‘बालवांश्च यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुषः।
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिह्तः परः।।
लोक में बलवान पुरुष जिसे धर्म समझता है, धर्म-विचार के समय लोग उसी को धर्म मान लेते हैं और बलहीन पुरुष जो धर्म बतलाता है वह बलवान पुरुष के बताए धर्म से दब जाता है।’
‘आलोचना’ पत्रिका के सहस्राब्दी अंक एक (2000) के फासीवाद विरोधी विशेषांक के संपादकीय में महाभारत की द्रौपदी को भीष्म द्वारा दिए गए इस उत्तर का उल्लेख किया गया है। अभी संसद में ‘फासीवादी हत्यारे’ की जयजयकार की गूंज शांत भी नहीं हुई थी कि समाजवादी पार्टी से एक महिला सांसद ने ‘लिंचिंग’ को ‘न्याय’ का पर्याय घोषित कर दिया। पहले तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा ‘लिंचिंग’ को अभारतीय बताते हुए ‘प्राचीन’, ‘महान’, भारतीय संस्कृति की रक्षा करने की कोशिश की गई। अन्ततः माननीय सांसद ने लिंचिंग की पीछे की प्रासंगिकता को रेखांकित ही कर दिया।
माननीय सांसद ने संसद के अंदर न्याय की इस अवधारणा की प्रासंगिकता को मुस्कुराते हुए प्रकट किया। जैसे लिंचिंग की घटना प्रसन्नता का विषय हो। अब संसद में हत्यारे की जय के साथ-साथ लिंचिंग की प्रसांगिकता स्थापित कर दी गई है। वैसे लिंचिंग और फासीवादी हत्याओं में कोई अन्तर नहीं है। दोनों बलवान वर्ग के ही हथियार हैं। दोनों बहुमत के ध्रुवीकरण और उसके कट्टरपंथ की अभिव्यक्तियां हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हत्यारी भीड़ के चेहरे पर गोडसे का नकाब है। गोडसे के दिल में हत्यारा भीड़तंत्र है।
माननीयों और राष्ट्रभक्त जनता की लिंचिंग से लबरेज इन अभिव्यक्तियों ने मानो इस देश के पुलिस तंत्र के दिल के तार छेड़ दिए। या कहें कि ‘बेटी बचाओ’ की राष्ट्रभक्त जनता ने महिलाओं के साथ न्याय करने के उस तरीके को सुलगा दिया जिसे करने में मर्दवादी पुलिस तन्त्र/बलतंत्र माहिर है। वह बलवानों के इस महाभारत का महारथी है। गुजरात से लेकर दिल्ली, दिल्ली से उन्नाव (उ०प्र०) तक कितने माननीय हैं जिन्होंने कभी व्यक्तिगत रूप से पुलिसिया अपमान झेला हो। सोनी सोरी के साथ इसी तथाकथित ‘माता-वादी’ बलतंत्र ने, सुरक्षा तंत्र ने बर्बरता की और इस बलतंत्र के अफसर को इस महान देश के महामहिम की तरफ से पदक दिए गए। लिंचिंग और गोडसे जिंदाबाद के नारों की गूंज से गूंज रही संसद में किस तरह लोकतंत्र का विस्तार हो रहा है। जाहिरा तौर पर लिंचिंग लोकतंत्र का। सुरेखा भोतमांगे (महाराष्ट्र), सोनी सोरी (छत्तीसगढ़) और इशरत जहां (गुजरात) के साथ इस लिंचिंग लोकतंत्र की यही हत्यारी लिंचिंग न्याय प्रणाली काम कर रही है।
जनता ‘इनकाउंटर’ का उत्सव मना रही है। माननीय उसे वैधानिकता प्रदान कर रहे हैं। जब हत्या की संस्कृति को न्याय सम्मत, संविधान सम्मत बनाने की संसद में कोशिशें हो रही हों। तब कवि धूमिल के शब्दों के कहना ही होगा कि ‘और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं / आदत बन चुकी है।’ और यह आदत आज की नई नहीं है। यह रामायण-महाभारत की हजारो साल पुरानी संस्कृति की जैसी ही पुरानी है। जिसके खत्म होने की आशंका मात्र से राष्ट्रीय सांप संघ फनफना उठते हैं। इसीलिए हमेशा वे रामायण-महाभारत को अपरिवर्तनीय, अपौरुषेय बताते हैं।
जैसे कि अभी कुछ दिन पहले एक भाजपा सांसद ने संसद के भीतर रामायण-महाभारत की अपौरुषेयता का उद्घोष किया था। और वे करें भी क्यों न! उनको तो समय के पहिए को उलटा घुमाना है। फिर से बर्बर इतिहास में वापस जाना है। यही तो उनका विकास है। यही उनका न्यू इण्डिया है। देश का एक बड़ा हिस्सा अगर इनकाउंटर का उत्सव मना रहा है। ‘छपन्न इंच के सीने’ के मर्दवादी आत्मगौरव के साथ ‘वीरभोग्या वसुंधरा’ का श्लोक पाठ करते हुए अगर वह ‘जननी जन्मभूमि’ गा रहा है। तो समझ लीजिए देश खतरे में है। यही भीष्म का निर्लज्ज उत्तर है। यह द्रौपदी की लिंचिंग है। यही बलवानों का धर्म है।