड़े हैं
हजारों लाखों बच्चे
पूरी दुनिया के घरों से।
इनके हाथों में हैं मशालें
चेहरे हैं आंसुओं से तर बतर
मन में समाया है एक खौफ
कानों में गूँज रही है धमाकों की आवाजें
और आँखों में चस्पा हैं तमाम सवाल
जिनका जवाब देना है
हमें /आपको/हम सब को।
इन बच्चों की लाल पड़ गई सूनी ऑंखें
जानना चाहती हैं
अपने पैदा होने का कसूर
की क्यों वे सभी बना दिए गए अनाथ
चंद मिनटों में
कुछ उन्मादियों द्वारा की गयी हैवानियत से
कि क्या होगा उनका भविष्य
कि कैसे मिटेगा उनके चेहरों पर
छाया हुआ खौफ
कि कैसे वे उबर सकेंगे पूरे जीवन भर
रात में दिखने वाले भयावह सपनों के प्रहार से
कि कौन बुलाएगा अब उन्हें बेटा कह कर
कि किसके आँचल में छुप सकेंगे वे
उनींदी आँखों से भयावह काली आकृतियाँ देख कर
कि कैसे वे भी बिता सकेंगे एक सामान्य बच्चे का जीवन।
ये सभी सवाल पूछ रहे हैं
ये सारे बच्चे
हम सभी से
सोचिये जरा सोचिये
कुछ थोड़ा बहुत तो बोलिए
क्या जवाब है आपके हमारे पास
इनके सवालों का?
हम सब खड़े होकर कटघरों में
गीता पर हाथ रख कर
सच बोलने की शपथ तो खा सकते हैं
परन्तु क्या दे सकते हैं
कोई आश्वासन कोई प्रमाण कोई सबूत ….
इन बच्चों को
इनके बचपन को सुरक्षित रखने का।
आप भी जरा विचारिये
डालिए अपने दिमाग पर कुछ जोर
कि क्या जवाब देना है इन बच्चों को
कब तक चलता रहेगा
दहशतगर्दी का ये खेल
कब तक बारूद के धमाकों
और संगीनों के साये में
खौफनाक मंजर की तस्वीरों से
आतंकित होते रहेंगे ये बच्चे?
12. भयाक्रांत
उसकी आंखों की
पुतलियों में
अब नहीं होती
कोई हलचल
सतरंगे गुब्बारों
और लाल पन्नी वाले
चश्मों को देखकर
नहीं फ़ड़कते हैं अब
उसके होंठ
बांसुरी बजाने के लिये।
नहीं मचलती हैं उसकी उंगलियां
रंगीन तितलियों के मखमली स्पर्श
को महसूस करने के लिये।
उसके पांवों में
नहीं होती है कोई हलचल
अब
गली में मदारी की
डुगडुगी की आवाज सुनकर
नहीं उठती है उसकी गुलेल
कच्ची अमियों पर निशाना
लगाने के लिये।
पिछ्ले कुछ दिनों से
उसकी आंखों में
जम गया है खून
होठों पर लग गया है ताला
लग गयी है जंग
हाथों और पांवों में।
जबसे उसने देखा है
अपने गांव की कच्ची गलियों में
फ़ौलादी मोटरों की कवायद
सगीनों की चमक
और बारूद के धमाकों के बीच
अपनी बूढ़ी दादी और बड़ी बहन
की लाशों को
खाकी वर्दी द्वारा
घसीटे जाते हुये।
कवि डॉ. हेमन्त कुमार, 1 अगस्त 1958 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म। पूरी पढ़ाई और लेखन की शुरुआत इलाहाबाद में। एजुकेशनल टेलीविजन, लखनऊ में 32 सालों तक स्क्रिप्ट राइटर, लेक्चरर प्रोडक्शन की नौकरी के बाद अब स्वतन्त्र लेखन। पिछले 48 सालों से बच्चों, बड़ों के लिए लेखन। प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और डिजिटल माध्यमों में समान दखल। बच्चों, बड़ों के साहित्य की अभी तक 50 से ज्यादा किताबें प्रकाशित। पहला कविता संग्रह “बया आज उदास है” सन 2008 में प्रकाशित। बाल साहित्य के लिए देश के कई प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान प्राप्त। देश के कई शहरों में समय समय पर बाल नाटकों का मंचन। आकाशवाणी के लिए कई सीरियल्स के साथ ही शैक्षिक दूरदर्शन के लिए 500 से ज्यादा कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट राइटिंग और लगभग 300 कार्यक्रमों का निर्माण। कई अख़बारों में बच्चों, महिलाओं और प्राथमिक शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर कॉलम लेखन। यूनिसेफ, आई सी डी एस, एन सी ई आर टी, के लिए लेखन तथा. 300 प्रोग्रम के साथ और भी कई बड़ी संस्थाओं के साथ मीडिया कंसल्टेंसी। दूसरा कविता संग्रह ‘कटघरे के भीतर’ हाल में प्रकाशित जिसका विमोचन जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ में किया गया।
पता-414,बी सी सी ग्रीन्स
नौबस्ता कलां , देवा रोड, लखनऊ -226028
मोबाईल-9451250698
टिप्पणीकार कौशल किशोर, कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार। जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख.
लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना त्रासदी पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कविता के अनेक साझा संकलन में शामिल। 16 मई 2014 के बाद की कविताओं का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और प्रेम, प्रकृति और स्त्री जीवन पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दुनिया की सबसे सुन्दर कविता’ प्रकाशनाधीन। समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपी प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
मो – 8400208031)