शंकरानंद
कविता की दुनिया में अभी कई पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं और इसी बीच नए लोग भी आ रहे हैं जिनकी उपस्थिति चकित करती है। उनकी कविताओं की आवाज़ नयी है, भाषा नयी है, तेवर नया है और सबसे बड़ी बात कि उनकी दृष्टि स्पष्ट है, इसीलिए वे उनके पक्ष में खड़े हैं जिनके पक्ष में कोई नहीं है। अनुराग यादव ऐसे ही नवोदित कवि हैं। उनकी कविताएँ मैंने पहली बार पढ़ीं। पढ़कर यही लगा कि इनमें बेहतर कविताओं की भरपूर संभावना है। इनकी कविताओं में हमारे समय और समाज का सच बहुत बारीक और खुरदरे रूप में मौजूद है। इनकी कविता हाशिए की आवाज के रूप में हर बार बेचैन करती है।
हमारा समय और समाज दोनों पूंजी के प्रपंच और व्यवस्था के मकड़जाल से घिरा हुआ है। यहाँ आम आदमी के लिए जीने के विकल्प लगातार कम किए जा रहे हैं और ऐसी स्थितियाँ रची जा रही हैं जहाँ उनके लिए साँस लेना भी कठिन है। अख़बारों और चैनलों से उनकी ख़बरें गायब हैं जो दो दिन भूखे रहकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। जो नदी में छलांग लगा रहे हैं। जो जहर खा रहे हैं। जो आग लगा कर मर रहे हैं सिर्फ़ इसलिए कि उनकी रोजी रोटी छीन ली गई। उनका हुनर उनके किसी काम का नहीं रहा। वे लोग चमकदार पक्की सड़क के बीच गड्ढे की तरह हैं। जिसके पास से हर कोई गुजरता है लेकिन उसकी चिंता कोई नहीं करता। अनुराग कहते हैं –
सड़क को तो बनाया सबके लिए गया है
पर उसके बीच बीच में जो गड्ढे हैं वो
उन लोगों के आँख के नीचे के
उस गड्ढे की तरह है
जो वक्त के साथ और भी गहरे होते जा रहे हैं
बाकी लोग उस बिना गड्ढेवाले भाग जैसे हैं
जिसे बीच के गड्ढे से कोई फर्क नही पड़ता
और पड़े भी क्यों
ये गड्ढे ही तो उन्हें ऊंचाई का एहसास कराते हैं
यही तो व्यवस्था की चाल है जिसमें अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और ग़रीब और ग़रीब। उनकी समस्याएँ ख़त्म नहीं हो रहीं सिर्फ़ इसलिए कि उनके होने न होने से किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन जीने की ज़िद के आगे कुछ नहीं टिकता। अनुराग इस ज़िद को समझते हैं जो अपने दुश्मन की पहचान कर लेते हैं, तभी वे कहते हैं –
पर ध्यान रखना होगा जब गहराई ज्यादा होती है तो वो अपने किनारे को भी गिरा कर खुद में मिला लेती है
तब कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितनी
ऊंचाई पर हो l
यह कविता बताती है कि कोई भी समय और समाज गैरबराबरी के साथ बहुत दिनों तक नहीं चल सकता।उसे बदलना पड़ता है। यहाँ मुक्तिबोध याद आते हैं, जो कहते हैं –
कविता में कहने की आदत नहीं,पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।
अनुराग यादव की कविताओं में एक तरह का खुरदरापन हर जगह मौजूद है जो भले मानुष को खटक सकता है, लेकिन उनकी कविता की यही ताकत भी है। वे अपनी ज़िम्मेदारी भी स्वीकार करते हैं तभी कह पाते हैं –
हमारे पैदा होते ही देके कमान हमारे हाथों में
उससे पहले के हजारों लाखों दौर की
जिससे हम अनभिज्ञ होते हैं
और हम अनभिज्ञ होते हैं बिना मांगे मिलनेवाली इस जिम्मेदारी से
हम कह भी नहीं सकते कि
हमने इसे नहीं चाहा
ये मेरा इतिहास नहीं है
मैं अपना इतिहास खुद बनाऊंगा।
लोकतंत्र में जनता के हाथों में उसका भविष्य होता है। इतने छल छद्म और हिंसा भ्रष्टाचार के बावजूद एक संभावना हमेशा होती है कि स्थाई कुछ भी नहीं है। चीजें बदलती हैं। इसलिए कि जिस जनता को मूर्ख बनाए रखने की साज़िश बड़े पैमाने पर चल रही है वह भी एक दिन जाग जाती है। जब जगती है तो सबकुछ बदल जाता है।
सेंगोल: एक राजदंड कविता में अनुराग कहते हैं –
पर तुमने उसे शक्ति समझ लिया
राज करने की शक्ति
कुछ लोगों को अपने पक्ष में लेकर
पर धीरे धीरे बढ़ता जायेगा भार उसका
फिर छीन लिया जाएगा सब कुछ या
जल जायेगा उस चिंगारी में
लाठी भी सिंहासन भी
बस बचेगा अंत में ये सेंगोल !
जिसे जनता देगी किसी
और के हाथ में
अच्छे दिन की वापसी के लिए|
अनुराग यादव की कविताएँ पढ़ते हुए यही कहा जा सकता है कि इनमें अपने समय और समाज को देखने का विवेक भी है और दृष्टि भी। यही इन्हें भीड़ से अलग करती है और इनके प्रति आश्वस्त भी करती है।
अनुराग यादव की कविताएँ
1. सड़क के गड्ढे
आज सड़क को देखा
वैसे तो रोज देखता हु पर आज ध्यान से देखा
तो पता चला कि इसमे हमारे देश की असलियत नज़र आ रही थी
सड़क को तो बनाया सबके लिए गया है
पर उसके बीच बीच में जो गड्ढे है वो
उन लोगों के आँख के नीचे के उस गड्ढे की तरह है
जो वक्त के साथ और भी गरहे होते जा रहे है
गरीबी के कारण, बेरोजगारी के कारण
शिक्षा के अभाव में या जानकारी के ll
और बाकी लोग उस बिना गड्ढे वाले भाग जैसे है
जिसे बीच के गड्ढे से कोई फर्क नही पड़ता
और पड़े भी क्यों
ये गड्ढे ही तो उन्हे ऊंचाई का अहसास कराते है
उनके जीवन में इन गड्ढों की अहमियत इतनी ही है
जितनी पेट भरने के बाद रोटी की
जिसमें पानी न आये उस टोटी की और
कपड़े टांगने के लिए बनी हुई खूटी की ।
पर वो भूल जाते है कि कभी उनकी आलिसान इमारत की जगह भी गड्ढा हुआ करता था
जिसे भरा उन्ही लोगों ने जो आज भी गड्ढे में है , जो गहरे होते जा रहे है वक्त के साथ, चाहे चेहरे के हो या सड़क के
इतने गहरे की उसमे बाढ़ का पानी भी समा सकता है और आंखों का आंसू भी
इतने गहरे की उनसे निकलना उतना ही मुश्किल जितना साँप काटने पर जिंदा बचना l
पर ये गड्ढे भी भरे जाते है कब,
जब कोई अच्छी सवारी जाने वाली हो
जैसे चुनाव की ll
और भरने वाला कौन है हमारे नेता
अपने वादों के अलकतरे से
तसल्लियों की गिट्टियों से
पर इतनी सफ़ाई और इतनी हुनरमंदि से कि
ये कुछ समय के लिए पुरे बराबर हो जाए
न भी हो तो उन्हें लगे कि हो गए है ll
और जैसे ही वो सवारी खतम हो
वैसे ही उसकी मजबूती भी
धीरे धीरे वक्त के साथ नहीं तो कैसे दिखेगा आपको देश
सड़कों पर ध्यान से देखने पर इन गड्ढों और ऊंचाइयों के बीच
जो बस एक खराब सड़क ही कही जाती है
और कहते भी वही है जो उन गड्ढों मे रहते है
या रहने के लिए मजबूर है
उन्हे कोई जरूरत नहीं जो इन गड्ढों के बाहर की दुनिया में रहते है
क्योंकि उनकी सवारी इतनी आलिसान है की उन पर इन गड्ढों का कोई फर्क नहीं पड़ता
पर ध्यान रखना होगा जब गहराई ज्यादा होती है तो वो अपने
किनारे को भी गिरा कर खुद मे मिला लेती है
तब कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितनी ऊंचाई पर हो l
2. शाम की खोज
शाम ,किसी की खोज में है
सूरज के घर जाने का समय हो गया है
और शाम के उदय होने का
अब उसका एक एक पल उसे घुटन के आलावा कुछ नहीं दे रहा
जैसे यात्रा का अंतिम क्षण ही सबसे लम्बा लगता है ठीक उसी प्रकार ||
सूरज घर में तो चला गया है पर
अभी फाटक बंद नहीं किये है
शाम तब भी एक छोटे बच्चे की तरह बाहर निकल आई है
और बाहर सब कुछ देखती है
उसे भी सब देखते है
जैसे छोटे बच्चे को देख कर सब आनन्दित होते हो ||
समय के साथ शाम गहरी होती जाती है , अब वो रात है
जैसे उम्र बढ़ने के साथ विचार गहराते जाते है
अब वो उन सबको खोजना चाहती है जिसे उसने देखा था जब वो शाम थी |||
सफ़र शुरू हुआ
कुछ दूर पर ही उसे एक अर्ध नग्न शरीर दिखा
जो जमीन को बिस्तर समझ के आराम से सो रहा है
जैसे वर्षो का थका हो और उसे मखमली बिस्तर मिल गया हो
पेट धसा था उसका सीने मे
जैसे सड़क पर एक गड्ढा ,
रात उस गड्ढे से बच कर आगे निकल गयी
उसका एक भाग वही छूट गया।
आगे उसे एक छोटा घर दिखा
पर वो इतना बड़ा था कि सब लोग सो सके
बिना दरवाजा खटखटाये वो अंदर गयी
वहाँ पेट और सीना बराबर था
जैसे समतल सड़क
और रसोई के बर्तन में बचा भोजन भी नहीं था
और कपड़े पूरे थे शरीर पर
रात खिड़की से बाहर निकल गयी
यहाँ पर उसका कोई भाग नहीं छूटा क्यूंकि
जगह नहीं थी रुकने की |
आगे उसे चार दिवारी दिखाई दी
बड़ी मुश्किल से वो अंदर गयी
उसकी आँखें खुली रह गयी
और गर्दन ऊपर उठ गयी
कई दरवाजे और एक लम्बा सफ़र तय करके
शयन कक्ष तक पहुंची
वहाँ एक विशालकाय शरीर
मखमली बिस्तर पर लेता था
बगल ममें कुछ पेय रखा था
शायद सोने के लिए इसकी आवश्यकता थी
और पेट सीने को ऊपर ने देख रहा था
जैसे सड़क पर ब्रेकर बना हो
रसोई तो इतनी बड़ी की पिछला घर छोटा लगने लगे
और टेबल पर झूठा खाना इतना कि
कई पेट को सीने के बराबर बना दे
घर का चक्कर लगाते लगाते, सुबह के आने की आहत
हुई
रात रुकना चाहती थी उस घर में
पर सूरज की किरणों ने उसे हर कोने से
खोज खोज कर निकाला
जैसे वहाँ से गरीबों को भगाया जाता है
रात के चीख पुकार का उस विशालकाय शरीर
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा वो आराम से सोता रहा
छोटा घर वाला तो जाग गया
पर वो अर्धनग्न शरीर में अब हलचल नहीं थी ।
3. हाँ! मैं भारत हूँ
हाँ! मैं भारत हूँ
अनेकता में एकता की मिसाल कायम करने वाला देश
विभिन्न रंग रूप, विभिन्न वेश भूषा वाला देश
विभिन्न कला संस्कृति, विभिन्न धर्मों वाला देश
समय से चली आ रही परम्परा को वहन करने वाला देश
पर ये बातें शायद पुरानी हो गयी है
समय के साथ
विकास के साथ
आधुनिकता के साथ
अब मैं नया भारत हूँ |
जहाँ लोग सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी परम्पराओं
को अलग अलग स्थापित करने में लगे है
अब यहाँ की एकता छोटी छोटी बातो से टूट जाती है
किसी के भाषण
किसी के ट्वीट
किसी के झूठ से!!
सब अपने को श्रेष्ठ बनाने में लगे है
किसी के धर्म से
किसी के जाति से
पर ये श्रेष्ठता, दूसरे को अपमानित करने से शुरू होती है
और हिंसा तक जाती है
इस आग में कुछ लोग रोटियां सेकते है
और कुछ को रोटियों के लिए भटकना पड़ता है
इसका धुआं हवा के साथ मिल जाता है
और जहां भी जाता है वहा नया धुंध फैलता है
ये हवा है मीडिया
जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है
और इस हवा का स्त्रोत है
राजनीति जो स्वयं मे लोक तंत्र है!!
और यही लोकतंत्र मुझे नई ऊंचाइयों पर ले जा रहा है
झूठ
फूट
और वोट के लिए
लेकिन अब मैं केवल भारत नहीं रहा
अब मैं महान भारत हूँ
नये संदर्भ में ।।
4. नि:शब्द
कृष्ण काया, लोहित तन
पाषाण हृदय, कंपित मन
श्वेत दंत, विस्तृत केश
है पगडंडी पर आती मंद
उसके चलने मे कुछ बाधा है
तन पर कपड़ा भी आधा है
हाथों में लिए कुछ औजार
चेहरे पर न तनिक श्रृंगार
है हाव भाव उसके स्पष्ट
थोड़ी चिंता थोड़ा कष्ट
कोई काम मिले कुछ दाम मिले
आगे उसका घनश्याम ही है
पीछे उसके छोटी कतार
कितने बच्चे एक, दो, तीन पुरे चार
एक ने आँचल थामा है,
बाकी पीछे चलते, रोते है
पीठ पेट सब एक में है
कितना दूध ये पीते है ???
साहब क्या कोई काम मिलेगा
मिलेगा तो क्या दाम मिलेगा ?
ऊपर से नीचे तक नज़रे दौड़ी
गोरा बदन, है थोड़ी चर्बी
कैसे काम करेगी तु
तिनके से भी पतली है
ये आने का समय है क्या
देख पूरी दुपहरी है!!!
साहब जो कहोगे वो मै करूँगी
काम पुरा करके ही रूकूँगी,
बस एक उपकार कर दो
इन बच्चों को खाना दे दो |
खाना , काम से पहले खाना
एक तो तू देर से आई
ऊपर से ये मेमने साथ लाई
बिना किये कोई भी काम
तुझे चाहिए खाने का दाम
चल पहले ये पत्थर तोड़
फिर मिलेगा खाने के मोल |
निराश, उसने हथौड़ी थामी
थी वो भारी ,पर अब भर दी थी हामी
करती पत्थर पर वो प्रहार
होता न क्षरित कितना भी हो वार ||
अंत मे वो हार गयी
अपनी नियति को भांप गयी
छोड़ हथौड़े वो बैठ गयी
होती कंपित, पड़ती शिथिल
नेत्रों में नही था विश्राम
खोज रहे थे वो चार धाम
ले जाकर खा ले अब
पड़ी रही वो पूर्णता नि:शब्द!!
5. मैं और रास्ता
मैं एक रास्ते पर हूं या
एक रास्ता चल रहा है मेरे अंदर
सुनसान
पथरीला
घुमावदार
बस मैं और ये रास्ता l
बीच बीच में है कुछ पेड़
हल्के हरे भरे
जो उस सूरज की रोशनी से छाव चाहते है
और मैं उनसे ll
थोड़ी थोड़ी झर रही है धूप
उनके पत्तों के बीच से
जैसे रेत गिरती है
बंद मुठ्ठी से
जैसे मेरे हौसले गिर रहे है
रास्ते की दूरी बढ़ने के साथ साथ धीरे धीरे लगातार l
फिर भी बैठ जाता हु
उनकी छाव में
खुद के आराम
और उनको सांत्वना देने के लिए l
पर ज्यादा देर तक रुकना मुनासिब नहीं
न मेरे लिए न उनके लिए
वो तो स्थिर है
उन्हेंनहीं चलना है इस
सुनसान
पथरीले
घुमावदार
रास्ते पर l
वो तो असहाय हैं
बारिश के आगे
सूरज के आगे
नहीं जा सकते वो पानी की तलाश में
नहीं छिप सकते वो सूरज की धूप से
पर मैं जा सकता हु
अभी और आगे
इस रास्ते पे
इसके अंत और
अपने नये सफ़र की तलाश में
कुछ सवालों के साथ
जैसे कि मैं रास्ते पर हूं
या एक रास्ता चल रहा है मेरे अंदर ?
6. कालिमा
मेरे चेहरे की कालिमा बताती है कि मेरा दामन साफ है
ये चिर स्थाई है
हा! नहीं है मेरे पास पैसे
मैं बेरोजगार हूं
मैंने किया है अलग खुद को भीड़ भाड़ वाली दुनिया से
सीमित किया है खुद का दायरा
इतना सीमित कि रहते है उसमें कुछ लोग
मैं और मेरे दोस्त
जो रखते है सब खबर
पर दिखते है बेखबर
हा ! नहीं गिना जाता हमें सभ्य समाज में
क्योंकि हमारे चेहरे की कालिमा बताती है
कि हमारा दामन साफ है
मेरे हिस्से की सफाई कुछ सभ्य लोगों ने ले ली है
और उन्हें जरूरत भी है
अपने दाग छुपाने के लिए इसकी
वो लगाते है एक भीनी भीनी खुशबू
खुद से खुद की गंद छिपाने के लिए
और मुझे इसकी जरूरत नहीं ।
7. अंत की खोज
सुना है अंत में सब कुछ सही हो जाता है
पर क्या फायदा उस सही होने का जब वो अंत ही हो
न मैं रहूं देखने के लिए
सब कुछ सही होने के बाद क्या होता है
क्या हम बैठ पाएंगे कभी
उन खाली बेंचों पर जहां से दिखता हो सारा आसमान
या मैं रख के सर तेरे कंधो पर मिटा पाऊंगा
दिन भर की थकान अपनी
क्या तुम कर सकोगे मेरी गलती पर गुस्सा
और मना पाऊंगा क्या तुम्हे
क्या खाली सड़को पर तुम्हारे साथ चलने का सपना
पूरा होगा कभी
क्या तुम्हारे भीगे बालो की पानी की बूंदे
भिगो पाएंगी मेरे कपड़े
फिर क्या कभी मैं देख पाऊंगा तुम्हे
तिरछी नजरों से देखते हुए मुझे
अगर नहीं
तो नहीं जाना मुझे अंत तक
अंत में बस यही होगा
बंद हो जायेगा अंधेरे कमरे में तेरे आने की आहट
का सुनाई देना
और सो जाऊंगा मैं एक लंबी नीद
और तब भी न उठ सकूंगा जब तुम सच में आ जाओ
शायद ! शायद !
8. अनभिज्ञता से इतिहास की ओर
हम पैदा होते है एक दौर में
और वो दौर बन जाता है इतिहास
हमारे पैदा होते ही देके कमान हमारे हाथों में
उससे पहले के हजारो लाखो दौर की
जिससे हम अनभिज्ञ होते है
और हम अनभिज्ञ होते है बिना मांगे मिलने वाली इस
जिम्मेदारी से
हम कह भी नहीं सकते की हमने इसे नहीं चाहा
ये मेरा इतिहास नहीं है
मैं अपना इतिहास खुद बनाऊंगा
हम चुपचाप गुदवा लेते है उस इतिहास को
अपनी हथेली के लकीरों में
कुछ लोगों को इसमें दिखता है भविष्य पर मुझे दिखता है इतिहास
हथेली की बढ़ती रेखाएं याद दिलाती है नश्वरता का
उन इतिहास के नायकों के
एक दिन मिल जाना है तुम्हे भी उसी इतिहास में
ये तय करना तुम्हारे ऊपर है नायकों के इतिहास में या गुमनामी के
क्योंकि इतिहास होता है सबका जिन्होंने जन्म लिया
बस अंतर इतना है कुछ का इतिहास याद रखा जाता है
और कुछ में याद रखने लायक कुछ नहीं होता
उनके जीवन के साथ लुप्त हो जाती है
उनकी सारी आकांक्षाएं , उनके सारी उमर की मेहनत
जैसे लुप्त हो जाते है लोग
भीड़ में या भीड़ समा लेती है उन्हें स्वयं में ?
9. गिर जाना मेरा अंत नहीं
इक हार को लेकर बैठा हूं
न जाने मैं क्यूं ऐसा हूं
है द्वंद अभी बाकी रण में
है तीर अभी शेष तरकस में
फिर क्यूं मैं धरती पर शीश धरु
ले धनुष हाथ फिर से ये कहूं
क्यूं अधरों पर रेत जमी
देखे अम्बर पूछे ये ज़मी
क्या इसीलिए तू आया था , धनुष हाथ में उठाया था
यदि यह ही तेरा अंत है
तो धिक्कार तुझपे, तु कलंक है
जो स्वप्न तुने देखे थे
क्या सारे सपने झूठे थे
है ऐसा तो लौट जा, अब तुझमे सामर्थ नहीं
हो शेष अग्नि मन के भीतर
तो खड़ा हो , एक बार बोल
गिर जाना मेरा अंत नहीं
गिर जाना मेरा अंत नहीं।।
10. शहर कभी सोता नहीं
शहर कभी सोता नहीं
या चाह कर भी उसे नींद नहीं आती
जैसे एका एक अमीर बने लोगों को
जो चाहते है सोना पर सो नहीं पाते !
वैसे शहर भी है
जो विकास के सूचकांक पर तो शिखर की तरफ जा रहा है
पर नीद के सूचकांक पर गर्त में |
सब कुछ हासिल करने और
खुली आंखों से सपने दिखाने का हुनर रखने वाले शहर ने
अपने अंदर एक चिंगारी जला ली थी
जो अब आग बन गयी है
जो दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है
और वहाँ तक पानी पहुँचाने वाला रास्ता
अब सीमेंट से बंद कर दिया गया है
उन्ही लोगों के द्वारा जो यहाँ सपने देखने आये थे //
उनके सपने और शहर की आग दोनों बढ़ती ही जा रही है
जैसे बढ़ती है उम्र धीरे धीरे
पर उम्र बढ़ने का एक निश्चित नियम है
पर सपनों और आग का नहीं
वो दोनों अनियंत्रित है
इसीलिए सोता हुआ शहर एक संभावना है
जैसे सारे सपनों का पूरा होना !
11. सेंगोल : एक राजदंड
मारो मारो लाठी मारो
कभी तो वो तोड़ देगी
मांस और लहू की दीवार
और टकरायेगी
हड्डी से और पता चलेगा तुम्हें
कि तुमसे ज्यादा
तुमसे भी ज्यादा सख्त और दृढ़
वस्तु का वजूद है दुनिया में
जिससे टकराने के बाद निकलने वाली चिंगारी
फैल कर जला देगी सब कुछ
हां सब कुछ जो कभी तुम्हारा था या
लोगों ने नवाजा था तुम्हें उस चीज से
लोगों ने दिया था अधिकार तुम्हें
सेंगोल हाथ में पकड़ने का
बनाने के लिए एक खुशहाल देश, पर,
पर तुमने उसे शक्ति समझ लिया
राज करने की शक्ति
कुछ लोगों को अपने पक्ष में लेकर
पर धीरे धीरे बढ़ता जायेगा भार उसका
फिर छीन लिया जाएगा सब कुछ या
जल जायेगा उस चिंगारी में
लाठी भी सिंहासन भी
बस बचेगा अंत में ये सेंगोल !
जिसे जनता देगी किसी
और के हाथ में
अच्छे दिन की वापसी के लिए |
12. इक पेड़
इक पेड़ था घर के सामने
कई साल पुराना
कुछ पत्तियाँ बची थी उसकी
सूनी, कड़ी टहनियों पर
बाहर आ रही थी जड़े
उसके आधार से
जैसे झाँकता हो कोई
खुद को जमीन मे धसा कर
आँखे निकाले हुए
जैसे तकता है सूरज
बादल की ओट लेकर |
अभी भी है दो तीन घोसले उस पर
ढोता है जिसका वजन
वो पत्ती, घनी और हरी रहने के
समय से ही
चिड़ियों के बच्चे,
खेलते है उसकी टहनियों पर
और घर के, उसकी जड़ो के पास
जैसे वो हमजोलि हो उन सबका
ठंडी, गर्मी, बरसात सब बेअसर है उस पर
या सबको लगता है कि उस
पर असर नहीं होता
वो मस्त रहता है अपनी ही धुन में |
थोड़े से भी हवा के झोके से
हो जाता है वो सतर्क
मजबूती से ,जड़ो से ,पकड़ लेता है
जमीन |
कभी कभी आती है आंधी
बहुत तेज
उथल पुथल कर देती है
सब कुछ
पर होता है ये सब, क्षणिक
लौट आता है वो अपनी स्थिति में
जो उसकी वास्तविकता है
मंद गति से हवा करते रहना |
जैसे सबकी नहीं बनती ,
समय से
वैसे उसकी भी
ढीली होती जाती है उसकी जड़ो की पकड़
समय के साथ
और एक तेज हवा का झोंका
पा जाता है विजय
उसके जर्जर शरीर को गिरा कर
उसी घर की चार दिवारी पर
और घोसलों
का तो अस्तित्व ही खतम हो जाता है
जैसे मिट जाता है
ईधन का अस्तित्व
आग लगने पर ||
नवोदित कवि अनुराग यादव, जन्मतिथि 26 सितंबर 2001 है। अनुराग, अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी हैं। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रामनगर और बाराबंकी से पूर्ण की है। इनका स्नातक हंसराज कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी से वर्ष 2022 में पूर्ण किया तथा 2024 में हिंदू कॉलेज दिल्ली यूनिवर्सिटी से परास्नातक की शिक्षा पूर्ण की है ।
सम्पर्क: 6386080963
टिप्पणीकार शंकरानंद, कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार और राजस्थान पत्रिका के सृजनात्मक पुरस्कार से सम्मानित हैं । जन्म-08 अक्टूबर 1983, खगड़िया के एक गाँव हरिपुर में।
कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित।
अब तक तीन कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’,’पदचाप के साथ’, और ‘इनकार की भाषा’ प्रकाशित।
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित रूप से कविताएँ प्रसारित।
कविताओं का कुछ भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी।
सम्प्रति-लेखन के साथ अध्यापन
सम्पर्क-क्रांति भवन,कृष्णा नगर, खगड़िया-851204
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