रमण कुमार सिंह
अरुणाभ सौरभ हिंदी और मैथिली के प्रखर युवा कवि हैं, जो दोनों भाषाओं में न केवल समान गति से सृजनरत हैं, बल्कि जिन्होंने दोनों भाषाओं के पाठकों का स्नेह और सम्मान भी अर्जित किया है।
हिंदी में इनका एक कविता संग्रह-‘दिन बनने के क्रम में’ ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है, जबकि मैथिली में दो कविता संग्रह- ‘एतबे टा नहि’ और ‘तें किछु आर’ प्रकाशित हुआ है।
पक्षधर पुस्तिका के रूप में इनकी लंबी कविता ‘आद्य नायिका’ भी प्रकाशित है। इन्हें साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार (मैथिली काव्य संग्रह के लिए) और भारतीय ज्ञानपीठ युवा सम्मान भी मिल चुका है।
अरुणाभ की कविताएँ पढ़ते हुए बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि कवि मौजूदा समय की हर हलचल और टूट-फूट से कितनी गहराई से जुड़ा हुआ है और उसके हर छल-छद्म को कितनी निकटता से पहचानता है- यह समय रोती आंखों में लाल मिर्च रगड़ने का है
और हत्यारे हाथों से कविता लिखने का यह समय
बदलती दुनिया का भाष्य है।
कवि सिर्फ़ बदलती दुनिया के भाष्य से ही बावस्ता नहीं है, बल्कि उसे अपने नागरिक कर्तव्य बोध का भी एहसास है-
भयानक चीख का नाम है हमारा समय
अनगिन सवालों से टकराने से पहले
अपने बच्चों को जी भर चूम लिया जाए।
इस युवा कवि को जहाँ एक तरफ लगता है कि ‘ सूरज के संग रोमांस करने का वक्त हो गया है… ‘ वहीं कनाट प्लेस की इनर सर्किल की चमक-दमक से बेखबर आउटर सर्किल की फुटपाथ पर सपरिवार रहते असंख्य बेघर लोगों की भी परवाह है और वह पूछता है एक जरूरी सवाल- किसी को मालूम है/इन बेघरों का नाम और अता-पता-नागरिकता??? ‘
कवि को अच्छी तरह मालूम है कि- ‘बहुत अंतर है आरबीआई गवर्नर और अरुणाभ सौरभ के भारत मे/ बहुत अंतर है/ देश और देस में’ फिर भी वह पुकारता है भारत माता को-‘ धरती माता, मेरी मां, आओ/ मंदिरों की भित्तियों, गवाक्षों-गर्भ गुहाओं से बाहर/ कि सेवालाल के घर दिवाली की मिठाई/और जाहिद के घर ईद की सेवइयां/ ठंडी हो रही/ आओ कि रमरतिया की थाली में भात बनकर छा जाओ/ कि हत्या और आत्महत्या से पहले बेरोजगार के घर/ उम्मीदों के दीये जलाना है। ‘
जाहिर है अरुणाभ की कविताएँ व्यापक सामाजिक सरोकार की कविताएं हैं, जहां हताशा और निराशा नहीं, बल्कि यथार्थ का गहन पर्यवेक्षण है और कवि उस दिन की प्रतीक्षा में है, जब ‘ कोई उदास नहीं होगा/ किसी का दिल नहीं टूटेगा/ कोई भूखा नहीं होगा/गोदामों में नहीं सड़ेंगे अनाज/ कोई हत्या नहीं होगी/ न हत्यारा आवारा घूमेगा/ उस दिन हर बच्चे के हाथ में किताब होगी… ‘
कवि का पर्यवेक्षण बहुत सूक्ष्म है और यह कई कविताओं में स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे वह मामी पर लिखी कविता हो या मीरा टाकीज के बहाने बिहार के सहरसा नामक शहर के बनने-बदलने का काव्याख्यान हो अथवा असम के चाय बागानों में काम करने वाली स्त्रियों की करुण दास्तान हो।
प्रेम और अनुराग कवि का ऐसा काव्यगुण है, जो लगभग हरेक कविता में अंत: सलिला की तरह प्रवाहित है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अरुणाभ सौरभ मौजूदा वक्त के एक सजग कवि हैं, जिन्हें पढ़ना खुद को समृद्ध करना है।
अरुणाभ सौरभ की कविताएँ
1. राग यमन
रात की पेट में
धँस चुकी चाँदनी
ठिठुर रही हवाएँ
गली के नुक्कड़ पर
बेआवाज़ गाता पेड़
आरोह अवरोह के साथ
किनारे की रेत पर
संगत करती फेनिल लहरें
आलाप में सनन-सनन
दूर कहीं अनजान झोपड़ी से
कनखी मारता चाँद
रात के अंधेरे से लड़कर रोटियाँ सेंकतीं
गाँव की सबसे बूढ़ी अम्मा
अंधेरे से लड़ने का दावा करता कवि
फूलती साँसों के बीच हारमोनियम पर
भास मिलाता कोई गायक-कलाकार
राग यमन तो रात की खूबसूरती है
एक एकांत कोना
कोई मौन संगीत
एक पहचानी सी छुवन
एक धड़कती सी आहट
भीतर-भीतर बज रहा हो
स्थायी-अंतरा के साथ
हरेक अंतस में
अलग-अलग जैसे कि राग यमन
ये राग यमन है
ना कि रात का विरानापन
ये इस गली का आखिरी मकान है
ना कि कोई भीड़-भीड़ चौराहे का
ये प्यार की सिफ़ारिश है
ना कि कोई चालाकी
गाँधीजी की आत्मा रागों में बसती थी
नरसी मेहता की भी
चरखा तो ताल मिलाने का बहाना था
जो चलता नहीं बजता था थाट के मुताबिक़
सूत काटकर कपड़े बुनना जो जानता हो
वही जान समझा सकता है
रात के समय गाये जाने वाले राग की अहमियत …….
2. आतम-गियान-1
महान वेधशालाओं में
किए गए परीक्षण
विचारों के सबसे बड़े स्कूल से प्राप्त ज्ञान के आधार पर
सभ्यता में दुमुँही चाल चलताचालाक आदमी
जिसकी चमकती शातिर आँखें
बेहद मीठी जुबान और मुसकुराता हर बात पर
वह दुनिया का सबसे अमीर
सबसे बड़ा नेता,अधिकारी हो सकता है
वो दुनिया का सबसे चालक आदमी हो सकता है
पर वो सिर्फ़ आदमी
और कवि नहीं हो सकता …………..
आतम-गियान 2
किसी साजिश के तहत
सिल जाए ज़ुबान
किसी अपराध के नाम पर
कोई और क़ैद हो जाए झूठ-मूठ में
तो परिवार के लोगों
मित्रों
साथियों
दुश्मनों
किसी भी बात पर रोना मत
यह समय रोती आँखों में लाल मिर्च रगड़ने का है
और हत्यारे हाथों से कविता लिखने का यह समय
बदलती दुनिया का भाष्य है
सूरज के गालों में फेसियल करने
ब्लीच करने चंद्रमा को पहुँच चुकीं हैं क्रीम कंपनियाँ
क़ैदख़ाने की समूची रात अपने भीतर समेटे बैठी है जनता
दिन में/ दुपहरी में
अपने घोसले में माचिस के डब्बे जैसे घर में
इधर योजना और नीति पर चल रही है बहस
असली इंडिया या असली मसाला
उधर मांग कि लोच समझ नहीं पायी
अपनी प्यारी आर बी आई ……
आतम गियान-3
अपने ख़ून को पानी समझ
किसी माँद में दुबककर खुजलाते रहो काँख
भेड़िये, साँप या भूखे शेर के मानिंद
किसी जलाशय में नदी में
उतरकर अनंत काल तक जल समाधि में
लीन होकर त्याग दो प्राण
हत्या के बाद ज़मीन पर गिरे ख़ून, माँस और लोथड़े
कटे फल के टुकड़े सा महसूसना है
जिन्हे देखकर आंतरिक तपोबल जागृत होगा
हम अपने कुनबे,दड़बे में छिपे लोग जिनकी कोई मांग नहीं
एक अमरफल लाने निकले हैं
अगम के पार
निगम के पार
सत के पार
असत के पार
लोकतन्त्र को बैताल की तरह अपने कंधों पर लादकर
कथा सुन रहे हैं राजा विक्रम की तरह
भयानक चीख़ का नाम है हमारा समय
अनगिन सवालों से टकराने से पहले
अपने बच्चे को जी भर चूम लिया जाए !
3. दिन ढलने से पहले
अंगड़ाई में कट गए फूलों से दिन
चिड़ियों की चहकन से शुरू हुआ दिन
आसमानी चादर ताने गुनगुने दिन
मखमली घास की सेज पर गीत गाते दिन
सूरज के जूते में फीता बांधते दिन
या पीछे से हाथों से आँखेँ मूंदता दिन
भरी दुपहरी में सरसराता दिन
लोहित आकाश में कनात फैलाये दिन
सूरज को परदेस भेजकर सुबक रहा दिन
ढलने की पारी से लड़ रहा दिन
चाँद के चेहरे पर क्रीम लगाकर लौट आना दिन
चिड़ियों की चहक में फूलों की महक में
प्रभाती से आकाश से पाताल से
दसों दिशाओं से ऋतुओं से
नक्षत्रों से पक्षों से
मास-पहर और सातों घोड़े से कह दो
कि सूरज के संग रोमांस कने का वक़्त हो गया है …
4.उस दिन की प्रतीक्षा में
मुरझा जाएँगे सूखे फूल सारेउस दिन की प्रतीक्षा में
पानी किसी अनजान लड़की सा
बहने लगेगा मेरे भीतर
और ट्राफिक सिग्नल देंगे पेड़
उस रास्ते के लिए
जहाँ हरियाली अवसाद से निकाल खींच लेगी
अपना वजूद
वसंत उस वक्त
पूरी जवानी में झूम-झूम गाएगा मालकौंस
भैरवी थाट में
दिन के सातवें पहर में
पतीले में माँ लगाएगी लेवा
अदहन उबलने से पहले
चावल गिरने से पहले
और हम निकलेंगे बाहर
होशो-हवास में
हमारे पास कहने-सुनने और चल पड़ने का
बचेगा विकल्प
उस दिन दिशाओं में गूँजेगी
हमारी आवाज़
पहाड़ अपनी सबसे ऊँची चोटी से
कविता पढ़ेगा
शंखनाद की तरह
अन्तरिक्ष की विराट सत्ता में
दिन का समूचा प्रकाश
रात का सन्नाटा
बहती हवाओं की फड़फड़ाहट
और हमारा रक्त
पेड़ की छाल के नीचे से बहेगा
तब हमारे पास दुनिया बदलने की
पूरी ताक़त होगी
उस दिन घोषणाओं के वजाय
कोई उदास नहीं होगा
किसी का दिल नहीं टूटेगा
कोई भूखा नहीं होगा
गोदाम में नहीं सड़ेंगे अनाज
कोई हत्या नहीं होगी
ना हत्यारा आवारा घूमेगा
उस दिन से हर बच्चों के हाथ में किताब होगी
आँखों में चमक
उस दिन से कोई अस्पताल नहीं जाएगा
ना कोई न्यायालय ना थाना
तो साथियों,
क्या कोई ऐसा दिन
हमारे हिस्से में आएगा
जिस दिन किसी को
प्रार्थना ना करनी पड़े
अपने-अपने वास्ते
अपने-अपने ईश्वर के आगे
गिड़गिड़ाना ना पड़े ???????……
5.मीरा टॉकीज
बेसहारे की लाठी नहीं
स्कूल की उबाऊ क्लास नहीं
वहाँ सिर्फ आनंद बरसता है
भीड़-भक्कड़
धूल-धक्कड़
बस-ट्रक की हाँय-हाँय से
हाँफते-खाँसते
मेरे उसी शहर
सहरसा में
जो निस्तेज चेहरे की झुर्रियाँ और
झक्क सफ़ेद बालों वाली
बूढ़ी अम्मा की तरह
जिसका बेटा जनसेवा एक्सप्रेस पकड़कर
पंजाब गया है कमाने
और अब उँगलियों पर गिने जा सकते हैं नौजवानों के नाम
उसी शहर में
स्टेशन और बस स्टैंड के बीच
दो द्वारों के बगल में
प्रशांत टॉकीज-मीरा टॉकीज
जैसे गंगा-जमुनी तहजीब
पोस्टरों से पटी दीवार पर
पान की पीक से पटी सड़कें
टिमटिमाकर जलते वैपर लाइट की पीली रोशनी में
मिरमिराए रोगी सा सुस्ताया शहर है जो
शहर जो बन ना पाया कभी
सहर-सा,थोड़ा गाँव,थोड़ा कस्बा सा
थोड़ा शहर जो बीमारियों से लड़ता है
थोड़ा बेरोज़गारी का मारा
थोड़ा आवारा घूमता है
थोड़ा मीर टोला होकर
महिला कॉलेज के गेट पर पहुँच जाता है
और लड़कियों पर फब्तियाँ कसता है
जो बच गया सो
भांग के नशे में धुत्त है
या रक्तकाली मंदिर से आगे गाँजा कश लेकर
घंटाध्वनि सुनकर जीता है
बस्ती से आते अजान के स्वर पर
या मेंहीदास सत्संग पर
कान देता है
कुछ-ना-कुछ सुनकर ही जागता है यह शहर
और रिफ़्यूजी कॉलोनी से होकर
महाबीर चौक होते हुए
खिरियाही की तरफ़ भागता है
और वहाँ
नई-नवेली वेश्याओं का दाम पता करता है
मेरे उस शहर की पहचान है दो सिनेमाघर
उनमें से एक-मीरा टॉकीज
जहां अनजान चेहरे को
घुप्प अंधेरे में टॉर्च दिखाकर सीट बताता टॉर्चमैन
जिसकी गोल रोशनी की
गोलाइयाँ भर गोल है पृथ्वी हमारी
सिल्वर स्क्रीन भर रंगीन है ये दुनिया
खड़खड़ाते पंखे भर है संगीत
और कानफ़ाड़ू सीटी से
सी ……सी…..ई…..ई ………….करती है
मीरा टॉकीज …
आधुनिकता का ककहरा
फैशन का पाठ
इस शहर ने बंबइया फिल्मों से सीखा है
गुप्त-ज्ञान मॉर्निंग से
जिसकी गवाही देती है –मीरा टॉकीज
फिल्में बदलती गई
हमारा समय बदलता रहा
लोग बदलते रहे
शो के लिए लंबी लाइने
ब्लैक टिकट,लाठी चार्ज,मारपीट
होते रहे ,
मुश्किल से अब दीखता है हाउस-फुल का बोर्ड
मल्टीप्लेक्स बनने तक
जितनी बच जाय
इतना है इनदिनों कि
शहर की बढ़ती चमक-दमक में
थोड़ी और चमक गई है
……….मीरा….टॉकीज ……….
6. नींद और कविता
जैसे अन्न
भूख के लिए
नदी पानी के लिए
पानी ज़िंदगी के लिए
ज़िंदगी तुम्हारे लिए
तुम्हारी बाँहें
सुकून के लिए
तुम कविता के लिए
रात नींद के लिए
नींद रात के लिए
वैसे हमारी सभ्यता के लिए
नींद और कविता
सबसे निर्दोष कोशिश है …..
7. मामी:एक कविता
मंदिर और ननिहाल में
ननिहाल जाना पसंद करता हूँ
कि मंदिर का प्रपंच नहीं
पर यहाँ
वरदान में सिर्फ प्यार बरसता है,
नानी-नाना के अलावा मौसियाँ
और ननिहाल को ननिहाल बनाने में
सबसे बड़ी भूमिका होतीं हैं-मामी
मामी शब्द उच्चारण की दृष्टि से भी
सबसे मधुर सम्बोधन है
मधुरता इतनी की कह दूँ कि
शहद की पूरी शीशी होती है-मामी
मा……..मी………..
मिश्री की डली,
बताशे की डब्बी
दूध में मिली चीनी
रसगुल्ले का रस होती है-मामी
महासागर की तरह स्त्री जीवन
यंत्रणाओं में परिवार की गाड़ी खींचती
कभी रोती-कभी सुबकती
कभी रूठती
जाने क्यों कभी-कभी पिट जाती मामी ??
और शरीर पर पड़े काले निशान को साड़ी के पल्लू से
फटी ब्लाउज को
सफाई से काहे छिपाती थी-मामी
तब जबकिमेरी उम्र दस साल थी………
पति का सारा दुख अपने ऊपर लेकर
इन सबके बीच
जीने के सलीके और
तमीज़ के पाठ जबरिया पढ़ती रही-मामी
सुस्वादु पकवान की गंध
दाल के फोरन की छौंके की झांस
गरमागरम भात पर घी होती है-मामी
अचार की खटाई
सूरन की कब-कब
बूटनी मिर्च की रिब-रिब
रूप की सुंदरता,समूचा-स्वाद,समूची-गंध,समूचा-स्पर्श
स्त्री कलाओं की सम्पूर्ण सुंदरता
का समूचा कोलाज
भागती हुई दुनिया में छूटे सम्बन्धों को जोड़ने वाली पुल होती है-मामी
कभी प्यार करती,इतराती,इठलाती,गरजती,बरसती
और अपनी पहचान के लिए हमेशा तरसती है………..मा……मी………
8. प्यार तुम्हारा
तुम्हारी आँखें-
महेन्द्रू घाट,बाँस घाट
तुम्हारे होठ
गोलघर,बिस्कोमान
तुम्हारी बाँहें-
गांधी मैदान
तुम्हारे स्तन-
जंक्शन, डाक बंगला चौराहा
तुम्हारी बातें-
रीजेन्ट,अशोक सिनेमा
तुम्हारा दिल-
कंकड़बाग
मन तुम्हारा-
समूचा पटना
तुम्हारा प्यार-
जैसे पूरा बिहार ………..
प्यार तुम्हारा २
तुम्हारी बातों में
बरहैया का रसगुल्ला
मनेर के लड्डू
पिपरा का खाजा
प्यार के नशे में बहती है
कोसी,कमला,बलान
शामिल हो जाती है
तुम्हारी आत्मा की गंगा में
डबडबाई कजरारी आँखों में
आती है बाढ़
जिसमें डूब जाता है
मेरे मन का सहरसा
तन का उत्तरी बिहार
तुम्हारी बातों की मिठास में
और रसीले हो जाते हैं
भागलपुरी जर्दालू आम
तिरहुतिया लीची
तुम्हारी भाषा
जैसे जनकपुरिया मैथिली
तुम्हारे तानें
जैसे बनमनखी स्टेशन की झाल-मूढ़ी
तुम्हारे सपनों में बनता है
दरभंगा का घेवर
जिसे कांपते हाथों से बनाती हो तुम
टावर चौक पर
तुम्हारे दिल में रह-रह उठती है -हूक
क्योंकि तुम मुझसे हज़ारों किलोमीटर
दूर रहती हो
और कभी-कभी रोती हो
जैसे झारखण्ड बटबारे के बाद
रोता है-बिहार ………
9. गाँव की उदासी का गीत
कहीं चले गए हैं पेड़ की डाल से पंछी
उदास हो-होकर
नहीं है बसेरा गिद्ध का ताड़ पर
बिज्जू आम की डाल से
टूट कर गायब हो चुका है
मधुमक्खी का छत्ता
और धूल भरे आसमान में
दोनों पाँव थोड़ा उचक गया है-गाँव
ऐसे बे-मौसम कैसे गायी जाए ठुमरी-कजरी
जब गाँव के किस्से-कहानी का
परान ले जाये कोई जमदूत
कि लोकगीत गानेवाली औरतों के सुर,लय,तान
कंठ में छाले पड़ने से नहीं
अपने शरीर के क्षत-विक्षत होने के डर से
गुम हो चुके हैं
अब जबकी
मुखिया जी की मूछ में लगे घी से
और बाबूसाहेब के स्कार्पियो के टायर से
नापी जा रही औकात,गाँव की
और सरपंच के घूसखोर,मुंहदेखुआ फैसले पर
टिका है गाँव का न्याय
तो क्या पंडित जी के ठोप-त्रिपुंड से
चीन्हा जाय गाँव का संस्कार
ऐसे समय में
जब हममें कोई संवाद लेने-देने का ढब नहीं बचा
मोबाइल पर अनवरत झूठ बोलकर
ले लेते हैं जायजा गाँव का
वही गाँव
जहां छल-छद्म-पाखंड और भेदभाव के बीच भी
पड़ोसी सिर्फ़ लड़ते ही नहीं थे
पड़ोसी के घर और अपने घर में अंतर
सिर्फ़ चेहरे से हुआ करता था
पड़ोसी के घर के बननेवाले
पकवान की गंध से ही
बरमब्रूहि-कह उठता था पेट
अपनी थाली में जिस समय
सब्जी के बदले रोटी पर
सिर्फ़ एक टुकड़ा अंचार था
पड़ोसी दादी दे जाती थी
गरमागरम माँछ-भात
अब तो पड़ोस में सड़ रही
लाश की गंध तक हमें नहीं आती
पड़ोसी की उदासी तो
हमारे लिए आनन्द है
सिर्फ़ पड़ोस ही नहीं/समूचा गाँव उदास है
गाँव की उदासी का गीत
कोई कलाकार नहीं
पाकड़,नीम,बरगद और पीपल गाते हैं
या गाते हैं वो सूखे तालाब
जिसके आस-पास नहीं मँडराते हैं-गिद्ध
या वो कुआँ जिसमें अब कछुवा नहीं तैरता
महीनों से सड़ रहा
आवारा कुत्ता गंधा रहा है
दुल्हिन नहीं गाती मंगलचार
अपने खून और किडनी बेचकर
सियाराम भरतार परदेस से
पैसे भेजते हैं गाँव
जो गाँव बच्चे-बूढ़े और विधवाओं की
रखवारी में है,जहाँ
हर मजूरिन उदास है खेत में;कि
धान की सीस में
बहुत कम है धान
खलिहान का जो हो
भूसखाड़ में सिर्फ़ भूसा बचेगा
उदास समय में
सिर्फ़ गाँव में उदासी है,कि
पेड़ उदास है
या मधुमक्खी का छत्ता उदास है
लोककथाओं में उदासी है
या रो-रोकर मिट गया है लोकगीत
खलिहान में उदासी है
कि समूचा खेत उदास है
बिन पानी नहर उदास है
हार्वेस्टर-ट्रेक्टर उदास है
कि थ्रेसर की धुकधुकी उदासी का गीत गा रही है
और आटाचक्की ऐसे ही बकबका रही है
उदासी माँ की बूढ़ी आँखों में
छायी हुई दुख भरी नमी है
या आंसू की बूंद
या कच्चे जलावन से चूल्हे जलाने के बाद
आँख में लगे धूएँ का असर
इन सबका
हिसाब-किताब
मैं एक कविता लिखकर
कैसे लगा सकता हूँ………………..??????
10.कथकही
वो किसी भूख से ऊपर उठी थी
जठरागिन से
कितने मौसम बीते
घड़ियाँ सुहानी बीती
काजल से कारी रात बीती
बादल से भीगी बात बीती
कितने सुख बीते,उन्माद बीते
राग-मल्हार बीते,फूल हरसिंगार बीते
कितनी लड़कियाँ स्त्री बनीं
कितनी सुहागिनें विधवा हुईं
गाँव की
उसकी कथा तब भी चलती रही
उस कथा में
महकीं दिशाओं में
चाँद चकोरी की
परियों की कहानी थीं
वो ना दादी थी ना नानी
वो कथकही थी गाँव की
जो कथा सुनाती थी
घूम-घूमकर दूर-देहात में
तब टेलीविज़न में सास-बहू नहीं थी
तब वही सुनाती थी गौरी-शंकर व्याह के किस्से
वही कहती थी राधा-कृष्ण की केलिक्रिया
और नववधुएँ लीन होकर सुनती थी
सिर्फ़ दो पल्ला साड़ी,दो साया और दो ब्लाउज़ कटपीस
सौंफ-सुपाड़ी,नारियल तेल,कह-कह सिंदूर
भरपेट भोजन कई साँझ तक
के लोभ में
वो कथाएँ सुनाती थी,तो
हम सब उठ कर पानी पीने भी नहीं जाते
वो पूरी कथा को बेवाक और विश्वसनीय हो कहतीं
क्या-क्या हुआ था पुष्पवाटिका में
जो बातें रामचरित मानस में नहीं थी
जल-भुन जाते उसके ज्ञान से
बड़े-बड़े तिलकधारी,त्रिपुंडधारी,शिखा-सूत्रधारी पंडित-गण
पर उसका कुछ नहीं बिगड़ा,
कथाएँ चलती रहीं अनवरत
पर कथा से पहले
उसने भी महसूस किया था
महुए की टप-टप
से अंग-अंग में घूमता आलस्य
बेला-चमेली-चम्पा की महक में
वो भी कभी उन्मादित हुई थी
गजरे की महक से
कई रातों में सिहरती थी
काजर सी करियाई रात में
अपने नितांत नीजू क्षण में
उसके भी अंगों को किसी ने बड़े प्यार से
सहलाया था
हौले-हौले होने वाली चुंबन की
सिहरन में वो भी कभी
अलमस्त होती थी
अपने साथी संग उसने भी बिताए
सुख के कई दिन प्यार की रात
कई मास
रोहिणी,स्वाति
और आर्द्रा नक्षत्र
उसने कभी मुँह नहीं देखा था स्कूल का
कोई भी किताब नहीं पढ़ी थी वो
पर विद्यापति पदावली के गीत जब सुमधुर कंठ से गाती
पिया मोर बालक हम तरुणी गे…..’
तो शांत हो जाते सभी
कुछ पल के लिए लगता कि
हमें स्कूल तो नहीं जाना चाहिए
पर हम भी जैसे-तैसे स्कूल जाते रहे
उसकी कथाएँ चलती रही
चलती रहीं
कहते हैं;कि उसे
कथा से पेट भर भात
नहीं ही मिला कभी
अभाव से बुनीं हुई कथा
अभाव में ही बनकर
पूरी भी हो गई
गाँव में कई सालों से
बहुतों क्वारियाँ सुहागिन बनीं
पर गाँव में फिर कोई नहीं बनीं
कथकही……………
11. धरतीमाता-भारतमाता
(लोहिया जी से क्षमायाचना सहित )
एक दूसरे को काटकर बढ़ने के बीच
मरघट से लाए नरकंकालों के ढेर
लंबी लाइन अस्पताल में
बीमार,दमघुटाऊ दिल्ली में
रेडियो,टीवी,अखबार की बिकी हुई खबरों के बीच
गौरव गान के बीच
कहीं धीमी रफ़्तार में रेंगती गाड़ियाँ
कहीं तेज रफ़्तार
इनर सर्किल की चकमक
आउटर सर्किल फुटपाथ पर
सपरिवार रहते असंख्य बेघर लोग
प्लास्टिक-तिरपाल में
कहीं झुग्गी-झोपड़ी में
नॉर्थ अवेन्यू, साउथ अवेन्यू
लोकसभा-राज्यसभा
या,
सफर करते अनथक मेट्रो/बस यात्री
किसी को मालूम है
इन बेघरों का नाम और अता-पता- नागरिकता ????
तरह-तरह की बातें और संदेह
ये बंग्लादेशी हैं,नहीं बिहारी हैं
मुसलमान हैं,नहीं दलित हैं
ये भीख मांगते हैं
इनका बहुत बड़ा गैंग है
ये भीख के पैसे से खरीदते हैं ड्रग्स
और महिलाएँ अपनी गोद में हमेशा सोए हुए
बच्चे को लेकर मांगती है भीख
बच्चा रोता नहीं कभी
जब भी रोता है लोग कहते हैं
माँ नश में सुई चुभो देती है
कुछ उसी फुटपाथ से सटे ठेके पर
दारू बोतल हटाने
बिखरे चखने पर झाड़ू लगाते
इसी फुटपाथ के टूटे नल पर
स्नान करती महिलाओं के अधखुले अंग
देखकर जागता है तुम्हारे भीतर का
ऋषि वात्स्यासन और कामाध्यात्म
तब जबकि मेरा देश आर्थिक विकास की नई ऊँचाईयाँ छू रहा है
तब जबकि मेरा देश सम्पूर्ण सांस्कृतिक राष्ट्र बनने की तैयारी में है
तब जबकि मेरा देश हर सच को झूठ और झूठ को सच बनाने में व्यस्त है
तब जबकि मेरा देश हर राजनेता को उम्मीद भरी निगाह से देखता है
तब जबकि मेरा देश सभ्यता की नई कथा कहेगा
देश के सभ्य नागरिकों चिपक जाओ टेलीविज़न से
कि समूचा दिन काटकर दफ़्तर से आकर सुकून की तलाश में
बदलते रहो चैनल
झूठ-सच मिली खबरों के आधार पर
बनाते रहो धारणा
उन्मादी हवा की चपेट में तुम
भीड़ प्रायोजित हिंसा को सही-गलत ठहराते
किसानों,नौजवानों की आत्महत्या का मूल कारण तक नहीं जानते
मित्रों-सभासदों- मंत्रियों
बहुत अंतर है आरबीआई गवर्नर और अरुणाभ सौरभ के भारत में
बहुत अंतर है
देश और देस में
नागरिक सभ्यता की माँग है कि
सिल दिये जाएँ बोलनेवाले होठ
हर अनहोनी से पहले
मेरे देश की प्यारी लड़कियों
लोहे के मुखौटे से ढक लो चेहरा
लोहे के हिजाब में लपेट लो देह
कि किसी हमलावर के तेजाब से ना झुलसे
कि दरिंदों के हाथ ना नुचे तुम्हारे माँस का लोथड़ा
आग होना है तुम्हें कि झुलस जाए अनचाही छुवन से अपरिचित हाथ
कुछ लोग गला फाड़ कर चीख रहे हैं कि फर्क मिट गया है
मनु के विधान और अंबेडकर के संविधान में
और हर राज्य में सताये जा रहे हैं अंबेडकर
असंख्य मनुओं द्वारा
रोज नई व्याख्या-रोज नया अर्थ
रोज नया राष्ट्रवाद-रोज नया राष्ट्रद्रोह
ओ भारतमाता
तुम्हीं कहो किससे पूछूँ
तुम्हारी परिभाषा
किस औरत की आत्मा में जा छिपी हो
ग्रामवासिनी माता
दिल्ली में रहती हो कि चिल्का में
दलाल स्ट्रीट में/नन्दन कानन में
बॉलीबुड में/नोएडा फिल्म सिटी में
मणिपुर में/दातेवाड़ा में
सिंगूर में,सेवाग्राम में या हम्पी मे
सम्राट हर्षवर्धन की प्रेमिका हो
या सम्राट वृहद्रथ की व्याहता
पुष्यमित्र शुंग की पत्नी
या राजेन्द्र चोल की
यत्र-तत्र-सर्वत्र
तुम्हीं हो भारतमाता ??
क्या सचमुच मेरी माँ तुम्हें
बौद्धों का कटा हुआ मस्तक प्रिय है
या पारिजात पुष्प या कौस्तुभ भूषण
रात के तीसरे पहर में
हर घर में जाग रही सुबक-सुबक रोती हुई भारत माता
तुम्हें मेरे पिता ने/मेरे भाइयों ने
डाँटा है-पीटा है,प्रताड़ित किया है
कवि-कलाकार-चिंतक मारे जा रहे
कलाहीन होकर आर्त्तनाद करती हुई
लुटी-पिटी-बिखरी
धरती माता, मेरी माँ आओ
मंदिरों की भित्तियों, गवाक्षों-गर्भ गुहाओं से बाहर
कि, सेवालाल के घर दिवाली की मिठाई
और ज़ाहिद के घर ईद की सेवइयाँ
ठंडी हो रही
आओ कि रामरतिया की थाली में भात बनकर छा जाओ
कि हत्या और आत्महत्या से पहले बेरोज़गार के घर
उम्मीदों के दीये जलाना है
(साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार समेत कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित कवि अरुणाभ सौरभ सहरसा बिहार के रहने वाले हैं और पीएचडी की उपाधि प्राप्त हैं . इनके ‘एतबे टा नहि’, ‘तेँ किछु आर’, नाम से दो मैथिली कविता संग्रह और ‘दिन बनने के क्रम में’ नाम से एक हिंदी कविता संग्रह प्रकशित हो चुका है. अनुवाद और संपादन के क्षेत्र में भी इन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किए हैं. टिप्पणीकार कवि रमण कुमार सिंह गणपति मिश्र साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित हैं, हिंदी तथा मैथिली कविता में एक चर्चित नाम हैं और अमर उजाला अख़बार में उप-संपादक के पद पर कार्यरत हैं.)
प्रस्तुति : उमा राग