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हिन्दी भाषी उत्तर भारत में पेरियार की धमक के मायने

जयप्रकाश नारायण 

जिस समय 19वीं सदी के आखिरी चौथाई के नायक कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के हमलों के दायरे में हैं। ऐसे समय में 1879 में पैदा हुए रामास्वामी पेरियार कैसे आज दक्षिण भारतीय होने की  सभी बाधाओं को पार करते हुए गंगा-यमुना के मैदान में आकर डट गए। इसको समझना समाज में हो रहे दिलचस्प परिवर्तन के संकेत को समझना है।

पेरियार  मूलतः धर्म विरोधी समाज सुधारक और नास्तिक राजनीतिक के साथ समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों के सुदृढ़ प्रवक्ता हैं। जिन्होंने हिंदू धर्म की परंपराओं, देवी-देवताओं और नायकों की तीखी आलोचना की, उन्हें अस्वीकार किया, मिथकों का खंडन किया। मिथकों के अंदर मौजूद अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक समझ की धज्जियां उड़ा दी और अंततोगत्वा सामाजिक सुधार के अपने लंबे अभियान के साथ 1940 के दशक में एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बनायी, जिसका सदस्य होने की पहली शर्त थी, अनीश्वरवादी यानी नास्तिक होना।

उल्लेखनीय है कि 18 57 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के असफल होने के बाद भारत में ब्रिटिश राज स्थायित्व ग्रहण कर चुका था।  उपनिवेशवाद के स्थायित्व ग्रहण करते ही औद्योगिक राजनीतिक और सामाजिक क्रांतियों के प्रभाव से निकले नये मूल्य जैसे, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और तार्किकता भारतीय चिंतकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं को प्रभावित करने लगे थे।

जैसे-जैसे ब्रिटेन सहित यूरोप से भारतीयों के संपर्क और संसर्ग बढ़ते गये वैसे-वैसे हमारे चिंतकों में भारतीय परंपराओं, धार्मिक विश्वासों तथा सामाजिक मूल्यों के विवेचना का दौर शुरू हुआ। आस्था और विश्वास की जगह तार्किकता लेने लगी।

उपनिवेशवादी  लूट  और नागरिकों की गुलामी के कारणों की खोज करते हुए सर्वप्रथम भारतीय चिंतकों ने अपने देश के अंदर मौजूद चिंतन परंपराओं से मुठभेड़ शुरू की। इस मुठभेड़ के बिना भारतीय समाज में औपनिवेशिक दासता के खिलाफ हलचल और आवेग पैदा नहीं किया जा सकता था।

इसलिए राजनीतिक संस्थाओं के शुरुआत के पहले ही भारत में सामाजिक सुधारों की श्रृंखलाएं शुरू हो चुकी थी।

राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर,  नारायण गुरु से होते हुए दयानंद सरस्वती, विवेकानंद तक एक लंबी परंपरा है। जो उस समय भारतीय समाज और दर्शन के साथ नये मूल्यों का सामंजस्य बिठाने, उसे तार्किक आधार पर समझने और एक हद तक उसकी निर्मम चीरफाड़ करने की तरफ बढ़े।

लेकिन सभी चिंतकों में जो  समानता मिलती है, वह भारतीय समाज को जागृत करना। उसमें सामाजिक सुधारों के लिए रास्ता बनाना और एक समता मूलक समाज की परिकल्पना को आगे बढ़ाना।

इन्हीं परिस्थितियों में  पेरियार की विकास यात्रा भी होती है।
गांधी जी का जन्म 1869, पेरियार  1879, नेहरू 1889 और डॉक्टर भीमराव आंबेडकर 1891 में पैदा हुई। इसके अलावा अनेक नायकों का जन्म उसी काल में भारत में हुआ। इससे स्पष्ट है कि 19वीं सदी का अंतिम चौथाई भारतीय समाज के अंदर चल रही कशमकश,  छटपटाहट और वर्तमान स्थिति से बाहर निकलने के लिए चल रहे गंभीर आत्ममंथन, आत्मसंघर्ष का संकेत देता है।

इसलिए पेरियार  का विकास कोई अचानक शून्य में घटी हुई घटना नहीं है। दक्षिण भारत में हिंदू धर्म की जड़, घनघोर अनुदारवादी, क्रूर जाति व्यवस्था और धार्मिक कर्मकांड जातीय भेदभाव व शोषण की स्थितियों ने युवा पेरियार  की चेतना को झकझोर कर उद्वेलित कर  दिया और नए रास्ते की तलाश के लिए प्रेरित किया।

पिछड़ी जाति में जन्म लेने के साथ वह एक संपन्न व्यवसाई के बेटे भी थे। जिनका कारोबार भारत के बाहर तक फैला हुआ था। इनके परिवार का संबंध यूरोप के व्यवसायियों और वहां के समाज से अवश्य रहा होगा। इसलिए उनकी भौतिक जीवन  स्थिति  भेदभावपूर्ण सामाजिक स्थितियों की छानबीन करने और नए रास्ते की खोज करने की तरफ आगे बढ़ सकने के अनुकूल थी।

कक्षा चार तक  सामान्य शिक्षित होने के बावजूद अपनी तीक्ष्ण अंतरदृष्टि से उन्होंने समाजिक  भेदभाव विषमता वाले संबंधों को समझना देखना और उसकी आलोचना करना शुरू किया। जिस कारण से उनके पिता के साथ उनके मतभेद हुए और वह परिवार छोड़कर लंबी यात्रा पर उत्तर भारत के लिए निकल पड़े।

इस यात्रा के क्रम में ब्राह्मणवाद के सबसे मजबूत केंद्र काशी पहुंचे। यहां आने के बाद उन्होंने शूद्रों के साथ होने वाले भेदभाव, अमानवीय व्यवहार और धर्म के अंदर  घुसे पाखंड को समझा, देखा और भोगा। जिससे पीड़ित होने के कारण अंततोगत्वा सामाजिक विषमता और जड़ता की तलाश करते-करते धर्म और ईश्वर तक पहुंचे और हिंदू धर्म सहित सभी धर्मों की तीखी आलोचना करने में सक्षम हुए।

उन्होंने धर्म को मनुष्य के जीवन के लिए पूर्णतया खारिज कर दिया। वस्तुत: यह प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा के  नए दौर की नई व्याख्या थी। जो यूरोप के भौतिकवादी, अनीश्वरवादी दार्शनिक परंपरा से ऊर्जा ग्रहण करते हुए भारत में सामाजिक, धार्मिक स्थितियों के आलोचना के नये अस्त्र ग्ढ रही थी। धर्म की आधुनिक प्रगतिशील सामाजिक भूमिका को  नकारते हुए और  सामाजिक भेदभाव जड़ता के मूल कारण के रूप में अंधविश्वास,  अतार्किकता तथा धार्मिक परंपराओं के साथ ईश्वर को मूल कारण ठहराया। उनकी तर्कवादी दृष्टि ने ईश्वर के अस्तित्व से मुठभेड़ करना शुरू किया और अंततोगत्वा उसे पूरी तरह से खारिज कर दिया।

वस्तुतः यह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की जरूरत थी। सामाजिक बदलाव के बिना कोई समाज न आजाद हो सकता है और न बराबरी के मूल्यों को जी सकता है, न बंधुत्व कायम कर सकता है। इसलिए पेरियार ने  सीधे धर्म की आलोचना से शुरू कर अंततोगत्वा राजनीतिक समाधान तक बढ़े और वैचारिक आधार पर 1946 के आसपास तमिलनाडु में उन्होंने द्रविड़ कणगम नामक पार्टी की स्थापना की। जो  दक्षिण भारत के तमिलनाडु की भौतिकी स्थितियों के बदलने के साथ  नए नामों के साथ सबसे स्थायित्व वाली राजनीतिक पार्टी है। जो भारत में वाम राजनीतिक दलों के अलावा अकेली राजनीतिक पार्टी है, जिसके सदस्य को नास्तिक होना होता है।

 

इस प्रकार पेरियार दक्षिण भारत में सामाजिक सुधार, राजनीतिक संघर्ष और वैचारिक चेतना के सबसे प्रखर नायक के रूप में उभरे। पेरियार के साथ ही शाहू जी महाराज और अंबेडकर महाराष्ट्र, नारायण गुरु केरल तक  दक्षिण भारत में एक सशक्त सामाजिक सुधार की राजनीतिक धारा अभी भी सक्रिय है। जिसका वैचारिक मुकाबला न कर पाने के कारण  हिंदुत्ववादी ताकतों को उनके बध तक जाना पड़ रहा है। जिसमें दाभोलकर, एम‌ एम कलबुर्गी, गौरीलंकेश ,  गोविंद पानसारे की घटनाएं इसी क्रम में देखी जानी चाहिए।

पेरियार के वृहत्तर द्रविड़ राज्य और हिंदी विरोध जैसे  कुछ राजनीतिक सवालों के कारण उत्तर भारत में उदार हिंदुत्व से लेकर कट्टरपंथी हिंदुत्व की विचारधारा वाली भाजपा,  संसोपा, कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टियों को उनका प्रतिरोधी  बना दिया तथा उन्हें अलगाववादी भारत विरोधी और न जाने क्या-क्या संज्ञा दी गई। शेष भारत में वे  अबूझ पहेली बनकर रह गए ।

भारत के संविधान निर्माण के बाद संघात्मक गणतंत्र एवं धर्मनिरपेक्ष भारत की घोषणा से  उन्हें एक उम्मीद बनी कि दक्षिण भारतीय लोग और अलग-अलग संस्कृतियों, भाषाओं, रहन-सहन, जीवन-प्रणाली वाले समाज भी संघात्मक ढांचे के अंतर्गत अपनी संपूर्णता के साथ समाहित किए जा सकते हैं। इसलिए उन्होंने  द्रविड़ राज्य की मांग को स्थगित कर दिया था। संक्षेप में अगर हम कहें तो पेरियार  की चिंतन प्रक्रिया को निम्न बिंदुओं में समाहित कर सकते हैं।

एक, धर्म दुनिया में मनुष्य की लिए आवश्यक नहीं है। इसके निषेध द्वारा ही मनुष्य जीवन के तार्किक वैज्ञानिक विकास के दरवाजे खुलेंगे और सर्वशक्तिमान मनुष्य अपनी सत्ता को वापस पा सकता है।

दो, भारत में जातियां हिंदू धर्म की प्राण है। वर्ण व्यवस्था हिंदू धर्म और ईश्वर द्वारा संरक्षित तथा मान्यता प्राप्त हैं। इसलिए जाति विनाश के लिए आवश्यक है कि धर्म मुक्त होकर हम नास्तिक हो जाए।

तीन, भारत में तार्किक वैज्ञानिक चेतना के विकास के बिना भारतीय समाज का आधुनिक लोकतांत्रिक समाज और  राष्ट्र के रूप में रूपांतरण संभव नहीं है।

चार , भारत की विविधताओं को एक राष्ट्र  में समाहित करने के लिए एक संघात्मक गणराज्य की जरूरत है। अगर इस उसूल को त्याग दिया गया तो भारत की एकता-अखंडता को गहरी चोट पहुंचेगी और देश की  एकता के समक्ष वास्तविक खतरे खड़े हो जाएंगे।

इन्हीं उद्देश्यों के लिए उन्होंने धर्म, जाति, वर्ण, परंपरा, कर्मकांड और ईश्वर का सख्त विरोध किया।  समाज को जागृत करने के लिए हर तरह की कठिनाइयां झेलते हुए भी अथक संघर्ष चलाते रहे।  जिसका परिणाम दक्षिण भारत में सामाजिक नवजागरण और द्रविड़ आंदोलन का उभरना और स्थाई सामाजिक राजनीतिक शक्ति बन जाना था।

इन अर्थों में पेरियार का उत्तर भारत में पहुंचना आज गंभीर मायने रखता है। 17 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा, मोदी जयंती जैसे  आयोजनों और इवेंट के द्वारा जिस महापुरुष की विचार प्रक्रिया को दबाने की कोशिश हुई, वह अचानक 2022 में उत्तर भारत के हर शहर, कस्बों सहित सोशल मीडिया पर छा गया है।

इसका मूल कारण हिंदुत्व की ताकतों का भारतीय सत्ता पर काबिज होना है। जो भारत में हुए सुधारवादी आंदोलनों, सामाजिक जागरणों, जाति-धर्म की कमजोर होती हुई जकड़नों के कारण बनते लोकतांत्रिक समाज से चिंतित है और जाति, वर्ण, धर्म तथा लिंग भेद के सभी पुराने मूल्यों को पुनर्स्थापित करने में लगे हुए हैं।

यही नहीं, भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से निकले सर्वोच्च रचना हमारे संविधान, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त करने के लिए दिन-रात काम कर रहे हैं।

इसके अलावा वर्तमान मोदी सरकार हिंदू धर्म के मिथकों, परंपराओं, धार्मिक देवी-देवताओं को अन्य धर्मों  खासकर इस्लाम के खिलाफ खड़ा  करते हुए  हिंदुत्व की वर्ण- जाति आधारित  श्रेष्ठतावादी समाज को पुनः  कायम करने की हरसंभव कोशिश में लगे हैं।जिसके लिए उसने संघ नियंत्रित लंपट वाहिनिओं और गुंडा गिरोहों को  खुला छोड़ दिया है। जो मांब लिंचिंग से लेकर जागरण यात्राओं द्वारा हमलावर अभियान चला रहे हैं।

गौ और धर्म रक्षा तथा तथा मोरल पुलिसिंग द्वारा नारियों के सम्मान के स्वयंभू रक्षकों के रूप में आज सड़कों पर नंगा तांडव कर रहे हैं।

साथ ही दूसरे धर्मों की परंपराओं, धार्मिक प्रतीकों को अपमानित करने, उनके धार्मिक स्थलों को विवादित बनाने और अंततोगत्वा न्यायालय के द्वारा अपने बहुमतवादी विचारों को थोप देने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं।

यह वही स्थिति है जिसमें दक्षिण भारत के सबसे रेडिकल चेतना वाले पेरियार का उत्तर भारत में मजबूती से लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच में आना एक शुभ संकेत के रूप में दिखाई दे रहा है।

हम जानते हैं, कि राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ हर तरह के षड्यंत्र और अपराध में शामिल ताकतें आज हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के महानायकों जैसे गांधी,  अंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह, पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और नेहरू को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हुए सुविधानुकूल उनका चयन कर एक दूसरे से लड़ाने में लगे हैं।

इन सभी राष्ट्रीय नायकों को उनके वैचारिक परिपेक्ष्य से काटकर या उनका विखंडन करके अपने समर्पणवादी विचारों और कारपोरेट पूंजी तथा साम्राज्यवादी ताकतों के  लूट के लिए भारत को पूरी तरह से परिवर्तित, समायोजित करने में लगे हैं।

जिस कारण भारत का लोकतांत्रिक जनगण अपने नायकों का पुनर्मूल्यांकन और खोज करते हुए उनके विचारों, मूल्यों को पुनः स्थापित कर हिंदुत्व कारपोरेट फासीवादी गठजोड़ का प्रतिरोध करने और संविधान,  लोकतंत्र व संवैधानिक संस्थाओं को बचाने की लड़ाई में मुब्तिला हैं।

इसी अर्थ में पूर्णतया नास्तिक, धर्म, ईश्वर, वर्ण, जाति  से तीव्र घृणा करने वाले पेरियार   आज उत्तर भारत में  भगत सिंह, अंबेडकर और अन्यान्य नायकों के साथ खड़ा होकर हमारे लिए मार्गदर्शक के रुप में जिंदा हो चुके हैं।

हमें  उत्तर-भारत में जो आज हिंदुत्व कारपोरेट की प्रयोगशाला का केंद्र बना हुआ है वहां चमकते हुए सितारे की तरह पेरियार के उभर कर आने का गर्मजोशी भरा इस्तकबाल करना चाहिए!

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

फीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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