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इज़राइल द्वारा सोमवार नर-संहार फिलीस्तीनियों की आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर नहीं कर सकता

वी. अरुण कुमार

 

यह खूनी था, और यह हमेशा से खूनी रहा था- इज़राइली सेना के लिए, फिलिस्तीनी व्यक्ति के जीवन का मूल्य बुलेट की लागत से अधिक नहीं है। इज़राइली रक्षा बल (आईडीएफ) स्नायीपर्स (snipers) ने सोमवार को गाजा सीमा पर हजारों निहत्थे फिलिस्तीनियों पर गोली चलाई।  गोलियों और आंसू गैस का चलना जब तक थमा तब तक  लगभग 60 मासूम फिलिस्तीनियों की मौत हो गई, और 2800 से ज्यादा लोग घायल हो गए। इसी के साथ मरने वालों की संख्या जो 30 मार्च से शुरू हुए  ग्रेट रिटर्न मार्च की विरोध श्रृंखलाओं से शुरू हुई थी वह अब 100 तक पहुँच गयी है.  नरसंहार और युद्ध अपराधों के अलावा इन हत्याओं का वर्णन करने के लिए कोई अन्य शब्द नहीं है।

इज़राइली उपनिवेशवाद, जो सत्तर साल से भी पहले शुरू हुआ और जिसने लाखों फिलिस्तीनियों पर अत्याचार करना जारी रखा है । सत्तर साल पहले, इसराइल की स्थापना के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री डेविड बेन गुरियन ने सेना को कहा ‘किसी भी फिलिस्तीनी को मार डालो जो इसरायल की सीमा पार करने की हिम्मत रखता हो” । ग्रेट रिटर्न मार्च के दौरान आईडीएफ ने उसी नीति को जारी रखा।

विरोध मार्च फिलीस्तीनियों की वापसी और गरिमा के साथ एक जीवन के अधिकार की मांग करता है, और यह क्रूर इज़रायल के कब्जे के ख़िलाफ़ फिलिस्तीनियों के संघर्ष का प्रतीक है।

विस्फोटक आंसू गैस के गोलों और  बंदूकधारियों के बीच, विरोध प्रदर्शन में शामिल एक फिलिस्तीनी ने कहा, “हम अपनी जमीन पर लौटना चाहते हैं,” । ग्रेट रिटर्न मार्च 45 दिनों का एक ऐसे विरोध के उत्सव की तरह  है जो 15 मई को समाप्त होगा. जिसे  एनएकेबीए (Nakba) दिवस के रूप में भी मनाया गया , जिसे तबाही के दिन के रूप में  भी याद किया जाता है – इसी दिन  1948 में फिलिस्तीनी अरबों को अपनी भूमि से बाहर निकाल दिया गया था और  600 से अधिक फिलिस्तीनी गांवों और कस्बों को मटियामेट  कर दिया गया था, यहां से इज़राइल राज्य की स्थापना हुई । 2018 की फिलीस्तीनी सेंट्रल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स रिपोर्ट के अनुसार, गाजा पट्टी में रहने वाले 1.9 मिलियन फिलिस्तीनियों में से 1.3 मिलियन शरणार्थियों को 1948 के एनएकेबीए (Nakba) का प्रत्यक्ष परिणाम हैं ।

ग्रेट रिटर्न मार्च में आम हड़ताल के दौरान इज़राइली बलों के हाथों मारे गए छः फिलिस्तीनियों की मौत और 1976 में गलील क्षेत्र में इज़रायली कब्जे के विरोध के रूप में देखा जाता है.

(इस लेख के लेखक वी. अरुण कुमार हैं, जो वामपंथ से जुड़े हुए हैं और पेशे से पत्रकार हैं. )

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