विमल किशोर
रचना और विकास में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। किसी भी देश या राज्य या दुनिया की घटनाओं का असर महिलाओं पर भी पड़ता है। जब भी किसी देश के शासक वर्ग ने शोषण और उत्पीड़न का चक्र चलाया है, महिलाएं उससे अछूती नहीं रही हैं। यही नहीं जब भी दुनिया में न्याय, आजादी और जनतंत्र का संघर्ष तेज हुआ है, महिलाएं उस संघर्ष के अभिन्न अंग के रूप में सामने आई है। उन्होंने पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाया है। चाहे वह अमेरिका हो या रूस व वियतनाम हो या ईरान व पाकिस्तान या भारत हो, महिलाओं ने अन्याय, तानाशाही, दमन आदि के खिलाफ अपने मानवीय अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है।
हमारे देश में पिछले साल सीएए के विरोध में ‘ शाहीनबाग ’ में जो आंदोलन चला, उसकी मुख्य कर्ताधर्ता महिलाएं थीं। वे ‘ दादियां ’ चर्चा में रहीं। उन्हें इस आंदोलन के लिए सम्मानित भी किया गया। उम्र उनके रास्ते में बाधा नहीं है। दादियां हों या 22 साल की युवा दिशा रवि हों, ये आदोलन की उदाहरण बनकर उभरी हैं। वर्तमान समय में किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, उसमें भी महिलाओं की पूरी सहभागिता है। वे पुरुष किसानों के साथ कदम से कदम मिला रही हैं।
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां महिलाओं ने अपने अधिकार के लिए संघर्ष किया। 8 मार्च 1857 को अमेरिका के कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिला मजदूरों ने अपने काम के घंटे 16 से कम करके 10 घंटे करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया था। दुनिया में यह पहली घटना थी जब महिलाएं संगठित होकर संघर्ष करने के लिए आगे आई थीं। 1910 में संपन्न समाजवादी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय परिषद में क्रांतिकारी महिला नेता क्लारा जेटकिन ने यह प्रस्ताव रखा कि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में घोषित किया जाए। प्रतिनिधियों ने इस प्रस्ताव का उत्साह पूर्वक समर्थन किया। तभी से दुनिया की महिलाएं इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाती हैं। इस दिन का महिला संघर्ष के लिए वही महत्व है, जो मजदूरों के लिए मई दिवस का है। इस अंतरराष्ट्रीय दिवस की अंतर्वस्तु में महिलाओं के संघर्ष और कुर्बानी का इतिहास छिपा है।
1917 में सोवियत रूस में समाजवादी क्रांति हुई थी। इस क्रांति में महिलाओं की गौरवमयी भूमिका रही है। 1937 में जनरल फ्रैंको की दमनकारी सत्ता के खिलाफ स्पेन में महिलाओं ने प्रदर्शन किया, वहीं 1943 में इतालवी महिलाओं ने मुसोलिनी की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन चलाया। पिछली शताब्दी के आठवें दशक के पूर्वार्ध में अमरीकी साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय मुक्ति के लिए वियतनामी महिलाओं ने दुनिया में घूम घूम कर अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ विश्व जनमत तैयार किया बल्कि हाथों में बंदूक लेकर उन्होंने साम्राज्यवादियों का मुकाबला किया। मादाम विन्ह जैसी नेता इसी संघर्ष से पैदा हुईं। 1979 में ईरान में नारी मुक्ति आंदोलन की नींव डाली गई। वहां के दकियानूसी रिवाज व सरकार के कानून का विरोध करते हुए 5000 महिलाओं ने प्रदर्शन किया और मजबूर होकर सरकार को आदेश वापस लेना पड़ा।
भारत में भी महिला संघर्ष की विकसित होती हुई परंपरा को हम देख सकते हैं। आजादी के पहले चाहे 1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम हो या आजादी का सवाल और उससे जुड़ा छात्र, मजदूर, किसान आंदोलन, महिलाओं ने अपनी जागरूकता का परिचय दिया है तथा अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने में अपनी सीमा को तोड़ा है। इस दौर में महिलाओं ने न सिर्फ देश की आजादी के लिए संघर्ष किया बल्कि सदियों की रूढ़ियों व बंधनों के खिलाफ अपनी इज्जत, समानता, न्याय व प्रतिष्ठा जैसे मानवीय मूल्यों के लिए भी संघर्ष किया। महारानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में आम महिलाओं ने जिस बहादुराना संघर्ष का परिचय दिया, वह किसी से छिपा नहीं है। बीसवीं सदी के तमाम महत्वपूर्ण आंदोलनों और संघर्षों में भी उनकी भूमिका रही है। रेल, कपड़ा आदि उद्योग की हड़ताल, राष्ट्रीय आंदोलन, तेलंगाना का किसान आंदोलन, महाराष्ट्र और पंजाब का किसान आंदोलन आदि इसके अनगिनत उदाहरण हैं।
इस 21वीं सदी में भी आजादी, सम्मान और समानता के लिए महिलाओं का संघर्ष जारी है। आज भी जहां और जब महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता हैं, महिलाएं सड़कों पर आंदोलनरत दिखती है। निर्भया को लेकर जो आंदोलन चला, उसी की देन है कि सरकार को भी जे सी वर्मा आयोग का गठन करना पड़ा और इस दिशा में कानून बनाने को वह बाध्य हुई। आज भी मोदी सरकार के संरक्षण में पितृसत्तात्मक व मनुवादी प्रवृतियां हावी हो रही है। महिला हिंसा आम बात हो गयी है। ऐसे में महिला आंदोलन आज के समय का जरूरी आन्दोलन बनकर उभरा है। स्वतंत्रता, समानता और इंसाफ की लड़ाई तेज हुई है। महिलाएं न सिर्फ सामंती जकड़न के खिलाफ संघर्ष के मैदान में हैं बल्कि महिला हिंसा और मौजूदा सरकार के सांप्रदायिक विभाजन की नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं।
भारत के वर्तमान महिला आंदोलन के क्षेत्र में पश्चिमी देशों में चल रहे महिला आंदोलनों का भी कमोबेश प्रभाव है। इस क्षेत्र में स्वतंत्रतावादी रुझान भी काम कर रहा है, जो महिला-समस्या के लिए पुरुषों को जिम्मेदार मानता है। इस आंदोलन का रुख और दृष्टिकोण पुरुष विरोधी है। यह सही है कि समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति दूसरे दर्जे की है और कई बार उसे अपनी समस्याओं का प्रत्यक्ष कारण पुरुष मालूम पड़ता है लेकिन जो चीजें प्रत्यक्ष रूप से देखती हैं, कोई जरूरी नहीं कि वह सही ही हो। कोई भी बुद्धिमान और सजग व्यक्ति समझ सकता है कि समस्याओं की जड़ वर्तमान व्यवस्था में निहित है। वर्तमान व्यवस्था ही महिला विरोधी मूल्यों को संरक्षित करती है तथा संविधान में समानता का अधिकार देने के बाद भी इस मूल्य व्यवस्था को जिंदा रखा है। इस तरह महिला आंदोलन का मुख्य चरित्र वर्तमान व्यवस्था विरोधी है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि महिलाओं को न सिर्फ अपनी विशेष समस्याओं से गुजरना पड़ता है बल्कि उन्हें समाज की आम समस्याओं जैसे शोषण, महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि से भी गुजरना पड़ता है। महिलाओं की आम समस्या जनता के विभिन्न तबकों की आम समस्याओं का ही हिस्सा है और इन तमाम समस्याओं की जड़ वर्तमान व्यवस्था में ही निहित है।
अतः वर्तमान महिला आंदोलन व्यवस्था विरोधी आंदोलन के साथ ही जनवादी आंदोलन का अभिन्न अंग है। आज के जन आंदोलन में महिला आंदोलन अपनी अलग पहचान रखने के बावजूद वह जनता के विभिन्न तबकों जैसे छात्र, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, मध्यवर्ग आदि के आंदोलन से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। इसीलिए जरूरत इस बात की है कि महिलाएं अपनी विशिष्ट समस्या के लिए महिला आंदोलन में संगठित हों, वहीं महिला आंदोलन अपनी व्यापकता और विकास के लिए विराट जन आंदोलन से गहराई से जुड़े और उसका हिस्सा बने। यह हमने नागरिकता विरोधी आंदोलन में देखा। मौजूदा समय में किसान आंदोलन में भी महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। आन्दोलनों ने उनके अन्दर नयी चेतना पैदा की है। इस साल के 8 मार्च के दिन किसान आंदोलन के मंच का महिला किसान मंच का बनना इसी का उदाहरण है।