दीपक जायसवाल
मेरे ज़माने की ऐसी लेखिका जिसे पानी पर लिखी तहरीरें पढ़ना आता है, बारिशें जिनकी पुरखिन हैं, जिनके यहाँ सूरज पर लगा ग्रहण, राहू केतु का ग्रसना न हो कर सूरज का सुस्ताना है, जिनके यहाँ तट से नहीं पानी से बंधती है नाव, जिनके लिए कविता “आग का फूल है; जीवन फूल की आग, कविता नदियों का कोरस है, जीवन पानी का एकल आलाप” और जिसने अपनी सारी दौलत कविता की गुफा में छिपा रखी है। प्रेम उनके लिए बेहद गहरा है इतना गहरा कि मृत्यु तक को उनके यहाँ प्रेम में, कविता में जीते जी छुआ जा सकता है। तथागत को बाबुषा अपनी कविताओं में हथेली पर जलते हुए दिए की तरह लेकर चलती है घने अंधेरों में अपनी राह तलाशते हुए जो अंततः पाताली कुएं से गहरे, सूरज से ज्यादा रोशन, समुद्र की लहरों की तरह पागल, गोरख की भाषा में मृत्यु, विद्यापति की भाषा में प्रेम, वसंत की तरह हरा, जीवन की तरह इन्द्रधनुषी, जीवन राग को सुलझाती हुई खुद तथागत, मीरा, कृष्ण, बारिश, प्रेम, मंसूर बन जाती हैं। जिन्हें संसार में ’कोनों की तीखी नोकें गलाने’ भेजा गया है।
बाबुषा की कविताएँ रेल की उन समानान्तर पटरियों की तरह है जहाँ प्रेम और मृत्यु, कृष्ण और तथागत, फूल और आग, बसंत और दुःख, आँधी और लय साथ-साथ चलते हैं। उनकी कविताओं में मानों भाषा पिघल कर संगीत माफिक हो गयी हो जिसे सुनने के लिए ह्रदय श्रवण इंद्रियों से अपनी दूरियाँ कम कर लेते हों। उनके यहाँ आए बादलों को निचोड़ा जाय तो बहुत हद तक सम्भव है कि उनसे फूल, तितली, आशिक, आग, मृत्यु, बरगद, तथागत, शिव, सन्यासी, सूरज, सूफी निकले और अन्त में बारिश की बूँदों को अपनी हथेली, अपनी आत्मा पर आँख बंद कर भीगे खुले बालों को दसों दिशाओं में बिखेरे(ऋग्वेद की किसी ऋचा का अनुश्रवण करते हुए जिसमें कहा गया है- आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वत:) किसी प्रेमी हृदय की तरह, धधकते सूरज को सीने में रखे, जेब में रखे प्रेम में गोता लगाने वाली पनडुब्बियां, मेघ मल्हार गाती हुई बाबुषा कोहली निकलें।
बाबुषा की कविताएँ नदी की तरह हैं ,नहर की तरह नहीं।उनकी कविताएँ तुंगमयी पर्वत से नहीं बल्कि बारिश की बूँद से निकलती हैं जिसका एकमात्र गंतव्य समुद्र नहीं है बल्कि वह कभी- कभी पृथ्वी के गुरुत्व का प्रतिरोध करते हुए वह गिरती है पर्वत-पहाड़ पर ,पेड़ चढ़ती है, कभी कभी तितली के रंग में समा जाती है रेत की असीम प्यास के श्राप से लड़ती है, कभी किसी सन्यासी के कमण्डल में समा जाती है या फिर किसी प्रेमी या प्रेमिका की आँखों के समंदर बन जाती है।
उनकी कविताओं में प्रयोग किए गए विशेषण, उपमाएँ, रूपक बिम्ब बेजोड़ व नए हैं। बाबुषा की कविताएँ दिन और रात, उजाले और अंधेरे, जन्म और मृत्यु, प्रेम और सन्यास को विपरीत ध्रुवों की मान्यताओं से खींच सहअस्तित्व के धरातल पर बेहद करीने ढंग से बड़ी सहजता के साथ लाती हैं। दुनिया देखने की जो स्थिर दृष्टियाँ हो गयी हैं उनसे बाबुषा की कविताएँ इस तरीके से टकराती हैं जैसे किसी बाँध से बढ़ीयाई नदी टकराती हो।बाबुषा के यहाँ प्रेम का धागा दुनिया की सारी धातुओं और यम के फाँस से भी मजबूत है-
“कभी अस्त नहीं होता वह सूर्य जिसे ताकती है
कोई प्रेमिका
आधा नहीं होता वह चन्द्रमा जिसे निहारते हैं
अलग अलग शहर की छतों से दो प्रेमी
टूट कर धरती पर नहीं बिखरते वे सितारे
अनायास जिन्हे देखते ही शिशु की इच्छा से
भर उठती हो किसी माँ की छाती
चिरयुवा रहती है वह स्त्री जिसे प्रेम करता है
कोई सन्यासी”
उनकी भाषा में सुना जा सकता है तथागत का मौन, चिड़िया की चहचह और तमाम उन चीजों को जिम्मेदारी की तरह; जिन्हें अनसुना कर हम जीवन जगत में आगे बढ़े जाते हैं-
फूल बड़े ध्यान से सुनते हैं तितलियों को
मिट्टी लाड़ से फूलों को सुनती है
पानी एकाग्रचित्त हो मिट्टी को सुन लेता
आँखें मेरी डूब कर पानी को सुनती हैं
पेड़ हवा को न सुनते
तो इस जगत में कितना कुछ अनसुना रह जाता ?
जो तुम मुझे न सुनते
परमात्मा की सृष्टि पर दाग़ लग जाता
बाबुषा की कविताओं में मृत्यु का विलाप नहीं है न ही विरह में कंठ सूखा देने वाला रुदन बल्की उनके यहाँ विरह मिलने पर धन्यवाद कहा जाता है। बाबुषा के वैचारिक पुरखे कबीर, रूमी, अज्ञेय माफिक कवि हैं और उनकी कविताएँ पिनाक की तरह हैं जिन्हें वरण के लिए मस्तिष्क के बल की नहीं बल्कि प्रेम से सिक्त ह्रदय होना चाहिए-
पिता के लिए मैं
शिव का धनुष रही सदा
वही जानते हैं
कि बलशाली नहीं कर सकते
मेरा वरण
न ही तोड़ सकते हैं
कोई प्रेमी उठता है
बाएँ हाथ से पिनाक उठा लेता है
बाबुषा बखूबी जानती हैं कि जिस तकनीक से सारी दुनिया को रोशन किया जा सकता था उसी से कैसे दुनिया तबाह कर दी गयी। कविता को आत्मा के उजास में पढ़ा जाना चाहिए जबकि कविता पढ़ी इस तरीक़े से जा रही है कि-
पेड़ों के लिए लिखी कविता-
काग़ज़ तक पहुँचती है,
पेड़ों तक नहीं.
शोषितों के लिए लिखी कविता-
गोष्ठियों तक पहुँचती है,
शोषितों तक नहीं.
ईश्वर के लिए लिखी कविता,
फ़साद तक पहुँचती है,
ईश्वर तक नहीं.
प्रेयस के लिए लिखी कविता,
ईश्वर तक पहुँचती है,
प्रेयस तक नहीं.”
बाबुषा की कविताएँ अध्यात्म, प्रेम, जीवानुभव की गहन अनुभूतियां हैं जो जीवन को तप करके पत्थर के बरक्स पानी बना देने का हिमायती हैं जिससे कि आने वाला कोई सूखा कण्ठ उस पानी से अपनी प्यास बुझा सके।
बाबुषा की कविताएँ
1. भाषा में विष
जिन की भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
दुःखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी
भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
2. ख़ौफ़ उजले का
आप मानें या न मानें
उजाले का भी एक अलग ही तरह का ख़ौफ़ होता है
एकदम से कहाँ नज़र टिक पाती सूरज पर
मन की मोटी परतें तक कंपकंपा देते
साँवली आत्मा को ढाँपे हुए उजले कफ़न
मुझे तो दीये से डर लगता है
मशाल से डर लगता है
चूल्हे की, चिता की, चित्त की आग से डर लगता है
चकाचक चकोर की चाह से डर लगता है
चमचम चाँद काटता चिकोटी
पूछता सवाल
अरे ! ओ इनसोम्निया के बेबस शिकार !
तुमको आख़िर किस-किस बात से डर लगता है ?
क्या कहूँ
झक्क सफ़ेद नमक चखे बैठे प्रेम का
जबकि और हज़ार किसिम के स्वाद ललचाते
सोंधे-सोंधे स्वप्न लुभाते थरथराते
चुल्लू भर वचनों में डूब के मर जाते
कि मुझे तो नमक की वफ़ा भरी उजास से डर लगता है
आत्महत्या की हद तक ललचाता धुआँधार का उजेला
उस चाँदी के असभ्य प्रपात से डर लगता है
उजाले से डर के मेरे क़िस्से न पूछो
‘ज्ञानरंजन’ की दाढ़ी के उजले बाल से डर लगता है
3. सत्यान्वेषी
एक दिन हम सब 12×18 इंच के एक फ़ोटो फ़्रेम के भीतर सिकुड़ कर रह जाएँगे और हमारी मुस्कुराती शक़्लें अगरबत्ती के धुएँ के पीछे छुप जाएँगी। वे लोग जो जीवन भर हमारी फक्कड़ हँसी से ख़ौफ़ खाते रहे या हमारे मुक्त केश बाँधने के लिए चौड़े फीते बनाते रहे, हमारी अच्छाइयाँ गिनते नहीं थकेंगे। हमारी ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी ग़लती पर लाड़ के रेशमी पर्दे पड़े होंगे और हमारी छोटी-छोटी जीतों का आकार अचानक ज्यूपिटराना हो रहेगा। हम सब आगे या पीछे लगभग एक ही तरह की प्रतिक्रियात्मक स्मृति में टाँक दिए जाएँगे जहाँ कुछ घन्टों की सनसनी को दुःख कहते हैं।
गूगल के सहारे किसी को ढूँढा जा सकता
तो यक़ीनन सबसे पहले मैं खुद को ढूँढ़ निकालती
कोई पढ़ने या न पढ़ने वाला भी अगर मुझे जानना चाहे तो कृपया गूगल का भरोसा न करे
न ही उन्हें सुने जो मेरे जाने के बाद मेरी शान में कुछ कह रहे हैं
सुनना तो बस ! उन्हें, जो कुछ नहीं कह पा रहे.
मेरा क़िस्सा ख़त्म होने पर कुछ ( एकदम कु छ ) लोग
ज़रूर ऐसे बच रहेंगे जो जानते थे कि
मुझे सही होने की उतनी चाह नहीं
जितनी कि सत्य होने की
दरअसल मेरे दोस्त !
ज़िन्दगी अपने आप में एक आतंकवादी हमला है
जिससे किसी तरह बच निकली कविता
अपने क्षत-विक्षत टुकड़ों में भटकती
दुःस्वप्न बन अपने कवि की नींद चुनती है
हमारे दुःस्वप्न कितनी ही कविताओं का शमशान घाट हैं
हमारी कविताएँ आँखों देखी मौत का ऐतिहासिक दस्तावेज़
4. जानना
नीम का पेड़ नहीं जानता कि नीम है उसका नाम
न पीपल के पेड़ को पता कि वह पीपल है
यह तो आदमी है जो जानता है कि उसका नाम
बाँकेबिहारी दुबे है और उसके पड़ोसी का
शेख़ रहीम
आदमी अपने नाम के गौरव के बारे में जानता है
और भी बहुत कुछ जानता है वह
नामों की उत्पत्ति और नीति-वचनों के बारे में
इतिहास और न्याय के बारे में
तत्त्व-मीमांसा और वेदांत के बारे में
रामायण, हदीस और क़ुरआन के बारे में
रहीम की दूसरी जोरू और तीसरी सन्तान के बारे में
पर आदमी यह नहीं जानता कि रहीम के बारे में जानना
और रहीम को जानना
दो अलग बातें हैं
आदमी यह भी नहीं जानता
कि अतिरिक्त जानना एक तरह की अश्लीलता है
आदमी केवल पेड़ों के नाम जानता है,
पेड़ों को नहीं
5. शब्द के स्तूप में अर्थ का नख
छाती से शिशु का शव चिपकाए
बिलख-बिलख गिरती थी
धरती पर बेसुध हो
किसा गौतमी
धरती के धीरज पर धूजती
हाय हाय करती
शोक से लिथड़ाई
बावरी-सी फिरती थी
किसा गौतमी
तब किसी ग्रामीण ने कहा-
तथागत के द्वार जा !
आस का दीपक बाले
गोद में उठाये निष्प्राण देह
आकाश का पता ढूँढ़ने
पृथ्वी पर दौड़ी थी
किसा गौतमी
आँखों पर अश्रुओं का पट था
कुछ भी न दिखता
लाग के सावन की अंधी
हरे-हरे घाव वह उघाड़ती
टूटी टहनी-सी बार-बार गिरती थी
किसा गौतमी
देर तक मौन रहे मारजित
फिर बोले-
पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य
एक विधि से।
क्षण भर में नाचने लगी
बिना विधि जाने ही
किसा गौतमी
( तब कौतूहल-से भरी किसी बाबुषा ने
शोक को संबोधित किया –
हे शोक !
तू कितना अस्थायी
व उथला है-
विश्व के सबसे व्यथित प्राणी के निकट भी
क्षण भर ही ठहरा है ?
हाय ! मरने को आतुर थी अविलम्ब
किस भ्रम के अधीन हो नाच रही-
किसा गौतमी ?
तब शास्ता ने सातवें शरीर में प्रवेश कर
अबोध बाबुषा की दुविधा का
अंत किया।
लौटे वहीं-
जहाँ सुख की आस में हँसती थी-
किसा गौतमी। )
पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य
एक विधि से-
जा ! मुट्ठी भर सरसों लेती आ
ऐसे घर से
जहाँ कभी कोई न मरा हो
पुत्र तेरा जागेगा पुनः
किसा गौतमी !
कहते हैं,
पुत्र तो न जागा किन्तु उस दिन
प्रथम बार जागी थी
किसा गौतमी
भगवान व्यथाओं के उपवन से बोध के पुष्प चुन गाथाएँ कहते हैं। अबोध बाबुषा की कविता स्तूप भर है, जहाँ उनका नख रखा है। शाक्यमुनि की अनुमति ले बाबुषा ने उनके नख से लिखा-
मृत्यु-
नींद का नीला फूल है
दुनिया भर में पाया जाने वाला-
हर आँगन उगता
ऋतुओं से निरपेक्ष वह
ऐसा प्रतीत होता कि मानो खिला अकस्मात्
देखा ही नहीं कभी बीज को
गड़ा रहा माटी की देह में
श्वास में पड़ा रहा
नींद का वह फूल कहीं भी खिले-
सुदूर या निकट
किसी भी रुत
तीखी सुगन्ध से-
आज भी जाग उठती है
किसा गौतमी
6. बैरंग कविताएँ
पेड़ों के लिए लिखी कविता-
काग़ज़ तक पहुँचती है,
पेड़ों तक नहीं
शोषितों के लिए लिखी कविता-
गोष्ठियों तक पहुँचती है,
शोषितों तक नहीं
ईश्वर के लिए लिखी कविता,
फ़साद तक पहुँचती है,
ईश्वर तक नहीं
प्रेयस के लिए लिखी कविता,
ईश्वर तक पहुँचती है,
प्रेयस तक नहीं
7. जीवन के शिल्प में
कविता,
अपने सौंदर्य के लिए
थोड़ा छद्म संभव कर लेती है-
बिना हिचकिचाहट.
एक सच्चे जीवन की उपमा,
एक सच्चा जीवन ही हो सकता है.
कविता आग का फूल है ; जीवन फूल की आग.
कविता नदियों का कोरस है ; जीवन पानी का
एकल आलाप.
सरल है कविता की कठिन बनावट को अर्जित करना
जीवन की सरल बनावट कठिन है
कोई आता है अब मेरे यहाँ कविता से मिलने
कहती हूँ-
बैठो. फूल की आँच चखो.
पानी पियो.
कविता के शिल्प की नहीं,
मुझसे जीवन के शिल्प की बात करो.
8. पढ़ने का ढंग
मुझे तब मत पढ़ो
जब मैं लिखती हूँ चन्द्रमा पर कविता
बल्कि तब पढ़ो
जब मैं देखती हूँ चन्द्रमा
( घूँट घूँट पीते हुए चाँदनी )
फिर यह पढ़ो
कि चन्द्रमा पर कविता लिखते क्षण
मैं चन्द्रमा को ही देख रही हूँ
मगर चन्द्रमा को देखते हुए मैं कविता नहीं लिख रही
( भला यह सम्भव भी कैसे हो सकता है ? )
स्वयं को देखने से वंचित
देखती हैं आँखें सर्वत्र
और मैं –
चन्द्रमा की आँख बन जा रही हूँ
जिससे वह मुझे ही देख रहा है
मुझे पढ़ो-
एक अनन्य पाठक की तरह नहीं
बल्कि यूँ
ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम हो नीलआर्मस्ट्रॉंग
या फिर इस तरह ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम
शमशेर
और एक नीला आईना
बेठोस चाँदनी से दमक रहा है
या फिर इस तरह ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम समुद्र
जो मेरे भीतर लहरा रहा है
9. भंगुर की तान पर शाश्वत का गीत
निविड़ रात्रि के मध्य नहीं झरता धरती पर सूर्य का प्रसाद
वर्षा अधिक से अधिक कितनी देर तन भिगो सकती है
पर्वतों की ऊँचाई बँध जाती मीटरों में
ऋतुओं की नियति पर निर्भर है वृक्षों का वैभव
आग बुझ जाती है
फूल मुरझाते हैं
जल उड़ जाता है
जुगनू मर जाते हैं
छोटी-छोटी छवियाँ
उभर आतीं नदियों- समन्दरों में
पूरा का पूरा आकाश कहीं अटता नहीं
इस भंगुर जगत में टिक पाता वही
जो इहलोक का नहीं
कविता
किंचित गड़बड़ा जाती है –
सारे उपमान पड़ जाते क्षीण
इस टुटपुंजिए संसार में जब सचमुच !
कोई करता है प्रेम
मेरे होने की छाया भर है मेरी काया
स्पर्श की सबसे गहन स्मृति देह पर नहीं बनती
संन्यासी !
तुम्हें इस तरह छूती हूँ मैं
ज्यों कोई नन्हा पंजों के बल उचक कर
इन्द्रधनुष छू लेता है !
10. चिर यौवन का भेद
कभी अस्त नहीं होता वह सूर्य जिसे ताकती है
कोई प्रेमिका
आधा नहीं होता वह चन्द्रमा जिसे निहारते हैं
अलग अलग शहर की छतों से
दो प्रेमी
टूट कर धरती पर नहीं बिखरते वे सितारे
अनायास जिन्हें देखते ही शिशु की इच्छा से भर उठती हो
किसी माँ की छाती
चिर युवा रहती है वह स्त्री जिसे प्रेम करता है
कोई संन्यासी
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कवयित्री बाबुषा कोहली, जन्म 6 फ़रवरी 1979 कटनी ( म.प्र.) वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालय, जबलपुर में कार्यरत । प्रकाशन : पहला कविता संग्रह ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ (2014) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित व पुरस्कृत। गद्य-कविता संग्रह ‘बावन चिट्ठियाँ’ (2018) रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत राजकमल से प्रकाशित व वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित । कथेतर गद्य की पुस्तक ‘भाप के घर में शीशे की लड़की’ (2021) रुख़ पब्लिकेशन्स से प्रकाशित तथा कविता संग्रह ‘तट से नहीं… पानी से बँधती है नाव’ (2021) हिन्द युग्म से प्रकाशित ।
अन्य : दो शॉर्ट फ़िल्मों ‘जंतर’ तथा ‘उसकी चिट्ठियाँ” का निर्माण व निर्देशन । रसूडॉक्स सिनेमा, जबलपुर द्वारा कहानी ‘हर्मी अस्तो’ पर शॉर्ट फ़िल्म का निर्माण ।
संपर्क : baabusha@gmail.com
टिप्पणीकार दीपक जायसवाल युवा कवि हैं। जिनकी शुरुआती पढ़ाई गाँव में हुई फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हिंदी साहित्य से (गोल्ड मेडलिस्ट) और परास्नातक(गोल्ड मेडलिस्ट),नेट-जेआरएफ और ‘भारत का समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संकट और उदय प्रकाश की कहानियाँ’ विषय पर पीएचडी।विद्यार्थी जीवन में राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में कहानी,कविता,निबंध व शोध प्रस्तुतिकरण में कई बार पुरस्कृत।’पल्लव’ पत्रिका का सम्पादन। ‘हिरामन’ के नाम से कहानी लेखन।
फ़िलहाल कानपुर में असिस्टेंट कमिश्नर SGST के पद पर सेवाएं दे रहे हैं।
सम्पर्क: deepakkumarj07@gmail.com