निराला ने समाज में स्त्रियों की स्थिति पर कई कहानियाँ लिखी हैं। सभी स्त्रियाँ विचार और चेतना तथा सामाजिक रुप से एक ही स्तर पर नहीं हैं। लेकिन, सभी में एक बात साझा है, कि वह सभी समाज के भीतर मौजूद स्त्री संबंधी वर्णवादी या ब्राह्मणवादी मूल्यों के प्रति आलोचनात्मक हैं। उनमें से ऐसा कुछ आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में करती हैं या ऐसी हैं, तो कुछ अपनी जीवन स्थितियों को पढ़कर या अपने सामान्य बोध से, जो देख-सुनकर अपने से उन्होंने अर्जित किया है।
इन सभी कहानियों का शीर्षक इन स्त्री चरित्रों के नाम से है। पद्मा और लिली, कमला, ज्योतिर्मयी, श्यामा, हिरनी, विद्या, जान की आदि कहानियां ऐसी ही हैं। लेकिन स्त्री-चरित्र को सामने लाती एक कहानी है, श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी। इसमें निराला ने कहानी का नाम मुख्य पात्र के नाम, सुपर्णा से नहीं रखा। अर्थात गजानंद शास्त्री की पत्नी की कहानी निराला लिखते हैं।
“श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानंद शास्त्री की धर्मपत्नी हैं।”
यह कहानी का पहला ही वाक्य है। यह वाक्य और उसमें ‘धर्मपत्नी’ पद दोनों की योजना निराला ने सचेतन, सायास किया है।
आधुनिक किस्सागोई के शिल्प की भी बात की जाए तो निराला बीस ही ठहरेंगे। कहानी की अंतर्वस्तु, कहानी का मुख्य विचार, कहानी का उद्देश्य सब कुछ लेकर पहला ही वाक्य उपस्थित है। बार-बार वाक्य पढ़ने पर भारतीय समाज, धर्म, सत्ता के तह के तह खुलते जाएंगे।
श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी का यह परिचय स्त्री का एक भिन्न रूप लेकर कहानी में आता है। यह स्त्री, पुरुष द्वारा पुरुष के लिए बनायी हुई है। गढ़ी हुई है। साथ ही यह स्त्री सत्ता प्राप्त वर्ग या सत्ता से आबद्ध वर्ग से है। इसका पता कहानी में है। जब श्रीमती शास्त्रिणी यानी सुपर्णा के पिता का वर्णन आता है।
“शास्त्रिणी जी के पिता जिला बनारस के रहने वाले हैं, देहात के, पयासी, सरयूपारीण ब्राम्हण; मध्यमा तक संस्कृत पढ़े; घर के साधारण जमींदार, इसलिए आचार्य भी विद्वत्ता का लोहा मानते हैं। गाँव में एक बाग़ कलमी लंगड़े का है। हर साल भारत-सम्राट को आम भेजने का इरादा करते हैं, जब से वायुयान-कम्पनी चली। पर नीचे से ऊपर को देखकर ही रह जाते हैं, साँस छोड़कर। जिले के अँगरेज हाकिमों को आम पहुंचाने की पितामह के समय से प्रथा है। यह भी सनातन धर्मानुयायी हैं। नाम पं. रामखेलावन है।”
जमींदार हैं, इसलिए मध्यमा तक पढ़ाई के बावजूद आचार्य भी उन्हें विद्वान मानते हैं। औपनिवेशिक सत्ता और देशी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की संस्कृति को आज की हिन्दूवादी सत्ता संस्कृति से जोड़ेंगे, तो दिलचस्प बातें मिलेंगी। आज बड़े अकादमिक, वैज्ञानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों में बैठे लोग कैसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की विद्वत्ता को सर माथे लगाये हुए हैं! वे इतिहासकार, वैज्ञानिक, खगोलविद, चिकित्सक, विधिवेक्ता सब कुछ हैं। खैर
ऐसे पिता की पुत्री के भीतर सत्ता, वर्चस्व की प्रवृत्ति ऐसे ही नहीं आती, बल्कि पं. रामखेलावन उसे इसमें गढ़ते हैं।
निराला अगले ही पैराग्राफ में लिखते हैं,
“दूसरों पर प्रभाव डालने का उसका जमींदारी स्वभाव था, फिर संस्कृत पढ़ी, लोग मानने लगे। गति में चापल्य उसकी प्रतिभा का सबसे बड़ा लक्षण था।”
फिर आगे आता है, “जमींदार की लड़की, जिस तरह वहाँ की समस्त डालों के ऊपर अपने को समझती थी, उसके लिए भी समझी।”
उसके लिए अर्थात मोहन, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए का छात्र है तथा छायावाद और पंत जी के प्रभाव में कविता लिखता है। मोहन के पिता हाई कोर्ट में क्लर्क हैं।
प्रसंगवश यहाँ कुछ बातें फिर से उल्लेखनीय हो जाती हैं। खासकर जो निराला की कहानियों और उपन्यासों में प्रायः लक्षित की जानी चाहिए। औपनिवेशिक भूमि व्यवस्था, जमींदारी, जाति संरचना का सामाजिक गतिविज्ञान और व्यवहार।
एक बात जो ध्यान देनी चाहिए कि बंगाल, उड़ीसा, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जो इस्तमरारी व्यवस्था लागू हुई, उसमें छोटी जमींदारियाँ ज्यादा थी और इनमें से ज्यादातर की आर्थिक हैसियत बहुत अच्छी नहीं रहती थी, लेकिन उनके नैतिक आचरण या सामाजिक व्यवहार को उनकी आर्थिक स्थिति उतनी नहीं निर्धारित करती थी, बल्कि सत्ता के पदानुक्रम से ज्यादा निर्धारित होता था। वर्णवाद इसमें संयुक्त होता था।
जमींदारी या औपनिवेशिक भूमि व्यवस्था इस वर्णवाद के स्तरीकरण, भक्तिवाद के अनुकूल पायी गयी। जमीदार, अंग्रेज अधिकारी और सम्राट यह जो नये वर्ण बने, इनके बीच के संबंध में इसे देखा जा सकता है।
निराला का कथा साहित्य तो इसके लिए प्रचुर ब्यौरा उपलब्ध कराता है। अर्थात, औपनिवेशिक भूमि व्यवस्था ऐसी थी, जिसका वर्णवादी स्तरीकरण के साथ स्वाभाविक समायोजन हो गया और उसने नये तरह के वर्णवादी भक्तिवाद और स्तरीकरण को जन्म भी दिया।
यह भक्तिवाद वैष्णव संप्रदाय के दर्शन और आचरण का व्यावहारिक रूप था। इसका सीधा संबंध सामंतवाद के उदय से है। इसमें हर मातहत या भूमि संबंधों के सोपान पर खड़ा वर्ग अपने से ऊपर के सोपान को प्रभु मानता है तथा उसे खुश कर, उसकी कृपा पाने की कोशिश करता है। सुपर्णा या श्रीमती शास्त्रिणी के पिता यही काम करते हैं औपनिवेशिक भूमि व्यवस्था के एक सोपान पर खड़े होकर।
निराला लिखते हैं, कि सुपर्णा के पिता सनातनधर्मी हैं। ‘सनातनधर्मी’ पद का प्रयोग अपने में बहुत व्यंजना लिए हुए है। अर्थात जो धर्म में सनातनधर्मी है, व्यवहार में अंग्रेज अधिकारियों और सम्राट को खुश करने में भी सनातनी है। पीढ़ी दर पीढ़ी वे यह काम करते आ रहे हैं। पुनः यह बात भी ध्यान देने की है, कि ब्रिटिश अधिकारी जो भूमि व्यवस्था लेकर आ रहे थे, उसका चरित्र पूंजीवादी न होकर ब्रिटिश भूमि व्यवस्था से प्रभावित था।
जो इतिहासकार मानते हैं, कि भारत में जो सामंतवाद था, वह यूरोप के सामंतवाद से मेल नहीं खाता, उन्हें भारत में औपनिवेशिक भूमि व्यवस्था का फिर से अध्ययन करना चाहिए तथा निराला का कथा साहित्य भी अध्ययन में शामिल करना चाहिए। इस भूमि व्यवस्था ने ब्रिटिश राज को सुदृढ़ करने में बड़ी भूमिका निभायी।
यह भी ध्यान देने की बात है, कि इस जमींदार वर्ग में कौन सा वर्ण अधिक था और उसकी संस्कृति में ऐसा क्या था, कि वह आसानी से ब्रिटिश राज से आबद्ध ही नहीं हुआ, बल्कि उसके लिए सबसे अधिक विश्वसनीय और काम का साबित हुआ। बहरहाल
सुपर्णा या श्रीमती शास्त्रिणी ऐसे ही जमींदार पंडित रामखेलावन की पुत्री है। पूरी तरह से जमींदारी सत्ता और पितृसत्ता के आभ्यंतरण से तैयार, शक्ति और सत्ता से भरी हुई स्त्री।
दिलचस्प है यह जानना, कि निराला के यहां आधुनिक स्त्री शिक्षा, स्वतंत्र तर्क प्रणाली, विवेक का प्रबल समर्थन है। उनके कथा साहित्य में स्त्री पितृसत्ता पर प्रश्न करती, उस पर तर्क करती दिखती है।
लेकिन, श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी ऐसी स्त्री नहीं हैं। क्यों नहीं हैं, इसका जवाब निराला के पास है। उनकी इस कहानी में है। वह है जाति-वर्ण के भीतर क्रियाशील, गतिशील वर्ग। जबकि आजकल जाति, लिंग के बौद्धिक विमर्श में इस क्रियाशीलता या गति को भुला दिया जाता है।
जबकि तीस साल के उदारीकरण ने क्लास या वर्ग की पहचान को इतना ज्यादा स्पष्ट कर दिया है, कि वह दिखने वाला यथार्थ हो गया है, सच्चाई हो गयी है। इतना ही नहीं, बौद्धिक विमर्श से बाहर वास्तविक रूप से चलने वाले सड़क के आन्दोलनों में वह साफ तौर पर दिखता है।
अभी के समय में स्त्री के बारे में बात करिए तो इस बात को सुना ही नहीं जाता कि उदारीकरण ने जो स्त्री सशक्तिकरण किया है, उसमें ज्यादातर उसने स्त्री को पितृसत्ता के मूल्यों से लैस किया है या उसमें पितृसत्ता का आभ्यंतरण मिलता है। स्त्री के लिए लड़ती हुई स्त्री भी पितृसत्ता या पुरुषवादी व्यवहारिकता में बात करती है। वह पुरुष से लड़ते हुए पुरुष जैसा हो गयी है। वह प्रेम भी पितृसत्ता की व्यावहारिकता से करती है। यह सामान्य सत्य नहीं लेकिन इसका वर्ग है। यह यथार्थ या सत्य, वर्गगत है।
कहने का आशय यह, कि जाति, वर्ण, समुदाय, लिंग सब में वर्ग की गतिशीलता मौजूद रहती है। वह मूल्य, नैतिकता और व्यवहार को प्रभावित करती है। वह कोई ऐसी समतल इकाई नहीं, जो गति के नियमों से, शक्ति के नियमों से परे हो! निराला के पास यह वर्ग दृष्टि है।
निराला ने श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी की कहानी लिखते हुए जमींदार वर्ग के सामान्य चरित्र को सामने रखा है, तो उसकी शक्ति से संयुक्त स्त्री भी पितृसत्ता की व्यावहारिकता लिए हुए है।
मोहन भी जाति से ब्राह्मण है, लेकिन ‘पयासी’ नहीं है, तो स्तर में नीचे हुआ। पिता क्लर्क हैं हाई कोर्ट में, लेकिन जमींदार से नीचे हैं। ऐसे मोहन का प्रेम सुपर्णा अपने प्रभाव से पाना चाहती है। वह पयासी ब्राह्मण है, जमीदार की बेटी है। यह निराला हैं, जाति भीतर जाति को बाहर लाते, दिखाते, रचना की अंतर्वस्तु में शामिल करते। खैर
मोहन को जब सुपर्णा हासिल नहीं कर पाती तो वह उसे सबक सिखाने, बदला लेने की सोचती है।
“बाग से लौटने पर सुपर्णा के हृदय में मोहन के लिए क्रोध पैदा हुआ।… मन में यह प्रतिहिंसा लिए हुए कि मोहन इस बहते में मिलेगा। और उसे हो सकेगा तो उचित शिक्षा देगी। शास्त्री जी को एकान्त भक्त देख कर मन में मुस्करायी।”
मोहन का परिचय निराला ने यूँ दिया है, “मोहन उसी गाँव का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए (पहले साल) में पढ़ता था। यह रंग उस पर भी चढ़ा और दूसरों से अधिक। उसे पंत की प्रकृति प्रिय थी और इस प्रियता से जैसे पंत में बदल जाना चाहता था। संकोच, लज्जा, मार्जित मधुर उच्चारण, निर्भीक नम्रता, शिष्ट आलाप, सज-धज उसी तरह। रचनाओं से रच गया। साधना करते सधी रचना करने लगा। पर सम्मेलन शरीफ अब तक नहीं गया। पिता हाई कोर्ट में क्लर्क थे। गर्मी की छुट्टियों में गाँव आया हुआ है।”
मोहन छायावादी कवियों से प्रभावित है। उसमें भी पंत से। पंत की तरह ही उसमें संकोच, लज्जा और निर्भीक नम्रता है। संकोच, लज्जा के साथ निर्भीक नम्रता।
जिस समाज में पुरुष या मर्द के लिए संकोच, लज्जा आदि नामर्दी के लक्षण या गुण माने जाते हैं, वहां छायावादी कवि ऐसा है और साथ में निर्भीक नम्रता अर्थात खुद से अर्जित किया हुआ है, किसी चलन, दबाव में नहीं है।
मोहन भी ऐसा ही पुरुष है। मनुष्य की गरिमा और मानवीय मूल्यों से युक्त। छायावाद इसी की पुकार है। वहां स्त्री सहचरी है, उपभोग की वस्तु नहीं। लेकिन श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी छायावाद को व्यभिचार की कविता सिद्ध करती लेख लिखती हैं। साथ में, पतिव्रत धर्म पर भी। प्रगतिशीलों से भी वे तारीफ पाती हैं। शास्त्री जी के विचार को अपनाती हैं और इसी को अपने लेखों में प्रस्तुत करती हैं।
शास्त्री जी किस विचार के हैं, यह उनके परिचय में मिल जाता है।
“पं. गजानन्द शास्त्री बनारस के वैद्य हैं। बैदकी साधारण चलती है, बड़े दाँव-पेंच करते हैं तब। सदा बड़े आदमियों की तारीफ करते हैं, और ऐसे स्वर से जैसे उन्हीं में से एक हों। बैदकी चले इस अभिप्राय से शाम को रामायण पढ़ते-पढ़वाते हैं तुलसी-कृत; अर्थ स्वयं कहते हैं। गोस्वामी जी के साहित्य का उनसे बड़ा जानकार- विशेषकर रामायण का, भारतवर्ष में नहीं, यह श्रद्धापूर्वक मानते हैं। …सुपात्र सरयूपारीण ब्राह्मण हैं; मामखोर सुकुल।”
यथा प्रसंग कुछ बात इससे निकल आयी। निराला की कहानियों में प्रायः तुलसी-कृत रामायण का जिक्र आता है, लेकिन हमेशा एक खास वर्ग द्वारा। जिसमें शास्त्री जी जैसे धर्म के नाम पर अपना पेशा चलाते हैं। ‘श्यामा’ कहानी में पं. राम प्रसाद भी ऐसे ही हैं। लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि उसी समय के बड़े आलोचक रामचरितमानस को ‘उत्तर भारत के गले का हार’ और ‘लोक-मर्यादा, लोक-मंगल’ का गान आदि-आदि मानते हैं! इन आलोचकों के सामने कौन सा समाज और लोक था, जो निराला के सामने नहीं है। निराला के यहाँ किसी ऐसे चरित्र के सन्दर्भ में रामचरितमानस का सन्दर्भ नहीं आता जो नैतिक रूप से उच्च हो, संवेदनशील हो! बल्कि चतुरी चमार के लिए वे लिखते हैं कि वह चतुर्वेदिकों से अधिक कबीर का मर्मज्ञ है। चतुरी चमार जिस समाज या सामाजिक वर्ग से हैं वहाँ कबीर के पद गाये-सुने जाते हैं। जहाँ रचनाकार इतना बा-ख़बर है, आलोचक इतना बे-ख़बर क्यों!
हिन्दी प्रदेश में सामाजिक वर्गों के बीच सांस्कृतिक भिन्नताएँ कम नहीं हैं, लेकिन उसे ध्यान से बाहर रखा जाता है। जैसे दलितों में कबीर के पद, पिछड़ी जातियों में कृष्ण सम्बन्धी पद, बौद्ध पर्व आदि सांस्कृतिक जीवन के अंग होते थे। उदारीकरण के बाद क्रमशः यह घटता गया और ब्राह्मणवादी सवर्ण या वैष्णव मत का सांस्कृतिक आच्छादन बढ़ता गया। बाजार, टीवी सीरियल आदि ने इसमें बड़ी भूमिका निभायी। लेकिन 1930 के दशक तक तो सांस्कृतिक भिन्नताएँ स्पष्ट रूप से थीं, जिसे निराला अपने कथा साहित्य में दर्ज़ करते हैं, फिर ये आलोचक किसको हार पहना रहे थे, किस लोक का रंजन करवा रहे थे! खैर
श्रीमती शास्त्रिणी ने छायावाद सम्बंधी विचार भी शास्त्री जी से पाया है।
“शास्त्री जी अपना कारोबार बढ़ाने लगे। सुपर्णा को वैदक की अनुवादित हिन्दी पुस्तकें देने लगे, नाड़ी-विचार चर्चा आदि करने लगे। …एक साल बीत गया। अब सुपर्णा हिन्दी में मजे में लिख लेती है। मोहन से उसका हाड़-हाड़ जल रहा था। एक दिन उसने पातिव्रत्य पर एक लेख लिखा। आजकल के छायावाद के विषय में भी पढ़ चुकी थी और बहुत कुछ अपने पति से सुन चुकी थी।”
शास्त्री जी “जिज्ञासु षोडसी प्रिया को समझाते रहे कि छायावाद वह है, जिसमें कला के साथ व्यभिचार किया जाता है तरह-तरह से। आइडिया के रूप में, सुपर्णा-जैसी ओजस्विनी लेखिका के लिए इतना बहुत था। आदि से अंत तक उसके लेख में प्राचीन पतिव्रतधर्म और नवीन छायावादी व्यभिचार प्रचारक के कण्ठ से बोल रहा था।”
इस तरह श्रीमती शास्त्रिणी की ख्याति बढ़ती है। गांधी जी को दो सौ रुपये देकर वे और ख्याति पाती हैं और कांग्रेस से प्रत्याशी होकर जौनपुर से एम.एल.ए हो जाती हैं।
पुनः प्रसंगवश कांग्रेस की राजनीति और उसके भीतर के सामाजिक वर्ग और उसके प्रभाव आदि पर ध्यान चला जाता है। निराला के कथा साहित्य में प्रायः देखा जा सकता है। वे कांग्रेस के भीतर किस सामाजिक वर्ग का वर्चस्व है, इसे संकेत अवश्य करते हैं। श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी एम.एल.ए बनती हैं। वे जमींदार की बेटी हैं। जमींदारों को निराला बार-बार दिखाते हैं, कि वह ब्रिटिश राज से गहरे आबद्ध वर्ग है।
जाति से ब्राह्मण हैं, लेकिन यहां यह गलती नहीं करनी चाहिए कि कांग्रेस के भीतर ब्राह्मण वर्चस्व था। श्रीमती शास्त्रिणी ब्राह्मण की बजाय जमींदार वर्ग के चलते राजनीति में ऊपर आती हैं। महात्मा गांधी को उन्होंने जेवर बेचकर दो सौ रूपये की थैली भेंट की। यह जेवर जमींदारी का है। निराला ने क्या लिखा, कि “दूसरों पर प्रभाव डालने का उसका जमींदारी स्वभाव था।” यह ऐसे ही नहीं लिखा है। खुद के विकास के तहत निराला ने यह वर्ग-दृष्टि पायी है।
श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी की इस सेवा का साधारण जनता पर असाधारण प्रभाव पड़ा। निराला लिखते हैं,
“आन्दोलन के बाद इनकी प्रैक्टिस चमक गयी। बड़ी देवियाँ आने लगीं। बुलावा भी होने लगा। चिकित्सा के साथ लेख लिखना भी जारी रहा। यह बिल्कुल समय के साथ थीं। एक बार लिखा, देश को छायावाद से जितना नुकसान पहुँचा है, उतना गुलामी से नहीं।”
यही श्रीमती शास्त्रिणी कांग्रेस की उम्मीदवार होकर एम.एल.ए होती हैं। यह 1936 ईस्वी का चुनाव है।
‘तद्भव’ में छपे अपने एक संस्मरण में कथाकार अमरकांत लिखते हैं, कि आजादी के बाद रातों-रात जमींदारों और राजाओं ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। निराला की नजर तो जमींदारों की इस प्रवृत्ति पर पहले से ही थी। लेकिन महत्वपूर्ण है, कि जमींदारों की प्रवृत्ति और चरित्र को यहाँ एक स्त्री धारण करती है। प्रतिनिधित्व तो स्त्री वर्ग का है, लेकिन मूल्य और आचरण पितृसत्ता व जमींदारी का है।
श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी एम.एल.ए बनती हैं। वे उच्चतर मानवीय मूल्यों से भरे छायावाद के खिलाफ लेख लिखकर चर्चित हो चुकी हैं। एम.एल.ए होने के बाद ‘कौशल’ पत्रिका के प्रधान संपादक पत्रिका के कार्यालय में उन्हें आमंत्रित करते हैं। निराला लिखते हैं, शास्त्रिणी जी ने ‘गर्वित स्वीकारोक्ति’ दी।
इसी कार्यालय में मोहन एम.ए करने के बाद सहायक बन कर काम करता है। जिसके लिए निराला लिखते हैं, कि सहायक है, लेकिन लिखने में हिंदी में अकेला। वहाँ जाकर शास्त्रिणी जी ने मोहन को देखा।
“मोहन ने उठकर नमस्कार किया। आप यहाँ, शास्त्रिणी जी ने प्रश्न किया। जी हाँ, मोहन ने नम्रता से उत्तर दिया। यहाँ सहायक हूँ। शास्त्रिणी जी उद्धत भाव से हँसीं। उपदेश के स्वर में बोलीं, आप गलत रास्ते पर थे।”
कुछ इसे स्त्री सशक्तिकरण की कहानी के रूप में भी व्याख्या करने को उद्धत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें निराला के शब्दों या प्रयुक्त पदों पर ध्यान देना चाहिए!
‘शास्त्रिणी जी उद्धत भाव से हँसीं’, ‘उपदेश के स्वर में बोलीं’ आप गलत रास्ते पर थे। यह गलत रास्ता क्या है! आधुनिक उदार मानवीय और बराबरी का मूल्य जिसे मोहन धारण करता है। जबकि सुपर्णा या श्रीमती शास्त्रिणी पितृसत्ता और जमीदारी मूल्यों और प्रवृत्तियों को आत्मसात करती हैं और इन्हीं मूल्यों से उनका प्रेम भी परिभाषित होता है।
इस कहानी से उस संस्कृति का संकेत भी मिलता है, जिससे आज के हिन्दुत्ववादी राजनीति के उभार में हिन्दी समाज की मध्यवर्गीय शहरी सवर्ण स्त्रियों के व्यापक समर्थन को भी समझा जा सकता है! बाकी कहानी का पहला पैराग्राफ़ भी आज की हिन्दुत्ववादी राजनीति के लिए दिलचस्प है, खासकर टेक
“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान् पं. गजानन्द शास्त्री की धर्म-पत्नी हैं। श्रीमान् शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है, धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणीजी के पिता को षोडसी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा, धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किये शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने के साथ ‘शास्त्रिणी’ का साइन-बोर्ड टाँगा, धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं, धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है, धर्म की रक्षा के लिए।”
आज धर्म की रक्षा के लिए क्या-क्या हो रहा है, कोई भी खुद जाँच सकता है!