युवतम कवि गौरव पाण्डेय की ये कविताएँ पढ़कर अचरज होता है कि इतनी महीन संवेदनाओं वाला यह कवि अब तक कहाँ गुम था! घर-परिवार और रिश्ते-नातों को गौरव ने इतने कलात्मक और मार्मिक अंदाज़ से अपनी कविताओं में पिरोया है कि अचम्भा होता है।
यह युवा कवि ज़बर्दस्त सर्जनात्मक प्रतिभा का धनी है जिसे छोटी उम्र में ही रिश्तों की बारीक समझ है। यह कवि भारतीय परिवेश के रिश्तों पर पाश्चात्य भाषा की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहता। यह कोई दक्षिणपंथी शुद्धतावादी आग्रह न होकर वह जायज प्रतिरोध है जो अपने समय-समाज को बाजार और क्षणवाद से बचा लेना चाहता है-‘ इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ/ षड़यंत्र रचती भाषा की जड़ों में/ मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ।’‘बचे हुए गाँव की ओर’ कविता में मानो कवि वह सब कुछ बचा लेना चाहता है जो कथित विकास और शहरीकरण की दौड़ में हमारी मुट्ठियों से रेत की तरह फिसलता जा रहा है।
‘वापसी’ एक अद्भुत कविता है जिसमें केवल नाॅस्टेल्जिया नहीं बल्कि अपने रिश्तों के स्मरण का उत्सव है। घर-वापसी का ऐसा मार्मिक चित्रण समकालीन कविता में लगभग दिखता नहीं। ‘माँ गोरैया होती है’ कविता में कवि ने रिश्तों को असीमित विस्तार देते हुए उसे घर की कैद से मुक्त कर हमारे समय के स्पंदनों में तब्दील किया है।
‘एक कमसूरत लड़की का एकालाप’ और ‘ससुराल में झूला’ स्त्री की वेदना को गहराई से व्यक्त करती कविताएँ हैं। युवा कवि ने स्त्री- विमर्श के उन अनछुए पहलुओें को सार्थक अभिव्यक्ति दी है जो आमतौर पर अदेखे रह जाते हैं। ‘पति-पत्नी और प्रेम’ और ‘चाय उबल कर बहने लगती है’ जैसी कविताएँ विवाह-पूर्व प्रेम-सम्बन्धों के संक्षिप्त मगर मार्मिक आख्यान हैं। गोया कोई फिल्म चल रही हो और क्लाईमेक्स पर दर्शक रूंधे गलों के साथ बैठे हों।
सहृदय पाठक इन कविताओं को पढ़ते हुए कविता के नायक-नायिका के प्रति सहानुभूति से न भरकर उनके पूर्व-प्रसंगों के पक्ष में खड़े होते दीखते हैं। यही इन कविताओं की ताकत है। ‘कविता पाठ’ जैसी छोटी कविता में पति-पत्नी के अंतरंग क्षणों को बेहद मार्मिकता के साथ संजोया गया है। ऐसे क्षणों को काव्यात्मक संवेदनों में तब्दील कर देना कविता को नए अर्थों से भर देना है।
‘पहचान’ कविता के क्या कहने! बचपन की मासूमियत और निश्छल प्रेम की पहचान है यह कविता! एक छोटी-सी खिलंदड़ी घटना कितनी बड़ी कविता हो सकती है, इस कविता से सीखना चाहिए। ‘बहन गणित के सवाल हल करती है’ कविता में स्त्री की नियति और प्रतिरोध के बीच का अंतर्द्वंद है। चाहने और होने के बीच की दूरी एक असलियत है जिसके तापमान को यह युवा कवि पहचानता है और एक व्यावहारिक, तल्ख एवं मार्मिक दृश्य रचता है। ‘जीवन में न सही’ एक अद्भुत जिजीविषा से भरी कविता है।
यह कविता बाहृलोक के जीवन को सर्जना की आंतरिक जिजीविषा की ऑक्सीजन प्रदान कर रही है-‘तुम्हारी कविताओं की तितलियाँ/ उड़-उड़ आ बैठेंगी/ मेरी कविताओं के फूलों पर ’। ‘लेखक जल्दी में था’ कविता में समूचे अर्थ-तंत्र पर एक कटाक्ष है जो उन स्थितियों की ओर संकेत है जब तत्व पदार्थ में तब्दील होने लगता है।
मित्रो! जब महीनतम संवेदन भाषा, शिल्प, कथ्य आदि की झीनी-सी चादर को भेद कर सीधे पाठक-मन में स्थानांतरित हो जाएँ, कविता तभी संभव होती है। युवा कवि गौरव पाण्डेय की ये कविताएँ कविताएँ न होकर मानवीय रिश्तों की पहचान हैं जिन्हें किसी आलोचना के पहचान-पत्र की जरूरत नहीं है। यह टिप्पणी तो मात्र वह झुरझुरी है जो गौरव की इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे हुई।
गौरव पाण्डेय की कविताएँ-
1. मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ
मैं दुनिया भर की ‘माॅम’ को
वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ
चाहता हूँ ‘डैड’ हो चुके पिता
आॅफिस से लौट
आँगन में सेम के बीज रोपें
‘सिस’ हो चुकी बहन
और ‘ब्रो’ बन चुके भाई
दीदी भी ‘दी’ हो गई हैं
यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास
इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ
षड़यंत्र रचती भाषा की जड़ों में
मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ
मकान की यात्रा करते हुए
कमरों में पहुँचे घर को
मैं वापस घर लाना चाहता हूँ।
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2. पहचान
मैंने पहचान-पत्र तैयार कर
उसके गले में डाल दिया-‘‘लो बहन!
आज से लोग तुम्हें तुम्हारे नाम से जानेंगे’’
वो हँसते हुए स्कूल चली गई।
एक दिन होमवर्क करते हुए
उसने पूछ लिया-‘‘भैया तुम तो
पहचान-पत्र डालकर कहीं नहीं जाते
लोग कैसे जानेंगे तुम्हें ?’’
मैंने बिना कुछ सोचे यूँ ही जवाब दिया -‘‘हाँ बहन!
कोई पहचान नहीं मेरी, अभी कोई नहीं जानता मुझे।’’
कहते-कहते मैं दार्शनिक हो उठा था
वो उस दिन उदास चुपचाप कुछ सोचती रह गई।
फिर एक दिन मैं बैठा कुछ लिख रहा था
वो दरवाजे से दौड़ती अंदर आई
और एक वैसा ही पहचान-पत्र मेरे गले में डाल दिया
‘‘लो भैया अब तुम्हें भी लोग जानेंगे’’
उस पर बड़े सुन्दर अक्षरों में लिखा था-
‘‘शिखा के भैया गौरव’’।
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3. बचे हुए गाँव की ओर
यदि हम बचे
तो जरूर लौटेंगे गाँव
यदि बचे होंगे गाँव
तो अभी भी बचे होंगे
कुछ पेड़ वहाँ
कुछ पेड़ जब बचे होंगे
तो रास्ते में बची होगी
थोड़ी-सी छाया भी
उसी छाया में
दुपहरी से बचने को बैठे होंगे
कुछ मजदूर भी
थका हुआ पथिक भी
बेटी के वर की तलाश में निकला पिता भी
बचा होगा नमक-प्याज-रोटी का स्वाद
बची होगी गुड़ की भेली
बचा होगा थोड़ा-सा सेतुआ
आसपास ही कहीं बचा होगा
ठंडे पानी वाला कुआँ भी
और बचा ही होगा
बटोही को रोक कर बैठा लेने का संस्कार भी
मिल ही जाएगा
बिन मांगे थोड़ा-सा सत्तू
गट्टी भर प्याज
न न करते हुए खा जाएँगे भेली
खूब छक कर पी लेंगे कुएँ का पानी
खबर-हाल पूछकर
टपने-अपने धाम को चलेंगे
राम-राम कर
चलते चले जाएँगे सड़कों पर
उतर जाएँगे बची हुई पगडंडियों में
दौड़ जाएँगे कुछ दूर बचे हुए खेतों में
बचे हुए खेतों में
बची होगी थोड़ी कच्ची-पक्की फसलें
फसलों के सहारे बचे होंगे किसान
बचे होंगे किसान
तो जरूर बचे होंगे बैल
बचे होंगे गाँव किनारे तालाब भी
तालाब बचे होंगे तो
बचे होंगे कुछ पशु-पक्षी
बची होगी थोड़ी घास भी
घास छीलती बूढ़ी औरतें भी बची होंगी
पूछ ही लेंगी हमसे
‘‘कौन देस से आए हो….
…कौन देस को जाओगे’
हम मुस्कुराएँगे, दूर से चिल्लाएँगे
‘‘अरे अम्माँ, हम हैं हम……
….नहीं पहचाना?’’
‘बेटवा अब कम देखात है’
हम सुनेंगे नहीं
बढ़ते चले जाएँगे
बची हुई धूप का
बची हुई हवा का
बचे हुए पानी का
बची हुई धरती और बचे हुए आकाश के बीच
अपने बचे होने के उत्साह में
उत्सव मनाते चले जाएँगे
हम बचे हुए गाँव की ओर….।
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4. पिता इंतजार कर रहे हैं
पिता आकाश देखते
और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है
वो हवाओं को सोखते
और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते
पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है
जैसे लोगों को अपने पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता
फिर भी उनका मानना है
कि हमारा कोई न कोई नाता है ही
इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना
बादलों के रंग और रफ्तार
पिता खूब समझते हैं
उन्होंने बता दिया था
धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार
हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी
पिता चिंतित हैं
आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते
महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध
जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा
और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी
पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं
और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं
हम जानते हैं
पिता के मना करने के बावजूद
दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी
आँगन की नीम का
जबकि पिता इंतजार कर रहे हैं
कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर
लौट आएँगे शहर से
और उस दिन पुरानी शाखाओं पर
एक बार फिर खिल उठेंगे नये-नये पत्ते…..
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5. वापसी
माँ!
उतारो मेरी बलाएँ
चाचियों को सूचना दो
बनाओ आज रात मीठे पकवान
बहन!
आओ मेरी छाती से लग जाओ
अपने आँसुओं से मुझे जुड़ाओ
भौजाईयों!
कनखियों से न निहारो मुझे
तुम्हारा दुलारा आँचर-छोर ही हूँ मैं
भाई!
संभालो मेरी भुजाएँ
तुम्हारी जरूरत है मुझे
पिता!
मुझे माफ कर दो
अभी झुकूँगा तो गिर पड़ूँगा
घर! नीम!! तुलसी!!!
मुझे छाँव दो
सहेज के रखी थी जो
इसी दिन के लिए
यारो!
गली-गली जुलूस निकालो मिलन के
कि मैं ठीक-ठाक लौट आया हूँ
नहीं हुआ किसी हादसे का शिकार
किसी गलत रास्ते पर नहीं गया
नहीं छीनी किसी की रोटी
और भूखा भी नहीं मरा
ओ माँ!
पुनर्जन्म हो रहा मेरा
नाईन चाची को बुलवाओ
पड़ोस से दूध मंगवाओ
सोहर गवाओ
उत्सव मनाओ
कि ठीक-ठाक लौटा हूँ मैं
और मुझे याद हैं
घर खेत परिवार पड़ोसी
मुझे याद हैं सारे रिश्ते अभी भी।
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6.माँ गोरैया होती है
माँ भोर में उठती है
कि माँ के उठने से भोर होती है
ये हम कभी नहीं जान पाए
बरामदे के घोसले में
बच्चों के संग चहचहाती गोरैया
माँ को जगाती होगी
या कि माँ की जगने की आहट से
शायद भोर का संकेत देती हो गोरैया
हम लगातार सोते हैं
माँ के हिस्से की आधी नींद
माँ लगातार जागती है
हमारे हिस्से की आधी रात
हमारे उठने से पहले
बर्तन धुल गए होते हैं
आँगन बुहारा जा चुका होता है
गाय चारा खा चुकी होती है
गोरैया के बच्चे चोंच खोले चिल्ला रहे होते हैं
और माँ चूल्हा फूँक रही होती है
जब हम खोलते हैं अपनी पलकें
माँ का चेहरा हमारे सामने होता है
कि माँ सुबह का सूरज होती है
चोंच में दाना लिए गोरैया होती है।
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7. एक कमसूरत लड़की का एकालाप
मुझे किसी ने खत नहीं लिखा
दिखा नहीं कभी मेरा नाम दीवारों पर
स्कूल के श्याम-पट पर भी नहीं
नदी किनारे लगी कागज की नावों पर
तैरते पत्तों पर भी नहीं
और न ही किसी पेड़ की छाल पर
मुझसे किसी ने पुस्तकें नहीं माँगी
कोई नहीं आया मेरे पीछे-पीछे कुछ दूर
कभी नहीं दिखा कोई मेरी खिड़की के सामने
मुझसे किसी ने रास्ता नहीं पूछा
मेरा नाम सुनकर फूल मुस्कुराए नहीं
हवाओं ने नहीं गुनगुनाया मेरा नाम
बादलों पर नहीं छपा
इन्द्रधनुषों ने कभी नहीं रचा मेरा नाम
मुझे पता नहीं वे कौन-से घोड़े हैं
जिन पर सवार हो आते हैं दूर देश के राजकुमार
और दूर देश की यात्राओं पर चली जाती हैं मेरी सखियाँ
मेरे सपनों में न कोई फूल है
न कोई पक्षी
और न ही कोई झरना है
बस मेरे सपनों में एक हरा जंगल है
जहाँ जंगली सुअरों की चिंघाड़ने की आवाजें आती रहती हैं
और एक चुपचाप बहती नदी है
जिसके किनारे जंगली पशु
अपनी अनबुझ प्यास लिए
अपनी मैल धोने को खड़े हैं।
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8. अधूरी कविता
मैं चाहती हूँ
जब मेरा विवाह हो
तो न पढ़े जाएँ वैदिक मंत्र
पढ़ी जाएँ उसकी प्रेम-कविताएँ
प्रत्येक कविता के अंत में
हविश में डालूँगी अश्रु-लेपित गुलाबी पत्र
मद्धिम तप्त स्वरों में स्मृतियों को कहूँगी…‘‘स्वाहा’’
ठीक उसी तरह
जैसे कभी वह अक्सर कहता था
कान की लौ के बहुत पास…‘मैं…
तुमसे प्रेम करता हूँ…..
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9. ससुराल में झूला
वो बुआ ही थीं हमारी
पिता को राखी बाँधती
हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती
बहनों को याद हैं
उनकी कजरी
सावनी झूलों के मोहक गीत
मजाल है भौजाईयों की
उनके रहते कोई झूला न चढ़े
झूलना उन्हें बहुत पसन्द था
हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ
एक दिन
पंखे से झूलती मिलीं
बच्चियाँ बताती हैं
ससुराली घर से बाहर आकर
उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी
(आज भी आता है सावन
पड़ जाते हैं झूले
पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)
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10. पति-पत्नी और प्रेम
मैं एक बच्ची का पिता हूँ
जिसे मेरी पत्नी ने स्वप्न में रचा था
जब वह किसी की प्रेमिका थी
पत्नी बताती है
जब वह जीवन के सबसे मीठे स्वप्न में थी
तब झील के किनारे उसे छोड़ कर भागा था
कोई मुँह चोर-बुद्ध सा
बरसों पहले
अपनी चोंच में एक तिनका दबाए
मेरे सामने खड़ी थी एक चिड़िया
और मैं समुद्री यात्रा पर चला गया
चिड़िया का घोसला उजड़ा जब
मैं उसी पेड़ के नीचे कविताएँ लिख रहा था
जब अपनी पत्नी के पास होता हूँ
आधी रात प्रेम का एक और निवेदन करते हुए
प्रायः किलक उठती है बच्ची
पंख फड़फड़ाती
तब बच्ची का चेहरा
उस चिड़िया से बहुत मिलता है…….।
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11.चाय उबल कर बहने लगती है
मेरे पर्स में है
इक बहुत पुरानी तस्वीर
जिसे जीवन के एकांत क्षणों में
एकटक निहारता हूँ
बड़े गर्व से चूमकर
वापस पर्स में सुरक्षित रख लेता हूँ
मेरी नवागत पत्नी के पास भी है
कुछ ऐसी ही तस्वीर
जिसे वह मायके से मिली साड़ियों की तहों के बीच
छुपा कर रखती है
मैंने उसे कभी-कभी
कुछ रंगीन कागजों को पढ़ते हुए भी देखा
शायद उसे भी मिले होंगे प्रेम-पत्र
जिस प्रकार मैंने दिए थे
अंतर सिर्फ इतना है कि मैं
उन चीजों को याद कर गर्व से मुस्कुराता हूँ
और वह सुबकती है
जिस प्रकार मुझे अच्छा लगता है
मेरे पर्स की तस्वीर के बारे में उसे कुछ नहीं पता
ठीक उसे भी यही लगता होगा कि
मैं उस तस्वीर और प्रेम-पत्र के बारे में नहीं जानता
जिसे वह मायके वालों से भी छुपा कर
अपने साथ ले आई है
जीवन के अंतरंग क्षणों में
उसकी देह और आत्मा के उतुंग शिखरों पर
जब फहरा रही होती है मेरी विजय पताका
तब सोचता हूँ उससे पूछूँ
उन बीते पड़ावों के अनुभवों के बारे में
परन्तु यह सोेचते ही
इन्द्रियों का कसाव शिथिल होने लगता है
एक दिन जब वह
बाथरूम में थी
मैंने साड़ी की तहों से
निकाल ली तस्वीर
और पढ़ लिये प्रेम पत्र
लड़का कुछ हद तक मुझसे सुंदर था
पत्र साधारण-से थे
जिनमें वही अधपकी बातें
और कुछ वायदे
जीने मरने की कसमें
और दूर होने की परिस्थितियाँ
बहुत दिनों तक मैं अन्यमनस्क-सा
क्या करूँ क्या न करूँ सोचता रहा
एक दिन जब वह बेहद उदास बैठी थी
मैंने उसे अपने पास बुलाया
पर्स से तस्वीर निकाली उसे दिखाया
और बीते सारे प्रेमानुभवों को बता दिया
मस्तक चूम कर कहा-‘अब मैं
सिर्फ तुमसे प्यार करता हूँ
लो तस्वीर जो चाहो सो करो
कई दिनों तक वह गुमसुम रही
एक शाम जब मैं बेहद उदास था
वह पास आई और पीछे से झुक कर
बिना कुछ कहे चूम लिया
फिर उस लड़के की तस्वीर और पत्रों को दिखाया
मैंने कहा – बहुत पहले ही इन्हें देख लिया था मैंने
सजल आँखों से
वह मुझे अपलक देखती है
कुछ डरती है
मैं चुप रहता हूँ
एक कप चाय के लिए कहता हूँ
वह भारी कदमों से रसोई में चली जाती है
थोड़ी देर में कुछ जलने की गंध आती है
मैं रसोई तक आता हूँ
वह पत्रों और तस्वीरों को एक-एक कर
चूल्हे में जला रही है
मैं पीछे से उसके कंधों पर हाथ रखता हूँ
वह रोकर मुझसे लिपटने लगती है
चाय उबल कर बहने लगती है….
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12. पत्नी से मौन संवाद पर दो कविताएँ
(एक)
कविता पाठ
रात के अंतिम पहर में
उसने पीठ पर उंगली फिराई
गोल
मैंने करवट बदली
वो और सिमटकर पास आई
मैंने पूछा-‘‘क्या हुआ ?’’
कान की लौ के बहुत नजदीक
बहुत मद्धिम स्वरों में
उसने कहा-‘‘कुछ नहीं…
मेरे कवि,
बस्स्स…एक कविता पढ़ने का मन हुआ है।’’
(दो)
देखना
घर से निकलने के पहले
उसे गले लगाया
और होठों को चूमकर अलग हुआ
( प्रायः माथे पर चूमता था )
पत्नी ने कुछ पूछा नहीं
बस नजर भर देखा
और फिर देखा एक बार
लगता रहा मुझे सारा दिन
आज नजर रख रही है मुझ पर
दो आँखें लगातार…….
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13. भैया लौटे हैं
भैया लौटे हैं
लौटी है माँ की आँखें
पिता की आवाज में लौटा है वजन
बच्चों की चहक लौटी है
भाभी के होठों पर लौट आई लाली
बहुत दिनों बाद
हमारी रसोई में लौटी खुश्बू
आँगन में लौटा है परिवार
नया सूट पाकर
मैं क्यों न खुश होऊँ
बहन हूँ
शहर से मेरे भैया लौटे हैं।
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14. बहन गणित के सवाल हल करती है
बहन अभिज्ञान पढ़ती है
शकुन्तला को सोचकर उदास होती है
दुष्यंत से चिढ़ती है
बहन रीतिकाव्य पढ़ती है
कवियों को धिक्कारती है
शृंगारिकता पर थूकती है
बहन कामायनी पढ़ती है
मनु को जोरदार थप्पड़ मारना चाहती है
अंततः उसकी नियति पर तरस खाती है
कभी-कभी बहन का मन ‘मेघदूत’ पढ़ने को करता है
वह ‘आषाढ़ का एक दिन’ भी पढ़ना चाहती है
लेकिन कुछ सोचते हुए बिना किसी विमर्श के
बहन गणित के सवाल हल करती है।
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15. जीवन में न सही
जीवन में न सही
कविताओं में मिलेंगे हम
कि कहानियों में साथ-साथ रहेंगे….
मैं लिखूँगा
फूल पर कविताएँ
तुम लिखना तितलियों पर
उन फूलों के एक-एक शब्द में
तिरेगा तुम्हारा ही नाम
कि महकेगी तुम्हारी ही स्मृतियाँ
तुम्हारी कविताओं की तितलियाँ
उड़-उड़ आ बैठेंगी
मेरी कविताओं के फूलों पर
तुम्हारे बच्चों के जीवन में
रचे-बसे रहेंगे फूल
मेरी बच्ची मचलेगी तितलियों के लिए
उन्हें बेहिसाब रंगों की कहानियाँ याद होंगी
हमारी कविताओं से खूब झरेंगे पराग
कि खूब महकेगा हमारा जीवन
जीवन में न सही
कविताओं में मिलेंगे हम
कि हम कहानियों में साथ-साथ रहेंगे…..।
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16. लेखक जल्दी में था
हम उन कहानियों के नायक हैं
जिनकी नायिकाओं के विवाह
मोटे-मोटे उपन्यास के नायकों से हुए…..
हम में
वे सारी खूबियाँ थी
जो एक अच्छे उपन्यास के नायक की होनी चाहिए
नहीं थी जो उनकी संभावनाएँ थीं
लेकिन
सामने बाजार था
और हमारा लेखक जल्दी में…..
(शायद नायिकाएँ भी)
(कवि गौरव पाण्डेय इलाहबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.करने के बाद फ़िलवक़्त गोरखपुर विश्वविद्यालय से शोध कर रहे हैं. 27 वर्षीय कवि गौरव पाण्डेय कविता की दुनिया का एक नया नाम हैं कुछ पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. इनसे हम पाठकों का तआरुफ़ करा रहे टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं.)
प्रस्तुति: उमा राग