(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है समानांतर सिनेमा के जरूरी हस्ताक्षर मणि कौल की उसकी रोटी । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की तीसरी क़िस्त-सं)
मणि कौल (1944-2011) हिंदी समानांतर सिनेमा के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं । उसकी रोटी उनके निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म है जो मोहन राकेश की कहानी पर आधारित है। फ़िल्म के संवाद भी मोहन राकेश ने लिखे हैं।स्क्रीनप्ले मणि कौल का ही है ।
इस फ़िल्म से मणिकौल की वह यात्रा शुरू होती है जो नौकर की कमीज, आषाढ़ का एक दिन और दुविधा जैसी बेमिसाल फिल्मों के निर्माण तक पहुंचती है। पहली ही नजर में इस तथ्य पर ध्यान जाता है वे बतौर निर्देशक गम्भीर कथाओं को उठाने के ही हामी हैं । नौकर की कमीज विनोद कुमार शुक्ल की, आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश की और दुविधा विजयदान देथा की रचना पर आधारित है। इस तरह देखें तो उनको साहित्यिक रचनाओं पर फ़िल्म बनाने में विशेषज्ञता हासिल है ।
एफ.टी.आई.आई. से स्नातक और ऋतिविक घटक के शिष्य मणिकौल ने महज 24 वर्ष की उम्र में उसकी रोटी फ़िल्म बनाई और अतियथार्थवाद का जोखिम भरा रास्ता अख्तियार किया। फ़िल्म में कोई पार्श्व संगीत नहीं है, जैसे जीवन में नहीं होता। फ़िल्म में ध्वनियाँ हैं, जैसे जीवन में होती हैं । पक्षियों की, झिल्ली-झींगुर की, बस की, बारात की, चलने की, रहट की, खाने की, दारू की बोतल खोलने की, तास के पत्ते फेंकने की ध्वनियाँ फ़िल्म में आती रहती हैं। महज दो-तीन जगहों पर स्त्री मन के दुख और उलझन को व्यक्त करने के लिए सन्तूर का प्रयोग हुआ है।
फ़िल्म की कहानी सुच्चासिंह (गुरदीप सिंह) और उसकी पत्नी बालो (गरिमा) के जीवन पर केंद्रित है। सुच्चा सिंह बस ड्राइवर है और पास के कस्बे में रहता है। हफ्ते में बस मंगलवार को वह घर आता है। बाकी दिन वह कस्बे में रहता है। दोस्तों के साथ तास खेलता है, शराब पीता है, मुर्गा खाता है। उसकी एक रखैल भी है। बालो गांव में अपनी बहन के साथ रहती है। उसका नियमित काम रोटी बनाकर मीलों पैदल चलकर सड़क पर जाना है और वहाँ तब तक इंतजार करना है जब तक सुच्चा सिंह की बस न आ जाये। यह क्रम तब भंग हो जाता है जब गांव का एक आदमी, जिसे दोनों बहनें चाचा कहकर संबोधित करती है, एक दिन बालो की बहन से बदसलूकी कर देता है। उस दिन बालो को रोटी ले जाने में देर हो जाती है और सुच्चा सिंह नाराज हो जाता है। बालो सुच्चा सिंह के गुस्सैल स्वभाव से लगातार भयभीत रहती है। सुच्चा सिंह लगातार मूंछे ऐंठता रहता है। फ़िल्म की एक उल्लेखनीय घटना एक महिला का सर्दियों की ठिठुरती रात में तालाब में कूदकर जान दे देना है। इसकी वजह एक ग्रामीण महिला के शब्दों में –“घरवाले के होते हुए रंडापा झेल रही थी”, बताया गया है।
फिल्मकार ने अपनी तरफ से कहानी कहने से सायास परहेज किया है। दृश्य हैं, दृश्यों में फैला सन्नाटा है। यह सन्नाटा महिलाओं की जिंदगी में पसरे सूनेपन, ऊब और उनके दुखों को निश्चय ही और गहरा बना देती है । सम्भवतः किसी पार्श्व संगीत से इसे रच पाना आसान न होता। इसी संदर्भ में फ़िल्म के श्याम-श्वेत होने को भी देखा जाना चाहिए। मणिकौल ने ब्लैक एंड व्हाइट के जादू का भरपूर इस्तेमाल किया है।
फ़िल्म की गति बहुत धीमी है। हर दस मिनट पर घटना और तीस मिनट पर टर्निंग पॉइंट जैसे फार्मूले मणिकौल की सिने-दृष्टि के निकट बेमानी हैं। बकौल मणिकौल-“फ़िल्म इंतजार के बारे में है। अतः यह सायास धीमी है।”
सुच्चा सिंह के चरित्र को दर्शकों तक पूर्णतया सम्प्रेषित करने के लिए दो कैरेक्टर सीन नियोजित किये गए हैं। एक, फ़िल्म की शुरुआत में जिसमें वह ठसक के साथ मेज-कुर्सी पर बैठ अपने कमरे में मुर्गा खा रहा है। दूसरा दृश्य वह है जिसमें अपने दोस्तों के साथ बैठकर तास और शराब का मजा ले रहा है। दोनों दृश्यों में दीवार पर टँगी अर्धनग्न स्त्रियों के चित्र दिखते हैं। वस्तुतः इन दो दृश्यों के जरिये ही सुच्चा सिंह का चरित्र दर्शकों के समक्ष खुलता है। कैरेक्टर सीन के लिहाज से देखें तो यह दोनों दृश्य एकदम सामान्य हैं, सिनेमा में रूढ़ हैं। लेकिन मणिकौल के पटकथा लेखन की और निर्देशकीय क्षमता की खूबसूरती इस बात में है कि उक्त दृश्यों के जरिये वे मूलकथा को आगे बढ़ाने का काम नहीं करते; वरन यह दृश्य ही मूल कथा बन जाते हैं। इन दृश्यों को देखने-समझने के बाद कहानी को अलग से कहने की आवश्यकता नहीं बचती। बालो या किसी भी अन्य स्त्री की पीड़ा की वजह पुरुष की इस बेफिक्री में छुपी हुई है ।
फ़िल्म के आखिरी दृश्य में जब बालो रोटी देने के लिए सुनसान सड़क के किनारे बैठी सुच्चासिंह की बस का इंतजार कर रही है और अंधेरा गहराता गहराता जा रहा है, तभी अंधड़ चलने लगता है। इस बिंब से एक तो नायिका की स्थिति की विकटता जाहिर हो जाती है दूसरे उसकी भीतरी उथलपुथल सामने आ जाती है ।
फ़िल्म के चरित्रों पे गौर करें तो सुच्चा सिंह को वैसा खलनायक नहीं कहा जा सकता जैसा हम पर्दे पर देखने के अभ्यस्त हैं। वह बस उन गुणों को धारण करता है जो पितृसत्तात्मक समाज के पुरुषों में पाए जाते हैं । वह उतना ही अच्छा या बुरा है, जितना इस सामाजिक ढांचे का कोई अन्य पुरुष है। यही स्थिति नारी के सन्दर्भ में बालो की है।वह वैसी ही सहनशील और गमख़ोर है जैसे कोई अन्य आम भारतीय स्त्री। इस रूप में फ़िल्म हमें हमारे समाज की सच्चाई के ठीक सामने खड़ी कर देती है। हम कुछ धार्मिक-पौराणिक-ऐतिहासिक उदाहरणों का सहारा लेकर अपने समाज में स्त्री की वास्तविक पददलित स्थिति से मुँह चुराने लायक हालत में में नहीं रह जाते।