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धर्म स्वातंत्र्य विधेयकों / अधिनियमों के पीछे सांप्रदायिक राजनीति और उसका दबाव है

दक्षिणपंथी राजनीति के बढ़ते दबदबे के चलते, कई भारतीय राज्यों ने धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम बनाये हैं. विडंबना यह है कि ये सारे कानून, धर्म और आस्था की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं. इनका घोषित उद्देश्य कथित धर्मपरिवर्तन रोकना है. हमारा संविधान हमें अपने धर्म को मानने, उसका आचरण करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है. इन कानूनों का इस्तेमाल अल्पसंख्यक समुदायों को डराने-धमकाने और परेशान करने के लिया किया जा रहा है. ऐसा ही एक कानून कर्नाटक में बनाया जाना प्रस्तावित है. और यह भी अन्य ऐसे कानूनों की तरह का ही है.

ऐसे कानून बनाने वाली राज्य सरकारों के निशाने पर हैं ईसाई और मुसलमान अल्पसंख्यक. वर्तमान में ईसाई इनके सबसे बड़े शिकार बन रहे हैं. पिछले कुछ चार दशकों से देश में ईसाई विरोधी वातावरण निर्मित कर दिया गया है. पहले ननों और पादरियों पर हमले शुरू हुए और बाद में आम ईसाईयों पर.

सन 1990 के दशक में रानी मारिया की हत्या कर दी गई. ऐसे हमलों में से सबसे बड़ा और भयावह था 1999 में पास्टर ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया जाना. गुजरात के डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ और ओडिशा के कंधमाल में ईसाईयों पर हमलों का सिलसिला काफी लम्बा चला. प्रचार यह किया गया कि ईसाई मिशनरियां दलितों और ईसाईयों को जोर-ज़बरदस्ती और लोभ-लालच से ईसाई बना रहीं हैं.

सन 1970 के दशक में स्वामी असीमानंद ने डांग, गुजरात में, स्वामी लक्ष्मणानंद ने कंधमाल, ओडिशा में और आसाराम बापू के समर्थकों ने झाबुआ, मध्यप्रदेश में आदिवासी इलाकों में अपने आश्रम स्थापित किये. वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद का इन्हें पूरा समर्थन और सहयोग प्राप्त था. बजरंग दल भी इनके साथ था. बजरंग दल के ही दारासिंह उर्फ़ राजेंद्र पाल ने पास्टर स्टेंस की हत्या की थी. इस समय वह जेल में इसी अपराध की सजा काट रहा है. यह सब चुनावों में लाभ पाने के लिए आदिवासियों को अपने झंडे तले लाने के सांप्रदायिक ताकतों के अभियान का नतीजा था. इसके साथ ही, आदिवासियों का हिन्दूकरण करने के लिए आदिवासी इलाकों में शबरी और हनुमान के मंदिर स्थापित किये गए और शबरी महाकुम्भ आयोजित हुए. इन आयोजनों में आरएसएस के नेता प्रमुख रूप से उपस्थित रहते थे.

इस आरोप में कोई दम नहीं हैं कि आदिवासियों का जोर-ज़बरदस्ती या लोभ-लालच से धर्मपरिवर्तन करवाया जा रहा है. ईसाई धर्म भारत में कई सदियों से है. ऐसा कहा जाता है कि 52 ईस्वी में सेंट थॉमस ने मालाबार तट पर चर्चों की स्थापना की थी. इस प्रकार भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश करीब 2,000 साल पहले हुआ था. सन 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में ईसाई कुल आबादी का 2.3 प्रतिशत हैं. आबादी में उनके प्रतिशत में पिछले पांच दशकों में मामूली गिरावट आयी है. सन 1971 में वे आबादी का 2.60 प्रतिशत थे, सन 1981 में 2.44 प्रतिशत, 1991 में 2.34 प्रतिशत, 2001 में 2.30 प्रतिशत और 2011 में 2.30 प्रतिशत.

पास्टर स्टेंस की हत्या की घटना की जांच के लिए तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने वाधवा आयोग का गठन किया था. आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ओड़िशा के क्योंझार और मनोहरपुर इलाकों, जहाँ पास्टर स्टेंस सक्रिय थे, में ईसाई आबादी के प्रतिशत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई. तथ्य और आंकड़े चाहे कुछ भी कहते हों, सांप्रदायिक संगठन अनवरत यह प्रचार करते रहे कि मिशनरियां धर्मपरिवर्तन करवा रहीं हैं. और यह प्रचार लोगों के दिलो-दिमाग में बैठ गया है. यह धारणा भी लोगों के मन में घर कर गई है कि मिशनरियों को विदेशों से धन मिलता है. हम सब यह जानते हैं कि विदेशों से आने वाले धन का नियमन एफसीआरए के तहत किया जाता है और केंद्रीय गृह मंत्रालय को इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी रहती है.

शुरुआत में ईसाई-विरोधी हिंसा आदिवासी इलाकों और गांवों तक सीमित थी. धीरे-धीरे छोटे शहर भी इसकी जद में आ रहे हैं. कान्वेंट स्कूलों पर हमले हो रहे हैं. हाल में मध्यप्रदेश के गंजबासौदा में एक कान्वेंट स्कूल पर हमला हुआ. अब तक कान्वेंट स्कूल उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करने के लिए जाने जाते थे. अब नफरत इस हद तक फैल गई है कि उन स्कूलों पर भी हमले किये जा रहे हैं.

जो लोग ये हमले करते हैं वे तो केवल मोहरे हैं. इन हमलों के पीछे वे लोग हैं जो नफरत फैलाते हैं. सांप्रदायिक राजनीति यह मानती है कि ईसाई धर्म और इस्लाम विदेशी हैं. महात्मा गाँधी ने लिखा था, “हर देश यह मानता है कि उसका धर्म किसी भी अन्य धर्म जितना ही अच्छा है. निश्चय ही भारत के महान धर्म उसके लोगों के लिए पर्याप्त हैं और उन्हें एक धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनाने की जरूरत नहीं है.” इसके बाद वे भारतीय धर्मों की सूची देते हैं. “ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, हिन्दू धर्म और उसकी विभिन्न शाखाएं, इस्लाम और पारसी धर्म भारत के जीवित धर्म हैं” (गांधी, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 47, पृष्ठ 27-28).

 वैसे भी सभी धर्म वैश्विक होते हैं और उन्हें राष्ट्रों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता. आज की दुनिया में हिन्दू पूरे विश्व में फैले हुए हैं. धर्म स्वातंत्र्य विधेयकों / अधिनियमों के पीछे सांप्रदायिक राजनीति और उसका दबाव है, जिसके चलते ‘दूसरों से नफरत करो’ के अभियान को एक नए स्तर पर ले जाया जा रहा है. इसी तरह का कानून कर्नाटक में भी बनाया जा रहा है. इससे भारत में ईसाईयों के प्रति घृणा के भाव में और वृद्धि होगी और हमारे देश की एकता को प्रभावित कर रही प्रवृत्तियां मजबूत होंगी.

जो लोग धर्मपरिवर्तन कर रहे हैं उनके बारे में यह कहना कि उन्हें डराया-धमकाया गया है या वे लालच में ऐसा कर रहे हैं निश्चित तौर पर उनका अपमान करना है. क्या लोग अपनी मर्जी से धर्मपरिवर्तन नहीं कर सकते? कानूनी, सामाजिक और नैतिक मानकों से प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपनी पसंद का धर्म चुने और उसका आचरण करे. हमारी संविधान सभा की मसविदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म का वरण किया था. यह विडंबना ही है कि हम हिन्दू धर्म से ईसाई धर्म में परिवर्तन को एक अपराध की तरह देखते हैं परंतु अन्य धर्मों का त्याग कर हिन्दू धर्म अपनाने को घर वापसी बताया जाता है ! हाल में वसीम रिजवी ने हिन्दू धर्म अपनाया और अपना नाम जितेन्द्र त्यागी रख लिया. इसे  सकारात्मक रूप में देखा गया.

पिछले कुछ वर्षों से चर्चों और ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर हमलों की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है. यद्यपि कंधमाल जैसी व्यापक हिंसा नहीं हो रही है परंतु स्थानीय स्तर पर ईसाईयों के खिलाफ हिंसा जारी है और बढ़ रही है. हम सबको यह स्वीकार करना होगा कि हर व्यक्ति को अपना धर्म चुनने का पूरा हक है. ऐसा करके ही हम एक अधिक मानवीय और नैतिक समाज का निर्माण कर सकेंगे – एक ऐसे समाज का जो लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों का सम्मान करता है.

 (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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