चित्रा पंवार
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कविता के विषय में कहते हैं–
‘कविता अगर मेरी धमनियों में जलती है
पर शब्दों में नहीं ढल पाती
मुझे एक चाकू दो
मैं अपनी रगें काटकर दिखा सकता हूं
कि कविता कहाँ हैं’
यह कवितांश यहाँ रखना इसलिए आवश्यक प्रतीत हुआ ताकि हम कविता के जन्म से पूर्व की उस पीड़ा को महसूस कर सकें जिससे एक कवि कविता लिखने से पूर्व या दौरान गुजरता है।
हरे प्रकाश उपाध्याय उसी पीड़ा को शब्दों में ढालने वाले कवि हैं, कवि की संवेदनशील नज़र हर उस व्यक्ति के संघर्ष को गले लगा लेती है जो उनके इर्द–गिर्द है, कवि के अनुभव की सीमा पर खड़ा अपने समय से दो–दो हाथ कर रहा है–
‘बाबू बीमार थे, मर गए थे कल
आज ही आया काम पर निकल
कह रहा, उनसे बहुत मिलता था बल
अब तो टूट गया, हो गया निर्बल’
कविता ‘सोनू कबाड़ वाला’ के जरिए कवि प्रत्येक उस व्यक्ति के संघर्ष को कविता में स्थान देते हैं जो हैंड टू माउथ की कंडीशन में जीवन व्यतीत कर रहा है, जिसे न दुःख में रोने का समय है, न बीमारी में दो घड़ी आराम कर लेने की मोहलत…जिसके पास जमा पूंजी के नाम पर सिर्फ़ आंसुओं की नदी तथा नमक का विशाल पहाड़ है।
‘मुझे जाना है काम पर’ कविता की
‘एक दिन मिलेगा ख़ाली रविवार’ पंक्ति के बहाने हरे प्रकाश उपाध्याय जी उस कामकाजी वर्ग की दुखती रग पर हाथ रखते हैं जो गृहस्थी का बोझ पीठ पर लादे काम को केंद्र में रख किसी ग्रह की भांति हांफते हुए बस उसके चारों ओर दौड़े चला जाता है।
वर्तमान समय का सबसे क्रूर मज़ाक पढ़े-लिखे युवाओं का बेरोज़गार होना है, पेपर लीक, एग्जाम्स की बदलती तारीखें, बेताल की तरह कोर्ट में बरसों तक लटकी भर्तियों के दौर में युवाओं के लिए नौकरी पाना सुरख़ाब के पर पा लेने सरीखी कठिन है, युवाओं के नौकरी पा लेने के स्वप्न की डकैती करते सत्य घटनाक्रम पर आधारित कविता है, ‘ठगी की वर्दी’
‘गरीबी बेकारी से माथा था चकरा गया
हुआ कुछ, लगा कि नई ज़िंदगी पा गया
मिलेगी नौकरी सुन पगला गया
ठग के झांसे में आ गया’
बेटियों से संवाद की शैली में लिखी गई कविता ‘ हक़ है जो तुम्हारा’ को पढ़ते हुए यकायक मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की लिखी मेरी प्रिय नज़्म ‘औरत’ याद आती है।
‘इसी रास्ते से जीवन समाप्त होता है
किसी झुनझुने के साथ नहीं
बल्कि दुःख की लंबी कसक के साथ!!’
टीएस इलियट द्वारा रचित ‘द होली मैन’ कविता की ये चर्चित पंक्तियाँ भले ही युद्धग्रस्त लोगों के संदर्भ में कही गई हों परन्तु यह भी सच है कि दुख की गहरी जड़ें अंततः उसी आम आदमी तक पहुँचती हैं जो अलग-अलग या एक ही समय पर किसान, सैनिक, मज़दूर, कलाकार या फिर प्रेमी हो सकता है यह वही आम आदमी है जो कई हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता ‘जिंदगी किफ़ायत से बिताते हैं’ के केंद्र में है–
‘ये लोग रोज़ सुबह उठते हैं
और काम पर चले जाते हैं ’
‘इस नयी बीमारी की दवा क्या है’ बालक आतिफ़ के बहाने पाठकों से एक अतिमहत्वपूर्ण सवाल करती तथा अपने आस-पास तेज़ी से फैलती जाति-धर्म की महामारी के गंभीर परिणामों पर सोचने के लिए विवश करती कविता है।
हरे प्रकाश उपाध्याय की ‘बचपन का घर’ कविता घर से चंद ख़्वाब लेकर उन्हें पूरा करने निकले उन तमाम लोगों का सांझा विलाप प्रतीत होती है जो उन ख़्वाबों के जाल में ऐसे उलझे कि फिर कभी घर न लौट सके
‘पीछे छूटते गए सब रिश्ते नाते
वे कंधे जो मुझे बिठाकर
बाग– बाजार ले जाते..’
आदमी के भीतर किस प्रकार जंगल पैठ बना रहा है इसे समझने के लिए ‘गांव मंगरांव’ कविता की ये पंक्तियाँ पर्याप्त मालूम होती हैं –
‘जंगल में थे बाघ शेर भालू चिता
फिर क्यों डरती थी गांव में गीता’
तथा
‘शहर से चलकर गांव जब से बिजली आई है
अंधेरा इतना बढ़ा दिखता न भाई को भाई है’
‘विधायक चाचा’ कविता हास्य-व्यंग की शैली में आज के नेताओं के आचरण पर तीखा प्रहार करती है।
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं की ज़मीन देशी रंग-ढंग में रची बसी सीधी-सरल भाषा की संवेदनशील ज़मीन है जो साधारण से दिखने वाले घटनाक्रमों से महत्वपूर्ण मुद्दों को निकाल कर उठाती हैं।
कवि की कविताओं का असली सौंदर्य यही है कि ये कविताएँ कृत्रिम सौंदर्य के भटकाव में उलझे बगैर समाज में व्याप्त खुरदुरेपन को जस का तस लेकर सवालिया निगाहों से पाठक के सामने उपस्थित हो जाती हैं।
कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ काँपते हाथों की तरह नहीं वरन तनी हुई मुट्ठी की तरह ऊपर उठती हैं। कविताओं में भाषा की क्लिष्टता तथा व्याकरण के चक्रव्यूह नहीं हैं जिस कारण पाठक इन्हें किसी अज़ीज़ के पुराने ख़त की तरह बार-बार पढ़ता है
हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ
1. सोनू कबाड़ वाला
आया है सोनू कबाड़ लेने, है छब्बीस साल का
कबाड़ का काम में जुटा, रहा जब चौदह साल का
कबाड़खाने के मालिक से रिश्ता बताता ननिहाल का
पूछने पर कहने लगा एक्सपीरियंस है बारह साल का
टूटा हुआ ठेला कभी पैदल कभी चढ़कर चलाता है
दे दो रद्दी-सद्दी लोहा-लक्कड़ आवाज़ लगाता है
हरदम तो उसको देखता हूँ मसाला चबाता है
कह रहा कि रोज़ पाँच-छह सौ कमाता है
भैया! दो सौ तो खाने-पीने में ही उड़ जाता है
बाबू बीमार थे, मर गये वे कल
आज ही आया काम पर निकल
कह रहा, उनसे बहुत मिलता था बल
अब तो टूट गया, हो गया निर्बल
मालिक से उधार लेकर बस लेगा वो धर
बलरामपुर में है टूटा हुआ सा घर
कमाते सब मिल इतना कि पेट जाए भर
कभी कुछ गाँव में काम, कभी आते शहर
यहाँ जहाँ कबाड़ रखते हैं
वही बगल में रहते हैं
आपके कबाड़ पर पलते हैं
अच्छा भैया! बुलाइएगा फिर, चलते हैं!
2. मुझे जाना है काम पर
ये बेशुमार किताबें बुलाती हैं
कविता रह-रहकर मन में कुलबुलाती है
कविता कहती है, मुझे लिखो
किताबें कहती हैं, आओ कुछ सीखो
मुझे जाना है काम पर
मेरा दिन नीलाम है कुछ छदाम पर
दिन भर काम
लौटते-लौटते बीत जाएगी शाम
मुझे शर्माजी के यहाँ भी जाना है
पैसे उधार माँगकर लाना है
पिछले महीने का उधार सक्सेना को चुकाना है
एक दिन मिलेगा खाली रविवार
पिछले हफ्ते दिन भर जकड़े रहा बुखार
देखता हूँ क्या कर पाता हूँ इस बार
ज़िंदगी में बची हैं क़िल्लतें और ज़िल्लतें
पा जाऊं ज़रा सी मोहलत, यही है मिन्नतें!
3. ठगी की वर्दी
गरीबी बेकारी से माथा था चकरा गया
हुआ कुछ, लगा कि नई ज़िंदगी पा गया
मिलेगी नौकरी सुन पगला गया
ठग के झांसे में आ गया
जैसे भी हो सका, किया
दौड़कर दो लाख पहुँचा दिया
उबर जाएंगे दुख से, राहत की सांस लिया
जताकर हमदर्दी
ठग ने दिया वर्दी
फंसा दिया झांसे में बेदर्दी
वर्दी के जोश में ज़रा सा अकड़ लिया
तुरंत ही पुलिस ने पकड़ लिया
दु:ख ने दूने बेरहमी से जकड़ लिया
हे दु:ख! तुझसे बेवफ़ाई की क्षमा माँगता हूँ
साहब मैं अपनी नियति जानता हूँ
सपने देखने की गलती अपनी मानता हूँ
जो भी सज़ा दीजिए वो कम
मारिये हुजूर होकर बेरहम
मिट जाए रहा-सहा वहम!
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(जमुई बिहार में आईपीएस वर्दी में पकड़े गये मिथिलेश मांझी संबंधी ख़बर पढ़कर)
4. हक़ जो है तुम्हारा
बेटियों के बारे में सोचते भला बाप-महतारी हैं
पंख मिले, उड़ें आसमान में करते तो तैयारी हैं
घर छूट ही जाता मगर चाहे कितनी भी प्यारी हैं
सोचिए आख़िर क्यों जातीं बेटियाँ गर्भ में मारी हैं
जिन बेटियों को मिल गए पंख, उड़ीं आसमान में
गाइये गान खड़े होकर उनकी आन-बान-शान में
पर जो छलीं, मारी गईं रखिए उनको भी ध्यान में
अभी हालत अच्छी नहीं उनकी दुनिया-जहान में
बेटे और बेटी में फ़र्क तो नहीं होना चाहिए
उसे महज़ तोहफ़ा नहीं हक़ मिलना चाहिए
किसी की भी हो बेटी, इंसान ही समझना चाहिए
समाज का नज़रिया अच्छा नहीं, उसे बदलना चाहिए
बेटियो छोड़कर कोरी भावुकता तुम्हें लड़ना चाहिए
हक़ जो है तुम्हारा उसके लिए तुम्हें अड़ना चाहिए
कहाँ तक भागोगी ज़हमत से, इसमें पड़ना चाहिए
झुकने से नहीं होता, तुम्हें मौक़े पर अकड़ना चाहिए
इन दिवसों के दिखावटी चोंचलों में तुम न आना
शिकारियों के जाल भी होते हैं, जहाँ होता दाना
ये दुनिया के माया जाल, तुमसे बेहतर कौन जाना
तुम्हारी ज़मी तुम्हारा आसमान देख लो कैसे पाना!
5. ज़िंदगी किफ़ायत से बिताते हैं
तरकारी की दुकान से चुन-चुन कर आलू उठाते हैं
परचून की दुकान पर रुपैया-अठन्नी कम कराते हैं
बस स्टैंड तक पैदल चलके रिक्शे के पैसे बचाते हैं
ग़ौर करें ये ज़िंदगी कितनी किफायत से बिताते हैं
ये लोग रोज़ सुबह उठते हैं और काम पर चले जाते हैं
कोई शिकवा नहीं, जो मिल गया वही पकाते-खाते हैं
रफू कराकर पहनते कमीज, बस ये इतना ही कमाते हैं
टालकर ज़रूरतें कल पर कल के लिए कुछ बचाते हैं
राह इनकी लंबी-टेढ़ी उमर गुजरती बस आने-जाने में
भोले ये कहते लिखा है खानेवाले का नाम दाने-दाने में
कमाई से अधिक भरोसा रहता पेट काट कुछ बचाने में
उमर बीत जाती है इनकी कमाने खाने एक छत बनाने में
खर्चा इतना रहता है कभी-कभी कर्जा भी लेना पड़ता है
कभी छत चूने लगती है कभी घर में कोई बीमार पड़ता है
शादी-ब्याह पर्व-त्यौहार भी तो साल में जब-तब पड़ता है
सीधी नहीं ज़िंदगी की राह, उसमें यहाँ-वहाँ मोड़ पड़ता है
इनके बच्चे पढ़-लिख लिये तो दिल्ली-बांबे में कमाते हैं
जो नहीं पढ़ते वे भी बेचारे यहाँ-वहाँ कहीं देह खटाते हैं
नौकरी बची नहीं सरकारी सब प्राइवेट में ही लग जाते हैं
कौन सुनता इनकी जो ये अपना दुख किसी को बताते हैं।
6. इस नयी बीमारी की दवा क्या है
आतिफ़ ज़रा इधर आओ
टिफिन खोलकर दिखाओ
छी: ये सब तो मत लाओ
मैम ये सब मुझे बहुत पसंद है
जैसे कि आपको शकरकंद है
क्लास हँसने लगी
मैडम लहकने लगी
आतिफ़ की माँ बुलाई गई
आतिफ़ की टीसी थमाई गई
आतिफ़ को बात बिलकुल समझ नहीं आई
माँ ने वो चीज़ थी तो लज़ीज़ बढ़िया पकाई
अर्णव ने थी अपनी अंगुलियाँ चाट कर खाई
उसने कहा था कि कल भी यही लाना रे भाई
कौन बताएगा कि किसको क्या खाना चाहिए
क्या खाने को भी अपना मज़हब
बताना चाहिए
ये मैम को आजकल हुआ क्या है
इस नयी बीमारी की दवा क्या है?
(अंतिम दो लाइनें मिर्ज़ा ग़ालिब से क्षमा सहित, उनके मशहूर शेर की पैरोडी है)
7. बचपन का घर
बचपन में ही छूट गया बचपन का घर
पिता कमाने चले गये
मैं भी चला आया पढ़ने शहर
घर ने किया होगा इंतज़ार रो-रोकर
पढ़ता गया
आगे मैं बढ़ता गया
किराये के कमरों को घर समझता गया
पीछे छूटते गये सब रिश्ते-नाते
वे कंधे जो मुझे बिठाकर बाग-बाज़ार ले जाते
होंगे तो हम ज़रूर उनको याद आते
पर सुना नहीं मैंने उनको आवाज़ लगाते
काश वे ज़रा जोर से मुझे बुलाते
मगर घर बचपन का याद आता है
और जब याद आता है तो
वह आँगन भी साथ चला आता है
जहाँ एक बच्चा बिन वसन हँसता-नहाता है
कभी बाबा कभी माई के गले में
वो बच्चा लिपट जाता है
जो इस शहर में सर कहाता है
घर की जब-जब यादें आईं
न जाने क्या हुआ आँखें भर आईं
मैं सोचता रह गया
न जाने किन जंजालों में घिर गया
ख़बर है मेरे बचपन का घर अब गिर गया!
8. कांटों से साक्षात्कार होंगे
आपकी गैया ने दिया बछिया, गोद में लेके कीजिए प्यार
हमारी भी सुनिये मगर, आपके देश की हूँ एक अबला नार
ठाकुरगंज के प्रकाश ने दिया जीवन को घोर अंधेरे में डार
बहला फुसला फंसाकर कमबख्त ने दिये मेरे कपड़े उतार
ले गया यहाँ-वहाँ करता रहा दो दिनों तक जबरदस्ती मनमानी
रोती-चिल्लाती रही, कौन सुनता, करता रहा वह हरकतें शैतानी
पैसे लिया कमल कपूर से, फट जाएगी छाती सुन दुखद कहानी
फिर सोहलिया के सरवन को बिकी, कैसे कहूँ क्रूर कारस्तानी
रोने गिड़गिड़ाने पर मुझे मारा गया पीटा गया ढकेला गया
साल भर इनके उनके खिलौने बनी, मुझसे खूब खेला गया
पता नहीं हूँ किस मिट्टी की, जो मुझसे दुख इतना झेला गया
वह तो क़िस्मत रही मेरी, भाग गई जब छोड़ा अकेला गया
जानती हूँ मैं इस कंटक राह से गुजरी, कोई अकेली नहीं हूँ
यह सब तो होना ही था, अमीर की बेटी की सहेली नहीं हू्ँ
हँसिये मत मुझी पर, हाथ जोर कहती हूँ खाई खेली नहीं हूँ
गरीब की बेटी हूँ, मनुष्य हूँ, समझिए मैं कोई पहेली नहीं हूँ
देश के मालिक हैं, तो आप देखते तो अखबार होंगे
विश्वगुरू है देश, कहिए कब तक बंद बलात्कार होंगे
गोद में बछिया को लेके चूमने से ही क्या चमत्कार होंगे
निकलिए गलियों में नंगे पांव, कांटों से साक्षात्कार होंगे।
9. किससे लगाऊं गुहार
कहाँ से शुरू हुई बात
कब कैसे हुई वो निगोड़ी मुलाक़ात
उग आया चंदा, प्यारी हुई रात
करने लगी मैं भी प्यार
न जाने कैसे कब गई दिल अपना हार
खेत आते-जाते, मिला मनोज खरवार
छुप-छुप कर हम मिलने लगे
बेमक़सद ही सपने सिलने लगे
जल की मछरी सी रहने लगे
क्या नाता था हमारा मनोज खरवार से
कमाने वह आया था खेड़ा, दूर बिहार से
पगला देखता था, गजब वह प्यार से
न कुछ लेना न देना
बस टुकुर-टुकुर देखना
मुश्किल था, उसकी आँखों को झेलना
उसके पास बातें भी बहुत नहीं थी
सादी उसकी जिंदगी की खाता-बही थी
यही तो बात, मुझे मथ रही थी
पर प्यार की यह बात, मेरे बापू को खटक गई
भाई ने सुना, तो उसकी सांसें भी अटक गई
माई गुस्साई, खाने की थरिया जोर से पटक गई
पर हमारे प्यार की गाड़ी तो खुल चुकी थी
भीतर की छटपट, लोकलाज भूल चुकी थी
बारिश निगोड़ी, लछमन रेखा धुल चुकी थी
सोचा हम दोनों मिलकर कहीं कमाते हैं
संग मिलकर, अपना एक नया घर बसाते हैं
चलो यहाँ से, वहाँ जहाँ-तहाँ भाग जाते हैं
ज़माना था पीछे, हम आगे-आगे भागे
कई रातें बीत गईं हमारी, जागे ही जागे
भागते रहे हम, पैरों में लिपटे रहे धागे
चौकी के दरोगा ने हमें किया गिरफ्तार
मनोज पर पड़ी सैकड़ों डंडों की मार
दीवान जी ने चौकी में किया मेरा बलात्कार
अब कहिये मैं किससे लगाऊं गुहार
आँखों से बह रही खून की धार
है कोई धरती पे मानुख जो सुने पुकार!
10. गाँव मंगराँव
जंगल था गाँव के बहुत ही पास
फिर भी लोगों की घुटती थी सांस
मौसम में उमस जहरीली हवा बतास
धीरे धीरे छोड़ रहे घर लोग हो उदास
गाँव से आते-जाते पड़ता था जंगल
वही रास्ते में मारे गये बाबा शिवमंगल
गाँव के भीतर भी होता हर बात में दंगल
लगता सबके भीतर ही आ बैठा है जंगल
जंगल में थे बाघ शेर भालू चीता
फिर क्यों डरती थी गाँव में गीता
खेत से दुपहरी में चिल्लाई सीता
सुना कि गाँव का ही है कोई चीता
गाँव में कुत्ते भी थे बहुत से खूंखार
औरत बच्चे गरीब की होती चीत्कार
पागलपन लोगों के सिर गजब सवार
पूजनीय वे, जो करते हत्या बलात्कार
पहले तो नहीं था भैया ऐसा गाँव
पागल कुत्ते ने काटा ठांव-कुठांव
कट रहा वही अब जो देता छाँव
क्या हो गया तुझे मेरे गाँव मंगराँव
किसान सुदीप को जंगल का बाघ खा गया
बच्चों का स्कूल आना-जाना मुहाल हो गया
अमन-चैन फरार कोलाहल बहाल हो गया
देखते-देखते मेरे गाँव का क्या हाल हो गया
शहर से चलकर गाँव में जब से बिजली आई है
अँधेरा इतना बढ़ा दिखता न अब भाई को भाई है
लिहाज कहाँ अब ज़रा सी बात में होती हाथापाई है
पैसा हुआ घर का मुखिया ओसारे में रोते बाबू माई हैं।
11. दुख हरो हे बनवारी!
जिला कुशीनगर गाँव भेड़िहारी
दुख सुनो हरो हे बनवारी!
मैं लछमीना चार बच्चों की महतारी
हूँ दुख-दरिद्रता की मारी!
मेरे पिया हैं मजदूर हरेश पटेल
धधकत आग गरीबी की रहे वे झेल
कभी कम पड़ता नून और कभी तेल
कपड़ा रोटी झोपड़ी प्रभु बहुत झमेल
कभी वे ईंट ढोते, कभी रिक्शा चलावत हैं
बड़कन के घर हम जात, वे बरतन मंजवावत हैं
कभी देके दो रोटी साग, चाची पैर दबवावत हैं
हमरे बड़का से दूबे चाचा दलान में झाड़ू लगवावत हैं
हमरे पिया गरीब मगर शाम को देसी पीते हैं
बहुत समझावा छोड़त नाहीं, कम कभी बेसी पीते हैं
कहत ऊ हमसे, तू ना समझेगी कैसे हम जीते हैं
भभका मारत मुँह पिया के, रोज लिपट छाती पीते हैं
दुख-दरद की कथरी हम दोनों रात मिलकर सीते हैं
अबकी जो दिन चढ़े पैर हुए मेरे भारी
राम राम कह कटे महीने दिन रातें सारी
प्रसव के दिन हस्पताल में थे नहीं डाक्टर सरकारी
पिया को मालूम था हैं एक प्राइवेट डॉक्टर संगीता तिवारी
बच्चा हो गया प्यारा बिल हुआ चार हजार
पिया खुश क्या होते, हाथ में पकड़ लिए कपार
हो बनवारी! हमने न देखे कभी चार हजार
चार हजार हो बनवारी, पूरे चार हजार
डॉक्टरनी भूतनी, अपने पैसे हेतु छाती पर सवार
महेन्दर बाबू जी की बहिनी लखनऊ की रहने वाली
बहुत धनिक हैं, मोटी चेन गले की बड़ी-बड़ी कनबाली
पिया से माँगा मंझले को, करेगा मेरे घर की रखवाली
पिया क्या कहते, चट से बीस हजार नोट वे गिन डालीं
मंझला मेरा बहुत ही प्यारा, सुनने वाला हर बात
अस्पताल से लौटी, न दिखा तो सुलगा मेरा गात
खून खौल गया, मचा दिया मैंने घर बाहर उत्पात
मेरा मंझला जिगर का टुकड़ा, कैसे रहती मैं शांत
बहिनी जो खरीदीं हमरे बाबू को, थाने चली गईं
अपने रुपयै का गाना, हर जगह सुनाने चली गईं
मुझे चुप शांत कराने को, सिपैया बुलाने चली गईं
सिपैया की इंसानियत, बिकने हाट दुकाने चली गई
सिपैया के नाती हम पर चिल्लाया, पिया पे डंडा चलाया
रुपया बीस हजार गिना और पाँच अपने पजामे में घुसाया
हमरे मंझले को लखनऊ भिजवाया और हमें ही धमकाया
हम किससे कहें दरद बनवारी, हमें सबने कुचला-सताया।
12. विधायक चाचा
मेरे चाचा हैं मिलन चौक से विधायक
समझो ऐसे, जैसे फिल्मों के खलनायक!
अरे नहीं! उनकी मूँछें क्या होंगी चौड़ी
वे तो मूँछमुंडा हैं
हाँ भैया! मगर शहर के बड़े गुंडा हैं
अरे मोटे-ताजे तो बिलकुल नहीं हैं
हैं जैसे होती मरियल बिल्ली
पर उनकी हेकड़ी से हिलती दिल्ली
चाचा का बहुत ही ज्यादा चलावा है
मिलता हर पार्टी से उनको बुलावा है
पार्टी तो उनकी बस एक छलावा है
देखते केवल किधर दूध और लावा है
हथियारों के साये में चाचा नहाते हैं
कई कई रखैलें बदलकर नचाते हैं
अपराधियों पे पैसे पानी सा बहाते हैं
कितना कमाते हैं जो इतना लुटाते हैं
उनके पास तो कई कई गाड़ियाँ हैं
चाची को पसंद बनारसी साड़ियाँ हैं
चाचा को मिलता बहुत ज्यादा उपहार है
उनकी फैमिली की तो बहार ही बहार है
चंदा या वसूली उनको हर तरह स्वीकार है
उनका दीपक तो नंबर वन का मक्कार है
मत बोलो भैया तुम इतना बढ़-बढ़कर
हुमच देंगे चमचे, तुम्हारी छाती पर चढ़कर
उनका लगा रहता बेल और जेल का चक्कर
किसकी शामत आई कौन ले उनसे टक्कर
तलवे सहलाने लगा, देखकर चाचा लेटे हैं
कहने लगे, राजू हम भी गरीब के बेटे हैं
बहुत मेहनत से ये सारी दौलत समेटे हैं!
कवि हरे प्रकाश उपाध्याय, बिहार के आरा जनपद के एक गाँव बैसाडीह में 05 फरवरी 1981 को जन्म। प्रारंभिक शिक्षा जनपद के ही गाँवों में। बाद में वाया आरा-पटना इंटर व बीए (समाजशास्त्र प्रतिष्ठा)। फिर दिल्ली में कुछ समय फ्रीलांसिंग, छोटी-मोटी नौकरी। कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन सहयोग। पत्रकारिता के कारण फिर लखनऊ पहुँचे। कुछ समय नौकरी के बाद, फिर 2014 से फ्रीलांसिंग व ‘मंतव्य’ (साहित्यिक पत्रिका) का संपादन-प्रकाशन। सन् 2017 के अंत में ‘रश्मि प्रकाशन’ नामक प्रकाशन संस्था की शुरुआत।
पुस्तकें : 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से पहला कविता संग्रह ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’, फिर वही से 2014 में पहला उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ तथा 2021 में कविता संग्रह ‘नया रास्ता’ प्रकाशित।
सम्मान-पुरस्कार : कविता के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार (दिल्ली), हेमंत स्मृति सम्मान (मुंबई), कविता-कथा के लिए युवा शिखर सम्मान (शिमला), साहित्यिक पत्रकारिता के लिए स्पंदन सम्मान (भोपाल), उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ युवा लेखन पुरस्कार (दिल्ली)।
पता : महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास, कृष्णानगर, लखनऊ-226023
सम्पर्क: मोबाइल : 8756219902
टिप्पणीकार चित्रा पंवार, समकालीन कविता का जाना माना नाम हैं।