कौशल किशोर
6. हीरोशिमा की चीख
हाँ, मैं सूर्योदय के देश का खुशनुमा शहर था कभी
वहां खिलते थे फूल और हंसते थे बच्चे
स्त्री, पुरुष, नौजवान, ब्रध्द वहां रहते थे
और करते थे प्रेम आपस में |
06 अगस्त 1945 को
सुबह ठीक 08 बज कर 15 मिनट पर
इस शहर में यूरेनियम -235 ने
मानव निर्मित सूरज को
पृथ्वी से 500 मीटर ऊपर
जलाता हुआ खड़ा किया |
फिर क्या था
धुंए की लकीरों
और एटमी अँधेरे के समुद्र में
डूब गया मैं और मेरा सौन्दर्य |
इसके बाद बची ध्वस्त इमारतें
टूटे हुए पुल
पत्थर की मूर्तियों की तरह गिरीं लाशें
खामोश सुबह,अविश्वसनीय सन्नाटा
झुलसी हुई चमडियाँ और गहरा अवसाद
जिसे ईश्वर ने नहीं
स्वयं मनुष्य ने रचा था
मेरे विरुध्द |
जंग के सौदागरों
और अमन के मसीहाओ से
हमारी प्रार्थना है की लौटा दो
हमारे पिता,हमारी माताएं, हमारे बुजुर्ग
और खुद मुझे भी
यदि लौटा सकते हो |
7. ग्रेटा के आँसू
ग्रेटा, आंसुओं से डबडबाई तुम्हारी आँखों
और गुस्से से लाल मासूम तुम्हारे चेहरे में
पूरी दुनियां के दर्द का
गहरा और ऊंची –ऊंची लहरों वाला समंदर दिखा |
वजूद के निस्तनाबूत होने के ख़तरे के
अहसास के दर्द ने
समय से पहले तुम्हे वयस्क कर दिया |
तुम उम्र से भले ही छोटी (16 साल ) हो
पर सोचती बहुत बड़ा हो
अजूबा,बेढंगा,लीक से हट कर |
तुमने कहा मैं चलती हूँ
नंगे पाँव तपते रेगिस्तान में
आओ मेरे साथ तुम भी चलो
इस धरती को बचाने
जिसके हम सब बच्चे हैं
सभी जीव-जन्तु,पशु-पक्षी
नदियाँ,पहाड़,समन्दर की
सुन्दर कायनात है जहाँ
जिसे मुनाफ़ाखोर लुटेरों ने
अपने जबड़ों में दबोच लिया है |
इस लहू लुहान धरती
उस पर गहरे खून के धब्बों ने
तुम्हें बेचैन किया
दर्द से छटपटाई तुमने
ललकारा लुटेरों को
यह कहते हुए
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई
हमारे बचपन,हमारे सपने
और हमारी साँसें छीनने की ?
तुम्हारे संवेदनात्मक गुस्से के सामने
दुनियां की सत्ताओं के सर शर्म से झुके थे
और सभी थे मौन गुनहगारों की तरह |
यह तुम्हारी जंग की शुरुआत है
धरती पर चल रही
मारकाट,लूटपाट, तबाही
और दूर तक फैली भूख-प्यास के खिलाफ़ |
तुमने फिर आगाह किया
हम कल को कैसे देख पायेंगे
अगर आज ही खा जायेंगे
सबके हिस्से की रोटियां |
हम कैसा महसूस करेंगे
जब उर्वर जमीन, बंजर होकर
मुंह मोड़ लेगी
हमारे पेट भरने से |
उस जमीन पर
कभी अमन चैन नहीं होता
जहाँ कुछ के पास कुछ ज्यादा
और कुछ के पास बिल्कुल नहीं होता |
जब हम पूछते हैं ऐसा क्यों ?
वे कहते पाँचों उंगलियाँ
बराबर नहीं होती हैं
पर हम कहते हैं
भूमिकाएँ होती हैं पाँचों की बराबर
भले ही छोटी-बड़ी हों |
यह प्रदूषण, बाढ़ या तूफान बने
या सुनामी, सूखा या हैजा
यह लोगों को नहीं
लोगों के मन को मारने वाली
मारण ऋतु है
जिसके भयंकर डर से
मरते-मरते जी रहे हैं हम
अपनी वारी का इन्तजार करते |
हमारे पास जलता हुआ गुस्सा तो है
पर वह एका नहीं
जो प्रचण्ड आग बन कर
सब कुछ खाक करदे दुश्मन का
इस धरती के लुटेरे दुश्मनों का
हमारे बचपन, सपनों
और साँसों के दुश्मनों का |
बचा लो इस धरती को
जो क़ुदरत का
एक ख़ूबसूरत घरौंदा है
यानी हमारा घर, पूरी स्रष्टि का ठिकाना
जहाँ जिंदगियां कुलाचें भरती हैं
हम सबकी की पनाहगाह
हमारी धरती |
8. एक ज़ख्मी ख़्वाब
( सन्दर्भ गोधरा नरसंहार 2002 )
आरिफ़,मैं तुम्हें गाँव के उस मोड़ पर मिलूँगा
जहाँ भीड़ ने काकू और उनके टैक्सी ड्राइवर को
ज़िन्दा जला दिया था |
काकू कहते थे
पूरी दुनियां एक गाँव में तब्दील हो रही है
एक ग्लोबल विलेज में
जहाँ नफ़रत के लिए नहीं होगी कोई जगह
और मिट जायेंगी नस्लों की पहचानें
सब लोग बस एक गाँव के बासिन्दे होंगे |
अब्बू ने कहा भी
अकरम मियाँ क्या बहकी बहकी बातें करते हो
पूरी दुनियां एक गाँव
यह एक ख्व़ाब है महज ख्व़ाब
यह भला कैसे मुमकिन है
जहाँ मुल्कों और नस्लों के बीच
तल्खियां पनप रहीं हों
अपने गाँव को ही देखो
पहले जैसे कहाँ रह गये हैं लोग
शादी ब्याह , मरने जीने में
अब कहाँ रह गयीं हैं पहले जैसी नजदीकियां
नफ़रत, दहशतगर्दी और आपसी टकराव के
जबड़ों के बीच हम जिन्दा गोश्त की तरह फंसे हैं |
मगर काकू अपनी ज़िद पर अड़े रहे
आख़िरी दम तक यह कहते हुए
कि ये तल्खियाँ और नफरतें
मेहमान हैं सिर्फ़ चंद दिनों की
जो जल्द ही बदल जायेंगी ख़ूबसूरत रिश्तों में |
आरिफ़, वक़्त ने यह कैसा मज़ाक किया हमारे साथ
नफ़रत से नफ़रत करने वाले हमारे काकू को
नफरत करने वालों के हाँथों क़त्ल होना पड़ा |
आरिफ ,उनके ज़ख्मी ख़्वाब पर
जरूरत है हमारी तुम्हारी मोहब्बत के मरहम की
काकू के पूरी दुनियां को
एक गाँव बनाने के ख्वाब पर
जहाँ नफरत की कोई जगह न हो |
आरिफ़ हम कोशिश करेंगे
हमें अपने काकू की जली हुई कुछ हड्डियाँ मिल जांय
हम तुम सब मिल कर
काकू की हड्डियों को गाँव के कब्रिस्तान में
अब्बू के बाजू में दफ़न करेंगे |
याद रखना आरिफ़
कितनी भी दहशत क्यों न फैल जाय
पर हम नहीं छोड़ेंगे यह गाँव
यह हमारा गाँव
हिन्दू मुस्लिम हम सबका गाँव
हमारी साझी संस्कृति का गाँव
हमारे काकू के ख़्वाब का गाँव
हम इसे कैसे भूल सकते है भला
आरिफ़, मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा
तुम्हारे लन्दन से लौटने का |
9. स्पार्टकस
मार-मार कर
अधमरा कर दिया था दंगाइयों ने
उस निहत्थे आदमी को
वह बेबाक ,निडर और बिंदास था
न ऊधव का लेना और न माधव का देना
अपनी दुनियां का बादशाह था
वह निहत्था आदमी |
सच को सच
और झूठ को झूठ कहने में
उसे कोई हिचक नहीं थी
पर यही होना आज है
सबसे बड़ा अपराध
कलबुर्गी ,नरेंद्र दाभोलकर और पान्सारे
सब यही तो थे
गलत को गलत कहना राष्ट्रद्रोह है
आज के इस क्रूर समय के दौर में |
एक आवाज फूटी
उस अधमरे आदमी की चीख से
मैं मर कर भी
नहीं मरूँगा पाखण्डियो
मैं अकेला नहीं हूँ
मैं स्पार्टकस हूँ
गुलाम स्पार्टकस मरता नहीं है
जब तक रहती हैं जिन्दा
गुलामी और अन्याय धरती पर |
10. बुरा वक़्त
अच्छे लोगों की बातें
हर समय हो सकती हैं
बुरे वक्त में भी
पर बुरे वक्त की बात करना आसान नहीं
बुरा वक्त और बुरा होजाता है
जब बुनियादी सवालों को सुलझाने
और बुनियादी जरूरतों को
हासिल करने की आजादी न हो
समाज और व्यवस्था को खतरा लगने लगे
जब राष्ट्रवाद, धर्म, विकास आदि
बहस के मुद्दे न होकर
पवित्र अवधारणाए बन जाँय
और असल मक़सद हो जाय स्वार्थ सिध्द |
(भारतीय दलित साहित्य एकेडमी के डा0 अम्बेडकर सम्मान से सम्मानित कवि भगवान स्वरूप कटियार (1/2/50)कानपुर जनपद के ग्राम एवं पोस्ट –मिरगँव में एक किसान परिवार में पैदाइश | पिता – शंकर लाल कटियार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, माँ –रामप्यारी देवी | वर्तमान में हज़रतगंज लखनऊ में निवास |
शिक्षा – एम ए अंग्रेजी साहित्य ,एम ए इतिहास,अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में डिप्लोमा,बी एड |.
सहायक निदेशक सूचना उ. प्र. के पद से सेवानिवृत |
प्रकाशन– पांच कविता संग्रह- विद्रोही गीत (1978), जिन्दा क़ौमों का दस्तावेज (1998).हवा का रुख टेढ़ा है(2004),मनुष्य विरोधी समय में (2012),अपने-अपने उपनिवेश(2017) | वैचारिक पुस्तकें -अन्याय की परम्परा के विरुध्द(2015 ),समाजवादी विचारक एवं राजनीतिज्ञ रामस्वरूप वर्मा की जीवनी और उनके समग्र वैचारिक लेखन का तीन खण्डों में संपादन एवं प्रकाशन(2016), जनता का अर्थशास्त्र (2019) आदि लगभग एक दर्जन किताबें प्रकाशित|दैनिकअख़बारों, पत्र पत्रिकाओं में सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर स्तम्भ लेखन |
संपर्क: bhagwanswaroopktr7@gmail.com
टिप्पणीकार कौशल किशोर जन संस्कृति मंच के संस्थापकों सदस्यों में से प्रमुख रहे हैं और समकालीन कविता का चर्चित नाम हैं। ‘नई शुरुआत’ और ‘वह औरत नहीं महानद थी’ नाम से उनके दो कविता संग्रह और ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘भगत सिंह और पाश अंधियारे का उजाला’ नाम से उनके दो गद्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)