सबसे पहले तो माफ़ी चाहता हूँ कि पिछले सप्ताह दुनिया जहान की हलचलों पर कुछ नहीं लिख पाया. कारण ? कुछ आलस्य और कुछ ऊब और खीज. वही घटनाएं, वही चेहरे, वही मुद्दे. कुछ भी खास या नया नहीं. क्या लिखें ? ऐसा लगता है कि दुनिया जैसे कुछ उबाऊ सी हो गई है.
महामारी ने दुनिया को बहुत बोरिंग बना दिया है. सब कुछ ठहरा हुआ सा लगता है. अनिश्चितता है. लेकिन ऐसी अनिश्चितता कि सब कुछ निश्चित सा लगता है. असामान्य ही सामान्य हो गया है.
कई बार खीज सी होती है. थकान भी. इसलिए कि बीते सप्ताह में दुनिया में घटनाएं तो बहुत हुईं लेकिन बुनियादी रूप से कुछ खास बदला नहीं.
अलबत्ता, इस सप्ताह कुछ तानाशाहों और उनके दिमागी करेंट ने दुनिया को बोरिंग होने से बचाए रखा, भले उनके देशों में लोग उसकी भारी कीमत चुकाते हों. जाहिर है कि वे अपने को सबसे ज्यादा “बुद्धिमान” और हर विषय का विशेषज्ञ मानते हैं और न भी मानते हों तो उन्हें हमेशा घेरे रहनेवाले आला दर्जे के चापलूस ‘ग्रेट लीडर’ को यकीन दिला देते हैं कि उनके जितना बुद्धिमान कोई नहीं है.
सर्वोच्च नेता की ‘बुद्धिमत्ता’ उनके दिमागी करेंट से जाहिर होती है जो समय-समय पर जल उठती है और उलटे-सीधे फैसलों और फरमानों के जरिये सामने आती है.
उत्तर कोरिया: हँसना मना है
उत्तर कोरिया के किम जोंग उन को ही लीजिए. उन्हें शासन संभाले दस साल हो गए. उन्होंने आदेश दिया है कि अगले ग्यारह दिनों तक देश में कोई हंसेगा या खुश नहीं होगा, जश्न और पार्टी नहीं होगी, शराब नहीं पिएगा और शापिंग नहीं करेगा. इस दौरान मनोरंजन की कोई गतिविधि नहीं होगी.
कारण? उनके पिता किम जोंग-इल की बरसी है. वे चाहते हैं कि पूरा देश उनके पिता की बरसी के मौके पर शोक मनाए. किम के पिता किम जोंग-इल भी 17 साल तक उत्तर कोरिया के शासक रहे. किम के दादा किम इल-सुंग उत्तर कोरिया के संस्थापक थे और 46 सालों तक देश के सर्वोच्च नेता रहे.
इस तरह 73 साल से उत्तर कोरिया में किम वंश का एकछत्र चल रहा है. कहने को उत्तर कोरिया में कोरियाई वर्कर्स पार्टी का शासन है जो खुद को कम्युनिस्ट/समाजवादी कहती है. लेकिन दुनिया में साम्यवाद को हंसी और मजाक का विषय बनाने में सबसे बड़ा योगदान उत्तर कोरिया के किम वंश और कोरियाई वर्कर्स पार्टी का है.
दोनों ने मिलकर साम्यवाद की छीछालेदर करने और उत्तर कोरिया को गर्त में ले जाने में कोई कसर नहीं उठा रखी है. इसमें कोई क्या ही हँसता होगा.
वैसे भी आज के उत्तर कोरिया में हंसने या खुश होने की ज्यादा वजहें नहीं हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, देश में अनाजों और खाने-पीने के सामानों की भारी किल्लत है. ज्यादातर लोग जिन हालातों में जी रहे हैं, उसमें किम जोंग उन को छोड़कर भला किसे हंसी आती होगी.
लेकिन लगता है कि किम को संदेह है कि लोग उनके पीठ-पीछे हँसते होंगे. इसलिए 11 दिनों के लिए हंसने या जश्न और पार्टी करने पर रोक लगा दी है. पूरे देश को जबरन शोक मनाने का आदेश हो गया है.
यह और बात है कि देश पिछले कई सालों से स्थाई शोक में है. पता नहीं कि तानाशाह को हंसी आती है या नहीं लेकिन सरकारी मीडिया किम जोंग उन की हंसती हुई तस्वीरें गाहे-बगाहे जारी करता रहता है ताकि दुनिया को पता रहे कि उत्तर कोरिया में सब कुछ चंगा है.
आज के उत्तर कोरिया को देखकर सहज ही जार्ज आर्वेल के उपन्यासों ‘एनिमल फ़ार्म’ और ’1984’ की याद आ जाती है.
तानाशाहों की सनक और मनमानी का जवाब नहीं. किम जोंग उन इस मामले में नए रिकार्ड बना रहे हैं.
तुर्की: अर्दुआन की सनक
इधर, तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दुआन के दिमाग की बत्ती भी इस साल एक दिन जल उठी. उन्हें मार्च में ख्याल आया कि महंगाई को काबू में करने के लिए ब्याज दरों में कटौती जरूरी है. अर्दुआन ने तुर्की के केन्द्रीय बैंक के गवर्नर को तुरंत आदेश दिया कि बैंक दरों में कटौती की जाए.
सिर्फ चार महीने गवर्नर नाज़ी अबल ने थोड़ी आनाकानी की. वे महंगाई को काबू में करने और तुर्की की मुद्रा- लीरा को सँभालने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी कर रहे थे. उन्होंने अर्दुआन को अर्थशास्त्र समझाने की कोशिश की कि जब महंगाई दर ऊँची हो तो उसे काबू में करने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी की जाती है.
नतीजा? अर्दुआन ने गवर्नर नाज़ी अबल को तुरंत बर्खास्त कर दिया. पिछले दो साल में तुर्की के केन्द्रीय बैंक के वे तीसरे गवर्नर थे जिन्हें अर्दुआन की अपारम्परिक आर्थिकी के मुताबिक न चलने के लिए चलता कर दिया गया.
नए गवर्नर ने सुल्तान के हुकुम के मुताबिक ब्याज दरों में कटौती कर दी. इसके बाद हुआ यह कि डालर के मुकाबले तुर्की की मुद्रा- लीरा की कीमतों में तेज गिरावट शुरू हो गई. कुछ ही महीनों में लीरा का ऐसा कत्लेआम हुआ है कि उसकी कीमतें डालर के मुकाबले 50 फीसदी गिर चुकी हैं. साथ ही, महंगाई और बेकाबू हो गई है.
हालत यह हो गई है कि तुर्की में इनदिनों अनाजों और खाने-पीने की चीजों जैसे ब्रेड, आलू, मांस आदि की कीमतें आसमान छू रही हैं. दूकानों और सुपर-मार्किट में चीजों की कीमतें हर दिन बढ़ जा रही हैं. सरकारी सस्ते ब्रेड की दूकानों पर कतारों की लम्बाई बढ़ती जा रही है. जबरदस्त महंगाई के कारण गरीबों, कामगारों, कर्मचारियों, पेंशनरों सहित ज्यादातर मध्यवर्ग की भी हालत ख़राब है जिनके लिए घर के खर्चे चलाना मुश्किल होता जा रहा है.
यहाँ तक कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भी महंगाई की दर 21 प्रतिशत है. अधिकांश स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों के अनुसार, महंगाई दर 50 से 60 फीसदी के बीच है. लीरा की कीमतों में भारी गिरावट के कारण वह इस साल दुनिया की सबसे बदतर प्रदर्शन करनेवाली मुद्रा बन गई है. इसके बावजूद अर्दुआन अपने अर्थशास्त्र पर टिके हुए हैं. यही नहीं, आग में घी डालते हुए बीते सप्ताह केन्द्रीय बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरों में कटौती का एलान किया जिसके बाद लीरा में भारी गिरावट दर्ज की गई है. बीते चार महीनों में ब्याज दरों में यह चौथी कटौती थी.
लेकिन अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने का दावा करनेवाले अर्दुआन पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. वे अपने को सबसे बड़ा अर्थशास्त्री मानते हैं. विशेषज्ञों को वे हिकारत से देखते हैं. जैसाकि ज्यादातर तानाशाहों के साथ होता है, अर्दुआन भी अपने आगे किसी की नहीं सुनते. ज्यादातर विशेषज्ञ और वैसे लोग जो अर्दुआन की नीतियों से असहमत थे, उन्हें सरकार से बाहर किया जा चुका है.
सरकार में कोई नहीं है जो अर्दुआन से कह सके कि उनका ‘अर्थशास्त्र’ पूरी तरह नाकाम है. उनकी सनक के कारण देश गंभीर आर्थिक संकट में फंसता जा रहा है. उलटे सरकार और उनकी एकेपी पार्टी में अर्दुआन की हाँ में हाँ मिलानेवाले भक्तों की भीड़ है. हालत यह है कि अर्दुआन की सनक, समझ और मनमानी, नीति का पर्याय बन गई है. सवाल करना देशद्रोह के बराबर है.
हैरानी नहीं कि अर्दुआन के राज में स्वतंत्र मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया है. क्रिटिकल पत्रकारों को जेल या देश-निकाला दिया जा चुका है. बाकी गोदी मीडिया जयगान में जुटा रहता है.
उधर, ‘शुद्धिकरण’ अभियान के तहत देश भर में हजारों स्वतंत्र और क्रिटिकल जजों, सेना और सिविल अफसरों, अध्यापकों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सरकारी नौकरियों से निकाला जा चुका है. न्यायपालिका और नौकरशाही पूरी तरह से अर्दुआन की मुट्ठी में है. सिविल सोसायटी का गला घोंटा जा चुका है.
अर्दुआन ने तुर्की में कट्टर इस्लाम और राष्ट्रवाद के साथ पापुलिज्म के घोल से ऐसी राजनीति को आगे बढ़ाया है जिसमें उनके मुकाबले में कोई नहीं है. अर्दुआन ने विरोध और असहमति की हर आवाज़ को देश और धर्म विरोधी साबित करके कुचल दिया है. बुद्धिजीवियों को खलनायक और देश विरोधी साबित करके अकादमिक संस्थाओं और युनिवर्सिटियों से जिस तरह निकाला गया, न्यूयार्क टाइम्स की यह रिपोर्ट उसपर रौशनी डालती है.
अर्दुआन के 20 सालों के राज के बारे में और जानना है तो तुर्की की जानी-मानी लेखिका, पत्रकार और एक्टिविस्ट एजे तेमालकुरान की किताब “हाउ टू लूज अ कंट्री: द सेवेन स्टेप्स फ्राम डेमोक्रेसी टू डिक्टेटरशिप” जरूर पढ़नी चाहिए. जाने-माने समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने इसपर ‘द हिन्दू’ में अच्छी समीक्षा लिखी थी.
फिर लौटते हैं आज के तुर्की में अर्दुआन के अर्थशास्त्र पर.
अर्दुआन के मुताबिक, “ब्याज सारी बुराइयों की मां और पिता है.” अर्दुआन ने ब्याज दरों के खिलाफ जंग का एलान कर रखा है. वे किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. लीरा के कत्लेआम के बीच अर्दुआन का कहना है कि चिंता की कोई बात नहीं है. कुछ महीनों में उनकी आर्थिक नीति काम करने लगेगी. वे तुर्की के लोगों से धैर्य रखने को कह रहे हैं.
जैसाकि अर्दुआन जैसे ज्यादातर तानाशाहों के साथ होता है, वे भी अपने बचाव के लिए धर्म की आड़ ले रहे हैं. वे इस्लाम का हवाला दे रहे हैं जिसमें सूदखोरी की मनाही है. इस महीने वे दो बार इस्लाम के हवाले से ब्याज दरों में कटौती की अपनी नाकाम नीति को सही ठहराने की कोशिश कर चुके हैं.
यही नहीं, बाकी तानाशाहों की तरह अर्दुआन भी अपनी नाकाम नीतियों का ठीकरा विदेशी ताकतों पर फोड़ रहे हैं जो उनके मुताबिक, तुर्की की तरक्की से जलती हैं और इसलिए लीरा की कीमतें गिराकर तुर्की को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं.
जाहिर है कि अर्दुआन एक टिपिकल तानाशाह की तरह एक ओर अपनी जिद और दुस्साहस पर टिके रहने, अपने को सही ठहराने के लिए उलटे-सीधे तर्क देने के साथ-साथ अपने सनकी अर्थशास्त्र और उससे पैदा हुई आर्थिक-वित्तीय उथल-पुथल, अस्थिरता और आमलोगों की मुश्किलों के लिए किसी को बलि का बकरा बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं.
क्या अर्दुआन इसमें कामयाब होंगे? अभी तक इसी चालाक राजनीति के जरिये अर्दुआन कई बड़े राजनीतिक संकटों से न सिर्फ निपटने में कामयाब रहे हैं बल्कि हर बार उस संकट का इस्तेमाल खुद को और मजबूत करने में किया है. लेकिन इस बार वे मुश्किल में हैं. वजह यह कि हर बार वे अपने समर्थक आम गरीबों, कामगारों, निम्न मध्यवर्ग को उच्च मध्यवर्ग, अभिजात्य और बुद्धिजीवी वर्ग के खिलाफ खड़ा करने में कामयाब हो जाते रहे हैं.
लेकिन इस बार आसमान छूती महंगाई और आर्थिक-वित्तीय संकट की सबसे जबरदस्त मार अर्दुआन के उन्हीं समर्थकों और भक्तों पर पड़ी है जो उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं होते थे.
जाना तो हर तानाशाह को होता है. क्या अर्दुआन की भी विदाई का समय निकट आ गया है?
चलते-चलते
और हाँ, अर्दुआन की कहानी में किसी और तानाशाह को ढूंढने की कोशिश न करें. अर्दुआन की कहानी का किसी और से मेल सिर्फ संयोग है. तानाशाहों में ऐसे संयोग सामान्य बात है.