गिरिजेश कुमार यादव
कविता से जुड़े सभी पारंपरिक और आधुनिक सिद्धान्तों का सार यही है कि कविता तभी कविता है जब वह अपने पाठक तक अपने पूरे प्रभाव के साथ संप्रेषित हो सके ।
इस अर्थ में ‘मेरे पास तुम हो’ के कवि अशोक कुमार की कविताएँ भारी भरकम प्रयोगों, प्रतीकों और बिम्बों की नहीं बल्कि सहज सरल भावों, अनुभूतियों एवं एहसासों की संवेदनशील अभिव्यक्ति हैं। जो अपने पाठकों से सहज ही एक आत्मीय रिश्ता बना लेती हैं।
संग्रह की कुछ कविताएँ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से अपनी बुनावट में बहुत मजबूत बन पड़ी हैं लेकिन कुछ कविताएँ बहुत सामान्य हैं। कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिन्हें संग्रह में जगह देने से बचा भी जा सकता था।
कुछ आलोचक इस संग्रह को शिल्प की दृष्टि से एक कमजोर संग्रह भी कह सकते हैं मगर कवि स्वयं इस बात को स्वीकार कर रहा है कि अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वो अभी नया है –“मेरे पास शब्द नहीं हैं/ भाषा भी नहीं/ आवाज़ भी नहीं/ और संगीत भी नहीं।”
अशोक कुमार तो स्वयं को कवि मानने में भी गहरे संकोच से भरे दिखाई देते हैं, इसीलिए तो वो कहते हैं-
“अगर मैं कवि होता/ तो उसकी गैरमौजूदगी में/कुर्सी की उदासियाँ/ दीवारों के इंतज़ार/पंखें की बेचैनी/ और अपना प्रेम लिखता/” ।
कवि को भले ही लगता हो कि उसकी कविताएँ अपरिपक्व हैं, उसके पास शब्द और भाषा नहीं मगर जब आप संग्रह की कविताएँ पढ़ेंगे तो आपको कई ऐसे प्रयोग जरूर मिलेंगे जो काव्यगत सौंदर्य की दृष्टि से इस संग्रह को खूबसूरत बनाते हैं-
“मेरे यकीन की/ बर्फ़ पिघल जाने तक”, “रात भर/खेलते हैं शब्दों से/ जी भरकर/ और सुबह होने तक/ शब्द/खो जाते हैं/कस कर मिली हुई/हथेलियों के बीच/”
“कटोरियों में परोसा प्रेम”, “स्पर्श में कोमलता नहीं/ मिठास होती है”
ये कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो बरबस ध्यान खींच लेते हैं और ये बताने के लिए काफ़ी हैं कि ये कविताएँ सहज सौंदर्य की कविताएँ हैं।
अशोक की कविता में प्रेम करने वाला हॄदय इंतज़ार को भी बड़ी खूबसूरती से निभाता है जब वो कहता है-
” मैं बचाकर रखूँगा/ मुट्ठी भर धूप/आँगन भर छाँव/ बरसात की पहली बारिश/ आँखों में मीठी चाँदनी/पंछियों का शोर/जुगनुओं की रौशनी/ संगीतमयी बयार की छुवन/ झरते हुए पात/और मन की सारी बात/तुम जिस मौसम में चाहो चले आना/मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।”
अशोक के यहाँ प्रेम और प्रकृति एक दूसरे में इस तरह घुले हुए हैं जैसे पानी में नमक। इस तासीर को उनकी ‘मोह’ कविता में देखा जा सकता है जो कवि की संभावनाओं के प्रति हमें आश्वस्त करती हैं –
“बादल उड़ते हैं/पानी को साथ लेकर/ऊँचाई की हद तक/और पानी/उड़ता तो है/किंतु छोड़ नहीं पाता/धरती का मोह/फिर बरस पड़ता है/समा जाने को धरा की गोद में/बूँद-बूँद करके।”
‘तुम मेरे पास हो’ संग्रह की कविताएँ मुक्त छंद की हैं मगर ‘लय’ को सहेजने की भरपूर कोशिश दिखाई पड़ती है और ये इस हद तक निभाया गया है कि कुछ कविताएँ ‘गीत’ को श्रेणी में भी रखी जा सकती हैं। ऐसी ही कुछ कविताएँ हैं- ‘तो तुम प्रेम में हो’, ‘अब वो बात कहाँ’, ‘विरह गीत’, और ‘जल्दी से आ जाना तुम’ शीर्षक की ये पंक्तियाँ आपकी जुबान पर चढ़ जाती हैं आप गुनगुनाने लगेंगे-
“जब धूप भरी हो दोपहरी/और छाँव घनी हो आंगन में/जब कोयल गीत सुनाएगी/तो जल्दी से आ जाना तुम।”
अशोक कुमार केवल प्रेम के कवि नहीं हैं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक चेतना से जुड़े हुए विद्रोह के कवि हैं । उनकी कविताओं में व्यवस्था विरोध का स्वर जितना प्रबल है उतना ही तीखा विरोध जातिवाद और पितृसत्ता का भी है। संग्रह से इतर उनकी कविताओं को पढ़कर इस बात को समझा जा सकता है-
“शांति के लिए बन्दूक/लोकतंत्र के लिए लठ/कलम के लिए जेल/रसोई में झांककर पत्थर/हैवानों के गले में फूल /वंचितों की पीठ पर ज़ख्म/विधर्मियों पर देशद्रोह का ठप्पा/और कविता से यह उम्मीद/कि वो विद्रोह भी न करे।”
हमारे समाज का ढाँचा कुछ इस तरह बना है कि यहाँ नफ़रत करना और उसको ज़ाहिर करना जितना सरल है प्रेम करना और उसकी अभिव्यक्ति कर पाना उतना ही कठिन। मनुष्यता के हित में बदलाव के लिए हर छोटे बड़े आंदोलन के पीछे प्रेम और निर्माण की ऊर्जा का बल होता है। फ़ैज़ और पाश की कविताओं में इसका उदात्त अनुभव किया जा सकता है।
अशोक कुमार अपनी कविताओं में प्रेम का हर रंग उतार लाते हैं। उनके संग्रह की अधिकतर कविताओं में भागदौड़ से भरी जिंदगी में जितना भी समय मिल गया कवि ने उसमें प्रेम का एक संसार तलाशने की कोशिश की है। कवि घर में मौजूद छोटी-छोटी चीजों में प्रेम खोज लेता है-
“सहेज के रखी है/मेरे आईने ने तेरी तसवीर/बिलकुल वैसे ही/खिलखिलाते हुए।”
‘शाम होते ही’ कवि प्रेमिका की आँखों में अपना अक्स ढूँढता है, और ख़ामोशी के पलों में भी महसूस करता है कि दोनों के बीच “धड़कने बात करती हैं” जब वो कहता है –
“कभी-कभी ख़ामोशी/निःशब्द होकर भी/ प्रेम की भाषा बन जाती है।”
और खड़ी करती है एक इमारत जहाँ अपने होने के लिए जगह की उम्मीद करता है। प्रेम का स्वरूप हमेशा एक सा नहीं रहता बदलता रहता है और जब घर की जिम्मेदारियों को संभालते हुए प्रेम सहेजना होता है तो कोरी भावुकता से काम नहीं चलता बल्कि साथ चलना होता है, घर के कामों में साझेदारी करनी होती-
“बर्तन खनकते ही/मैं पहुँच जाता हूँ/मदद करने नहीं/साथ देने।”
बात-बहस में एक दूसरे को सुनाना ही नहीं सुनना भी होता है और एक दूसरे की बात का सम्मान करना भी प्रेम है –
“मैं झुक जाता हूँ/उसकी जिद पे/इसलिए नहीं/की हार जाता हूँ/बल्कि इसलिए/ कि जिद/जायज होती है।”
कवि बराबर उस ख़तरे से सतर्क रहता है जो समाज में जाति और धर्म के नाम पर प्रेमियों की हड्डियाँ जमीन में दफ़न कर देता है, उसके भीतर इस बात की चिंता बराबर रहती है कि प्रेम करना इतना आसान भी नहीं होता। इसलिए कभी कभी वो इस व्यवस्था से व्यथित हो कर बोल पड़ता है
“कहीं दूर चलते हैं” – “जहाँ धर्म../प्रेम की राह का पत्थर न बने/जहाँ मिलन पर/किसी को ऐतराज न हो/जहाँ सूरज,हवा और आकाश/साक्षी बने हमारे मिलन के….।”
अशोक की स्त्री दृष्टि बहुत गहरी और संवेदनशील है-
“स्त्रियों के चेहरे/खुली नहीं/बंद किताब होते हैं/जिल्दें मुस्कुराती हैं/और छुपा लेती हैं/उनके भीतर लिखी/दुखों की तमाम कहानियाँ।”
अशोक की कविताएँ प्रेम के अंकुरण से लेकर उसके परिपक्व होकर घने वृक्ष की छाया बनने की यात्रा की कविताएँ हैं।
ज़िन्दगी ने बहुत से लोगों के जीवन को प्रेम और अपनेपन से खाली कटोरे की तरह मायूस रखा है, ये कविताएँ उस तकलीफ़ और फ़िर उसे प्रेम से भर देने की कामना में डूबी कविताएँ हैं।
नफ़रत के ज़हर में डुबाये जा रहे हमारे समाज और समय को इस समय प्रेम की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अशोक इसी ज़रूरत के कवि हैं। अशोक की कलम नई ज़रूर है पर इन कविताओं में आपको एक निरन्तर बेहतर होता हुआ कवि मिलेगा जिसके सौंदर्य से आप कई जगह विस्मित होंगे इसलिए इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए।
सम्प्रति – शिक्षा विभाग दिल्ली सरकार में अध्यापक। पहला काव्यसंग्रह – “मेरे पास तुम हो”
इसके अतिरिक्त देश, समाज और राजनीति को लेकर प्रगतिशील विचारधारा रखते हुए स्वतंत्र कविता लेखन
संपर्क सूत्र- 9015538006
सम्प्रति- शिक्षा विभाग , दिल्ली सरकार में अध्यापन। प्रकाशन:- किस्सा कोताह, सहित्यनामा, प्रतिबद्ध जैसी पत्रिकाओं में कविताएँ एवं लेख प्रकाशित, कुछ वेब पत्रिकाओं में छूट-पुट कविताएँ।
संपर्क सूत्र – 8700946957)