चंद्रभूषण
अयोध्या यह चिट्ठी पढ़े न पढ़े, आप तो पढ़ें ..
आज जब अयोध्या में रामलला का मंदिर ‘वहीं’, ‘उसी जगह’, एक राष्ट्रव्यापी हंगामे से जुटाई गई भीड़ के हाथों ढही पांच सौ साल पुरानी मस्जिद से खाली हुई जगह पर ही अधबनी हालत में अपने चुनावी उद्घाटन-विमोचन का इंतजार कर रहा है, तब कवि आशुतोष कुमार अयोध्या के नाम लिखी हुई सीता की एक चिट्ठी लेकर आए हैं। यह चिट्ठी इस मायने में दिलचस्प है कि ज़मीन में समाई सीता और सरयू में समाए राम के आज भी करीब पहुँचकर एक-दूसरे को समझने की युगों पुरानी छटपटाहट इसके अंत में दिखाई पड़ती है।
अयोध्या में मंदिर राजा रामचंद्र का नहीं, रामलला का बन रहा है। गर्भगृह में पांच साल के बच्चे की शक्ल में राम की प्रतिष्ठा होनी है, जिनके लिए सीता का ख़याल भी शायद एक दूर की बात हो। हाँ, मंदिर के एक तल्ले पर राम दरबार भी सजाये जाने की बात है, जहाँ लक्ष्मण, सीता, हनुमान आदि उपस्थित होंगे। अयोध्या के नाम सीता की यह चिट्ठी उस दरबार में भी नहीं पढ़ी जा सकेगी, क्योंकि सीता वहां स्वयं मौजूद होंगी और ऐसी पथरीली जगह पर इसका सार्वजनिक पाठ शायद उन्हें पसंद न आए। फिर यह कहाँ पढ़ी जाएगी?
जिस अयोध्या को पिछले कुछ सालों में कई हजार करोड़ रुपये लगाकर गढ़ा जा रहा है, कम से कम वह तो लगातार ठोकरों में गुजरी सीता की तबाह जिंदगी का यह दस्तावेज नहीं पढ़ने वाली। बारह सौ साल पहले भवभूति लिखकर गए कि निर्जन वन में नितांत अकेली बैठी गर्भवती सीता का रुदन सुनकर हिरनों ने आधी चबाई हुई घास मुंह से गिरा दी, मोरों ने नाचना छोड़ दिया और नदियों ने अपना कल-कल निनाद रोक लिया। लेकिन वह कलेजाफाड़ रुदन भी अयोध्या तक नहीं पहुँच पाया तो अभी, इस बनी-ठनी हालत में उनका यह पत्र क्या ही उसके हृदय तक पहुँचेगा।
हमारा देश, हमारा समाज इसी तरह कटु सच्चाइयों को, तकलीफदेह बातों को, उत्पीड़ितों के विलाप को, उनके ठगे जाने के एहसास को कालीन के नीचे छुपाता हुआ आगे बढ़ता रहा है। कभी धीरे-धीरे तो कभी आज की तरह- सचमुच में न सही, आभास में ही-बहुत तेज!
खैर, अयोध्या को सीता की पुकार नहीं सुननी है, न सुने। लेकिन इस पत्र में सताए हुए चरित्रों का एक परोक्ष आपसी संवाद भी मौजूद है, जो सत्ता प्रतिष्ठान को सुनाने के लिए नहीं है। यहाँ नाव में चढ़ाने से पहले पाँव धोने की मनुहार करके अपने ‘निर्धारित कर्तव्यों’ का पालन कर रहे निषादराज के बजाय अपने आध्यात्मिक अधिकारों के लिए तप का रास्ता अपनाने वाले शंबूक की सरकारी हत्या का कारण खोजने की इच्छा सीता के पत्र में दिखाई देती है। सीता के वनवास के लिए लोगों के गंदे कपड़े धोने वाले जिस व्यक्ति को जनमानस में खलनायक बना छोड़ा गया है, उसे भी दरबार की पहल पर ही खेले गए किसी पवित्र खेल का शिकार बनाया गया है, ऐसा एक सूत्र इस पत्र में आता है।
राम-राज्य के नाम पर असल में किन शक्तियों का राज्य अयोध्या में चलना शुरू हो गया, जहाँ अधिकार के लिए कुछ भी करना दंडनीय है और केवल प्रशस्तिपरक कर्तव्य ही सराहनीय समझा जाता है? रामायण की कथा की वैकल्पिक व्याख्या के कई सारे प्रयास अभी तक किए जा चुके हैं, जो अपनी सारी ऊर्जस्विता के बावजूद फिलहाल निरर्थक लगने लगे हैं। एक षड्यंत्र पर आधारित उपद्रव को जब देश के सामूहिक विवेक की शीर्ष प्रतिनिधि समझी जाने वाली न्यायपालिका ने ही न्यायसंगत ठहरा दिया हो तो इन सब बातों का क्या अर्थ बचता है?
समय इस व्यर्थताबोध से आगे बढ़ने का है और यहाँ मौजूद आशुतोष कुमार की बाकी कविताएँ पाठक को एक नई सौंदर्यानुभूति तक ले जाने के अलावा इस काम में भी उसकी थोड़ी मदद कर सकती हैं। इनमें ‘शोक’ ने मुझे ज्यादा भीतर तक छुआ लिहाजा उसके आखिरी हिस्से का जिक्र इस टिप्पणी में करना जरूरी लग रहा है।
‘जीवित होना बचे रहने का उत्सव है/ बचा होना जीवित रहने की यातना। मारे गए अनगिनत शब्द/ सबसे प्यारे सबसे सजीले लोग/ मारे गए। सिर्फ बचे रहने के लिए हम भूल गए/ कि वे क्यों मारे गए!’ करीब चार दशक पहले अपनी शुरुआत के समय से ही ‘समकालीन जनमत’ इस भूलने की ‘सुविधा’ के खिलाफ ही एक अनथक लड़ाई लड़ता आ रहा है। एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाला निष्क्रिय पाठक नहीं, दुनिया को करीब से महसूस करने वाला एक सहयोद्धा आपको मानकर ही ये कविताएँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं।
आशुतोष कुमार की कविताएँ
1. सीता का पत्र अयोध्या के नाम
पिता की गोद
मां का आंचल छोड़कर
आई थी मैं तुम्हारे चरणों में शरण पाने, अयोध्या
समझ नहीं पाई ठोकर मारकर
तुमने वन में क्यों फेंक दिया
बनवास राम को मिला था मुझे नहीं
रहने दो यह लचर सफाई
जैसे राम के बिना
अयोध्या के षड्यंत्री महलों में
बिना अपमानित हुए रह लेती मैं
चार दिन भी
बनवास तो बनवास था
लेकिन राम जैसे साथी के प्रेम
और आदर पर इतना विश्वास था
कि महलों के सुनहले नरक से
बच निकलना आसान था
मैं तो राम का प्यार देखकर तुम्हें
प्यार कर बैठी थी, अयोध्या
जिसका नाम सुनते ही चमक उठती
उनकी अनिमेष आंखे वन में भी
मेरी जन्मपुरी मेरी सुहावनी नगरी
उत्तर में बहती सरयू पतित पावनी
वो धान की गंध भरी शोख हवाएं
वो शामों के रंग
वो जादू भरी आंखों की उत्ताल कथाएं
जिन्हें याद करता खो जाता
सरयू हृदय
निष्कासित
राजकुमार
उसी राम को राजतिलक के लिए बुलाकर
बनवास दिया तुमने
बंद भी करो व्यर्थ का कीर्तिगान
आज्ञाकारी पुत्र न होते तो क्या करते
सम्राट के आदेश
साम्राज्ञी के निर्देश का उल्लंघन कर
वन की जगह कारागार का जीवन चुन लेते?
अज्ञातकुलशीला
भूमिजा नवब्याहता के साथ
अभी अभी एक छोटे बनवास से लौटे
युवा राजकुमार के पास
पत्नी के अधिकार न सही सम्मान की रक्षा के
विकल्प ही क्या थे?
सरयू के निर्बंध प्रवाहित जल की तरह
यही ज़िद थी
यही प्यार
जो देखा था मैंने तुम्हारी निष्पाप आंखों में, राजकुमार
पिता के उपवन में जब हृदय हार
बैठी थी पहली बार
उसी हृदय में लेकिन जीवित था तब भी
आश्रयदाता पिता के राज्य को
महादेव के दिव्य धनुष के
दुर्वह दायित्व से मुक्त करने का संकल्प
मछली और मखान पर पलते
छोटे से मिथिला राज्य के लिए
मुश्किल था दिव्य धनुष का रख रखाव करना
किसी भावी विप्लव से रक्षा के निमित्त
लगभग चौथाई राजकोष लुटा देना
बरसों पुरानी थी कसम
कि ब्याह करूंगी तो उसी युवक से
जो मुक्त करेगा मिथिला को
दिव्य धनुष के बोझ से
सुना जिसने भी भाग खड़ा हुआ
किसी में न थी आब कि महादेव से बैर लेता
एक राम थे
जिन्होंने दांव पर लगा दिया
अपना राजसिंहासन अपना जीवन सारा अस्तित्व
इसी जिद से खंडित हुआ
वह अखंड अनिर्वच अपराजेय धनुष
मैथिली तो उसकी हो गई
लेकिन तुमने तो क्षमा नहीं किया, अयोध्या
उसे भुगतना पड़ा बनवास
लड़ने पड़े विकट युद्ध
दस सिरों के-से अहंकार से भरे
महादेव के अंध उपासकों से
अयोध्या और लंका के बीच
सीता ही थी अग्नि का वह महासागर
जिसे पार करना निरंतर
राम की नियति थी
कभी इधर से उधर
कभी उधर से इधर
तिस पर भी कलंकित करने के लिए मिले तुम्हें
दुनिया का कलंक धोने वाले
प्यारे धोबी जन
दुख तो महल को था
कि जिसे निकाल फेंका था आते ही
लौट आई थी फिर वही अज्ञातकुलशीला
लेकिन कितनी आसानी से
मढ़ दिया गया उसे गली के माथे
सदा सदा के लिए
राम को कब मिला
तुम्हारा राजसिंहासन
उस पर तो आसीन रहे
वही खड़ाऊ
वही कमंडल
वही जनेऊ
जो पांव पखारते निषाद को गले लगा सकते थे
न्याय मांगते शंबूक को नहीं
राम का नाम लेकर
शंबूक की हत्या करने से
किए जा सकते थे
एक तीर से दो दो शिकार
शंबूक को मिलती
कर्तव्य की जगह अधिकार चुनने की सजा
राम को मिलता मर्यादा की जगह
प्रेम चुनने का दंड:
दारुण अन्याय का अपराध बोध
दुर्निवार
भूमिजा के लिए भूसमाधि
तुम्ही ने निर्धारित की थी, अयोध्या
सरयू हृदय के लिए
सरयू समाधि
तुम्हारा ही निर्णय था
तुम्ही जन्मपुरी थी
तुम्ही मृत्युमही
चलता रहे रंग राग
तुम्हारे महलों में दिन रात
सरयू के नीचे राम
धरती के नीचे सीता
अब भी एक दूसरे तक पहुंचने का
ढूंढ रहे रास्ता
2. दूसरी मृत्यु
पहले समाजवाद का गुंबद गिरा
फिर धर्म- निरपेक्षता का
अखीर में लोकतंत्र का
गिराई तो बाबरी मस्जिद गई थी
लेकिन साथ ही साथ गिरी
एक मुल्क की तहज़ीब
जिसके बनने में हजारहां साल लगे थे
और अनगिनत पीढ़ियों का खून पसीना
और वे कहते हैं
सिर्फ एक विवादित ढांचा गिरा था
जबकि तीन गुंबदों पर पड़ीं
तीन निर्णायक ठोकरों में
उन तीन गोलियों की गूंज
साफ सुनाई दी थी
जो कई बरस पहले की
किसी तीस जनवरी को
बूढ़े गांधीजी के सीने पर दागी गई थी
जो उस दिन कुछ मिनट लेट हो जाने के कारण
प्रार्थना सभा की तरफ
जल्दी जल्दी चले जा रहे थे
हमने गांधी जी की विष्णन काया को
एक बार फिर धरती पर गिरते देखा
रक्तरंजित
उसी दिन एक आंसू
डॉक्टर अंबेडकर की आंखों में आ अटका था
जो गांधीजी को कांधा देने
दूर तक पैदल चले थे
और उनकी धधकती चिता को
दूर से देर तक देखते रहे थे
जब बाबरी मस्जिद गिरी
लोग कहते हैं उसी वक्त
अपनी समाधि में बेचैन लेटे
अंबेडकर की आंखों से
वह अटका हुआ आंसू भी
धरती पर आ गिरा।
यह उनकी दूसरी मृत्य थी।
3. आओ बच्चो
आओ बच्चो
जादू देखो
आओ बच्चो
नईं दुनिया का असली जादू देखो
जादूगर तो बस हाथ की सफाई दिखाते हैं
कहानियां तो हवाई होती हैं
आओ बच्चो
सचमुच की बहार देखो
तकनीकि और विज्ञान का चमत्कार देखो
हजारों मील दूर हो रही लड़ाई
हजारों मील दूर हो रहा धूम धड़ाका
आओ बच्चो
आज यह दुर्लभ तमाशा
घर बैठे बैठे देखो
अभी इसी वक्त देखो
जैसे का तैसा देखो
एकदम नजदीक से देखो
आओ बच्चो
मिनट मिनट पर उड़ती मिसाइलें देखो
आओ बच्चो
गिरते हुए बम
बिखरते हुए घर देखो
आओ बच्चो
हर दस मिनट पर
एक और बच्चे की मौत देखो
4. बात सिर्फ़ इतनी है
जानता हूं
आपको कोफ़्त होती है
मेरी मुसलमानी दाढ़ी पहचान कर
मेरा ऊंचा पाजामा
मेरी जालीदार टोपी देखकर
हत्ता कि मेरी बोली में उर्दू की महक सूंघकर
आपको कोफ़्त होती है यह सोचकर
कि मैं इन दिनों
क्यों हर समय अपनी मुसलमानी ओढ़े फिरता हूं
मैं क्यों एक आम इंसान की तरह नहीं रहना चाहता
मज़हब को कपड़ों की तरह क्यों पहनता हूं
ऐसा नहीं कि मुझे इस खेल में मजा आता हो
कि देखूं आपकी कोफ़्त को चिढ़ में बदलते हुए
चिढ़ को रंजिश में
और रंजिश को वहशत में ढलते हुए
कि देखूं आपकी सहनशीलता
मेरे आपसे अलग दिखने को किस हद तक सह पाती है
अब इस खेल में रक्खा ही क्या है
जबकि ख़तरा बढ़ गया है
बात सिर्फ़ इतनी है
कि अगर आप मेरे क़रीब आना चाहें
मुहब्बत और ख़ुलूस से कुछ बात करना चाहें
तो मैं चाहता हूं
कि आपको कभी ये डर न हो
कि आप अनजाने किसी ग़लत आदमी से बात कर रहे हैं
और मुझे ये ख़ौफ़ न हो
कि एक भले इंसान से
प्यार भरी दो बातें सुनने के लिए
मैने अपनी पहचान छुपाई
जैसा कि उस जादू आंखों वाली
चुगद लड़की ने कहा था!
5. केंचुए
केंचुए शानदार होते हैं
लंबे
वर्तुलाकार
ताम्रवर्ण
वे ही थे धरती जोतने वाले
हल की खोज के पहले
उन्होंने ही
बनमानुस के
किसान बनने की जमीन तैयार की
खुद जमीन में गड़कर
उनके बूते ही मानव सभ्यता
अपनी रीढ़ पर खडी हुई
रीढ़ के प्राकृतिक अभाव का
यह लोमहर्षक प्रतिरोध था केंचुओं का
ज़रा सोचिए
अब इतनी सदियों बाद
कैसा लगता होगा उन्हें
उसी मानव को
केंचुआ बनने के लिए
यूं छटपटाते देख कर !
6. कोयल एक पागल हो गयी है
आठवें माले की खिड़की से भी आती है उसकी तड़पती हुई पुकार
झांकता हूँ खिड़की से
दीखता है एक वृक्ष छतनार
फागुनी हवा में झूमता
सुनता हूँ कूक विरह की
कलेजा काटती
लिखता हूँ एक कविता खिड़की के पास
एक कविता भरी हुई
कूक से
हूक से
तेह से
नेह से
भूल कर भी ज़िक्र नहीं करता
छतनार वृक्ष की
शाखों से
लटक रही लाशों का
बेशुमार
जिनकी गिनती लगाती
पागल हो गयी है
एक कोयल
7. पहले वे मीमटों के लिए आए
पहले वे मीमटों के लिए आए
मैंने वैज्ञानिक अवलोकन किया
सृष्टि का नियम है क्रिया-प्रतिक्रिया
फिर वे भीमटों के लिए आए
मैंने याद किया गीता का ज्ञान
जैसे होते हैं कर्म, वैसे ही देता है फल भगवान
जब वे कश्मीर के लिए आए
बल्लियों उछल पड़ा दिल
हाय…. मेरा दिल
लाखों सैल्यूट
अंग हुआ अटूट
फिर वे नार्थ ईस्ट के लिए आए
मैंने गूगल किया और कंधे उचकाए
यह विषय था बेहद क्लिष्ट
ना वो नार्थ था ना ही ईस्ट
अब वे असम के लिए आए
यह तनिक चिंता की बात थी
फिर भी मैं चुप रहा
सर्द बहुत रात थी
फिर वे यूपी के लिए आए
मैंने कई फोन खडकाए
लाइन बिजी थी नेट था बंद
खिड़की पर छाई थी धुंए की गंध
आए, वे सारे भारत के लिए आए
लेकिन अब होता क्या पछताए
8. अभी तो वे
अभी तो वे
उधेड़ने में लगी हैं
लाखों बरस पुराने इस आसमान को
फिर बुनेंगी जरूर
एक नया अंतरिक्ष
अभी तो वे बर्फ़ से आग जलाने में लगी हैं
फिर पकाएंगी एक चांद
एक सूरज और तारे
अभी तो झकझोर कर धरती को
गर्द निकाल रही हैं
फिर बिछाएंगी उसी पर
सपनों की एक सुंदर चटाई
तब बैठेंगे हम सुकून से
और बुनेंगे उन स्त्रियों के लिए
मुहब्बत का एक दुशाला
9. एक दिन
एक दिन
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश
फिर से एक हो जाएंगे
एक दिन
स्त्री और पुरुष बराबर हो जाएंगे
एक दिन
जाति और वर्ग का अंत हो जाएगा
एक दिन
किसी विद्रोही कवि को सुनने
सारा देश उमड़ आएगा
एक दिन
तुम्हे यकीन हो जाएगा
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ
10. शोक
शोक एक मर चुका शब्द है
इसे भाव विगलित होकर व्यक्त करना होता है
विनम्रता और श्रद्धा का अतिरेक इसे
नाटकीय नहीं सहनीय बनाने
के काम आता है
इसके रस्मो रिवाज़ तवील होते हैं
क़ायदे कानून तयशुदा
संस्कार अनुष्ठानपूर्वक किए जाते हैं
दस दिन तेरह दिन महीने भर और कभी कभी वर्षों तक इसे चलाया जाता है
इसकी समाधि यथाशक्ति भव्य बनाई जाती है
शक्ति और समय कम पड़ने पर इसकी माटी जानवरों या जलजीवों के लिए
छोड़ी जा सकती है
सब कुछ जो याद रखने के नाम पर
किया जाता है वो असल में भुला देने की
एक असरदार कोशिश होती है
शब्द के मरते ही भाषा से उसकी नागरिकता ख़ारिज हो जाती है
मनुष्य की जीवितों की मनुष्यता से
सबसे सुविधाजनक बात यह होती है कि
मृतक लौटकर नहीं आता
जीवितों के लिए
और मृतक के लिए भी
जीवित होना बचे रहने का उत्सव है
बचा होना जीवित रहने की यातना
मारे गए अनगिनत शब्द
सबसे प्यारे सबसे सजीले लोग
मारे गए
सिर्फ़ बचे रहने के लिए हम भूल गए
कि वे क्यों मारे गए!
11. प्रेम कविता
संसार की दस सर्वश्रेष्ठ प्रेम-कविताओं की सूची बनाकर दीजिए
अक्सर दोस्त कहते हैं
प्रेम कविता!
जैसे बिजली का झटका!
क्या होती है प्रेम कविता?
कैसी होती है प्रेम कविता?
अन्याय से भरी दुनिया में
असम्भव है प्रेम कविता
एकांत में अपने प्रेमपत्र जला चुके कवि
उजाले में उसका शोकगीत लिखते हैं
जहां कोई आज़ाद नहीं
जहां बराबर कोई नहीं
वहां प्रेम की बात करना
गुलामी के पक्ष में खड़ा होना है
जो समाज अन्याय से पैदा हुआ है
जिस दुनिया में अन्याय का राज चलता है
वहां प्रेम कविता कहना अन्याय को मजबूती देना है।
क्या तुमने संजीव के लिए लिखी गई
श्वेता भट्ट की कविता पढ़ी है?
क्या तुमने बनज्योत्स्ना की कविता पढ़ी है
उमर ख़ालिद के लिए,
वसंता की कविता साईबाबा के लिए?
प्रेम की सर्वश्रेष्ठ कविताएं
कागज़ पर नहीं लिखी जातीं
फिर भी पूछोगे तो कहूंगा
कि संसार की महानतम प्रेम कविता वह थी
जिसे अपनी अज्ञात प्रियतमा के नाम
फांसी के तख्ते से लिखा था
एक तेईस साल के नौजवान ने
जिसका नाम था भगत सिंह
12. कम क्रूरता नहीं थी
कम क्रूरता नहीं थी
रामदास के शहर में
उसे हत्या की जगह दिखा दी गई थी
समय बता दिया गया था
वह अपने ही पैरों चलकर पहुंचा था
वधस्थल तक
तयशुदा वक़्त पर
मगर कोई नहीं पूछता कि क्यों
असल में पूरे शहर को बता दिया गया था
मगर साथ चलने की कौन कहे
कोई उसे बरजने भी नहीं आया
उसने कुछ देर इंतज़ार किया
सोचा कोई आएगा जो भाग जाने या
कम से कम छुप जाने के लिए कहेगा
कोई कहेगा मेरे घर आ जाओ
वहाँ एक तहखाना है किसी को कानोकान ख़बर नहीं होगी
हत्यारा आख़िर कब तक इंतज़ार करेगा
कहाँ कहाँ ढूंढेगा
होनी टल जाती है कभी-कभी महज टाल देने से
न सही कोई शूर-सैनिक
न सही कोई राज-पूत
कोई दरवेश तो होगा जो कहेगा
जाना ही है तो चलो हम साथ-साथ चलेंगे
मगर कौन आता
सभी तो इंतज़ार में थे
अपनी अपनी खिड़कियों के पीछे छुपे बैठे
आँखें गड़ाए
थोड़ी-सी कम क्रूरता
कहीं नहीं थी
सच पूछो तो रामदास के शहर में
एक हत्यारा ही था
कुछ कम क्रूर
कुछ अधिक सच्चा
यही बात कौंधी थी
शायद मन में
जब चला रामदास
हत्यारे से मिलने
धीरे
-धीरे
अकेले!
( र.स. की अविस्मरणीय कविता ‘रामदास’ से प्रेरित हिंदी में कई कविताएं हैं। जैसे वीरेन डंगवाल की ‘रामदास-2’, देवीप्रसाद मिश्र की ‘एक कम क्रूर शहर की मांग’ और मदन कश्यप की ‘भूख का कोरस। यह रचना र.स समेत इन सभी प्रिय कवियों की नज़र। )
13. अच्छा कवि
अच्छा कवि
उतना ही अच्छा होता है
जितना एक अच्छा बढ़ई
जो अपने काम को अच्छी तरह जानता है
जो अपने काम के सामान को पहचानता है
और हमेशा इस कोशिश में रहता है
कि अब तक जो बनाया
अगली बार उससे बेहतर बनाऊं
महान कवि
महान बढ़ई की तरह होता है
जो अच्छा बनाते बनाते
कभी कुछ एकदम नया बना देता है
जिससे अच्छे के मायने
यक ब यक बदल जाते हैं
अच्छा कवि अपनी अच्छी कविताओं से दुनिया को उतना ही बदलता है
जितना एक अच्छा बढ़ई
अपनी बनाई अच्छी चीजों से
अच्छा कवि और अच्छा बढ़ई
उस हद तक एक अच्छा आदमी भी होता है
जिस हद तक वैसा हर आदमी अच्छा होता है
जिसका समय
ज्यादा से ज्यादा
अपने काम में लगे रहते बीतता है
नहीं तो काम के ध्यान में डूबे रहते
उसके पास अच्छा न होने के लिए
बहुत कम समय होता है
लेकिन बहुत कम समय भी बहुत कम नहीं होता
बुरा होने के लिए
अगर जरूरत पड़ जाए
अच्छे कवि और अच्छे बढ़ई को
अच्छा आदमी होने के साथ साथ
आदमी भी होना होता है
यानी जैसे कि कोई भी आदमी होता है
अपनी इच्छाओं वासनाओं निराशाओं कुंठाओं इर्ष्याओं नीचताओं और क्रूरताओं
के साथ
अच्छे बढ़ई की आरी हथौड़ी छेनी
सिर्फ लकड़ी पर नहीं
मन की इन गांठों पर भी चलती है
अच्छे कवि को भी
अपनी कलम से
आरी हथौड़ी छेनी का काम लेना पड़ता हैं
इन्ही गांठों के लिए
जिन्हे तराशकर
वह खींच देता है नई संवेदनाओं के जलयान
उड़ा देता है सपनों के नए आसमान
कवि को खटना होता है दिन रात
जीवन की निहाई पर
एक
तन्मय लुहार की तरह
अगर कभी आलस उसे घेर ले
थक जाने दे वह खुद को
जीवन के थक जाने के पहले
तब उसकी शर्मिंदगी भरी नाकामी को
न उसकी कला छुपा पाएगी
न पूर्व अर्जित कीर्ति
लोग कहेंगे देखो उसे
उस अच्छे कवि को
जो अच्छा आदमी बनते बनते
रह गया
14. गोरक्षक बन जाता हूँ
भाग्यशाली हूँ कि मनुष्य जनम मिला
वह भी स्वर्ग से सुंदर भारतभूमि में
जहां जन्म लेने को देवता तरसते हैं
परम भाग्यशाली हूँ कि पुरुष-जन्म मिला
राजा बेटा हूँ मालिक हूँ शहंशाह हूँ
इसी जन्म के नाते
जो हूँ सो हूँ
ईश्वर दयालु है
जब देता है छप्पर फाड़ कर देता है
हिंदू हूँ गर्व से कहता हूँ
यह देश मेरा है, समूचा
मुझे कहीं नहीं साबित करनी अपनी नागरिकता
नहीं दिखानी देशभक्ति
किसी को नहीं दिखाना टिफिन उलट कर
तिरंगा उठा कर कर भारत माता की जय नहीं करना
तिस पर ऊँचे कुल का जनमिया हूँ
करनी ऊंच न होती तो मिल जाता
चूहड़े का जनम
जन्मजात महात्मा हूँ
जनेऊ की तरह पवित्र
त्रिशूल की तरह उदग्र
कैसे सम्हालूँ इतना सौभाग्य
कि ‘डेल्ही’ में हूँ
जहां जंतर मंतर है
धरना दूं कि भाषण झाडूं
नारे लगाऊँ जुलूस निकालूँ
मुझे कोई रोक नहीं सकता
मेरी तलाशी नहीं ले सकता
मुझ पर छर्रों वाली क्या पानी वाली बंदूक भी
नहीं चलाई जा सकती
कोई नहीं घुस सकता मेरे घर में रात-बिरात
छप्पर – टाट उलटता गालियाँ देता गुर्राता
ऐसी तैसी करता
मेरी इज्ज़त के हर कतरे की
अहोभाग्य
यह इक्कीसवीं सदी है
दुनिया मेरी मुट्ठी में है
जो चाहूँ लिख सकता हूँ
फेसबुक पर ट्वीटर पर
छाप दूं अगड़म बगड़म भी
तो सौ लाइक बीस कमेन्ट कहीं नहीं गए
कहीं सेल्फ़ी चेंप दी मुस्काती हुई
तो हज़ार पार समझो
हर शाम तीसरे पैग के बाद
जादू हो जाता है
अरुण यह मधुमय देश एक गाय में बदल जाता है
मैं उसी पर बैठ
गोरक्षक बन जाता हूँ
अपने सौभाग्य की बांसुरी बजाता हूँ
15. पहला और आखिरी जन्म यही है
जीने के लिए सभी को
एक ही जिंदगी मिली है
इस एक जिंदगी में तुमने
कितने बच्चों को दुलराया
कितने बच्चों के लिए घोड़ा बने
कितने बच्चों को अपनी
आंखों के सामने मर जाने दिया
कितनों को मार डाला?
इस एक जिंदगी में तुम्हे
कितने चुम्बन नसीब हुए
कितनी स्त्रियों को तुमने धोखे दिए
कितनी स्त्रियों को
अपमानित होते दर दर भटकते
अछोर बीहड़ श्रम में गर्क होते
खामोशी से
या धूमधाम से
खत्म हो जाने दिया?
तुम कितने मुल्कों के कितने
लोगों से मिले
कितने अनोखे कारीगरों से
कलाकारों से
दुनिया की सबसे बेहतरीन समझ का पूरा नक्शा
दिलोदिमाग पर छाप देने वाले
जुनूनी उस्तादों से
किसानों से कुली मजदूरों से कवियों से
और
कितनी बड़ी तादात में ऐसे नगीने लोग
तुम्हारे देखते देखते खत्म कर दिए गए
सिर्फ इसलिए कि वे किसी
ताकतवर की दुकान के सामने
किसी गलत समय खड़े थे?
जीने के लिए सभी को
एक ही ज़िंदगी मिली थी
पहला और आखिरी जन्म यही था
हर एक का।
कवि आशुतोष कुमार हिंदी के आलोचक हैं, पत्रिका ‘आलोचना’ के सम्पादक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं।
सम्पर्क: 09953056075
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