समकालीन जनमत
कविता

भास्कर लाक्षाकार की कविताएँ जीवन अनुभवों से निर्मित मनुष्य की स्पोन्टेनिटी से सृजित हैं

निरंजन श्रोत्रिय


क्या यह संभव है कि किसी कवि को अपने समय-समाज के तापमान का सम्यक ज्ञान हो, उसकी कविता विचार और भावनाओं से समृद्ध हो, वह राजनीतिक दुरभिसंधियों की शिनाख्त कर अपनी कविता को समूची मानवीयता का पक्षधर मानता हो लेकिन खुद अपनी कविता के प्रति बेहद संकोची बल्कि आशंकित और लापरवाह हो? शायद संभव है क्योंकि भास्कर लाक्षाकार कुछ इसी तरह के युवा कवि हैं।

पिछले लगभग पंद्रह वर्षों से कविताएँ लिखने के बावजूद शायद ही किसी प्रिंट मीडिया में उनकी कोई कविता हमने देखी है। छपास और महत्वाकांक्षा के इस लपालप युग में ऐसा संकोच एक आश्चर्य ही कहा जा सकता है। युवा कवि भास्कर लाक्षाकार की कविताएँ जीवन अनुभवों से निर्मित एक मनुष्य की स्पोन्टेनिटी से सृजित कविताएँ हैं, इस तरह ये एक कवि की नहीं एक संवेदित मनुष्य की कविताएँ अधिक हैं।

कविता उनके लिए कोई सायास कार्य-व्यापार नहीं बल्कि बारिश से धुले आसमान में खिला एक स्वस्फूर्त इन्द्रधनुष है। वे मानते भी हैं कि ‘विषय सोचने से नहीं बंधती कविता।’ पहली ही कविता ‘कविता लिखता हूँ’ उनकी रचना प्रक्रिया का ब्यौरा देती है जब एक घनघोर घुमड़-गरज की परिणति केवल चंद फुहारों में होती हैं।

‘प्यार होना’ कविता में प्रेम के ऐन्द्रिक अनुभवों को पारिभाषिक विस्तार दिया गया है- स्थानापन्न शब्दों की स्थानापन्न अर्थाभिव्यक्ति के साथ! ‘नानी’ कविता में एक बुज़ुर्ग पीढ़ी के प्रति स्नेहिल सम्मान और उनके अकेलेपन की व्यथा साझा की गई है। यह नानी चाँद पर चरखा कात रही बच्चों को बहलाती फैण्टेसी नहीं बल्कि हमारा आज का पारिवारिक यथार्थ है।

‘शादी के बाद’ एक शब्द-चित्र है, एक दृश्य कोलाज जिसमें कोलाहली समारोह के बाद की सुबकती निःशब्दता है। ‘मेरे पास सिर्फ कविता’ में कविता की उस लड़ाका ताकत को दर्शाया गया है जो उस वहशी दुनिया के खिलाफ़ एक कारगर हथियार है जिसे रक्त चूसने के लिए भी ‘स्ट्रा’ की ज़रूरत होती है।

‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ कविता में युवा कवि भास्कर के मन में घुमड़ता ‘मेघदूत’ है जो वक्रःपन्था उज्जयिनी की नवयौवनाओं के चितवन के बजाय समकालीन राजनीति और सत्तातंत्र के आखेट का गम्भीर संज्ञान ले रहा है-‘ इस नक्सली बच्चे को दबोचना ज़रूरी है/ जो राजा को मुँह चिढ़ाये वह बच्चा अपराधी है।’ ‘हे राजन्’ भी युवा कवि की राजनीतिक चेतना का विस्तार है जिसके अंतर्गत वह शासक वर्ग के शोषण तंत्र और महानता के लबादे को चुनौती देता है। यहाँ कवि किसी सुभाषित की शक्ल में उथली सीख न देकर इस तंत्र का दीमकीय हिस्सा बन जाने की स्वीकारोक्ति भी करता है।

‘यह सिर्फ एक दिन था’ अपेक्षाकृत लम्बी और महत्वपूर्ण कविता है जिसमें कवि ने अपने समय का समूचा वितान रच दिया है। इस कविता की क्राफ्टमेनशिप अद्भुत है। पूरी कविता में अनूठे बिम्बों और सघन भाषा के रेशों से बुना ऐसा भयावह दृश्य-संसार है जिसमें अपने समय के विकट और डरावने चित्रों को देखा जा सकता है।

‘तलछट की गाद’ कविता कवि की अपनी रचना-प्रक्रिया को समझने में तो मददगार है ही, वह सायास या कृत्रिम कविता के खतरांे से भी हमें आगाह करती है। कविताई एक सतत निस्यंदन या इन्फिल्ट्रिेशन की प्रक्रिया है, यह गहरा काव्य-सूत्र इस कविता में बहुत ही सहजता से बयां किया गया है। ‘तर्क’ कविता में लाॅजिक और यथार्थ के बीच के सम्मोहनी फ़र्क को उजागर किया गया है। यह कविता तर्क और सच के द्वन्द्व को एक स्पष्ट राजनीतिक समझ के साथ उजागर करती है।

‘ईश्वर’ कविता युवा कवि भास्कर लाक्षाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का पता देती है। यह महज एक नास्तिक का एकालाप नहीं बल्कि धर्म के बाकायदा राजनीतिक अधिग्रहण की सशक्त कविता है-‘ इस सब के लिए सिरजा उन्होंने धर्म/ धर्म जिसका पेट बड़ा और हाथ छोटे थे।’ कवियों की आदत’ कविता समकालीन साहित्य-वातावरण पर एक तल्ख़ तंज है। एक दीर्घकालिक साधना को फौरी इंटरनेटमय प्रक्रिया से विस्थापित करने की हास्यास्पद कोशिशों पर एक चुटीली तिर्यक दृष्टि है यह कविता।

‘पिता रोते नहीं’ एक और सशक्त कविता है जिसमें पिता की चिन्ताओं, उसके दाय, दायित्व और उदासी को मार्मिकता से उकेरा गया है। इस कविता को ‘पितृसत्तात्मक’ मान लेना बड़ी भूल होगी क्योंकि यहाँ किसी सत्ता की स्थापना का आग्रह नहीं बल्कि कुछ-कुछ उपेक्षित छोड़ दिए गए को केन्द्र में लाने का ज़रूरी प्रयास है।

‘औरत’ कविता में स्त्री की व्यथा को बिम्बों के नवाचार के साथ उभारा गया है। स्त्रियों के समवेत गीतांे में क्रन्दन भांप लेने की तमीज़ सिखाती है यह कविता। ‘ताज’ एक विशुद्ध राजनीतिक कविता है जिसमें सत्ताधीश का अहं, सत्ता को कायम रखने का युद्धोन्माद, राजनीतिक दुरभिसंधियाँ लेकिन अंत में सत्ता का वास्तविक दर्शन भी सम्मिलित है।

‘आहत भावनाएँ’ कविता में हमारे समकाल में प्रचलित भाषा और उसके निहितार्थ पर चुटीला व्यंग्य है। जनभावना और जनभाषा का राजनीतिक स्वार्थों के लिए किस तरह से उपयोग किया जा सकता है, यह कविता इसका दिलचस्प खुलासा करती है। ‘श्रद्धांजलि’ कविता संवेदना के व्यापार पर एक करारा तमाचा है। भाषा का अतिरेक किस तरह उसकी अर्थवत्ता को समाप्त कर देता है यह कविता उसी का मार्मिक खुलासा है-‘क्विंटलों गुलाब चढ़ाया जाता है उन पर/ जिन्होंने गेहूँ को हिकारत से देखा था।’

युवा कवि भास्कर लाक्षाकार महीन संवेदनों, अनूठे बिम्बों, सघन भाषा, मानवीय सरोकारों और सहृदयी मिजाज़ के संकोची-शर्मीले कवि हैं। एक बेचैन कविता-समय उनके भीतर अरसे से सोया है, वह ज़ल्द जागे और बाहर आए! शुभकामनाएँ।

 

भास्कर लाक्षाकार की कविताएँ

1. कविता लिखता हूँ

कविता लिखता हूँ
भर आती है साँस
जोर-जोर से बाल्टी हलोरता हूँ
भीतर और खूब गहरे से
बाहर लाता हूँ उँडेलने के लिए
पता नहीं हर बार कुछ पानी ही आता है
छलक जाती है फिर फिर कविता भीतर ही भीतर
रिस पाता है सिर्फ इतना बाहर
जितना इस पेन की स्याही।

 

2. प्यार होना

प्यार पर लिखते हुए कविता
सोचता हूँ प्यार के बारे में
सोचता हूँ उस आदमी औरत के बाबद
जिसने प्यार छुआ नहीं सूँघा नहीं
और जो गुजरता गया जीवन में से
जैसे रेल गुजरती है सुरंग में से बिना छुए दीवारों को
मगर क्या सच में नहीं छुआ उसने प्रेम ?
या कि नहीं सहलाया उसे प्यार ने!
गोया यह कि ‘प्यार करना’ कुछ नहीं होता
सिर्फ ‘प्यार होना’ होता है।

 

3. नानी

नानी अचानक बूढ़ी हो गईं जर्जर
वे रेशमी सुनहरे बाल
पड़ गए सफेद झक्क
पुराने कपासी धागों-से
चेहरे पर झुर्रियाँ धँस गईं स्मृति की
कि जहाँ खिलती थी स्नेहिल मुस्कान
हम बच्चों को देखकर
अचानक सुबह-सुबह
झुक गई कमर नानी की
जिसने पतली साढ़े चार फिटी काया से धकेले थे मनों के बोझ

और यह सब हुआ रात के रात
नाना के चले जाने के बाद।

 

4. शादी के बाद

शादी के बाद
बचते हैं
कुम्हलाएँ पैरों तले मींड़े गए फूल
माँ की सिसकियाँ
बारातियों द्वारा छोड़ी गईं खाली बोतलें
उड़ाए गए अधफटे नोट

शादी के बाद बचता है
माँ की आँखों का सूखा हुआ जल
जो उस धूल में जा मिलता है
जो वापस जाती है बारात के पैरों तले।

 

5. मेरे पास सिर्फ कविता

जब दुनिया करेगी अपने हथियार पैने
और खोजेगी स्ट्रा रक्त चूसने के लिए
उनके हाथों में दुनिया के सब हथियार होंगे
मेरे पास होगी सिर्फ कविता
टटोलने के लिए अँधेरे में अपना हाथ
करने के लिए खुद की परछाई की पड़ताल
मुहैया कराती है थोड़ी-सी साफ हवा कविता ही।

 

6. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे

जब राजा जा रहा था वैसा ही नंगा
अपनी शान के लबादे लादे हुए
उस छोटे बच्चे ने
शायद जो ठीक से सभ्य लोगों की तरह
म्ूतना भी नहीं जानता था
कह दिया कि राजा नंगा है
कानों में पड़ गई बात राजा के
राजा के दरबारियों के और दरबारियों के चाटुकारों के
और चाटुकारों के चरणवन्दकों के
इस नक्सली बच्चे को दबोचना ज़रूरी है
जो राजा को मुँह चिढ़ाये वह बच्चा अपराधी है
और यह सब हुआ बरसात के एक सुनहरे दिन
कालिदास के आषाढ़स्य प्रथमदिवसे
जिस दिन हम चाय पीते पकौड़े खाते हैं।

 

7. हे राजन्

हे राजन्
यह बौने शासकों का दौर है
जो लकड़ी बँधे पाँव से ऊँचे दिखने की जुगत में हैं
जो युगदृष्टा बनते दिखना चाहते हैं
जिनकी आँख चीन्हती नहीं अपने ठीक सामने का पड़ोसी

गायक,
यह कर्कश आलापों का स्वर है जिसमें द्रुत की बंदिश अभी बाकी है
जहाँ स्वर को दाब के कीचड़ में, मसका जा रहा है गला
और मौत का कारण पीएम में आता है-
हृदय गति रूकने से मृत्यु!

भंते,
यह धार्मिकों का युग है
जो जितना अनैतिक है उतना ही धार्मिक दिखने की जुगाड़ में है
मानो यूँ कि यह कीचड़ धँसी देह पर सफेद कपड़े की ढकन है

साधो,
यह सामाजिकों का समय है
यहाँ राज्य प्रायोजित खाओ-खिलाओ कार्यक्रमों में
दीमक सरीखे सब लगे हैं।

 

8. यह सिर्फ एक दिन था

यह सिर्फ एक दिन था
जब घड़े भर कर पानी बरसा था
आसमान की छाती के छेदों में से

यह सिर्फ एक दिन था
एक टूटी हुई लकड़ी पर जमी हुई
फफूँद, काई और कीड़ों की बस्ती
वहाँ से रूखसती की तैयारी में थी

यह सिर्फ एक दिन था
जब एक भीड़
अपने राजा का चुनाव करने के लिए
कत्ल कर चुकी थी अपने साथियों का

यह सिर्फ एक दिन था
जब एक बड़े माॅल की नींव में
मरी हुई मछलियों का तड़पता हुआ तालाब
और बेशरम के कुछ पौधे थे

यह सिर्फ एक दिन था
जिसमें धीरे-धीरे घर की बत्तियाँ बुझती थीं
और लपलपाती थी दीवार की छिपकली कीड़ों को निगलने के लिए

यह सिर्फ एक दिन था
जब जुए और रंडीबाजी को मिल गया था धर्म का दर्जा
और दलाल खुदा बन बैठे थे

यह सिर्फ एक दिन था
जहाँ काली मिर्च के पौधों पर छिड़काव होता था गोरेपन की क्रीम का
और नदी में मिनरल वाटर की बोतल से पानी छोड़ा जाता था

यह सिर्फ एक दिन था
जब आशीर्वाद की कीमत सिर्फ एक रूपया थी
और सब बड़े ब्राण्ड एक रूपये की छूट अपने प्रोडक्ट पर दे रहे थे

यह सिर्फ एक दिन था
जिसमें पछुआ हवाओं की गलन थी
और हम रिफाॅर्म की चाय पीते थे टोस्ट के साथ
यह सिर्फ एक दिन था
जब दुनिया लुढ़क रही थी तेजी से
और हरक्युलिस भी उसे धक्का दे रहा था

यह सिर्फ एक दिन था
जब मैं कविता लिखना चाहता था और
दुनिया का आखिरी पेन चोरी चला गया था एक संग्रहालय से।

9. आइने में

आइने में दिखता है सब कुछ उल्टा
दायें से बायां और बायें से दायां हो जाता है सब कुछ
देखते रहते हैं ताउम्र खुद को और दूसरों को आइने में
और हो जाते हैं अभ्यस्त
खुद को वैसा ही समझने के लिए
सदा के लिए।

 

10. तलछट की गाद

विषय सोचने से नहीं बँधती कविता
विषय सोच कर लिखे जाते होंगे निबंध या कुछ और
बस, शुरू करते हैं कुछ शब्दों के समयोज वियोजन से
शब्द जो उड़े चले आते हैं टिड्डियों की तरह
खुद ब खुद रास्ता खरादते अपना
बेपंख बेबात बहे आते हैं जो
सुगंध फैला देते हैं चारों ओर
और हम देखते हैं अनंत आभा शब्दों की
बनती हैं अनगिन आकृतियाँ
जिनका रहस्य रहस्य ही रह जाता
धीरे-धीरे-धीरे जमते हैं शब्द
तलछट की गाद की तरह
और बनती हैं वे आकृतियाँ
जिन्हें लोग कह देते हैं यूँ ही अजाने में कविता।

 

11. तर्क

तर्क बेहद सुन्दर होते हैं
तर्क के लिहाफ में लिपटी लफ्फाजियाँ बेहद मुलायम
इतनी कि
सर रखते ही आँख लग जाए
और लगे जो आँख यूँ कि पता भी न चले
यहाँ तक कि ठीक बगल से गुजर जाए रेल धड़र-धड़र
जी, वही रेल जिसको बुलेट होना है
बुलेट जो चलती है तो छाती पर लग सकती है
सच यह कि तर्क ढांक लेते हैं सचाई को
सच वही जो आपके सर के ठीक नीचे
आधी रात को नाग की तरह फन उठा लेता है।

 

12. ईश्वर

पहले उन्होंने ईश्वर बनाया
फिर उसकी पसंद-नापसंद तय की
यहाँ तक कि ईश्वर के कपड़े भी उन्होंने ही चुने
फिर धीरे-से उन्होंने बताया कि ईश्वर दरअसल चाहता है रक्त
पसंद करता है विवर्ण होते पशुओं का लहू
चाहता है देवदासियाँ
और यहाँ तक कि कुछ न हो
तो मनुष्य का रक्त भी उसे पसंद है
उन्होंने ही एक रात रहस्योद्घाटन किया
कि ईश्वर दरअसल जेहाद से सबाब देता है
इस सब के लिए सिरजा उन्होंने धर्म
धर्म जिसका पेट बड़ा और हाथ छोटे थे
जिनमें मजबूत रस्सियाँ थीं
और उनसे यज्ञ यूप की भांति बाँधा जा सकता था मनुष्यों को
जब दोपाया को चैपाया बनाया गया
तो नांद में भूसा और धर्म की सानी मिलाकर रखी गई
जिसे खाकर देर तक पगुराया जा सकता था
और इस तरह तिकड़म से रच दिया सभ्य अभिनव समाज
उन्होंने चूँकि तय कर रखे थे
धर्म अधर्म ग्रन्थ पाण्डित्य पौरूष और कला के मानदण्ड
उन्हीं के बीच से ईश्वर अकुलाता था
और कामना करता था किसी मुक्ति के मसीहा की।

 

13. कवियों की आदत

कवियों की आदत होती है
हर कविता के जवाब में कुछ लिखने की
और लिखना यूँ कि चू पड़े टप्प से विद्वत्ता
(उँह, तूने ये पढ़ा तो ले, मैंने यह पढ़ा है)
हर बार जरूरी नहीं कि कुछ कहा ही जाए
मौन की सराहना कहीं कन्दरा में छोड़ आए हम

कवि लिखता है कविता है छापता है ब्लाॅग पे..
और हर दस मिनट में देखता है कमेंट्स की संख्या
किसी भी कविता की टिप्पणी में दूसरा कवि लिखता है शोकगीत
गिलहरी की जुठियाई कुतरी हुई बिही जैसा…
और फिर बाकी सब देखते हैं कवियों की जूतमपैजार
जिसमें शब्द ही खंग कृपाण बन कर रक्तनाश कर देते हैं प्रतिपक्ष का
कवि को दुनिया की चिन्ता खाए जाती है कविता लिखते वक्त
और बाकी वक्त कविता को छपवाने की!

 

14. पिता रोते नहीं

पिता रोते नहीं आँख से मुस्कुराहट घट जाती है
कुछ नमी-सी नज़र आती है एक फ़िक्र उभर आती है
कुछ दाग-से निकलकर चेहरे पर आ के रूक जाए
कुछ चलते-चलते राहों में उबलते पाँव ज्यों ठिठक जाएँ
एक झुकी कमर नज़र आती, एक दबी-सी आह कानों में
सूखती मुर्दनी भरी आँखें दरियाग़ार चीर जाती है
बाप को नहीं ये सहूलियत भी कि रो सके दहाड़ मार
वे सवाल उफनते जो उफनते हैं उनका कोई हल निकाल सके
आज शाम शम्मा जले जो फिर उदास लौटा है
अपने ही घर में बेगाना बेरोज़गार बेटा है
ये चील-सी निगाहों इरादों के हामी इस ज़माने में
लड़कियाँ लौट आएँ सही वक्त, यही सोचा है
माँ के आँसू तमाम नदियों में सदियों से
रो नहीं सका कभी भी बाप अपनी छाती नहीं कूट सका
सिर्फ मज़बूत हो के दिखना था
सिर्फ़ एक दरख़्त बनना था
जिसपे रहती हैं तमाम चिड़ियाएँ
जिसके तने की मजबूती आरी कुल्हाड़ी मात करे।

 

15. औरत

औरत रोती है टूटी हुई टोंटी के नल की तरह
वह टपकती रहती है दिन रात
और जोर पे जोर लगा के हम
करते हैं बन्द करने की कोशिश
औरत गाती नहीं सिर्फ़ रोती है
उनका गाना ध्यान से सुनना
मुझे हमेशा एक सामूहिक क्रन्दन लगा है लोकगीत।

 

16. ताज़

ताज में बड़े हीरे जड़े होते हैं
जो सिएरा लियाॅन की खान से निकले थे
मैंने ब्लड डायमंड फिल्म देखी है
देखा यह भी है कि
इन्सानपरस्त ताज़दार ताज़ के साथ सर भी गंवा बैठते हैं
इसलिए ताजदारी खुदा के नाम पर ताज़ पहनती है
ताज दरअसल सिर्फ बेताज के सर के लिए होते हैं
लेकिन बेताज सिर्फ ताज के लिए नहीं
उसमें जड़े हीरों के लिए भी जंग करते हैं
एक सच्चे ताज़दार का कोई राज़दार नहीं होता
डनके राज़ किसी मगरमच्छ के अंडे में दफन रहते हैं
और यह झूठ है कि ताज उछाले जाते हैं
बल्कि सलाहियत से हिफाज़ती हिरासत में ले लिए जाते हैं
ताजदार को सख्त और गर्म चीजें छूने की सख्त मुमानियत है
हालांकि ताज नुकीले लोहे के बने होते हैं
जिन पर सोने का पानी चढ़ा होता है
ताज कोशिश करता है सर से फिसलने की
उसे हमेशा बल्लियों की टेक जरूरी है
ताज की आँखें दरअसल उसकी पीठ में होती हैं
जो रोशनी में अँधेरा खोज लेती हैं
ताजदार अकेला, जब बहुत अकेला होता है
वह ताज उतारकर उसकी सीलन देखता है।

 

17. आहत भावनाएँ

बाज़ार में सड़क पर हर तरफ भावनाएँ थीं
आहत होने के लिए बेचैन या यूँ कहें उतावली थीं
वे इतनी ज्यादा थीं कि पैदल और वाहनों
यहाँ तक कि सड़क पर फैले छिलकों और गुटके के दागों से भी ज्यादा
ट्रैफिक पुलिस का जनहित में जारी संदेश बांचा
‘वाहनों से बचें न बचें, आहत भावनाओं से ज़रूर बचें’
मैंने नींबू खरीदे
दस भावनाएँ आहत हुईं
समोसा खाया
बारह भावनाएँ आहत हो गईं
फिल्म का पोस्टर देखा
पन्द्रह भावनाएँ आहत हुईं
कुमार गन्धर्व को गुनगुनाया
सत्रह भावनाएँ आहत हुईं
मेरे साँस लेने से भी
सड़क पर आवारा मंडराती भावनाएँ आहत हुई पड़ी थीं
फिर मैं आहतों को वहीं फूंक मार घर लौट आया।

 

18. श्रद्धांजलि

श्रद्धांजलि देते वक्त
कहा जाता है कि इनके जैसा कोई नहीं था
दरअसल कहा जाना था कि काश इनके जैसा कोई न होता
श्रद्धांजलियाँ तोप देती हैं महानता उन पर
जिनकी महीन जानकारियाँ दरअसल अश्लील मक्कारियाँ थीं
क्विंटलों गुलाब चढ़ाया जाता है उन पर
जिन्होंने गेहूँ को हिकारत से देखा था
और जो हिन्दी के देशज कवि को समझते थे विपन्न अधपगला
तकरीबन सब मौतें इसी तर्ज पर सेलिब्रेट होती हैं
जिससे आप मृतक की गिजगिजी महानता के नीचे
ठुंसा हुआ-सा महसूस करें
और जब आप किलकिला कर करते हैं जयनाद
उसी वक्त
महान मृतक के गिरोहबंद वसीयतनामे पर
अँगूठा ले लेते हैं मृतक का।


 

कवि भास्कर लाक्षाकार, जन्मः 1 अगस्त 1982 को खनियाधाना जिला शिवपुरी में

शिक्षाः उज्जैन से इलेक्ट्राॅनिक्स एवं कम्यूनिकेशन इंजीनियरिंग स्नातक एवं इंडियन इंस्टीट्यूट
ऑफ़ फाॅरेस्ट मेनेजमेंट से माइक्रोफायनेंस में स्नातकोत्तर उपाधि।

सृजनः कुछ कविताएँ ब्लाॅग्स पर प्रकाशित। ‘संवादिया’ नाम से एक ब्लाॅग का संचालन। संगीत
का शौक

सम्प्रतिः भारतीय प्रशासनिक सेवा (बैच 2010) से सम्बद्ध

सम्पर्कः जिलाधीश निवास, परेड ग्राउण्ड, गुना (म.प्र.) 473 001

ईमेल: lakshakarbhaskar@gmail.com

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

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