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जीवन को एक कार्निवल के रूप में देखने वाला कवि कुँवर नारायण

 

कमोबेश दो शताब्दियों की सीमा-रेखा को छूने वाली कुँवर नारायण की रचना-यात्रा छह दशकों से भी अधिक समय तक व्याप्त रही है। उनका पूरा लेखन आधुनिक हिंदी कविता के उत्कर्ष का पर्याय है।

अपने सारभूत रूप में उनकी कविताएँ जीवन और मृत्यु से जुड़ी चिंताओं, राजनीति और संस्कृति की विसंगतियों, मानवीयता और नैतिकता की समयानुकूल अनिवार्यताओं, मिथक और इतिहास की सर्जनात्मक संभावनाओं, व्यक्ति-परिवार-समाज के बीच सापेक्षिक संबंधों को लेकर लगातार मुखर रही हैं और जहाँ कहीं भी जरूरत हुई, उन्हें प्रश्नांकित करती रही हैं।

उनकी कविताओं और चिंतन में एक बड़ी मानवीय दुनिया के निर्माण के लिए संकल्पित सांस्कृतिक चेतना और सहअस्तित्व की भावना भी है जिसे अभी तक बहुत कम लक्षित किया गया है। इसके अलावा ‘समय’ की अवधारणा का व्यावहारिक विनियोग और उसके सतत जैविक बोध को लेकर उनके रचना-संसार में जो चिंतन व्यक्त किया है, वह उन्हें वैश्विक स्तर के कवि-चिंतकों की अगली पंक्ति में खड़ा कर देता है।

इन अर्थों में वे हमारे समय के संभवतः अकेले ऐसे कवि रहे जिन्होंने हिंदी रचनाशीलता में भारतीय साहित्य की श्रेष्ठ परंपराओं का समन्वय किया और उसे वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाया।

कुँवर नारायण ने अपनी प्रत्येक रचना में जीवन को एक विशाल कार्निवल के रूप में देखा है और उसमें शामिल होकर उसे सेलिब्रेट किया है।

काव्य-विषय कोई भी हो, वे उसमें हमेशा जीवन या जिजीविषा के किसी न किसी घटक को लक्षित कर लेते हैं। अक्सर उनकी कविता पढ़ते हुए लगता है कि शायद हमारे हाथ कोई ताजा पौधा लग गया है जिसे अभी-अभी कच्ची मिट्टी से उखाड़ा गया है और जिसकी जड़ें अभी भी माटी के सोंधेपन से महमहा रही हैं।

वे अपने केंद्रीय अनुभव या घटना-प्रसंगों की बुनियाद से इतने सघन रूप से जुड़े होते हैं कि केवल कवि के अनुभव न होकर हमारे और आपके अनुभव बन जाते हैं, हमारी और आपकी दुनिया में रच-बस जाते हैं।

एक कवि द्वारा उसके रचे इस संसार में पाठक के रूप में अबाध विचरण करने के लिए आप स्वतंत्र होते हैं।

उनके रचना-संसार की यात्रा आपके लिए एक रोमांचक और यादगार अनुभव बन जाती है क्योंकि इस प्रक्रिया में हर मोड़ पर आपके लिए कुछ न कुछ नया और आश्चर्यजनक होता है। तब आप केवल एक पाठक नहीं रह जाते, धीरे-धीरे कविता के महावन में विचरने वाले एक यायावर बन जाते हैं।

यों कुँवर नारायण की कविताएँ इस महायात्रा में आपका पाथेय होती हैं और मनुष्यता के संकट या दुविधा के किसी भी मोड़ पर गाढ़े के साथी की तरह काम आती हैं।

कुँवर नारायण के अवसान के बाद यह उनका पहला जन्मदिन है। इस अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है उनकी नई-पुरानी कविताओं का एक छोटा-सा चयन।

यह चयन कुछ उन कविताओं का है जिन्हें आप शायद पहले भी पढ़ चुके होंगे और उनकी प्रकाशनाधीन काव्य-कृति ‘सब इतना असमाप्त’ से ली गई कुछ ऐसी कविताएँ भी जिन्हें आप पहली बार यहाँ पढ़ेंगे।- पंकज बोस 

कुँवर नारायण की कविताएँ-

1. बाक़ी कविता

पत्तों पर पानी गिरने का अर्थ
पानी पर पत्ते गिरने के अर्थ से भिन्न है।

जीवन को पूरी तरह पाने और
पूरी तरह दे जाने के बीच
एक पूरा मृत्यु-चिह्न है।

बाक़ी कविता
शब्दों से नहीं लिखी जाती,
पूरे अस्तित्व को खींचकर एक विराम की तरह
कहीं भी छोड़ दी जाती है…

2. ज़ख्म

इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था

और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं

आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख्म होता
जो कभी न भरता

3. ट्यूनीशिया का कुआँ

ट्यूनीशिया में एक कुआँ है
कहते हैं उसका पानी
धरती के अंदर-ही-अंदर
उस पवित्र कुएँ से जुड़ा है
जो मक्का में है।

मैंने तो यह भी सुना है
कि धरती के अंदर-ही-अंदर
हर कुएँ का पानी
हर कुएँ से जुड़ा है।

4. शाहनामा

बादशाह का हुक़्म था
कि शाहनामा लिख,
वरना ख़ैरियत इसी में है
कि इब्ने-सिना की तरह
महमूद की ग़ज़नी में न दिख !

खुशक़िस्मत था फ़िरदौसी
कि बादशाह को
पसन्द न आया उसका ‘शाहनामा’

वरना मुमकिन है क़लम कर दिये जाते
उसके हाथ ताकि वह
दूसरा शाहनामा न लिख सके…

5. एक अजीब-सी मुश्किल

एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों–
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही

अंग्रेज़ों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं!

मुसलामानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते।
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?

सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरु नानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता

और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना इन्हें अपनाये

और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका ख़ून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पी कर रह जाता।

हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हलका कर लूँ।

पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किये बिना रह ही नहीं पाता।

दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखा कर ही रहेगा।

6. मेरी कहानी

मैं अपनी कहानी में नहीं हूँ

मैं केवल उसका गल्पकार हूँ
जो एक कहानी कह रहा है
प्रथम पुरुष पुल्लिंग में

ऐसी तमाम कहानियों को
पढ़ चुका हूँ

सब पढ़े हुए के सारांश को
इस तरह दुहरा रहा हूँ कि वह
एक नया प्रबन्ध लगता है

कहने की तकनीक में होशियारी है
कल्पित भी सच लगता
कि आपबीती
और जगबीती में फ़र्क़ नहीं लगता

जहाँ अपने अन्त तक पहुँचता लगता है वृत्तान्त
वहीं से शुरू होती
फिर दूसरी कहानी

7.सूर्योदय की प्रतीक्षा में

वे सूर्योदय की प्रतीक्षा में
पश्चिम की ओर
मुँह करके खड़े थे

दूसरे दिन जब सूर्योदय हुआ
तब भी वे पश्चिम की ओर
मुँह करके खड़े थे

जबकि सही दिशा-संकेत के लिए
ज़रूरी था देखना
अपने चारों तरफ़

सूरज न तो निकलता है
न डूबता है
दुनिया ही घूमती है अपने और उसके चारों तरफ़

‘हमारे साम्राज्य में सूर्यास्त नहीं होता’
कभी एक साम्राज्य ने
कहा था गर्व से

साम्राज्य डूब गया
सूर्योदय होता रहा
पूर्ववत्…

8. राग भटियाली

एक राग है भटियाली
बाउल संगीत से जुड़ा हुआ

अन्तिम स्वर को खुला छोड़ दिया जाता है
वायुमण्डल में लहराता हुआ
जैसे सम्पूर्ण जीवन राग से युक्त हुई एक ध्वनि
अनन्त में विलीन हो गई…

वह शेष स्वरों को बाँधता नहीं
इसलिए अन्त में भी
उनसे बँधता नहीं,
अन्तिम आह जैसा कुछ
एक अजीब तरह की मुक्ति का
एहसास देता है वह…

9.ज़रा देर से इस दुनिया में

मैं ज़रा देर से इस दुनिया में पहुँचा

तब तक पूरी दुनिया
सभ्य हो चुकी थी

सारे जंगल काटे जा चुके थे
जानवर मारे जा चुके थे
वर्षा थम चुकी थी
और तप रही थी पृथ्वी
आग के गोले की तरह…

चारों तरफ़ लोहे और कंक्रीट के
बड़े-बड़े घने जंगल उग आए थे
जिनमें दिखायी दे रहे थे
आदमी का ही शिकार करते कुछ आदमी
अत्यन्त विकसित तरीक़ों से…

मैं ज़रा देर से इस दुनिया में पहुँचा

10.जितना ही ख़ुश रखना चाहता हूँ
(दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद)

जितना ही ख़ुश रखना चाहता हूँ
उतनी ही उदास होती जाती हैं मेरी कविताएँ
विह्वल प्रार्थनाओं में बदल जाते हैं शब्द

बीहड़ रेगिस्तानों में
बंजारों की तरह भटकते
या काल्पनिक अभयारण्य में
शरण पाना चाहते हैं वे

जितना हम चाहते हैं बड़ा फ़ासला बना रहे
अत्याचारी और निर्दोष जन के बीच
उतना ही भयानक होता जाता
हमारे समय का सच

नृशंस हत्याओं का रक्त
जल्दी सूखने से इनकार करता
उसकी चिनगारियाँ दूर तक पहुँचतीं

हमें आक्रांत करता
एक आदिम अँधेरा
होता जाता है गहरा
और गहरा

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