सुघोष मिश्र
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अभिव्यक्ति किसी रचना का पहला सोपान है। हम अपने सुख, दुःख, आशा, निराशा, भय, क्रोध, स्वप्न और संदेश विभिन्न माध्यमों से अभिव्यक्त करते रहते हैं। हम शानदार इमारतें बना सकते हैं, महान आविष्कार कर सकते हैं, कलात्मक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकते हैं और सभ्यता के इतिहास में उच्च स्थान ग्रहण कर सकते हैं।
लेकिन हम आने वाली पीढ़ियों के लिए जो सबसे ज़रूरी भेंट दे सकते हैं– वे हैं स्मृतियाँ। स्मृतियों की सर्वप्रमुख संवाहक होती है कविता। कविता मूलतः भावनाओं की अभिव्यक्ति करती है और यह कार्य व्यापार घटित होता है भाषा में। फिर भी उसमें कला, विज्ञान, पारिस्थितिकी, राजनीति, संस्कृति आदि जीवन को प्रभावित करने वाले सभी अनुशासन समाहित होते हैं।
दिव्या पांडेय की कविताएँ काव्य जगत के आपसी संचार की टूटन को जोड़ने तथा अतियों के विरुद्ध संतुलन का प्रयास करती दिखाई देती हैं। दिव्या पेशे से डॉक्टर हैं। कविताएँ लिखने के साथ वे हिंदी में विज्ञान-लेखन भी करती हैं।
विज्ञान और कविता की प्रविधियों में अंतर होता है। लेकिन वह कविता के दृष्टिकोण में बदलाव और विस्तार लेे आता है। विज्ञान अवयवों का विश्लेषण कर निश्चित निष्कर्ष तक पहुँचता है। वहीं कविता में तथ्य अवश्य प्रयुक्त होते हैं लेकिन वे संदर्भ मात्र बनकर आते हैं। विज्ञान की तरह कविता कोई सिद्धांत या निष्कर्ष नहीं देती बल्कि वह घटनाओं पर विमर्श करती है। दिव्या की कविताओं में वैज्ञानिक शब्दावली भरपूर प्रयुक्त होती है लेकिन ये प्रयोग प्राय: रूपकों के साथ होते हैं और इनकी प्रकृति काव्यात्मक होती है –
“पलायन वेग से विस्थापित होकर
तुम्हारी परिधि में स्थापित हो जाऊँगी
तुम विचरण करते रहो असीम ब्रह्माण्ड में
मैं, तुम्हारा उपग्रह हो जाऊँगी !”
भौतिकी में पलायन वेग उस वेग को कहते हैं जिससे कोई पिंड सम्बन्धित स्थान की गुरुत्व सीमा से बाहर निकल जाता है। कविता में अपने संकोच, पारिवारिक-सामाजिक दबाव और अन्य बाधाओं से पार होने के लिए एक स्त्री पर्याप्त इच्छाशक्ति अर्जित करना चाहती है ताकि वह अपने प्रेयस से मिल सके और उसके साथ निरन्तर वैसे ही रहे जैसे अंतरिक्ष में ग्रहों के साथ उपग्रह रहते हैं। विज्ञान की बोली बोलती हुई यह कविता प्रेमियों के संग-साथ का सुकोमल स्वप्न बुनती है।
यदि हम २१ वीं सदी की विश्व कविता पर निगाह डालें तो उसकी प्रमुख चिंताओं में से एक है पर्यावरण समस्या। पूंजीकृत विकासवाद के जिस प्रारूप में हम सभी जीवनयापन कर रहे हैं उसमें समाज का एक हिस्सा संसाधनों पर अधिक से अधिक अधिकार की कोशिशों में लगा है। जंगल जिस तरह कम होते जा रहे हैं, उसी अनुपात में मानव की प्रकृति से दूरी भी बनती जा रही है।
ऐसे में अन्यान्य उपलब्धियों के बीच जिस तत्त्व का सर्वाधिक क्षरण हो रहा है, वह है भावना। इसीलिए आज लोग कविता को जीवन का हिस्सा बनाने में संकोच कर रहे हैं। एक कवि का दायित्व होना चाहिए कि वह नष्टप्राय चीज़ों से गहरा जुड़ाव महसूस करे और उनका सुस्पष्ट साक्षात्कार कर उन्हें कविता का हिस्सा बनाए। पारिस्थितिकी से मनुष्य का रिश्ता स्वार्थी प्रवृत्ति के चलते अब असंतुलित हो रहा है। ऐसे में दिव्या ‘बोली’ शीर्षक कविता में बूढ़े पीपल को याद करती हैं और उस पर बैठने वाली चिड़िया को पानी पिलाने की चिंता करती हैं –
“जब नाराज़गी
मौसम से हो
तो मिट्टी के, साबुत कशकोल को
तोड़कर थोड़ा तिरछा
तल्ख़ रस्सियों से, लटका दिया जाये
पूरे से, थोड़ा कम पानी भरकर
उस बूढ़े पीपल पर”
यह कविता एक प्रकार से भूमंडलीय षड्यंत्र से अपनी संस्कृति की रक्षा का संदेश भी देती है।
प्रेम निकटता और आत्मीयता के भाव से जुड़ा होता है। यह सापेक्षिकता की चिंता से मुक्त तथा सुख की कामना से युक्त होकर संभव होता है। यह हमारे आंतरिक सौन्दर्य का हेतु है। प्रेम में होते हुए हम सभी आग्रहों और कठोरताओं से मुक्त हो जाते हैं। किन्तु यदि हम अपने अस्तित्व के प्रति सचेत नहीं है तो हम स्वयं को या अन्य को सही मायने में प्रेम नहीं कर रहे होते हैं और यही अंततः दुःख का कारण भी बनता है। दिव्या की एक कविता में इसकी सुस्पष्ट अभिव्यक्ति मिलती है जहाँ वे प्रेम को सांद्र रसायन के रूपक द्वारा व्याख्यायित करती हैं –
“क्यों न हम-तुम
हो जाएँ वाष्पित
इस सांद्र प्रेम विलयन से
देखें दूर से
एक-दूसरे को
नन्हीं बूँदें बनकर”
दिव्या इस कविता के माध्यम से प्रेम में अस्तित्व को लीन कर देने से उपजने वाले ख़तरे का दृश्य उपस्थित करती हैं तथा वर्तमान समय में रिश्तों की जटिलता और तनाव की ओर इशारा करती हैं। रूढ़िगत सौंदर्यबोध से इतर वे इस कविता में प्रेम में मुक्त होते हुए मुक्त रखने की कामना करती हैं।
मुक्तिबोध लिखते हैं, “रचना प्रक्रिया का तीसरा स्तर सांस्कृतिक प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है।” दरसअल एक उत्कृष्ट कविता इसीलिए सांस्कृतिक मूल्यों के सृजन का प्रयास करती है और उस वर्ग के साथ खड़ी होती है जो किसी भी तरह के अन्याय और उत्पीड़न शिकार होकर गरिमापूर्ण जीवन जीने से वंचित हैं। दिव्या अपनी कविता में समाज की इसी स्वार्थी प्रवृत्ति और प्रतिगामी शक्तियों का प्रतिरोध करती हैं–
“उदर जिसकी भित्तियों पर
नहीं अंकित
भरपेट तृप्ति का इतिहास
क्षुधा उसकी
बता सकती है
पाक कला की बारीकियाँ”
यह कविता दो विरोधाभासी स्थितियों को सम्मुख रखकर सत्य की पड़ताल करती है और वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ी होती है। कविता जब चयनात्मक न होकर सामूहिक को लेकर चलती है, तभी सार्थक सौन्दर्य की सृष्टि होती है। विश्व भर में नई सदी के कवियों का प्रमुख स्वर राजनीतिक, अस्मितामूलक और पर्यावरणीय सरोकारों से युक्त है।
दिव्या हिंदी के उन नए कवियों में भिन्न हैं जो एक जैसे मुहावरे, बिम्ब और विषयों का चयन कर रहे और जिन पर लगातार एक आलोचकीय दबाव बना दिखाई देता है। बल्कि दिव्या की कविताओं में एक टटकापन है। वे अपनी कविता की रचना में बिम्ब निर्माण, शब्दों के सचेत प्रयोग और सांचे पर विशेष ध्यान देती हैं। उनकी भाषा प्राय: तत्समनिष्ठ होते हुए सहज और प्रवाहपूर्ण है। बिम्ब सरल हैं और दृश्य को गहनतर करते हुए पाठ में प्रस्तुत होते हैं। एक कविता में वे लिखती हैं –
“हर पूर्णिमा पिराती है
नदी की देह
बदलती है
करवटें अनगिनत”
दिव्या की इन कविताओं में जो एक नई अवस्थिति बनती है, वह है कविता और विज्ञान का सम्यक मेल बिंदु। यह संयोग इसलिए विशिष्ट है कि यह कृत्रिमता नहीं उत्पन्न करता बल्कि काव्य-बोध को सुरुचिपूर्ण बनाता है। ‘कविता का प्रजनन शास्त्र’ शीर्षक कविता में वे प्रजनन की जीववैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से कविता की रचना प्रक्रिया पर विचार करती हैं। यह कविता अभिधा और लक्षणा दोनों स्तरों पर साथ-साथ घटित होती है। दिव्या की कविताएँ इस हिंसक और भ्रामक समय का साक्षात्कार सत्य और संवेदनशीलता के साथ करती हैं तथा कठोरता से उपजे घावों पर कोमलता का लेपन करती हैं। आशा है कि दिव्या पांडेय नई सदी की हिंदी कविता में सकारात्मक योगदान करेंगी।
दिव्या पाण्डेय की कविताएँ
1. विरोधाभास का व्याकरण
जिन चेहरों पर
पढ़ी जा सकती हैं
अकाल के मौसम की
दरकती इबारतें
मानसून आने पर
सबसे मज़बूत बाँध
उन्हीं की ज़रूरत होते हैं
जिस डाल पर
नहीं खिला
कभी कोई फूल
पत्तियाँ उसकी
सिखा सकती हैं
उर्वर खाद का सटीक फॉर्मूला
उदर, जिसकी भित्तियों पर
नहीं अंकित
भरपेट तृप्ति का इतिहास
क्षुधा उसकी
बता सकती है
पाक कला की बारीकियाँ
नौका, जो मझधार में डूब गई
जिसके महत्वाकांक्षी कलपुर्जे
नहीं पार कर पाये
एक भी सागर
डूबने के कगार पर
ठिठकी नावों को
सुना सकती है
मौसमी खिलवाड़ के किस्से
देह
जो भटकती है निर्वसन
बदनामी के सैलाब में डूबती-उतराती
नहीं मिल पाती जिसे
लज्जा-द्वीप की नागरिकता
जानती है
प्रेयस-मिलन पर,
किस सलीके से उघाड़ना है
परतदार मन
कैसे बरतने हैं
ढाँप के गुर
2. कविता का प्रजननशास्त्र
देखती है कलम दिवास्वप्न
कागज़ से मेल का
कागज़ की मृत कोशिकाएँ
श्वसन करती हैं उन्माद में
उत्कण्ठा
भरती है डग
उफ़ान, फूट पड़ता है
ख़ूब होती है स्याह केलि
भाषा की छाती में
उमगते हैं दो फूल
व्याकरण को पाँव
भारी मालूम देते हैं
डगमगाता है संतुलन शब्दों का
मानी
मनमौजी होने लगते हैं
गदराती है भावों की देह
मन कपोलों की
लालिम शर्माती है
प्रणय बाद आती है पीड़ा उन्मन
प्रतीक्षा के नीरव आँगन में
पक्व मञ्जुल काया
कविता-किलकारी की राह तकती है।
3. लोरी
मुझे सोना है
बाद तुम्हारे
जागना, तुमसे पहले है
मुझे देखना है उतरना
नींद का
इन आँखों में
इनकी उनींदी सुबह का
पहरेदार भी होना है
नींद का
एक छोटा टुकड़ा
बस चाहत है मेरी
सिरहाने तुम्हारे
हमारी सैंकड़ों बातों के बाद
मैंने सीख ली हैं
वो लोरियाँ भी सब
जो जानती हैं बेहोश करना
हर तकलीफ़ को
थकावटों को
अग़वा करना भी
आता है जिन्हें
मेरी गुज़ारिश
बस इतनी है तुमसे
कि बोझ मेरे सपनों का
तुम, मेरे काँधे पे रख दो !
4. तुम आओ !
(१)
तुम्हारे जाने के बाद
पंजों के बल
चलना सीखा मैंने
इतनी सफाई से
कि भ्रम रहा लोगों को
लगता रहा उन्हें
कि हर बार की तरह
उड़ने की तैयारी में हूँ
अनुभव की ऊँचाइयों से
आवाज़…आई
सावधानी आज़माती हो बहुत
ज्यों छठवें महीने बाद
करवट देकर उठती है गर्भिणी
ताकि, कोख को पहुँचता रहे रक्त
बस थोड़े दिनों का और
करतब है
कौतुक दुनिया का
ख़त्म होने को है
तुम आओ
फिर तुम्हारे कन्धों पर
सिरा दूँगी
रात रानी के सब फूल
जो मेरे तलवों में उग आये हैं
तुम्हारे चूमने से !
(२)
तुम्हारे जाने के बाद
जाना मैंने
कि आवाज़ें जानती हैं तैरना
उनका तरंग होना
इस ख़ूबी में काम आता है
बीतता समय
छुपता जाता है
मन की कन्दराओं में
तुम्हारी पुकार उतराती है
श्वास की हर आवृत्ति के साथ
स्मृति-तन्तु पर विस्तारित होती है तरंगदैर्घ्य इसकी
अभ्यास करती हूँ इन दिनों
उलझती-गिरती-दौड़ती हूँ
अमेजन-से
मन जंगल में
धीरे-धीरे सम्भल कर उड़ना
आ गया है अब मुझे
तुम आओ….
पलायन वेग से विस्थापित होकर
तुम्हारी परिधि में स्थापित हो जाऊँगी
तुम विचरण करते रहो असीम ब्रह्माण्ड में
मैं, तुम्हारा
उपग्रह हो जाऊँगी !
(३)
तुम्हारे जाने के बाद
हर रोज़ लगती है कचहरी
हर समय, साथ रखना होता है
मुझे, पहचान-पत्र
नज़रें , जिनके उजालों से बचते-बचाते, आए थे तुम
दरवाज़े, जिनकी चौखट ने
नहीं सुनी थी तुम्हारी पदचाप
पूछते हैं मुझसे
क्यों बौराई हुई है मेरी देहगंध
क्यों आदिम हुई है मेरी चाल
लगाते हैं पलकों पर
सभ्यता के इनामी आरोपी को
छुपाने का इल्ज़ाम
ठहरता है जब तक
मेरी छाती की उमग पर
उनका कौतूहल
तुम आओ…
तुम आ जाओ
कि हो चुकी है शिनाख़्त
तुम्हारे ठिकाने की
पलकों की पड़ताल के चलते
हमें ज़रूरत है
नये राज़दां की
इस बार तुम्हें छुपाऊँगी
बहुत भीतर तक
ले जाऊँगी
माथे के तिल से
नाभि तक
कस्तूरी हो जाऊँगी!
5. बोली
जब नाराज़गी
मौसम से हो
तो मिट्टी के, साबुत कशकोल को
तोड़कर थोड़ा तिरछा
तल्ख़ रस्सियों से, लटका दिया जाये
पूरे से, थोड़ा कम पानी भरकर
उस बूढ़े पीपल पर
जिसकी छाँव, हर बार बनी गोद
तुम्हारी चूर उदासी के लिए
झुर्रीदार पत्तों ने, चरमराकर भी सुनाईं
बेतरह की लोरियाँ
ताकि, जब कोई चिड़िया
थकी-प्यासी लौटे अपने घर
जुटाकर दो जून की रोटी
शुक्रिया, कुछ ज़्यादा कहे इस बार
उस पीपल के कोटर को
हो सकता है
वह तुमसे ज़्यादा
पक्षियों की बोली समझता हो !
6. अनछुई सतह
क्यों न हम-तुम
हो जाएँ वाष्पित
इस सान्द्र प्रेम-विलयन से
जो खो चुका है तासीर अपनी
कुछ तलहटी में जमा
तो कुछ तैरती हसरतों की
मिलावट के हाथों
और द्रवित हो जाएँ
उस अभिनव सतह पर
जिसपर नहीं हुई
कोई रसायनिक क्रिया कभी
देखें दूर से
एक दूसरे को
नन्हीं बूँदें बनकर
न करें कोशिश भी
एक होने की
जानते हुए यह रहस्य कि…
छोटी बूँदों की
बेचैनी कम होती है
एक बड़ी बूँद से
उसकी सरफेस टेंशन
की तरह ही !
7. अंततः मृत्यु
निष्प्राण समझ
जब बहा आये थे
तुम मुझे
निश्चेत थी मैं बस
मेरा पुनर्जीवन
नहीं माँगता था
तुम्हारे अथक प्रयासों की बलि
बस पनीली आँखों से टपकती
विरह की वेदना ही
संजीवनी थी मेरी
चाहा था मैंने
पुकारना तुम्हें
अपनी अर्थी से उठकर
लेकिन जब पाया
स्वयं को मरा
तुम्हारे भीतर
समझ गयी मैं
बहना ही है
प्रारब्ध मेरा
लौटकर छद्म जीवन में
आँसुओं में बहूँ
या स्वीकार कर
सच्ची मृत्यु
भस्म होकर बहूँ !
8. कामना
हर पूर्णिमा पिराती है
नदी की देह
बदलती है
करवटें अनगिनत
उलटने पड़ते हैं गिलाफ़
किनारों को भी हर बार
तुमने कहा था एक दिन
गुरुत्वाकर्षण के हवाले से
जानती हो न ?
ज्वार-भाटे का आरोह-अवरोह
कौमुदी-केलि है
पृथ्वी की उत्सुक काया पर
जब-जब सम्मुख हुई
महसूस किया मैंने …
डोलता है
जीवद्रव्य, स्नायु-जल मेरा
ओ ! पूर्णचन्द्र मेरे
मेरे पंचांग में पूर्णिमा कब है ?
(कवयित्री दिव्या पाण्डेय पेशे से चिकित्सक (रेडियोलॉजिस्ट) हैं। वर्तमान में एम्स ऋषिकेश में सीनियर रेसिडेंट के पद पर कार्यरत हैं। इनकी कविताएँ और लेख कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। संपर्क – 8818954030
टिप्पणीकार सुघोष मिश्र जन्मस्थान : मगहर, संत कबीर नगर (उत्तर प्रदेश). स्नातक और परास्नातक: इलाहाबाद विश्वविद्यालय. एम.फिल. : हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय। पीएच.डी. : हिंदी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय (वर्तमान में शोधरत)।कविता और आलोचना में सक्रिय। कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख प्रकाशित। फोटोग्राफी और फ़िल्म निर्माण में भी रुचि। सम्पर्क: 9582197077)