ख़ुदेजा ख़ान
समय बदलता है और बदल जाता है हमारे आसपास का परिवेश, वातावरण, पर्यावरण, संबंध और सामाजिक सरोकार इतना ही नहीं आर्थिक, राजनीतिक स्थितियाँ भी इस परिवर्तन में अपना पूर्ववत ढांचा बदल लेती हैं। इस बदलते हुए समय को, अपने
जीवनानुभव व पांच दशकों के अंतराल को बृज श्रीवास्तव अपनी कविताओं में पकड़ने की, थामने की, चिन्हित करने की कोशिश तो करते ही हैं उसे अभिव्यक्त कर एक सुंदर विश्लेषणात्मक मीमांसा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
संवेदना के स्तर पर भावनाओं को स्पंदित करते हुए उन देखे- अनदेखे पहलुओं को अपनी कविता में बारीकी से रखते हैं जिनपर साधारणतया दृष्टि नहीं पहुँचती।
कविता में निहित कथ्य और भाव उनकी कविताओं को सहज संप्रेषणीय बनाते हैं। कवि के दृष्टिकोण की व्यापक विषयों तक पहुँच है तभी तो वह कामवाली बाई से लेकर सब्जी मंडी तक, मानवीय संबंधों से लेकर प्रकृति की सुरक्षा तक अपने विचारों को विस्तार दे पाने में सक्षम दिखाई देते हैं।
सामान्य पाठक भी कविता से जुड़ाव महसूस करता है क्योंकि यह हमारे आसपास की दृश्यावलियों, परिदृश्यों घटनाओं से उपजी कविताएँ हैं। उस एक पल में जब यह कवि के मन में कौंध कर बिजली की तरह चमकी होंगी तब कवि ने इन्हें कलमबद्ध कर कविताओं में ढाला होगा।
कवि जिस सुंदर संसार की कल्पना करता है उस संसार में व्याप्त विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ यदि उसके अंतर्मन को कचोटने लगें तब वह अपनी सृजन धर्मिता से उन पर प्रहार कर उन्हें दुरुस्त करने का प्रयास करता है या कहें सुधीजनों का ध्यानाकर्षण करने का कार्य ताकि मानवीय मूल्यों को जीवित रखा जा सके। ये कविताएँ
कभी विषमताओं में संतुलन साधने का कार्य, कभी यथास्थिति को सम्मुख रख चेतन्य करने की भूमिका पूरी ईमानदारी से निभाती हैं।
एक बटन दबाएगा, कौन कहता है, दुनिया का बदन, इस व्यापार में यह कविताएँ हमें सामाजिकता से जोड़ती हैं कि हम अकेले नहीं, आपसी सम्बद्धता से ही समाज की सुव्यवस्थित निर्मित संभव है।
कामना, फिर भी, प्रतिपक्ष में, पुकार नहीं पा रहा हूँ आदि कविताएँ मानवीय स्वभाव के नैसर्गिक गुणों को विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त कर मनुष्य के भावनात्मक पक्ष को सशक्त ढंग से प्रदर्शित करने में सफल हुई हैं।
प्रतीक और बिंबो का कविता में सुंदर व्यंजनात्मक प्रयोग उन्हें विशिष्ट बनाता है फिर भी संप्रेषण का कहीं भी बाधित न होना कवि की लेखिकीय क्षमता को प्रमाणित करता है।
गुज़रे समय को याद करते हुए एक कविता है ‘माँ की ढोलक’ इसमें मनुष्य की जिजीविषा तथा जीवन के प्रति सकारात्मक पक्ष का सुंदर चित्रण है इस कविता की पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं –
दरअसल तब लोग लय में जीते थे
जीवन के ढोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी-खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले।
संघर्षरत रहने की यही लालसा जीवन के कलात्मक, रचनात्मक, सकारात्मक रहने की कसौटी है।
ब्रज श्रीवास्तव की कविताएँ
1. एक बटन दबाएगा
जहाँ जहाँ स्वार्थी
मनुष्य रह रहा होगा
हो जाएंगे सूराख ही सूराख
धरती के बदन में
निर्जला व्रत करने वाली दादी
से नहीं सीखेगा
पानी का सम्मान करते हुए
प्यासे रहने का अभ्यास करना
एक मशीन बुलाएगा
और चीर डालेगा
धरती का सीना
जश्न मनाएगा
पाकर एक इंच की जल धार
पानी की चिंता करने
वालों के बीच से उठ कर चला जाएगा
घर के दरवाजे बंद कर लेगा
हो जाएगा शामिल
निश्चिन्तों की जात में
पड़ोसियों की
प्यास को अनदेखा करेगा वह
एक बटन दबाएगा
और गर्व से
डालेगा मोटी बौछार
अपनी कार पर.
2. कौन कहता है
ठंड की सुबह में कांपती हुई
आ गयी है इस घर में
काम वाली बाई
अपने घर के कामों को मुल्तवी करके
गरीबी से उपजे
झगड़ों का
बोझ लिए हुए दिल पर
थकी हुई आई है
कमर दर्द से पस्त है तब भी
बैठ जाती है बर्तन मांजने के लिए
आह भरकर
मालकिन गृहिणी
नौकर गृहिणी
को काम करने से रोकती है आग्रह पूर्वक
बनाकर देती है चाय
और दर्द की गोली
खाली पेट न खाले वह तो
सेंकने लगती है एक परांठा
यह दो स्त्रियों के बीच के
सहकार का
अद्भुत दृश्य था
मनुष्यता के पक्ष का
कौन कहता है
ख़त्म गयी है इंसानियत
अभी भी स्त्रियाँ कहीं-कहीं
इसी तरह बन जातीं हैं
सखियांँ
और दुखों को बांट लेतीं हैं
3. इस व्यापार में
अप्रिय नहीं लग रहा
सब्जी मंडी में जनसमूह
चहल पहल का अच्छा उदाहरण है यह
जल्दबाजी में नहीं हैं
वाहन पर सवार लोग
वे इंतज़ार करते हैं
थैले संभाले हुए लोगों का
कि वे हट जाएं इत्मीनान से
कोई किसी को धक्का नहीं देता
गाय को हटाता हुआ दुकान दार
लाठी उठाता तो है पर मारता नहीं
कई बार तो वह कि ख़ुद ही
दे देता है
दो चार आलू ज़रूरत मंद को
सुबह से ही
बैठ जातीं है दरी और डलियां जमाकर
हरे,तांबई,बैंगनी,भूरे रंगों की ताज़ा सब्जियों का कोलाज़ लेकर अनेक वृद्धाएं
मेहनत से बना सौन्दर्य है
तुरई ,गिलकी ,लौकी
शलजम ,पालक और अमरूद लेकर
आई श्यामा सी औरत की काया में
कुछ बच्चे और अधेड़ भी टेर रहे हैं
हम जैसों को सेठ कहकर
आश्वासन छोड़ कर घरों में
विक्रेता आए हैं अनेक गाँवों से
ताज़ा सागों को बेचने के लिए
चिल्लर से भरी थैली पहले से ही
लाए हैं कि वापस कर सकें
बड़े नोट के बदले में बचे सिक्के
धूप सर्दी बरसात की बाधा
महसूस ही नहीं की
अपने इस व्यापार में उन्होंने
सब्जी मंडी की पुकारें
फिर भी प्रिय हैं
अप्रिय है सुपर मार्केटों का संगीत
उससे भी ज्यादा बेसुरी हैं
कंपनियों की घर घर आतीं पुकारें
टीवी के विज्ञापनों के रस्ते
सब्जियाँ बेचते ये मजदूर
किसी को ठगकर
अमीर होने नहीं आए हैं
हमारी ज़रूरतों को
पूरा करने के लिए
बैठे हैं दिन भर से।
4. दुनिया का बदन
कौनसा तत्व कम हो गया है
दुनिया के शरीर में
बढ़ गया है कौनसा बिटामिन
कोई चिकित्सक नहीं है कि जांचे
करे शल्य चिकित्सा
दुनिया के दिमाग में हो गए अल्सर की
वह फलक रहा है
जिससे नींद नहीं आ रही है
सांसों को
इस बदन को मानसिक रोग है या
शारीरिक
भूगोल क्योंकर गमगीन है
क्या इसमें पानी कम हो गया है
या हवा ही जा रही है मुंह और नाक से दूषित
पृथ्वी को बुखार है
कोई नापे इसका तापमान
और रखे आहिस्ते से सर पर पानी की पट्टी
हांफ रहे हैं खड़े खड़े सारे पहाड़
समुंदर दौड़ रहे हैं अपनी ही परिधि में
नदियों में सुस्ती भरी है
किनारे बुजुर्गों की तरह थके हैं
कोई जाए सुनाए उन्हें संगीत
योग कराए कोई रेगिस्तान को
दुनिया इस समय बीमार है
अनेक बेटों की
माँ की तरह गुमसुम है
अपने ही ख़यालों में
कोई जाए
उसे हंसाए
अनेक चिकित्सकों और अनेक इंसानों को
सुनाई दे रही होगी
दुनिया के बुदबुदाने की आवाज़
अगर वे ह्दय के कानों से सुनते होंगें
5. कामना
अगर अगले जन्म में फल बनाने
का विकल्प हो तो
मुझे आम बनाना
मैं अपने माता पिता की एक टहनी पर
बढ़कर धीरे धीरे
इतराऊंगा अपनी माँग पर.
अगर विधा बनने का विकल्प हो
तो मुझे कविता बना देना
अगर पक्षी बनूं तो गौरेया
अगर पशु बनूं तो
हिरन
अगर फूल और पत्थर के विकल्प
में से कोई एक चुनना हो
तो अगले बार
फिर से फूल मत बनाना मुझे
कुचल को बहुत भोग चुका हूँ
पत्थर बना देना मुझे
जो होगा सो होगा
देखा जाएगा
सह तो पाऊंगा
हर तरह की मार
काम तो आऊंगा
लोगों के
हर मकाम पर.
6. फिर भी
फिर भी
इतने मंदिर
इतनी मस्जिदें
फिर भी
बेशर्मी और ज़िदें।
इतने सत्संग
इतने भक्त
इतनी फ़िल्में
इतना इल्म
फिर भी
इतना जुल्म।
इतनी शायरी
इतने रंग
इतने नेता
इतने संत
इतने थाने
इतने ग्रंथ
इतने पंथ
भक्ति अगाध।
फिर भी इतने अपराध।
दुर्दशा ही दुर्दशा
फिर भी इतनी बेखबरी
इतना नशा
7. प्रतिपक्ष में
उदार हुआ
तो कमजोर कहा
कठोर हुआ
तो मुंह फेर लिया
मृदु बोला
तो कुटिल कहा
ख़रा ख़रा बोला
तो खडूस कहा
धीरे बोला
तो चालाक कहा
तेज बोला तो
अशिष्ट कहा।
वह था ही प्रतिपक्ष में
मैं भला और क्या करता
खुद पर भरोसा करने के अलावा
8. टोपी
नीली और मुलायम
धूप में सिर को ठंडक देने वाली
मेरी प्रिय टोपी कहीं गुम गयी
उसके बगैर मैं जब निकला बाहर
तो भी सबने मुझे पहचान लिया
मेरी ज़रूरत थी वो टोपी
उस टोपी के जैसी नहीं
जो लोगों की पहचान बन जाती है.
9. पुकार नहीं पा रहा हूँ
खत्म होते जाते हैं कुछ रिश्ते
इनकी चुभन बनी रहती है
ये जैसे ही आते हैं सामने
पीछे कर लेते हैं चेहरे
मुलाकात की भावना को
बरबस छिपा लेते हैं.
कुछ कड़वा याद करते हैं
किसी से कुछ नहीं कहते
और ध्यान कहीं और ले जाकर
जैसे भूलने की कोशिश करते हैं.
ये वो रिश्ते हैं
एक दौर में जिनके बगैरउ़जजजझजज़्
कटते नहीं थे लम्हे
जो दौड़ दौड़ कर मदद
करते थे परस्पर
ज़माना भी इनकी मिसाल
देने लगा था
पर पता नहीं क्या घटा
इन लोगों के बीच
कि
अब बात नहीं करते वे आपस में
जो कभी छोटी छोटी खुशी और
दुख के वक्त खड़े रहते थे साथ
वे अब बड़े दुख में तक
एक दूसरे से दूर हो गये हैं.
जैसे कि हर रोग का बड़ा प्रतिशत
मौजूद है दुनिया में
घनिष्ठ रिश्तों का
रूखेपन में बदलने का भी
प्रतिशत बढ़ता जा रहा है.
दो चार रिश्ते तो ऐसे मेरे जीवन में भी हैं
जिनकी इस वक्त बहुत याद आ रही है
पर मैं उन्हें पुकार नहीं पा रहा हूँ
10. माँ की ढोलक
ढोलक जब बजती है
तो जरूर पहले
वादक के मन में बजती होगी.
किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है..जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप.
ऐसी थापों के लिए
माँ बखूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने.
उन दिनों रात में
ढ़ोलक -मंजीरों की आवाजसुनते सुनते ही
सोया करते थे लोग.
दरअसल तब लोग लय में जीते थे.
जीवन की ढ़ोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले.
अब यहाँ जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूँ
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढ़ोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता.
इधर माँ पैंसठ पार हो गई है
उसकी गर्दन में तकलीफ है
फिर भी पड़ौस में पहुँच ही जाती है
ढ़ोलक बजाने.
हम सुनते हैं मधुर गूँजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
माँ ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढ़ोलक
कवि ब्रज श्रीवास्तव, विदिशा में 5 सितंबर 1966 को जन्म। तमाम गुमी हुई चीज़ें, घर के भीतर घर, ऐसे दिन का इंतज़ार, आशाघोष, समय ही ऐसा है, हम गवाह हैं सहित, अब तक छः कविता संग्रह प्रकाशित। एक कविता संग्रह ‘कहानी रे तुमे’ उड़िया में भी प्रकाशित। अनुवाद और समीक्षा सहित कथेतर गद्य में अन्य प्रकाशन। माँ पर केंद्रित कविताओं का संचयन ‘धरती होती है मांँ’, पिता पर केंद्रित कविताओं का संचयन ‘पिता के साये में जीवन’ एवं त्रिपथ सीरीज के अब तक तीन संग्रहों का संपादन। साहित्य की बात समूह का संचालन। कुछ काम कैलीग्राफी और चित्रकला में भी। संगीत में दिलचस्पी।
विदिशा में शासकीय हाईस्कूल में प्राचार्य के पद पर कार्यरत।
सम्पर्क: 024134312
वाट्स एप -9425034312
ईमेल -brajshrivastava7@gmail.com
टिप्पणीकार ख़ुदेजा ख़ान, जन्म- 12 नवम्बर. हिंदी -उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और संपादक के रूप में कार्य।
तीन कविता संग्रह। उर्दू में भी दो संग्रह प्रकाशित।साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध।
समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध।
जगदलपुर(छत्तीसगढ़) में निवासरत।
फोन-7389642591