मेहजबीं
डॉक्टर आस्था शर्मा पेशे से मनोचिकित्सक हैं। मनोचिकित्सक की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वो अपने मरीज़ के मस्तिष्क को मन को पढ़ता है। वो अपने मरीज़ के आर्थिक सामाजिक पारिवारिक शारीरिक मानसिक पूर्ण इतिहास वर्तमान को जानने की कोशिश करता है, अपनी फाइल में मरीज़ की समस्त परिस्थितियों को और उनके कारणों को लिखता है।
अपने मरीज़ पर ओपीडी में जितना वक़्त एक मनोचिकित्सक खर्च करता है कोई दूसरा विशेषज्ञ कार्डियोलॉजिस्ट, गाइनेकोलॉजिस्ट यूरोलॉजिस्ट इत्यादि कभी खर्च नहीं करता। वे कभी जानने की कोशिश नहीं करते कि मरीज़ डिप्रेस्ड क्यों है, हॉरमोन डिस्ऑर्डर क्यों हैं। वे तो बीमारी पूछते हैं दवा लिखते हैं टेस्ट लिखते हैं प्रिस्क्रिप्शन पर बस काम ख़त्म। मरीज़ की दुखती रग़ का उन्हें पता ही नहीं होता न उस पर वो कभी मरहम लगाते हैं। मरीज़ की मृत्यु होने पर मृत्यु प्रमाण पत्र में लिख देते हैं, कीडनी लीवर फेल्योर, कार्डिक अरेस्ट के कारण मृत्यु हुई। वे कभी जान ही नहीं पाते कि सदमे से भी किसी की जान जाती है, डिप्रेशन भी जानलेवा है, टेंशन डिप्रेशन सदमे से मेंटली टॉर्चर, धीरे-धीरे इंसान की मृत्यु का कारण होता है, आर्थिक मानसिक शोषण सहकर भी इंसान की मृत्यु होती है। ऊपर से डाइबिटीज कॉलोस्ट्रोल बीपी ही सबको दिखता है और इसी के नीचे डिप्रेशन टेंशन मेंटली टॉर्चर, शोषण जैसे गंभीर मृत्यु के कारण दब जाते हैं। आइरन केल्शियम वाइटामिन की कमी पीलिया ऐनिमिया हार्टअटैक की लिपापोती हो जाती है।
एक अच्छा संवेदनशील मार्मिक गंभीर जिम्मेदार निष्पक्ष साहित्यकार हुबहू मनोचिकित्सक की तरह होता है। वो जब कविता कहानी उपन्यास नाटक लिखता है तो हवा में कल्पना में तीर नहीं चलता। अपनी रचनाओं के किरदार को उसके पूरे जीवंत अस्तित्व के साथ सजीव रुप से रचता है। अपने किरदार की रचना उसके आर्थिक सामाजिक पारिवारिक शारीरिक मानसिक परिस्थितियों के साथ करता है। यदि कोई इत्तिफ़ाक़ से साहित्यकार भी हो और मनोचिकित्सक भी तब बात ही क्या,वो अपने क़िरदार के साथ अपनी पूरी संवेदनशीलता और ज़िम्मेदारी के साथ जुड़ा होता है। अपने गंभीर अवलोकन और अनुभव से वो अपने क़िरदारों की मनःस्थिति को वर्णित करता है।
आज जिनके बारे में हम बात करने जा रहे हैं कवयित्री डॉक्टर आस्था हैं। जिनकी कविताएँ पढ़ते ही मालूम पड़ता है कि इंसानी मनोविज्ञान की रचनाएँ हैं। जिस तरह से एक मनोचिकित्सक मरीज़ के स्वप्न को जानकर उसकी मनःस्थिति जान लेता है, ठीक वैसे ही डॉक्टर आस्था ने अपनी कविताओं में दिनभर जूझती स्त्री के रात्रि स्वप्न लोक को अपनी कविता में रचा है।
मैं उठती हूँ
आँखों के पर्दों पर लिये
उस “आर्ट-पीस” की तस्वीर
तुम्हें कैसे बताऊँ
कि मैंने क्या देखा कल रात !
सन्नाटें
चुप्पी और चीख में कितना फर्क है
आवाज़ भर का
अनगिनत चीखें हैं
काली रातों के
कुछ चुप्पियों से टकराकर लौट आती हैं
नींद की कोटरियों में
फ़िर छलक आती हैं आँखों के वृत्त से
बिना आवाज़ किये !
उपन्यास ‘त्यागपत्र’ में जैनेन्द्र ने एक बेटी बहन बुआ की सामाजिक पारिवारिक शारीरिक आर्थिक परिस्थितियों को कितनी मार्मिकता से रचा है। बेटीयों बहनों की फ़िक्र शादी से पहले ही नहीं शादी के बाद भी करनी चाहिए। यदि उनसे कोई भूल भी हो जाए तो उनके लिए घर के दरवाज़े खुले रखने चाहिए। बेहिस लोग बेटी को बिदा करके भूल जाते हैं कभी पलट कर भी नहीं देखते कि वो किस हाल में होंगी। ऐसी उपेक्षित स्त्रियों का त्रासदीपूर्ण अंत होता है। जिन्हें अपनी बेटीयों पोतियों से बहनों से प्रेम होता है,उसकी ग़ौरो फिक्र होती है। वे हमेशा उसको बिदा करते हुए रोते हैं आशिर्वाद देते हैं। बिदाई के समय उसकी गोदी भरकर भेजते हैं चावल से आशीर्वाद से। हालांकि इन रस्मों से किसी का भला नहीं होता। महिलाओं के काम उनकी शिक्षा उनका स्वास्थ्य उनकी आत्मनिर्भरता ही काम आती है। मगर भारत के गांव कस्बे छोटे शहरों में आज भी बेटीयों के सुखी जीवन और सुखी ग्रहस्ती के लिए उसको खोइंछा गोद भरकर आशिर्वाद देकर नमः आंखों से बिदा किया जाता है। यही है भारत का असल संवेदनशील सच।
ना उसकी आँखें भीगी थीं
ना उसका गला
जब वह बाँध
रही थी
बेटी के आँचल में आशीर्वाद
बस काँप रहे थे उसके हाथ
“खोइंछा कहते हैं इसे,
गिरा मत देना रास्ते में”
बगल से आती है नानी की आवाज़
“थोड़ा और .. भर के चावल डाल” !
स्त्रियों के पास सरमाए के तौर पर जमा-पूंजी में रहते हैं आर्थिक सामाजिक पारिवारिक शारीरिक मानसिक दुःख तक़लीफ़ें। पहले तो लोगों के दुःख साझा हुआ करते थे। साझा चूल्हा हुआ करते थे,कुंए होते थे,पोखर तालाब हुआ करते थे, जहां स्त्रियां इकट्ठा होकर अपने दुःख सुख बांट लिया करती थीं, एक-दूसरे की दिलज़ोई कर लिया करती थीं। ऐसा करने से मन हलका हो जाता था दिमाग़ भी हलका हो जाता था। यह सब अब समाप्त हो गया है, कुंए पर सांझे चूल्हे पर पोखर पर जाना नहीं होता। स्त्रियों के पास अब दु:ख-सुख साझा करने के लिए कोई स्पेस नहीं है। पुरुषों के पास पान की चाए की नाई की दुकानें हैं चौराहे हैं मस्जिद हैं मंदिर हैं उनके चौबारे हैं जहां वे इकट्ठा होकर अपने सुख-दुख साझा करते हैं दीन दुनिया सियासत की बातें करते हैं। महानगरों में पार्क हैं जहां महिलाओं को थोड़ा टहलकदमी करने को मिल जाती है। छोटे गांव कस्बे शहर में इससे भी महरूम हैं महिलाएं। वे सुख-दुख किससे बांटे किससे कहें। अंदर अंदर सब दबाकर रखती हैं और मेकप की नीचे सारा दुःख सारा डिप्रेशन सारी तकलीफ़ें छुप जाती हैं, ऊपर ऊपर से मुस्कुराती नज़र आती हैं, सबको लगता है सब ठीक-ठाक है। इसी मानसिक तक़लीफ को एक मनोचिकित्सक संवेदनशील कवयित्री डॉक्टर आस्था ने अपनी कविता में दर्ज किया है।
तकलीफ़ मेरी रगों में बह रही है
आज नहीं, कई सालों से
शायद मेरे जन्म के पहले से
एक बार
एक कोशिका ने देखा एक स्वप्न
लाल शायद उसी का रंग है
जो उतर रहा मेरी रगों में
मैं किसे कहूँ कि बाँट ले इसे
सुनेगा कोई
यह तकलीफ़ जो पुरखिन है
काश यह एक पुड़िया होती
जिसे तुम्हें थमा देती !
डॉक्टर आस्था की काव्यात्मक शैली और काव्यगत विशेषताओं को जानने के लिए आइये पढ़ते डॉक्टर आस्था की कुछ कविताएँ।
डॉक्टर आस्था शर्मा की कविताएँ
1. वक़्त पैरहन है
क्यों आते हैं ख़्वाब
रात के तीसरे पहर
जब चाँद ढलने को
और
आसमान
गहरे से थोड़ा कम नीला
जब लिखते हैं सन्नाटे अपनी सिफ़ारिशें
और आँखों की पुतलियाँ बेचैन
तेज़ रफ़्तार भागतीं
बिखेरतीं ख़्वाबों के कैनवास पर नये रंग
मैं उठती हूँ
आँखों के पर्दों पर लिये
उस “आर्ट-पीस” की तस्वीर
तुम्हें कैसे बताऊँ
कि मैंने क्या देखा कल रात !
सन्नाटें
चुप्पी और चीख में कितना फर्क है
आवाज़ भर का
अनगिनत चीखें हैं
काली रातों के
कुछ चुप्पियों से टकराकर लौट आती हैं
नींद की कोटरियों में
फ़िर छलक आती हैं आँखों के वृत्त से
बिना आवाज़ किये
2. खोइंछा
ना उसकी आँखें भीगी थीं
ना उसका गला
जब वह बाँध
रही थी
बेटी के आँचल में आशीर्वाद
बस काँप रहे थे उसके हाथ
“खोइंछा कहते हैं इसे,
गिरा मत देना रास्ते में”
बगल से आती है नानी की आवाज़
“थोड़ा और .. भर के चावल डाल” !
आँचल में बँध कर आती है तुम्हारे घर
मेरे पुरखों की निशानी
हैरत से पूछते हो तुम
क्या हैं ये
चावल के दाने और सिक्के
एक १०० रुपए का नोट
सोने की बालियाँ
किसकी हैं ये ?
सच कहूँ तो मैं नहीं जानती
इनकी कथा
कहाँ से आए उपज कर
और किसकी कमाई
जो मैं उठा ले आयी हूँ
अपने साथ
उन अनगिनत सवालों की तरह
जो चले आये हैं
आँचल में दुबक कर!
3. तकलीफ़
तकलीफ़ मेरी रगों में बह रही है
आज नहीं, कई सालों से
शायद मेरे जन्म के पहले से
एक बार
एक कोशिका ने देखा एक स्वप्न
लाल शायद उसी का रंग है
जो उतर रहा मेरी रगों में
मैं किसे कहूँ कि बाँट ले इसे
सुनेगा कोई
यह तकलीफ़ जो पुरखिन है
काश यह एक पुड़िया होती
जिसे तुम्हें थमा देती !
4. वो तड़पता है पापा के लिए जो शायर हैं
वो तड़पता है अपनी खोयी हुई पंक्ति के लिए
जिसे लिखी थी उसने कई साल पहले
एक मल्टीपर्पस डायरी के पन्ने पर
धोबी और किराने के हिसाब के बीच कहीं
वो तड़पता है उस दृश्य के लिए
जिसने दी थी उसके छटपटाते चित्त को शान्ति
दृश्य जो कल्पना के फ्रेम पर टिका था
उसके शब्दों के सहारे
कहाँ से लाएगा वो शब्द
जो बहुत दूर से आये थे उसे पुकारते
मन के तल और अनकहे दुखों के संसार से उठकर
वो लौटना चाहता है वहाँ
चखना चाहता है पुराने दर्द का स्वाद
कहना चाहता है फिर से कई-कई बार
जब तक उजड़ न जाएँ वे स्मृतियों के इलाक़े से
दुहराना भी भुलाना हो सकता है क्या ?
शब्दों से परे
दर्द से परे
दृश्य के नेपथ्य में
बैठी है एक डायरी हिसाब की
लेकर एक कवि की जमा पूँजी का लेखा
वो कैसे न विचलित हो ?
5. माँ
जैसे वह देहरी का दीपक,
जलती है
उसी लौ से
रात भर
मानो उम्र भर
घी में डूबी हो
उसकी आत्मा !!
कवयित्री आस्था, पटना में जन्म और स्कूली शिक्षा। दक्षिण भारत में एमबीबीएस और एमडी (साइकाएट्री) की पढ़ाई। मुंबई और दिल्ली के हॉस्पिटल्स में काम। इंग्लैंड में मनोचिकित्सक
स्कूली जीवन से ही हिन्दी और अंग्रेजी में कविता लिखना। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
सम्पर्क: 9631120026
टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से।
ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और
पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से,
पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज
स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख
सम्पर्क: 88020 80227