प्रज्ञा गुप्ता
प्रकृति का सानिध्य किसे प्रिय नहीं। प्रकृति के सानिध्य में ही मनुष्य ने मनुष्यता सीखी; प्रकृति एवं जीवन के प्रश्नों ने ही मनुष्य को कविताई सिखायी। आधुनिक हिंदी कविता की गौरवशाली परंपरा में प्रकृति, जल ,जंगल, जमीन के प्रश्न आरंभ से हैं। आज के दौर में प्रकृति, जल, जंगल जमीन के प्रश्न और भी मुखर हो उठे हैं क्योंकि सबसे ज्यादा ख़तरे में यही हैं। आज प्रकृति के साथ जिस तरह से छेड़छाड़ किया जा रहा है उसका परिणाम है कि विश्व के कई इलाकों में आदिवासियों का अस्तित्व ख़तरे में है। आज मानवेत्तर प्राणी संकट में है, नदियाँ सूख रही हैं, जंगल काटे जा रहे हैं। उद्योगों की स्थापना के लिए प्रकृति का दोहन हो रहा है ऐसे में ग्रेस कुजूर लिखती हैं-
एक बूंद पानी के लिए
तड़प-तड़प जाएंगी
हमारी पीढ़ियां
इसीलिए
मैं सच कहती हूं
हे समय के पहरेदारों !
तुमने अवश्य सुना होगा
एक वृक्ष की जगह
लगाओ दूसरा वृक्ष
क्या कभी सुना है
एक पर्वत के बदले
उगाओ दूसरा पर्वत
ग्रेस कुजूर 1980 के दशक से ही लेखनरत हैं। झारखंड गठन के बाद उनकी कविता ‘एक और जनी शिकार’ काफी चर्चित रही। अपने समय के यथार्थ एवं विडंबनाओ को प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त करती हुई ग्रेस कुजूर की कविताएँ बदलाव की उम्मीद जगाती हैं। जल, जंगल, जमीन और जीवन का संघर्ष आज भी कायम है। जन्मना झारखंडी होने के कारण अपने प्रदेश का दोहन कवयित्री को आहत करता है लेकिन उनके जो प्रश्न है वह वैश्विक है। पूंजीवादी व्यवस्था और भूमंडलीकरण की जाल में हमारा जीवन आज बुरी तरह प्रभावित है। इस बात से कवयित्री का मन व्याकुल है वह इतिहास के माध्यम से युवाओं को जागृत करती हैं-
और अगर
अब भी तुम्हारे हाथों की
अंगुलियां थरथराई
तो जान लो
मैं बनूंगी एक बार और
‘सिनगी दई’
बांधूंगी फेटा
और कसेगी फिर से
‘बेतरा’ की गांठ
नहीं छुपेगी अब
किसी ग्वालिन की कोई साठ-गांठ
सच!!
बहुत जरूरत है झारखंड में
फिर एक बार
एक जबरदस्त
जनीशिकार।
अपनी कविता में वह अपनी पुरखा सिनगी दई, कैली दई और चंपा दई को याद करती हैं जिनके नेतृत्व में आदिवासी समुदाय ने तीन बार विजय प्राप्त किया था और रोहतासगढ़ के किले को बचाया था।
आदिवासियों का पलायन ,जल स्रोतों पर संकट एवं पर्यावरण संकट और आतंकवाद इत्यादि को लेकर ग्रेस कुजूर की चिताएँ बहुत गहरी हैं। मानवता पर गहराते संकट की कथा उनकी कविताओं में अभिव्यक्त हैं।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उससे उत्पन्न पर्यावरणीय असंतुलन आज के समय का सबसे बड़ा अभिशाप है ।आज हमारे देश की अधिसंख्य नदियाँ खतरे में है, पहाड़- पर्वत तोड़े जा रहे हैं ; ऐसे में ग्रेस लिखती हैं –
हे संगी !
क्यों घूमते हो
झूलाते हुए खाली गुलेल
जंगल-पहाड़, नदी-ढ़ोढ़ा
तुम्हारी गुलेल का गोढ़ा
डूबते हुए लाल सूरज की तरह
अटक गया है
टहनी में
क्या तुम्हें अपनी धरती की
सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही?
क्या अब भी निहारते हो
अपने को
दामोदर और स्वर्ण रेखा के
काले जल में ?
किसने की है चोरी
भिनसरिया में ढेंकी के संगीत की
और उखाड़ी है किसने
‘आजी’ के जाता की कील!
ग्रेस कुजूर की कविताओं में प्रतिरोध के स्वर हैं और वह वैश्विक रूप से अपने समय की विडंबनाओ को प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं की एक खूबी यह है कि उसमें संघर्ष और सपने साथ हैं वह लिखती हैं-
ईंटों के भट्टों में
सीझ गई जिंदगी
रोटी की खोज में कहां नहीं भागी
बांहें हो गईं कमान सब अंगुलियां तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
अंगनई और डमकच
हवा में नहीं बोल रहा
भूखा है शहर गांवों को लील रहा
गलियां हो गईं कमान सब आंगन तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो।
आदिवासी समाज की कुरीतियों पर भी वे ध्यान आकृष्ट कराती हैं ।गांव की काकी को अकेला जान, कोई उनका छप्पर नहीं छारता तब काकी खुद से अपना छप्पर छाने चढ़ जाती है। उसका छप्पर छारना कहीं से गलत नहीं; लेकिन उसने दंड तो ज़रूर भुगता होगा। यहाँ पर निर्मला पुतुल की कविता ‘कुछ मत कहो सजोनी किस्कू’ भी याद आती है। आदिवासी कवयित्रियों ने मिलकर सामाजिक कुरीतियों पर धावा बोला है और आज का समय थोड़ा बदला है इसमें दो राय नहीं। हिंदी कविता के माध्यम से आदिवासी कवयित्रियों ने अपने समय को परखने की कोशिश की है और उनकी कलम की ताकत है कि आज बदलाव भी देखा जा सकता है। ग्रेस कुजूर की कविताओं मे ‘पानी ढोती औरत का दर्द है’, ‘नन्ही दूब’ की कसक है लेकिन ‘धार के विपरीत’ चलने का हौसला भी है। और है बहुत सारी आग !
ग्रेस कुजूर की कविताएँ
1. एक और जनी-शिकार
एक
कहां है वह फुटकल का गाछ
जहां चढ़ती थी मैं
साग तोड़ने
और गाती थी तुम्हारे लिए
फगुआ के गीत
जाने किधर है
कोमल पत्तियों वाला
कोयनार का गाछ
जिसके नीचे तुम
बजाया करते थे / मांदर और बांसुरी?
कहां गई वह सुगंध
महुआ और डोरी की
गूलर और केयोंद की
कहां खो गया बांसों का संगीत
और जाने कहां उड़ गई
संधना की सुगंध ?
सखुआ की पत्तियों में
किसने किए हैं सुराख
कैसे बीनूंगी उनकी पत्तियां
कैसे सीऊंगी दोना और पतरी
अब तो बढ़ने लगे हैं
दातुन भी / टेढ़े-मेढ़े।
दो
संगी रे –
कितने चमकते थे
पटवा में खोंसे हुए तुम्हारे
उजले पंख-बगुले के
और कितना लहराता था
अखरा में नाचते वक्त
तुम्हारी ‘तोलोंग’ का फुदना
कितना सुकून पैदा करती थी
रात के सन्नाटे में
मांदर की थाप
और हवा में घुलते
अंगनई और डमकच के गीत
अब कहां है वह अखरा?
किसने उगाए हैं वहां
विषैले नागफनी
बार-बार उलझता है जहां
तुम्हारी ‘तोलोंग’ का फूदना
क्यों उदास है आज
‘पटवा’ के उजले पंख?
हवा में नहीं तैरते अब
‘अंगनई’ और ‘डमकच’ के गीत
सिल गए हैं होंठ मेरे
धतूरे के कांटों से…..
मेरा जूड़ा बहुत सुना लगता है संगी —
सरहुल के फूलों बिना
और लगता है
कहीं अटक गया है
किसी डाल पर ‘करमा’ का गीत
नहीं सुनाई पड़ता है अब
बारिश की बूंदों का वह
पत्तियों से झरता हुआ संगीत
नहीं है ‘टोकी’ में अब
‘पियर’ और ‘पिठोर’ की मिठास
न ‘खुखड़ी’ न ‘रुगड़ा’
न घोंघी और केकड़ा
नहीं बुझती अब प्यास
‘कादो’ हो गया है
‘डाड़ी’ और ‘चूआं’ का पानी
संगी रे –
न जाने कौन से देश उड़े
क्षितिज के पार वे
हर खेतों में विचरते बगुले
नहीं खेलती झूमर अब
‘डोभा’ के पानी में
‘गीतू’ और ‘बुदु’ मछलियां
फंसने लगे हैं क्यों/ ‘कुमनी’ में
‘ढोंढ़’ बहुत दूमुंहे?
और बार-बार फिसलने लगी है क्यों
हथेलियों से जिन्दगी यहां
मांगुर की तरह?
हे संगी !
क्यों घूमते हो
झूलाते हुए खाली गुलेल
जंगल-पहाड़, नदी-ढ़ोढ़ा
तुम्हारी गुलेल का गोढ़ा
डूबते हुए लाल सूरज की तरह
अटक गया है
टहनी में
क्या तुम्हें अपनी धरती की
सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही?
क्या अब भी निहारते हो
अपने को
दामोदर और स्वर्ण रेखा के
काले जल में ?
किसने की है चोरी
भिनसरिया में ढेंकी के संगीत की
और उखाड़ी है किसने
‘आजी’ के जाता की कील?
‘पुटुस’ तक को
उखाड़ कर ले जाएंगे लोग
और तब
तुम खोजोगे उसकी बची हुई जड़ों में
अपना झारखंड
हंड़िया और दारू से सींच कर
क्या किसी ने उगाया है –
कोई जंगल?
हे संगी !
तानो अपना तरकस
नहीं हुआ है भोथरा अब तक
‘बिरसा आबा का तीर’
कस कर थामो
टहनी पर अटके हुए
सूरज के लाल ‘गोढ़ा’ को
गला दो अपनी हथेलियों की
गर्मी से
और फैला दो झारखंड की
फुनगियों पर
भिनसरिया में उजास
चटकने से पहले
बेध डालो
हां, बेध डालो
दामोदर और स्वर्ण रेखा को
काली नागिन बनने से पहले
कि देख सको तुम
उसके निर्मल जल में
सिर्फ
मछली की आंख
अर्जुन की तरह
और अगर
अब भी तुम्हारे हाथों की
अंगुलियां थरथराई
तो जान लो
मैं बनूंगी एक बार और
‘सिनगी दई’
बांधूंगी फेटा
और कसेगी फिर से
‘बेतरा’ की गांठ
नहीं छुपेगी अब
किसी ग्वालिन की कोई साठ-गांठ
सच!!
बहुत जरूरत है झारखंड में
फिर एक बार
एक जबरदस्त
जनी-शिकार।
2. हे समय के पहरेदारों !
हे समय के पहरेदारों !
पर्वतों की फिज़ाओं से
आती आवाज़ों को
कभी सुना है तुमने
जिनकी गुफाओं में
प्रकृति सोती है
जहां कंदराओं में
हवाएं झूलती हैं
खामोश है जहां
ऋषि-मुनियों की
मौन भाषाऐं
और जुड़ी है
वन-प्रांतर की
अनेक कथाएं
जिनकी तराइयों में
बहती है जीवन की
कई धाराएं
क्या तुमने कभी देखा है
पर्वत को रोते ?
क्या कभी सुनी है
उसके हृदय की आवाज़
क्या कभी देखा है
उसका टुकड़े-टुकड़े होकर
बिखर जाना?
इसके बावजूद
देखी होगी तुमने
उसके हृदय की
निर्मल धारा
सुनी होगी उसकी
जल तरंग
जिस नदिया के किनारे
तुमने बजाई होगी
अपनी राधा के लिए
सौतन बांसुरिया
जिसकी डगरिया पर
फोड़ी होगी उसकी गगरिया
आज तुम
अपने ही स्वार्थ के लिए
पर्वत के पत्थर
तोड़ रहे हो
बारूदी गंध से
जीवन को मरोड़ रहे हो
क्या कभी नदिया
लौट कर पूछेगी
अपने खंडहर होते
पर्वतों से –
कि कहां गया
उनका उद्गम ?
कहां गया उनका वैभव?
तब पर्वत रोएगा
सूख जाएंगी उसकी धाराएं
न किसी मोहन की बांसुरी
तड़पेगी नदी किनारे
अपनी राधा के लिए
और न फूटेगी
कोई गगरी
न कोई पकड़ेगा
गांव का बालक
नदी के रेत में
‘टेंगरा’ और ‘गीतू’ मछरी
एक बूंद पानी के लिए
तड़प-तड़प जाएंगी
हमारी पीढ़ियां
इसीलिए
मैं सच कहती हूं
हे समय के पहरेदारों !
तुमने अवश्य सुना होगा
एक वृक्ष की जगह
लगाओ दूसरा वृक्ष
क्या कभी सुना है
एक पर्वत के बदले
उगाओ दूसरा पर्वत
करोड़ों साल में बने
इन पर्वतों को
तुम्हारे बारूदी मन ने
फिर-फिर तोड़ा है
और कुंवारी हवाओं को
हर बार छेड़ा है-
जिसके धूल-कणों ने
तुम्हें तो मुंह छुपाना
भी नहीं आता
शायद इसलिए
उगा रहे हो धूल
छुपाने के लिए मुंह
शुतुरमुर्ग की तरह
इसीलिए फिर कहती हूं
न छेड़ो प्रकृति को
अन्यथा यही प्रकृति
एक दिन
मांगेगी
हमसे
तुमसे
अपनी तरुणाई का
एक-एक क्षण
और करेगी
भयंकर…. बगावत
और तब
न तुम होगे
न हम होंगे !
3. बौना संसार
जब-जब औरत को
धरती के नीचे तक दबना पड़ा है
तब-तब
अंकुरित हुई है वह
जब कभी तुम हारे थके
पथिक की तरह
आगोश में आए हो उसके
तब-तब बरगद सी हुई है वह
लेकिन तुम्हें उसका बरगद होना
अच्छा नहीं लगता
तुम-
कैद कर देते हो उसे-
गमले में किसी बोनसाई की
मानिंद
उसके बावजूद वह फूलती है
फलती है
और तुम उसके
इसी बौनेपन में कितने खुश हो
ओह……….
कितना बौना है यह आदमी
और उसका बौना संसार !
4. मेरा आदम मुझे लौटा दो
दोनों थर-थर कांप रहे थे
दीवारों को कान लगाए
बड़े गौर से जांच रहे थे
ईंट पत्थर एक-एक कर
ढह रहे थे
या कि ढहाए जा रहे थे
लेकिन दोनों
तहखाने के
अंधेरे कोने में दुबके
सांसें भींच रहे थे
कुदालों और गैंतों की
हर आवाज पे
रुक-रुक जाता था
जिस्मानी नसों का लहू
बाहर भयानक शोर था
और थी हवा में तलखी
हजारों जोड़ी मुट्ठियां
इन मुट्ठियों में
ताकत थी या आक्रोश
यह तो नहीं मालूम
लेकिन वे नहीं थे
जो तहखाने के नीचे
एक दूसरे से लिपटे
थर-थर कांप रहे थे
और अचानक भरभरा कर
इतिहास एक बार फिर
सूने पृष्ठों की तरह
पसर गया धरती पर
लिखे जाने के लिए
एक बार और
आज फिर हो रही है खुदाई
गैंते और गंड़ासे
फिर चल रहे हैं
लोग खड़े हैं सांस रोक
आज कंपकंपी तहखाने में नहीं
बाहर है-
इतिहास ऊपर नहीं
नीचे है
मुट्ठियां आज हवा में
नहीं तैर रहीं
बल्कि चुपचाप
देह में सरगोशियां कर रही है
इसके साथ ही उभर आए
मिट्टी के ढेर पर
एक दूसरे से गुंथे हुए
दो कंकाल
भीड़ हतप्रभ
उभर रहा था एक ही सवाल
कौन राम? कौन अल्लाह?
कौन किसका कंकाल
तभी भीड़ को चीरते हुए
बेतहाशा हांफते हुए
‘हव्वा’ एक बार फिर
चिल्लायी थी
“मेरा आदम मुझे लौटा दो !”
“मेरा आदम मुझे लौटा दो !”
5. कलम को तीर होने दो
शाखें हो गईं कमान सब कोंपल तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
उगल रही धरती आग है
धुंआ हमने पिया है
बूंद-बूंद को तरसे लोग
बूंद बहा कर जीया है
नदियां हो गईं कमान सब पर्वत तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
वे लूटने-लुटाने आए
हम गए परदेश
धरती उजड़ी जंगल उजड़े
रह गया क्या शेष?
झाड़ियां हो गईं कमान सब बिरवे तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
कोयले की धूल में सोए हैं पांव
कांधों पे अपने ही
ढोए हैं गांव
देह हो गई कमान सब आहें तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
ईंटों के भट्टों में
सीझ गई जिंदगी
रोटी की खोज में कहां नहीं भागी
बांहें हो गईं कमान सब अंगुलियां तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
अंगनई और डमकच
हवा में नहीं बोल रहा
भूखा है शहर गांवों को लील रहा
गलियां हो गईं कमान सब आंगन तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
क्या कर लेंगी उनका
बंदूक और गोलियां
लांघते ही देहरी
हजारों कहानियां
नस-नस हो गईं कमान सब लहू तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो
6. अमन की संजीवनी
याद आता है मुझको वो दिन
जब पहली बार तुम सरके थे
पेट के बल मचल-मचल कर
कई बार तुम लुढ़के थे
तब हम सब बहुत हंसे थे
सामने रखी गेंद
जब कभी तुम लेने को मचलते
लुढ़क जाती थी वो आगे की ओर
तब तुम खीझ कर
और तेजी से सरक जाते थे
बटालिक-द्रास और कारगिल की
पथरीली पहाड़ियों पर
आज सरकते देख तुम्हें
याद आता है मुझे वह दिन
जब पहली बार तुम सरके थे
बस्ते का बोझ उठाए
तुम्हारे मासूम कदमों ने
क्या कभी सोचा होगा
कि कल मीलों चलना है?
लेकिन आज तुम्हारी पीठ पर
बेस्ट का बोझ नहीं
बोझ है तो सिर्फ थोड़े से गर्म कपड़े
खान की कुछ सूखी चीजें
कुछ गोली, कुछ बारूद
कंधे पर है भारी बंदूक
इंच दर इंच सरकते
दुश्मनों की गोलियां से बचते
छिल गए हैं तुम्हारे कुहनी और घुटने
रिसते हुए तुम्हारे जिस्म के लहू ने
द्रास कारगिल और बटालिक के
पत्थर-पत्थर पर
लिख डाले हैं तुम्हारे नाम
सरहद की तमाम पहाड़ियों को
सींचा है तुम्हारे लहू ने इतना
और उगाई है हम सब के लिए
अमन की वो संजीवनी बूटियां
कि मूर्छित किसी लक्ष्मण के लिए
इन पहाड़ियों को उठा तो क्या
हिला भी नहीं सकता
कोई बजरंग बली !
7. आग
अनुकम्पा के रूप में
एतवरिया उराइन
नहीं चाहती
दफ्तरों में बाबुओं को पानी पिलाना
चाय लाना
ना ही चाहती है वह
अफसरों की फाइलें ढोना |
वह दफ्तर के लॉन में
सिर झुकाए, घूंघट काढ़े
नहीं चाहती रोपना
हरी-हरी दूब
और न ही चाहती है
छंटनीग्रस्त होना।
इसीलिए
एतवारिया उराइन चलाती है
‘शावेल’
शर्ट-पैंट, टोपी पहने
ओपन माइंस में
हर विस्फोट के बाद फुर्ती से
‘शावेल’ की स्टेयरिंग सम्भालती
टनों कोयला उठाती
‘इन-पिट क्रशर’ में डालती
एतवरिया
सुन नहीं पाती
अपनी चूड़ियों की खनक
नहीं बिठा पाती सही जगह
पसीने से भींजी माथे की बिंदी।
‘इन- पिट क्रशर’ से निकल
‘कन्वेयर-बेल्ट’ पर जाते
देखती है छोटे टुकड़े कोयले के
सोचती है
वह भी कभी साबुत थी
लेकिन
जानती है वह यह भी
छोटे टुकड़ों में ही
जल्दी लगती है आग |
8. धार के विपरीत
ऐसा क्यों होता है
कि गाँव की काकी के खेतों में
कोई हल नहीं चलाता
और घर के उसके टूटे छप्पर से
बारिश के दिनों में
झरता है पानी
झर… झर…
लेकिन कल जोरदार बारिश हुई है
नदी नालों में बहते
पानी की तेज़ धार के विपरीत
चढ़ आई हैं मछलियाँ
उसके आँगन तक
‘छत चढ़ने का अधिकार नहीं’
यह जानते हुए भी
चढ़ जाती है काकी
छत छारने….।
9. नन्हीं हरी दूब
कैंप में आने से पहले
चाहती थी लड़की
अपने ‘बाँस- मन’ में
इंद्रधनुष-सा परचम लहराना
चाहती थी उड़ना
अनन्त आकाश में
सेमल के फाहे-सा
अन्तस में एक नन्हा बीज समेटे
उगना चाहती थी
घेरों के किनारे-किनारे
पंक्तिबंद्ध होकर
और खिलना चाहती थी
सुर्ख लाल रेशमी फूलों की तरह।
लेकिन वह हतप्रभ थी
जब गौरव उद्घोष के दरमियाँ
पेट फाड़ ‘भ्रूण’
उछाले गये थे हवा में
अट्टहास के साथ
लेकिन गोलियों से छलनी हुए
भ्रूण के रक्तिम अंश
कल गाँधी की धरती से माँगेंगे
अपने ‘अजन्मे’ का हिसाब
और ढूँढेंगे कर्ण की तरह अपने मूल वंश की जड़ !
लड़की ! उठो
उठो, जागो
बता दो कि तुम
अन्तहीन क्षितिज-सी पड़ी
नहीं रह सकती
मिट्टी और धूल के
समन्दर में
स्वतः किनारे नहीं लग सकती
इसीलिए जागो
जागो !
लड़की ने करवट ली
उसके नीचे
नन्हीं हरी दूब
तब भी सुरक्षित थी।
10. पानी ढोती औरत
कितना पानी पियोगे सूरज
कुछ भी पीना
लेकिन उसके घड़े का
पानी मत पीना।
मीलों चलकर
रेत नदी की खोदकर
पानी ढोती औरत
सुबह के कैनवास पर
बहुत अच्छी लगती है|
उसके सिर पर
गोल-गोल घड़ा
जैसे पृथ्वी के क्षितिज पर
सुबह का सूरज खड़ा
धीरे-धीरे ऊपर उठते
ओ प्यासे सूरज
कुछ भी पीना |
लेकिन उसके घड़े का
पानी मत पीना
तमाम उम्र पानी ढोती औरत
पता नहीं कब उसका
बचपन बीता
यौवन बीता
और बीत गया सारा जीवन
पर घड़ा न रीता उसका |
पानी ढोती औरत
जाने कब घूंघट की ओट में
उगा ली हैं चेहरे पर अपने
घाटियों सी तमाम झुर्रियाँ
पी सको तो उनकी
घाटियों-सी झुर्रियों का
छलछलाता पसीना पीना
लेकिन उसके घड़े का
पानी मत पीना |
एक-एक बूँद के लिए
मीलों चलती
छाले पैरों में उगाती
चली आ रही सदियों से
ढोते-ढोते पानी
हो गई है
खुद भी पानी औरत।
तरलता, शीतलता, कोमलता से भरी
कांप जाती लेकिन छूने भर से
पत्थर बनकर राह में उसकी
ओ सूरज! मत पड़ जाना
औरत पानी है, जानती है बहना
रास्ता अपना
निकाल ही लेती है |
कितना पानी पियोगे सूरज?
पीना है तो
उसका पसीना पीना
आँखों के आँसू पीना
और पी जाना उसे समुचा |
लेकिन कल जब आना
बादलों के संग आना
पानी ढोती औरत
उठाएगी तुम्हारे लिए
फिर एक बार
घूंघट अपना।
कवयित्री ग्रेस कुजूर। जन्म : 13 अप्रैल 1948, ईटकी, राँची, झारखण्ड। शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), बी.एड., राँची विश्वविद्यालय, राँची से। कार्य क्षेत्र : आकशवाणी भागलपुर, राँची, पटना में केन्द्र निदेशक। सितम्बर 2001 से 2008 तक आकाशवाणी महानिदेशालय, प्रसार भारती, नई दिल्ली में उपमहानिदेशक। अप्रैल 2008 में उपमहानिदेशक पद से सेवानिवृत। कविताएँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ’, ‘कलम को तीर होने दो’, ‘दूसरी हिन्दी’ पुस्तकों में कविताएँ संकलित। 2002 में रमणिका गुप्ता के नेतृत्व में रामदयाल मुण्डा, हरिराम मीणा प्रभाकर तिर्की के साथ आदिवासी साहित्य के लिए बने मंच में काम किया। विदेश यात्रा : 1996 में “रेडियो प्रोग्राम मैनेजमेंट” के तहत “रेडियो डोचेवेले”, जर्मनी से व्यावहारिक और सैद्धान्तिक प्रशिक्षण प्राप्त, ईरान -2007 में बतौर प्रोग्राम इंचार्ज “रेडियो स्लोगन पब्लिसिटी” का पहला पुरस्कार ऑल इंडिया रेडियो के लिए प्राप्त किया आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रसारण की सभी विधाओं के लिए नीति निर्धारण, शासकीय प्रबंधन भी संभाला एवं आकाशवाणी केन्द्रों के निरीक्षण हेतु कन्याकुमारी से अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप, लेह लद्दाख से नॉर्थ-इस्ट सहित सभी राज्यों में निरंतर भ्रमण। सम्प्रति : सेवानिवृति के पश्चात् स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : 9470368005; ईमेल : gracekujur13@gmail.com
टिप्पणीकार प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।
संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com