(समकालीन जनमत द्वारा चलाई जा रही फ़ेसबुक लाइव श्रंखला के तहत 12 मई 2020 की शाम हिंदी रचनाकार लाल्टू ने अपनी चार कहानियों ‘काश कि कोई ईश्वर होता’, ‘टॉफी’, ‘चूंकि कविता नहीं छपी’ और ‘घुघनी ‘ का पाठ किया .
बेहद सधे हुए प्रभावशाली पाठ से पहले उन्होंने यह रेखांकित किया कि उनकी कहानियों को आत्मकथात्मक वृत्तांत समझने की भूल न की जाय . उनके कहानी पाठ के वीडियो का लिंक सबसे अंत में दिया जा रहा है .
यहाँ फिर से पेश हैं वे कहानियां . सं )
काश कि कोई ईश्वर होता
कहते हैं इंसान का दिमाग हादसों को निष्क्रिय ज़हनी कोशिकाओं की तहों के नीचे कहीं दबा देता है। उसे कुछ भी याद नहीं है। कुछ साल पहले तक कभी-कभी नींद में से अचानक उठ कर मेरी ओर ताकती रहती थी। मेरी आँखें खुल जातीं तो मैं थोड़ी देर तक उसे समझने की कोशिश करता। शायद वे यादें तहों से छूटकर सपनों में आ जाती होंगी। पता नहीं कब मैंने नोटिस करना ही छोड़ दिया कि वह रात को अचानक जाग रही है। हो सकता है कि मुझे देर तक ताकते रहने की उसकी आदत भी छूट गई होगी।
तक़रीबन सत्ताईस साल पहले की बात है। रेलवे ने कुछ शहरो में बुकिंग ऑफिसों में कंप्यूटरीकरण किया था। टिकट लेने वहीं जाना पड़ता था, पर अब दिल्ली के किसी केंद्रीय कंप्टूटर के साथ स्थानीय बुकिंग काउंटर जुड़े होते। दूरगामी यात्राओं के लिए 45 दिन पहले टिकट लेने जाना पड़ता। अक्सर कुछ गाड़ियों की बुकिंग पहले ही घंटे में खत्म हो जाती यानी सारी आरक्षित सीटें बुक हो जातीं। सबको पता था कि एजेंट अपने लोगों को लाइनों में खड़ा करवा कर टिकट बुक करवा लेते हैं, और यह सब रेलवे-कर्मचारियों की मदद से लंबे अरसे तक चलता रहा।
ऐसे ही एक दिन मुझे कानपुर होकर हावड़ा जाने के लिए टिकट लेने अपने शहर के बुकिंग ऑफिस आना पड़ा। स्वभाव से मैं ऐसे काम से डरता हूँ। लाइन में खड़ा होना, धक्के खाना, सोचते ही मैं परेशान हो जाता था। उस दिन भी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आते ही मन में आतंक और गहरा हो गया। चार खिड़कियों पर लंबी लाइनें लगी हैं। हर खिड़की के ठीक सामने हमेशा की तरह पाँच-दस लोग यूँ ही खड़े हैं। कई बार सोचा है कि दिल्ली में रेलवे के व्यापारिक दफ्तर के प्रभारी सी सी एस को शिकायत भेज दें कि यहाँ खिड़कियों पर लगे डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक काउंटरों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, जैसा कि दिल्ली में होता है। कम से कम समझदार लोग तो डिजिटल काउंटर का फायदा उठाकर लाइनों में खड़े होने से बच पाते। और ये जो लोग गधों की तरह खिड़कियों पर खड़े रहते हैं, क्या उनको हटाने का कोई तरीका यहाँ के प्रशासन को नहीं सूझता? खैर, न तो कभी शिकायत भेजी, न ही इस झमेले को झेल पाने की आदत ही बन पाई। फिलहाल बिल्कुल बायीं वाली खिड़की पर लाइन में खड़ा हो गया, वहाँ लिखा है – स्पेशल फंक्शन्स। लिखा तो सिर्फ लिखने के लिए ही है। डर है कि जैसे ही ब्रेक जर्नी की बात करूँगा, खिड़की पर बैठा क्लर्क दायीं ओर वाले मैनुअल काउंटर पर भगाएगा। कुछ सोचकर अपने सामने खड़े आदमी से कहा, ‘भाई साहब एक मिनट जरा लाइन में जगह बचाए रखिएगा, मैं अभी आया।’
मैनुअल काउंटर पर जाकर अपनी समस्या खिड़की पर बैठे बंदे को सुनाई। उसने पूरी बात सुनने से पहले ही कहा, ‘कंप्यूटर वाले विंडो पर जाओ।’
इस शहर में आने के बाद शुरुआती दिनों में जब कोई इस तरह बात करता, ‘जाओ-आओ’ कहता, तो बड़ा बुरा लगता था। समझ में नहीं आता था कि ‘आइए, जाइए’ न कहकर ये लोग हर किसी को ‘आओ, जाओ’ क्यों कहते हैं। फिर खुद को मनाया कि यही अच्छा है, धीरे-धीरे आदत हो गई। यह भी समझ में आ गया कि यहाँ की ज़ुबान ही ऐसी है। अक्खड़पन यहाँ का कल्चर है।
फिर अपनी पहली लाइन पर आ गया। आते ही पीछे एक युवा औरत आकर खड़ी हो गई। यही एक जगह है, जहाँ स्त्रियों के लिए अलग लाइन नहीं है। बिजली का बिल भरना हो या गाड़ी चलाने के लिए लाइसेंस का आवेदन करना हो, हर जगह उनको सहूलियत है, पर यहाँ नहीं है। रेलवे ने स्त्रियों के लिए यह रियायत क्यों नहीं अपनाई! शायद पहले से ही रेल का टिकट लेने स्त्रियाँ कम ही आती होंगी। क्या यह भी काला बाज़ारी रोकने के लिए है। होगा! पीठ पर औरत के करीब होने का एहसास रेंगने लगा। फिर अचानक ही वह बोल उठी – ‘आज के दिन फ्रेडरिक एंगेल्स का जन्म हुआ था।’
क्या! क्या कह रही है यह लड़की! पहले लगा था कि वह अकेली है। अब उसे लगा कि उसके साथ कोई होगा जिससे वह बात कर रही है। उसकी कही बात पर पल भर सोचा। और मैं तुरंत ऐसे मुड़ा, जैसे किसी ने मेरी गर्दन पकड़ कर घुमा दिया हो। वह दीवार पर टँगे दिल्ली-चंडीगढ़ की गाड़ियों की लिस्ट को एकटक देख रही थी। मेेरे अचानक मुड़ने से वह एक कदम पीछे को हो गई। वह अकेली ही आई दिखती है। ‘क्या कहा आपने?’ मैंने पूछा।
उसने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे उसने तो कुछ कहा ही नहीं हो। फिर वह धीरे से निर्लिप्त ढंग से बोली, ‘फ्रेडरिक एंगेल्स – साम्यवादी दार्शनिक थे, राज्य-सत्ता, संपत्ति और परिवार की शुरुआत पर उनका बड़ा आलेख है।’यकीन नहीं हो रहा था। अचरज से मेरा मुँह खुला हुआ था। फिर मन ही मन बुदबुदाते हुए मैंने खुद से कहा, ‘होगी कोई सिरफिरी कॉमरेड।’ आजकल कई कॉमरेड दिमागी परेशानियों में उलझे हुए मिलते हैं।
मैं चुपचाप वापस मुड़कर लाइन में सीधा हो गया। लाइन हिल नहीं रही थी। सामने काउंटर पर कुछ बहस हो रही थी। मेरे अंदर कोई हँस रहा था। उस लड़की की आँखों में इतने करीब से देखा था कि एक जिस्मानी बेचैनी मुझे तंग करने लगी थी। वापस गर्दन मोेड़कर मैंने पूछा, ‘आप कहीं पढ़ाती हैं?’
मेरा सवाल अनसुना करते हुए वह बोली, ‘मैं सोच रही थी कि अपनी बेटी को साथ ले आती, वह होती है तो उससे कुछ बातचीत कर लेती हूँ। अब अकेले यहाँ खड़े-खड़े बोर होना पड़ेगा।’
बेटी! वह खुद ही तीसेक साल की होगी। देखकर कॉलेज की स्टूडेंट होने का भ्रम हो सकता है। उसकी बेटी कितनी बड़ी हो सकती है! सोचा कि कहूँ, ‘मैं हूँ न! आप शौक से बातचीत कीजिए।’ पर उस ने जिस अधिकार से बात कही थी, मुझसे कहते न बना। तभी अचानक बत्तियाँ गुल हो गईं और भीड़ में से हताशा भरे शोर का गुब्बार उठा। मैं भी बोल पड़ा, ‘लीजिए।’
लड़की ने मानो यह देखा ही नहीं। वह खिड़कियों और दीवारों पर टँगे बोर्ड्स पर लिखे सरकारी निर्देशों को जोर-जोर से पढ़ रही थी। फिर वह बोली, बच्चों के लिए अच्छी कविता बन सकती है।
‘मतलब?’
‘हर दर्जे का आरक्षण/ टिकट रद्दीकरण/ स्टेशन स्टेशन किराया/ पहला दर्जा/ वातानुकूलित दूसरा दर्जा…’
‘आपको यह कविता लगती है?’
‘है, कविता है, ढंग से पढ़ो तो।’
कोई शक नहीं कि लड़की का पेंच ढीला है। पर साथ ही उसकी बातें मुझे परेशान कर रही थीं। अचानक एहसास हुआ कि मैं भी उस जैसा ही कुछ कहना चाहता हूँ, पर समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहूँ। जैसी स्थितियाँ चारों ओर हैं, कौन होगा जिसके पेंच ढीले न हों!
लोग आपस में बातें कर रहे थे कि अब बिजली कब आएगी पता नहीं। खिड़कियों पर काम रुक गया था, पर भीड़ हल्की नहीं हुई थी। हमेशा की तरह मेरे ज़हन में शिकवों की लिस्ट बढ़ती जा रही थी। बिजली चली जाने पर ये लोग हाथ से क्यों नहीं काम कर सकते? मन ही मन झल्लाने लगा था। छोटे शहरों में कंप्यूटर के अलावा भी तो टिकट मिलते हैं। कहाँ तो कंप्यूटर से सहूलियत बढ़नी चाहिए, यहाँ उल्टा ही माजरा है। मुड़ कर उस लड़की को देखा, जहँ बाक़ी लोग बिजली गुल होने से परेशान थे, वह अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी।
तभी बिजली आ गई। लाइनों में लगे शरीर फिर से तन गए। उसने कह ही डाला, ‘चलिए, बिजली आ गई।’
वह चुप थी। मैंने मुड़कर पूछा, ‘आप किधर जाएँगी।’
वह बोली, ‘परसो जालंधर गई थी। वहाँ वो देशभक्त यादगार हॉल है न? वहाँ मीटिंग थी। लोग अपनी काम की बातें भूल चुके हैं। बस खाना-पीना कर के चले आए।’
मैंने फिर पूछा, ‘आप किधर जाएँगी।’
वह बोली, ‘कल सुबह वहाँ से लौटी थी। अब कल जाने की सोच रही हूँ।’
तंग आकर वह फिर सीधा हो गया। बगल वाली लाइन में झगड़ा हो रहा था। एक आदमी अपने पीछे खड़े लड़के को डाँट रहा था, ‘अबे चुप कर, क्या बकवास कर रहा है?’
मुझे लगा कि अपने पीछे खड़ी लड़की को भी ऐसे ही डाँटना चाहिए।
लाइन चींटी की स्पीड से बढ़ रही थी। मन ही मन कई बार रीहर्सल कर चुका था कि खिड़की पर क्या कहना है, ‘अंबाला से हावड़ा का टिकट होगा। कानपुर मं ब्रेक-जर्नी करनी है।’ कानपुर तक ऊँचाहार एक्सप्रेस में दीजिएगा और कानपुर से आगे चार तारीख का है, पूर्वा एक्सप्रेस में देखिएगा।’ डर था कि खिड़की पर बैठा क्लर्क फट से भगा देगा। दरअसल अब तक मेरी नज़र में आ गया था कि खिड़की पर मर्द नही, कोई औरत बैटी है। मन में खयाल आया कि ऐसा न हो कि वह भी पीछे खड़ी लड़की की तरह पागल न निकले।
‘जब ऊपर आस्मान खुला हो, फिर भी लोग यूँ चलते हैं जैसे वे बंद छत के नीचे खड़े हैं।’ पीछे से लड़की ने कहा।
अजीब बात है। किसी से कहें तो कोई यकीन नहीं करेगा कि यह औरत रेलवे बुकिंग ऑफिस के लाइन में खड़ी होकर एंगेल्स, जालंधर का देशभक्त यादगार हॉल, खुला आस्माँ, …, क्या-क्या कह रही है। दोस्त कहेंगे, ‘तू गप्पी का गप्पी ही रहा।’
सामने खड़े आदमी की ओर से बदबू का भभका सा आया। ओफ्, कैसे गंदे लोग हैं, पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं। लगता है कम से कम आधा घंटा और लगेगा।
अब याद नहीं कि टिकट मिला या नहीं, उन दिनों मैं अक्सर कानपुर में जन-विज्ञान आंदोलन से जुड़े एक संगठन की सभाओं के लिए जाता रहता था। हल्का सा याद है कि उस बार भी किसी तरह कानपुर और फिर कोलकाता बीमार हाल में पहुँचा था। पर यह मुझे याद है कि बुकिंग ऑफिस से घर लौटते ही मैंने अपना वायरलेस फ़ोन उठाया और दलजीत को फ़ोन लगाया। दलजीत को उस लड़की के बारे में बतलााया। दलजीत ने कहा कि वह उसे जानता है, उसका नाम कँवलजीत है और हर कोई उसे कँवल कह कर पुकारता है और फिर कहा कि शाम को मिल कर बात करते हैं।
शाम को जब उसने बतलाया कि वह हमारे एक परिचित डॉ० दीपक की पत्नी कँवल है, तो मैं चौंका। दीपक युवा डॉक्टर था, जिसके बारे में हमें शक था कि वह किसी अंडरग्राउंड संगठन के साथ जुड़ा हुआ था। वह अक्सर हमलोगों से मिलने आता और तरक्कीपसंद रिसाले वगैरह हमें बेच जाता। पता नहीं किसने उसे मेरे बारे में बतलाया होगा। अंजाने ही हम दोस्त बन चुके थे। मेरे मन में उसके प्रति स्नेह था। एक बार मैंने उसे शहर के एक सांस्कृतिक केंद्र में सेहत सुविधाओं के राजनैतिक पहलू पर व्याख्यान के लिए बुलाया था। बोलता बढ़िया था। लोगों ने रुचि के साथ उसे सुना और देर तक सवाल-जवाब चला।
फिर वह एक दिन अचानक ही गायब हो गया था। अफवाह थी कि पुलिस पकड़ कर ले गई। कुछ लोग यह भी कहते थे कि वह बस्तर गया हुआ है और जंगलों में काम कर रहा है। मुझे यह खबर नहीं थी कि उसकी शादी हो चुकी है।
दलजीत ने बतलाया कि दीपक और कँवल, दोनों के घर वाले पहले ही उनकी शादी से खुश नहीं थे। यहाँ तक कि उन्हें बदहाली में गुजारा करना पड़ रहा था। परिवार के लोग उनकी बदहाली के प्रति उदासीन थे। हालात बिगड़ने से
दोनों के बीच मन-मुटव्वल बढ़ चला था। दीपक के गायब होने के कुछ ही दिनों बाद उसे बेटी पैदा हुई। तब तक वह काफी बीमार पड़ चुकी थी। उसके अपने घर वाले पूछने तक न आए। एक दिन दीपक का भाई कुछ और लोगों के साथ आया और बच्ची को ज़बरन उठा ले गया। असल में दोस्तों को पता था कि उनकी शादी हुई है, पर रजिस्ट्री हुई या नहीं, यह सब किसी को पता न था। हो सकता है कि उन्होंने रजिस्ट्री करवाई ही न हो। नहीं तो तीन गवाह तो होते। आस-पड़ोस के लोगों ने देखा और बिना रोके यह सब कुछ होने दिया। मुझे इन बातों का कुछ पता न था। कँवल को अक्सर दौरे पड़ते हैं और वह यात्राओं पर निकल पड़ती है। फिर अपने आप ही एक दो दिन में वापस लौट आती है। उसकी एक सहेली उसका खयाल रखती है। दोस्त-बाग़ उसे खाने पीने के लिए पैसे देते हैं। बीच-बीच में वह एकाध पत्रिकाओं के लिए काम करती है, जिससे उसे कुछ पैसे मिल जाते हैं।
दलजीत की बातें सुनकर मैं थोड़ी देर परेशान रहा, घर लौटकर भी देर तक कँवल के बारे में सोचता रहा। जिन बातों पर पहले गौर नहीं किया था, वे सामने आने लगीं। उस दिन बुकिंग ऑफिस में उसने कैसे कपड़े पहने थे, उसके कटे हुए छोटे बाल जरा से घुँघराले थे, जब वह बात करती थी, तो होंठ जरा से एक ओर को हो जाते थे। देर तक मैं सोचता रहा। पर दिन गुजरते हैं तो मोह भी जैसे पिघल सा जाता है और धीरे-धीरे दूसरे रूटीन काम भरी ज़िंदगी ऐसे हावी हो जाती है कि याद ही नहीं रहता कि कभी किसी के बारे में सोचते हुए बेचैन रात गुजारी थी। धीरे-धीरे उसे भूल ही गया। कोई दो महीनों बाद मुझे पास के एक नर्सरी स्कूल से उनके वार्षिक उत्सव में मुख्य अतिथि होने के लिए न्यौता आया। स्कूल हमारी एक मित्र चलाती थीं, और अक्सर हम उनकी मदद किया करते थे। इस बार भी मैं
वहाँ पहुँचा तो बच्चों को पुरस्कार बाँटने जैसे रस्मी ताम-झाम के बीच अध्यापकों के साथ बातचीत करते हुए अचानक उसे देखा। वह हाल में ही वहाँ पढ़ाने लगी थी। मेरी मित्र ने परिचय करवाया तो मैंने कहा कि मैं उससे पहले मिला हूँ। मित्र ने आँखों ही आँखों में कुछ कहने की कोशिश की और मैं समझ गया कि उसे भी कँवल के अतीत के बारे में पता है। कँवल को याद नहीं था कि वह मुझसे कहाँ मिली है। वह परेशान सी हुई, जैसे मेरा उससे पहले मिलना उसे पसंद न हो। शायद उसे घबराहट थी कि हमारी पिछली मुलाकात के दौरान वह मानसिक रूप से स्वस्थ न थी। मैंने कुछ देर बातें करने के बाद उसे कहा कि मैं दीपक को जानता हूँ। वह मुझसे परे कहीं देख रही थी। पल में लगा जैसे वह जिस्मानी तौर पर वहाँ मौजूद थी, पर उसकी रूह कायनात के किसी और छोर पर पहुँच चुकी थी। कुछ कहे बिना वह मुड़ी और दो कदम एक ओर चल कर वापस मेरी ओर मुड़ी। दो पल मेरी ओर ताकती रही और फिर उसी तरह वापस मुड़ कर एक ओर चल दी। मैं तक़रीबन दौड़ता हुआ उस तक गया और मैंने कहा, ‘मैं कभी तुमसे मिलने आऊँगा।’
उसने सुना या नहीं, मुझे अंदाज़ा नहीं हुआ। पर मैंने तय कर लिया कि जल्दी ही उससे मिलूँगा। उसका ठौर पता लगाना मुश्किल नहीं था। स्कूल के खातों में उसका पता लिखा था। मैंने अपनी मित्र से पूछ कर जान लिया। फिर एक शनिवार ढलती दोपहर उसके यहाँ पहुँचा। दो कमरों के मकान में वह और उसकी सहेली साथ रहते थे। मुझे देखकर उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं उभरी। लगा जैसे उसे पता था कि मैं आ ही टपकूँगा। उसने चाय बनाई। रस्मी बातों के बाद मैंने नर्म आवाज़ में उसे कहा, ‘दीपक कहाँ है इन दिनों, कोई खबर है क्या?’
वह चुप रही। मैंने कहा, ‘पहली बार तुमसे रेलवे बुकिंग ऑफिस में मिला था। जब पता चला कि तुम दीपक की साथी थी, तब से तुमसे मिल कर बात करने की सोचता रहा हूँ।’
उसका झुका सिर अचानक उठा और तीखी आवाज़ में उसने कहा, ‘क्यों! दीपक की खबर मेरे पास मिलेगी, यह आपने कैसे सोच लिया? मेरे साथ उसका कोई रिश्ता नहीं है। मुझे क्या पता, वह कहाँ है!’
मुझे डर लग रहा था कि उसे फिर से दौरा न पड़ जाए। मैंने बहुत ही नर्माहट के साथ पूछा, ‘कँवल, जब से मैंने तुम्हें देखा है, मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम ढंग से अपना इलाज करवाओ। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।’
उसने सादी आवाज़ में कहा, ‘मेरा इलाज चल रहा है। डॉक्टर की अगली डेट सोमवार शाम की है। आ जाइएगा।’
अचानक वह उठी और बोली, ‘मैं बहुत थक गई हूँ। आराम करना चाहती हूँ।’
मैं उठा और सोमवार शाम के पहले आने का वादा कर निकल पड़ा।
उसके बाद से नियमित इलाज के लिए उसके साथ मैं जाता रहा। धीरे-धीरे वह मुझसे खुल कर बातें करने लगी। हम दोनों काफी वक्त साथ गुजारते। मैंने जाना कि वह भरपूर जीना चाहती है। वह हँसती तो धरती पर सब कुछ किसी सिंफनी में गूँज रहा होता। अपने अतीत पर वह कम ही बात करती, पर अक्सर किसी बच्चे को देखती तो वह उदास हो जाती। मुझे पता था कि दीपक के घर वाले उसे बच्चे के करीब नहीं आने देंगे। उसने भी यह स्वीकार लिया था। हालाँकि वह कानूनी लड़ाई लड़ सकती थी, पर उसे डर था कि अगर वह बच्चे को साथ रख भी ले और कभी उसे दौरा पड़ जाए तो बात बिगड़ जाएगी। उसके दुखों में शामिल होता हुआ, मैं उसे अपने सपनों में शामिल करता चला था। मैं उससे पाँच-छ: साल ही बड़ा था और मुझे लगने लगा कि हम एक-दूसरे का साथ दें तो दोनों की ज़िंदगी में मौजूद ख़ला भर जाएगी। हम दोनों अपने-अपने तज़ुर्बों से लदे थे। इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं थी। इस सबके बीच हम और दीगर दोस्तों के साथ गोष्ठियों वगैरह में जाते। शहर में तरक्कीपसंद हल्कों में हम दोनों साथ शामिल थे। कभी अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मसले पर, तो कभी और दीगर इलाकों में संघी सियासत के खिलाफ जद्दोजहद में पोस्टर और बैनर उठाए हम साथ दिखते। कँवल मेें इंकलाबी जुनून मुझसे ज्यादा ही था। दोस्तों ने भी हमें जोड़े की तरह देखना शुरू कर दिया था। कभी-कभी हम रात साथ गुजारते। कभी वक्त निकालकर किसी पार्क या लेक घूम आते। सपने, सपने, सपने! सपनों सी ज़िंदगी!
आखिर वह दिन आ ही गया, जब मैं हड़बड़ाते हुए कह बैठा, ‘कँवल, हमें शादी कर लेनी चाहिए। तुम क्या सोचती हो?’ मुझे अंदाजा न था कि यह कितनी बड़ी ग़लती थी। अब याद नहीं कि उस दिन उसने मुझसे क्या-क्या कहा। उसके अंदर बैठा हुआ ग़मों का दरिया बह निकला। चीखते हुए उसने पूछा, ‘क्या हो जाएगा शादी कर लेने पर?’
मैंने कुछ कहने की कोशिश की, पर जल्दी ही मुझे समझ में आ गया कि मैं भारी ग़ल्ती कर बैठा हूँ। वह रो रही थी। हिचकियों के बीच वह बोली, ‘शादी मैंने की थी। कहाँ है वह, जिससे मैंने शादी की थी। मेरी बच्ची मेरे पास नहीं है। क्या हो जाएगा शादी कर लेने पर? बोलो!’
मैंने मान लिया था कि मैं उसे अच्छी तरह जान चुका हूँ, पर उसके अंदर कोई वीरान खंडहर मौजूद था, जिसकी जानकारी मुझे पूरी तरह से नहीं थी। उसने मुझसे चले जाने को कहा। मन मसोस कर मैं निकला और एक अँधेरी
कायनात को ढोता अपने फ्लैट पर लौटा। याद करने की कोशिश करता हूँ कि उस दिन मौसम कैसा था तो बस काले बादल याद आते हैं।
इस घटना के बाद जब भी मैंने उससे मिलने की कोशिश की, उसने सहजता से थोड़ा वक्त गुजारकर मुझसे विदा ली। अब पहले जैसा प्यार उसमें न दिखता। मैंने अपने ढंग से उससे माफी माँग ली, पर वह मेरी बातों को अनसुना कर किसी काम की बात पर आ जाती।
मैं महीनों तड़पता रहा। वक्त की अपनी रफ्तार होती है। पड़ाव दर पड़ाव हम चलते रहते हैं, लौट कर देखते हैं तो अचरज होता है कि किन गलियों में से गुजर आए। कुछ तो मैं जिस संस्थान में काम कर रहा था, वहाँ आ रही दिक्कतों से और कुछ कँवल से दूर हो पाने की ज़रूरत से मैंने दक्षिण के एक शहर में नौकरी ले ली। पहले एक दो साल उसने मेरे जन्मदिन पर मुझे फ़ोन किया, फिर धीरे-धीरे हमारा संपर्क बिल्कुल छूट गया। नए शहर में हमउम्र लड़कियों से दोस्ती हुई, दो बार लंबा रिश्ता भी चला, पर आखिर में मैं अकेला ही रह गया। कुछ हो चुका था, कुछ दरवाजे बंद हो चुके थे, एक खालीपन था जिसमें औरों के लिए जगह न थी।
कई सालों बाद एक दिन अखबार में पढ़ा कि दीपक और उसके कुछ साथियों को महाराष्ट्र के जंगलों में ग्रेहाउंड सिपाहियों ने मार गिराया है। टीवी के अलग-अलग चैनलों पर उनकी लाशों पर पैर रखे सिपाहियों की तस्वीरें दिखलाई जा रही थी। साल में दो-चार बार ऐसी खबरें पढ़ने-सुनने की आदत हो गई है। और खबरों की तरह इन्हें भी पढ़कर हम आगे बढ़ जाते हैं। पर इस बार मैं बार-बार इस खबर को पढ़ रहा था। दो दिनों तक काफी सोचने के बाद मैंने कँवल को फ़ोन किया। उसका हाल-चाल पूछा। दीपक पर कोई बात नहीं की। अचानक ही मैं कह बैठा, ‘मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ, कँवल!’ दूसरी ओर से कोई जवाब नहीं आया। ‘मैं आ रहा हूँ, अभी टिकट बुक करता हूँ।’
और उसी शाम मैं उसके पास था। जल्दी में महँगा टिकट मिला। यात्रा के दौरान एक पल भी चैन का नहीं था। सोचता रहा कि वह कैसी होगी, उस पर क्या गुजर रही होगी। पहुँच कर कैसे पेश आऊँगा, कैसे उसके साथ बात करूँगा। सीधी फ्लाइट लेकर एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर वहाँ पहुँचा, जहाँ वह पहले रहती थी, तो पता चला कि वह दो साल पहले किसी और मुहल्ले शिफ्ट हो गई थी। पता ढूँढकर वहाँ पहुँचा। वह मिली तो मन हुआ उसे गले लगा लूँ और फिर छोड़ूँ नहीं। पर ऐसा कुछ नहीं किया। उसने चाय पिलाई। थोड़ी देर बातें कर एहसास हुआ कि उसके मन में भी मेरे लिए प्यार है, मैंने उसे कहा, ‘तुम मेरे साथ चलो।’
उसने कहा, ‘आऊँगी। तुम्हारे यहाँ आऊँगी। पर मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। मुझे यहाँ बहुत सारा काम करना है।’
एक रात रहकर मैं लौट आया था. फिर कुछ दिनों के बाद वह मेरे यहाँ पहुँची। तब से आज तक यही सिलसिला है। साल में दो-तीन बार वह मेरे यहाँ आती है और ऐसे ही मैं उसके यहाँ जाता हूँ। साल गुजरते गए और हम बूढ़े हो गए। और अगले साल रिटायर कर रहा हूँ। कँवल ने कई साल पहले नर्सरी स्कूल में पढ़ाना छोड़ दिया था और वह पूरा
वक्त वकीलों की एक संस्था के साथ काम करने में लग गई थी। ग़रीब मुद्दइयों और राजनैतिक कैदियों के लिए उसकी संस्था मुफ्त मदद करती। आज भी वह उसी में काम करती है। अब हर बात की आदत हो गई है। जब हम साथ नहीं होते तो सही वक्त पर मैं उसे या वह मुझे फ़ोन करती है और हम अपनी बातें साझा करते हैं। हमारी ज़िंदगी में आम लोगों की तरह रोज़ाना की खाने-पीने जैसी बातों के लिए जगह कम है। पर हम भी अपनी छोटी-बड़ी हर तरह की गुफ्तगू में वक्त गुजार लेते हैं। जब साथ होते हैं तो साथ खाना बनाते हुए या टीवी वगैरह देखते हुए हम छोटी-मोटी नोंकझोंक कर लेते हैं। साथ खुशियाँ और ग़म बाँटते हैं। बेहतर दुनिया के लिए लड़ते रहने के सपने आज भी हैं, और साथ कई जुलूसों और रैलियों में शामिल भी होते रहते हैं। अक्सर कहीं कोई व्याख्यान या ऐसी ही किसी वजह से मेरी या उसकी तस्वीर स्थानीय अखबारों में आ जाती है। रिपोर्टिंग सही हुई या नहीं, इस पर बातें करते वक्त गुजर जाता है। कभी-कभी मैं उसे पहली मुलाकात की बात कह कर चिढ़ाने की कोशिश करता हूँ, वह मुस्कराती है। उसे याद ही नहीं है, कि वह कैसे विक्षिप्त हाल से गुजरी थी। या वह याद रखना नहीं चाहती है।
लंबे अरसे बाद आज रात वह अचानक उठ बैठी है। मेरी आँख खुल गई है। उसकी आँखों में आँसू देख मैं उसे बाँहों में लेते हुए कहना चाहता हूँ कि अब बहुत हो गया, इतने साल बीत गए, अब तो हम पुरानी बातें भूल जाएँ। मैं कुछ कहता नहीं हूँ। वह अपना फ़ोन मेरी ओर बढ़ाती है। संकेत से मुझे पढ़ने को कहती है। किसी की ईमेल है। पढ़ता हूँ –
‘प्रिय मम्मी, इतने साल बाद आपसे संपर्क कर रही हूँ। आपकी तस्वीर अखबार में आई है और मेरे दादू ने दिखाकर कहा कि यह तेरी माँ है। उन्हें बहुत अफसोस है कि इतने सालों तक उन्होंने मुझे तुमसे अलग रखा। मैं तुमसे जल्द
ही मिलूँगी। आप अपने कॉंटैक्ट डिटेल्स भेज दें तो सुविधा रहेगी।’ आम सादी सी ईमेल, पर क्या पता कि भेजने वाले पर भी टाइप करते हुए क्या गुजरी होगी। हम कैसी दुनिया में आ गए हैं, कैसे हर किसी ने सादी बातों में खुद को छिपाना सीख लिया है।
मेल पढ़ने के बाद भी फ़ोन से मेरी नज़रें देर तक हटती नहीं हैं। इस अनोखे यंत्र में इतनी ताकत है। इसमें वह जादू है जो काले बादलों को राग मल्हार बना देता है। इसे देखकर एकबारगी लगता तो है कि कोई ईश्वर कहीं बैठा हर किसी के दुख-सुख का हिसाब लगाता होगा। काश कि कोई ईश्वर होता जिसको हम शुक्रिया कह पाते। हम दोनों एक साथ लंबी साँस लेते हैं। मेरी आँखें भी गीली हैं। मेरे और उसके आँसू आपस में घुल रहे हैं।
टॉफी
उन दिनों जहाँ हम रहते थे, अब वहाँ एक बहुमंजिला इमारत है। बांग्ला में उस तरह के इलाके को ‘बस्ती’ कहते हैं। बस्ती का मतलब झुग्गी झोंपड़ियों वाला इलाका सा होता है, हालांकि हमारी उस बस्ती में पक्के मकान थे। हमारे घर में दो कमरे थे। एक कमरे में एक कोने में रसोई इंतजाम था। कोई दस परिवारों के लिए चार पाखाने थे। दो पानी के नल, जिनमें सुबह शाम पानी दो बार आता और पानी के लिए झगड़ा होता।
पिताजी सुबह सुबह उठते; मुझे भी उठा देते। जल्दी जल्दी नित्य-कर्म करने के बाद दोनों मिलकर नाश्ता तैयार करते। पिताजी स्टोव जलाते ओर मैं टीन से आटा थाली में डालता, जब तक चाय का पानी गर्म होता, पिताजी जल्दी से आटा गूँथ लेते। मेरे लिए दूध गर्म करके, उसी में से एक दो चम्मच अपनी चाय में डालकर, फिर चाय पीते-पीते मेरे लिए परांठे सेंकते। खुद कभी खाते, कभी नहीं । फिर पगड़ी जमाने में आधा घंटा लगा देते।
अधिकतर सुबहों में एक बूढ़ा आदमी एकतारा बजाता हुआ आता और दर दर जाकर गाता, ‘हरि की मिश्री घोल मनवा, राम नाम नित बोल।’ पिताजी उसे देखते ही डाँटकर कहते, “कभी कुछ काम धाम भी कर, रोज आ जाता है।” फिर उसे एक परांठा दे देते। मुझे ऐसा दिन याद नहीं आता, जब वह आदमी खाली हाथ लौटा हो।
स्कूल अधिक दूर न था। हम पैदल जाते। अकेले जाने की कल्पना भी मैं नहीं कर पाता। जाने किसने मुझे कह दिया था कि स्कूल के सामने से जो सड़क कोयला डीपो की ओर जाती थी, उसकी दूसरी छोर पर बाघ और चीते मिलते थे। पिताजी के साथ चलते-चलते कई बार मैं सोचता कि अगर कोई शेर आ ही गया तो वे उसे मार डालेंगे।
स्कूल पहुंचते ही मैं अपनी कक्षा के बच्चों के साथ घुलमिल जाता और पिताजी अपने साथी शिक्षकों के साथ। उनको देखते ही बाकी शिक्षक कहते, “सरदारजी नमस्कार !” यह मुझे बाद में पता चला था कि उनका नाम गुरप्रीत सिंह भले था, लोग उन्हें सरदार जी ही कहते थे, क्योंकि उन दिनों सभी सिखों को सरदारजी ही कहते थे।
कलकत्ता का एक साधारण म्युनिसिपालिटी स्कूल। बहुत ही ग़रीब और साधारण, हिंदी माध्यम। टिफिन के वक्त बच्चों को दूध, ब्रेड और कभी कभी फल या मिठाई बँटती। यह सरकारी राहत थी। पिताजी ने कह रखा था कि मैं दूध कभी न पिऊँ और केला सड़ा हो तो न खाऊँ। उनकी इच्छा के खिलाफ दूध पीने या सड़ा केला खाने की हिम्मत मैंने कभी नहीं की।
मुझे यह याद नहीं कि वे क्या पढ़ाते थे। शायद उस स्कूल का हर टीचर हर विषय पढ़ाता था। मेरे प्रति सभी शिक्षकों की अलग कृपा दृष्टि थी। यह केवल इसलिए नहीं कि मेरे पिता उनके साथी थे, बल्कि इसलिए भी कि माँ का न होना उनको मेरे जीवन की बहुत बड़ी दुर्घटना लगती थी।
माँ की हल्की-सी याद मन में है। वह कब मेरे जीवन से विलुप्त हो गई, यह मुझे याद नहीं। शायद मुझे कभी बतलाया ही न गया हो कि माँ का चला जाना क्या होता है और मैं उसके न होने का आदी हो गया था। अब मैं जानता हूँ कि मुझे जन्म देकर सत्रह साल की उम्र में ही माँ गुजर गई थी। कभी कभी अचानक ही माँ का चेहरा मुझे दिख जाता है, पर शायद वह उसके एक पीले पड़ गए फोटेग्राफ को देखने की वजह से होगा, जो हमारे सबसे पुराने एलबम के पहले पन्ने पर जड़ा है। फोटोग्राफ में वह इतनी सुंदर नहीं है, जितनी कल्पना में दिखती है। उसकी शक्ल से भी अधिक उसके स्पर्श की एक अनुभूति मन और शरीर की अनजान प्रक्रियाओं में अचानक ही कभी उभरती है और मैं देर तक सोचता रह जाता हूँ।
स्कूल शायद सुबह सात बजे से दिन बारह बजे तक चलता। भरी दोपहर लौटकर पिताजी फिर एक बार मुझे नहाकर – जाड़ों में हाथ-पैर धुलाकर – खाना बनाते। बचपन के उन दिनों में खाए खाने का स्वाद अभी तक मेरी जीभ पर है। शायद पिताजी पंजाब से लाए देशी घी का बहुत उपयोग किया करते। साल में एक महीना – आमतौर से गर्मियों में – हम पंजाब जाते। वहां दादी मां देशी घी का पीपा तैयार रखतीं। साल भर में एक दस किलो का पीपा हम दोनों मिलकर ख़त्म करते।
दोपहर में आराम करने के बाद पिताजी ट्यूशन करने निकलते। आमतौर से मैं घर पर ही खेलता रहता या उनकी दी हुई हिदायत के अनुसार पढ़ता-लिखता। कभी-कभार उनके साथ भी चल पड़ता। अब सोचता हूँ तो लगता है कि कई बच्चों को वे मुफ्त पढ़ाते, पर कुछेक जगहों पर उन्हें दस रुपये के आस पास महीने में मिलता। उनके साथ चलने पर स्टेशन तक मुझे ले जाते और रेलगाड़ी के बारे में समझाते। अवाक् नेत्रों से मैं धुंआ छोड़ते उन दानवों को देखता और पिताजी भाप का इंजन और पिस्टन वगैरह के बारे में मुझे बतलाते।
कभी कभी कुछ बच्चे घर आकर उनसे पढ़ते। शाम होते ही वे चले जाते। शाम को पिताजी अक्सर दारू पी लेते और ज़रा ज़रा सी ग़लती पर मुझे पीटते। कभी-कभी पड़ोसी आकर मुझे छीन ले जाते और बाद में उनके पास सुला जाते। बड़ा आश्चर्य होता है कि उनके पीटने के बावजूद मुझे उन्हीं के पास लेटने में सबसे अधिक सुरक्षा महसूस होती। दूसरे दिनों वे देर रात तक बैठ किताबें पढ़ते रहते।
जिस दिन की याद मुझे सबसे अधिक आती है, उस दिन भी उन्होंने दारू पी थी और खूब शोर मचाया था। उस दिन दोपहर को राजकिशोर नाम का एक लड़का घर पर पढ़ने आया था। ग़र्मी के दिन थे। राजकिशोर को सवाल करवाने में पिताजी परेशान हो रहे थे। अचानक बिजली चली गई। कमरे में एक पंखा था। डी.सी.करेंट से चलता। पंखा बंद हो जाने से उमस बढ़ गई और पिता जी बार-बार गर्दन हिलाने लगे। एक बार उन्होंने कहा, “बहुत गर्मी है….पंखा भी बंद हो गया।” उन्होंने पगड़ी भी उतारकर रख दी थी।
राजकिशोर मुस्करा रहा था। पिताजी झल्ला उठे, “हँसने की क्या बात है रे ?”
वह बिना घबराए बोला, “हमारे घर तो पंखा है ही नहीं, सरजी !”
पिताजी थोड़ी देर उसकी ओर देखते रहे ओर बोले, “जाओ, आज जाओ, कल आ जाना।” उसके चले जाने के बाद भी पिताजी देर तक वहीं बैठे रहे।
उस शाम वे मुझे साथ लेकर किसी के घर गए। ट्राम पर चढ़कर थोड़ी दूर। ट्राम का किराया उन दिनों पाँच पैसे था। कुछ सालों बाद सरकार ने एक पैसा किराया और बढ़ाया तो शहर भर में दंगे हुए थे। जिस घर में हम पहुंचे, वहां भी एक सिख परिवार रहता था। हट्ठे-कट्ठे कद के एक सज्जन शानदार पगड़ी पहने एक बड़ी कुर्सी पर बैठे थे। पिता जी ने पहुंचते ही कहा, “सत् श्री अकाल !”
मुझे ”सत् श्री अकाल” कहना सिखाया गया था, पर मैं भूल गया था और हाथ जोड़ते ही मुँह से निकलता, “नमस्कार”। मुझे एक चाकलेट टॉफी दी गई और फिर मेरा होना जैसे वे लोग भूल ही गए। पता नहीं उस घर में बच्चे थे या नहीं। मैं इधर उधर रखा सामान, दीवार पर लटका गुरुनानक की तस्वीर वाला कैलेंडर वगैरह देखता और रुक-रुक कर पिताजी की ओर देखता। कैलेंडर के पन्ने पंखे की हवा में फड़फड़ाते हुए बिखरने की कोशिश करते और कोई अदृश्य हाथ उन्हें वापस संजोता रहता।
एक बार उन सज्जन ने – उनका नाम शायद हरभजन सिंह था – कहा, “गुरप्रीत, तू अकेला सरदार होगा सारे बंगाल में, जो इस तरह प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाकर जी रहा है। यार, कुछ और कर ले। हमारी टैक्सी चला ले। कुछ कमाके पिंड लै जा।”
तभी मैंने पिताजी की ओर देखा। दाढ़ी से ढके गालों के ऊपर उनकी आँखें फीकी होती जा रही थीं। उन्होंने शायद कुछ कहने की कोशिश की, पर अब याद नहीं आता।
फिर हरभजन बोले, “यार, आजकल मिल्ट्री में भर्ती हो रही है। लड़के को गाँव में रख और भर्ती हो जा। जंग कुछ महीनों में ख़त्म हो जाएगी – तेरी अच्छी नौकरी रह जाएगी।” पिताजी उन दिनों सत्ताईस साल के होंगे। मैंने वर्दी पहने सिख सैनिक देखे थे। मेरे मन में पिताजी को वर्दी पहने देखने की एक तीव्र इच्छा होने लगी।
वह चीन की लड़ाई थी। 1962 की। पिताजी अचानक बोले, “ मिल्ट्री का सवाल ही नहीं उठता, दुनिया में कोई मिल्ट्री नहीं होनी चाहिए।”
हालांकि यह बड़ी अज़ीब बात थी, पर मुझे उन पर इतना भरोसा था कि अचानक लगने लगा कि वर्दी पहनने पर आदमी कोयला डीपो के पास रहने वाला बाघ बन जाता है।
हरभजन बोले – “तेरा तो किताबों ने सिर खा लिया है। हर देश की अपनी सेना होनी जरूरी है। नहीं तो चीन आज हमला करके यहां तक पहुंच जाए।”
पिताजी बोले, “आज ही मेरे पास एक लड़का आया था, इस बड़े शहर में भी उनके घर बिजली नहीं है। उसे क्या फ़र्क पड़ेगा कि कोई बंगाल आता है या हुनान? इतने लोगों की मौत किसी के भी हित में नहीं है।”
हरभजन उनकी ओर देखते रह जाए। फिर अचानक बोले, “तेरा इलाज़ हमें पता है। अब कई साल हो गए गुरप्रीत। तू अब फिर से घर बसा। बेटे को भी सही परवरिश मिलेगी।”
पिता जी सिर झुकाए बैठे रहे। कुछ नहीं बोले। थोड़ी देर हरभजन बोलते रहे। फिर औपचारिक बातें कहकर पिताजी उठ पड़े और हम वापस आ गए।
उस साल मुहल्ले में किसी दे दीवाली न मनाई थी। ब्लैक-आउट होता तो मैं पिताजी के साथ चिपका बैठा रहता। उनकी तड़प का अहसास मुझे अभी तक होता है। उन दिनों शहर की रातें सुनसान होती थीं। ब्लैक-आउट से वे और भी भयावह लगतीं ।
हरभजन के घर से लौटकर उस दिन उन्होंने फिर दारू पी। पर उस दिन मेरी पिटाई नहीं हुई। पास बुलाकर बड़े प्यार से कहा, “क्यों रे, तुझे वो टॉफी अच्छी लगी थी ?”
मैं कहना चाहता था कि वह टॉफी बहुत अच्छी लगी थी, पर उनकी शक्ल की ओर देखते ही होंठों से निकला था, “नहीं, मैंने वह टाफी खाई ही नहीं। बाहर फेंक दी।”
उनके चेहरे पर तब मुस्कान आ गई थी। इसके बाद वे चीखने लगे थे।
आज मैं जहां रहता हूं वहां हमारा अपना बाथरूम है। दो कमरों में अलग-अलग पंखे लगे हैं। पिताजी की बहुत बाद की तस्वीर फ्रेम में बँधी एक दीवार पर लगी है। दूरदर्शन पर बोस्निया में चल रही लड़ाई की खबरें सुन रहा हूँ। मेरी पत्नी, जिसका नाम भी गुरप्रीत है – रसोई में पानी भरते हुए मुझसे कह रही है – “इस बार कूलर लगवा ही लो, गर्मी बहुत पड़ रही है।”
कूलर लगवा ही चाहिए, सोचते हुए गर्दन मोड़ते ही चौंक उठता हूँ। दीवार के सामने पिताजी खड़े मुस्करा रहे हैँ। प्यार से पूछते हैं, “तूने वो टॉफी खाई थी न ?”
चूँकि कविता नहीं छपी . . .
धुरबेजी को मैं पिछले दो साल से जानता हँ। मेरे यहाँ आने के पहले, बहुत पहले वे एक अच्छे शिक्षक माने जाते थे। जिस गाँव में वे पढ़ाते हैं, उसके आस-पास चारों ओर लोग उनके बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें करते। कोई कहता – ऐसा शिक्षक पूरे इंदौर में नहीं है, तो कोई उनको उनके विषय के अलावा दवा दारू, मन्त्र तन्त्र,ऐसी हर चीज में पारंगत बतलाता। पर मेरे यहाँ पहुँचने तक उनकी असाधारणता खत्म हो चुकी थी। उनके स्कूल के प्रधान अध्यापक एक बच्चे के पालक के हाथों पिटकर अब वहाँ नहीं आ रहे थे; इन्क्वारी चल रही थी। धुरबेजी धार्मिक कार्यों से निकल भी चुके थे और अब एक निर्लिप्त-सी मुस्कान उनके चेहरे पर दिखती थी। पता नहीं इस मुस्कान का क्या मतलब था – सब देख लिया या अब क्या बाकी रहा या ऐसा ही कुछ या शायद वह एक निरीह मुस्कान मात्र थी, जिसमें मेरे जैसे लोग यूँ ही कुछ पढ़ने की कोशिश करते। जब भी मुझे वह मिलते, उनकी यह मुस्कान धीरे-धीरे शब्दों में बदल जाती और अनगिनत बौद्धिक सवालों से मुझे वह परेशान कर देते, पर मुझे बड़ी खुशी होती कि धुरबेजी मेरे साथ इतनी बातचीत करते हैं।
खैर, यही धुरबेजी उस दिन मेरे साथ खिरकिया से हरदा लौट रहे थे। खिरकिया स्टेशन पर हम मिले। शाम हो चुकी थी। काशी एक्सप्रेस आधे घंटे लेट थी और मैं एक बेंच पर बैठा ग्लूकोज़ बिस्किट खा रहा था। धुरबेजी आकर बगल में बैठे तो मैंने ध्यान नहीं दिया। रोशनी भी जरा कम थी और मैं थका हुआ अपने ख्यालों में खोया हुआ था। अचानक उन्होंने हँसकर कहा, “अरे, आप तो बिस्कुट क्या खाने लगे, सारी दुनिया को भूल बैठे।”
मैंने चौककर उन्हें देखा और माफी माँगते हुए हँस पड़ा।
फिर उनके साथ हमेशा की तरह कई गंभीर मसलों पर बातचीत शुरू हूई। वैसे तो हमारी बातचीत हमेशा शिक्षा से शुरू होती थी, पर जल्दी ही वह देश-विदेश की राजनैतिक समस्याओं पर पहुँच जाती। धुरबेजी को देखकर, खासकर इन दिनों, बिल्कुल नहीं लगता कि वे ऐसे विषयों में रुचि भी रखते होंगे, पर एक बार शुरु हो जाने पर तो बस लगे ही रहते हैं। उस दिन उन्होंने मुझसे चीन पर कई सवाल पूछे। उनके सवालों में कोई पूर्वाग्रह नहीं था, स्वाभाविक उत्सुकता से ही वे पूछ रहे थे और मैं जवाब देने की पूरी पूरी कोशिश करता रहा। पर जब चीन से हटकर उन्होंने अचानक ही एक ऐसे संगठन के बारे में बात शुरू की, जिसे मैं और मेरे साथी कट्टर साम्प्रदायिक संगठन मानते थे, और बतलाया कि वे लोग अच्छा काम रहे हैं, मैं चौंका। अजीब बात थी कि इस एक संगठन को वे अच्छा बतला रहे थे और कह रहे थे कि बाकी सभी राजनैतिक दल साम्प्रदायिकता को बढ़ा रहे हैं। मैं काफी देर तक उनसे बहस करता रहा, पर अन्त तक मैं सफल न हो पाया। तभी गाड़ी आ गयी।
जब गाड़ी खड़ी हो गयी तो एक अनारक्षित डिब्बे में हम दोनों चढ़ गए। काशी एक्सप्रेस में इस रूट पर बैठने की जगह आमतौर से मिल जाती है। जब हम बैठ गए तो उन्होंने एक कहानी सुनायीः
“अभी हमारे गाँव में क्या हुआ कि एक टीचर को गाँव के एक पटेल ने दारू पीकर पीट दिया। क्यों? इसलिए कि कामता पटेल ने स्कूल की जमीन से बाहर काँटे गड़वाए थे। तो उस टीचर ने कहा कि भई, तुम इस तरह अपनी जमीन से बाहर काँटे मत गाड़ो। कुछ कहासुनी हुई और एक दिन रात में उसने शराब पी ली और शराब के नशे में आकर टीचर के घर में घुसकर उसको पीट दिया। वह टीचर गया थाने में रीपेर्ट लिखवाने और वहाँ थानेदार जो था, वह पहले से ही पटेल के साथ मिला हुआ था। तो उसने उसको गालियाँ-वालियाँ निकालीं और बोला कि तुम्हारे नाम पर दफा यह दफा वह, दफा तीन सौ छियत्तर और पता नहीं क्या-क्या के नालिश दर्ज हैं कि तुमने पटेल की नौकरानी के साथ छेड़खानी की… और फिर वह थानेदार उसको दबाने लगा और पैसे माँगने लगा। तो यह टीचर काफी दिन बड़ा परेशान रहा। हम लोग सब एक ही गाँव में है। हम लोगों को असलियत मालूम है कि जिसको वह थानेदार उस पटेल की नौकरानी कह रहा हा, वह दरअसल उसकी नौकरानी नहीं, रखैल है, मतलब वह उसको रखे हुए था। तो रखैल को समझाकर उसने पुरानी नालिश लिखा दी थी। तो हम लोग तीन शिक्षक हैं वहाँ मिडिल स्कूल में – पर हमारा स्कूल जो है, वह पाँच गाँवों को मिलाकर एक केन्द्र है, मतलब डाक वगैरह इकट्ठी की जाती है – तो बीच बीच में पाँचों गाँवों की मीटिंग वहाँ होती है। तो पिछली बार जब मीटिंग हुई तो हमने सभी शिक्षकों को बतलाया कि यह ग़लत बात है और इस पटेल को ऐसा नहीं करना चाहिए। तो सभी शिक्षकों ने मिलकर तय किया कि इसका विरोध करेंगे और एक दिन सामूहिक अवकाश लेंगे। फिर इसके बारे में हम लोगों ने एक ज्ञापन तैयार किया और विकास खंड शिक्षा अधिकारी के पास भेज दिया। उन्होंने वहाँ से इन्क्वारी शुरू करवा दी (यहाँ धुरबेजी ने दोनों हाथ उठाकर ताली बजायी)। अब जब थानेदार ने देखा कि यह तो स्ट्राइक-वाइक का मामला है, तो बड़ा परेशान हो गया। अब वह उस टीचर पर दबाब डाल रहा है कि छोड़ो तुम समझौता कर लो। पर हम लोगों ने तय किया है कि हम शिक्षक संगठनों के कार्यकर्त्ताओं को लायेंगे और इस पर एक अच्छा आंदोलन खड़ा करेंगे। अब आप ही बतलायें कि कब तक कोई इस तरह की बात सह सकता है।”
मैं धुरबेजी की बातों को चुपचाप सुन रहा था। मुझे बड़ी खुशी हो रही थी कि धुरबेजी और उनके साथियों ने मिलकर इस समस्या का सही समाधान निकाला और फिर संगठनात्मक कार्रवाई शुरु की। खासकर धुरबेजी इस कहानी को सुनाते हुए जिस उत्साह से अपने हाथ हिला रहे थे, उससे मैं और भी अधिक प्रभावित हुआ। मैं कुछ साल पहले भी छात्र आंदोलन में सक्रिय था और अभी तक कहीं भी संघर्ष और अधिकारों की लड़ाई की बातें सुनता हूँ तो बड़ी खुशी होती है। अपने आपको एक प्रकार का वामपंथी भी मैं समझता हूँ। आप समझते ही होंगे….
उस दिन लौटकर मैं बड़े उत्साह से अपने मित्र तरूण भाई से मिलने गया। तरुण भाई बहुत पहले कभी आई. ए. एस. ट्रेनी बनकर यहाँ आए थे। फिर पता नहीं क्या हुआ, नौकरी उन्होंने नहीं की – एक स्कूल खोलकर यहीं रहने लग गए। यहाँ के प्रगतिशील लोगों में मैं उन्हें सबसे अधिक सम्मान योग्य मानता हूँ। इसलिए जब भी कभी कोई कहने लायक बात होती है, सबसे पहले उन्हें सुनता हूँ।
धुरबेजी की कहानी सुनते ही तरूण भाई ने कहा, “अरे! धुरबेजी वो समन गाँव वाले? अरे! वो कहीं कामता पटेल की बात तो नहीं कर रहे थे?”
मुझे याद आया कि बातचीत के दौरान वाकई उस पटेल का नाम धुरबेजी ने कामता पटेल ही कहा था। इतना सुनते ही तरूण भाई उबल पड़े – “अरे मालूम है वह कामता पटेल कौन है? तुम यकीन नहीं करोगे – यहाँ एकमात्र जो तपक्कीपसंद किसान संगठन है, उसका नेता कहलाता फिरता है।”
सुनते ही मेरा चेहरा लटक गया। तरूण भाई बोलते जा रहे थे – “इसीलिए तो यहाँ ‘लेफ्ट’ की हालत इतनी पिटी हुई है। संगठन बनाये रखने के लिए जितने गड़बड़ किस्म के लोग हैं, उनको पद पर कायम रखा। और अच्छे लोग सब कटते जा रहे हैं। तुम्हें मालूम है एक समय यहाँ वाम की इतनी ताकत थी कि नगरपालिका का अध्यक्ष एक वामपंथी चुना गया था और आज देखो लोग किस तरह कामरेड कहकर हँसने लगते हैं…। केवल यही नहीं, कामता पटेल जैसे लोग तो यहाँ सरकार पक्ष की पार्टी से भी सौदेबाजी भी करते रहते हैं!”
मुझे बड़ी तकलीफ होती रही। तरूण भाई ने जो कुछ कहा, ऐसी शिकायतें कितनी बार कितने लोगों से सुनी हैं। मुझे याद आ गया कि धुरबेजी ने किस तरह चीन पर सवाले पूछे थे और फिर एक साम्प्रदायिक संगठन की अच्छाइयों पर बोलने लगे थे। अब मुझे लगा कि वह महज उत्सुकता नहीं थी। इसके बाद मैं जब भी धुरबेजी की बात सोचता, अजीब दृश्य आँखों के सामने तैरने लगते थे। एक बार मैंने देखा कि धुरबेजी एक समुद्र में डूबते जा रहे हैं और मैं उनको किसी तरह बह जाने से रोके हुए हूँ, और हमारी जुड़ी हुई बाँहों को एक मगर खाने आ रहा है। मैं कई दिनों तक यही सब देखते सोचते परेशान रहा। वैसे मैं स्वभाव से भावुक हूँ, इसलिए इस तरह किसी एक व्यक्तित्व का मेरे दिमाग पर इस कदर हावी हो जाना मेरे लिए आम बात है।
इसके कुछ दिनों बाद मैं धुरबेजी के घर गया। वे हमारे शहर में ही रहते हैं। हर रोज शहर से गाँव में ही पढ़ाने जाते हैं। कभी कभी वहाँ रुकना भी पड़ता है। खैर एक रविवार मैं उनके घर पहुँच गया। मुझे देखते ही उन्होंने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “अरे, आइए, आइए, आप तो इधर आना ही नहीं चाहते।” उस दिन वे मुर्झाए से लग रहे थे।
“धुरबेजी, आप फिर उदास दिख रहे हैं। मैं तो बड़ी आशा के साथ आया हूँ कि आप लोगों ने गाँव में संघर्ष को कितना आगे बढ़ाया – यह पता करूँ और आप इस तरह मायूस दिख रहे हैं।”
“अरे, परेशानियाँ हैं कुछ – अब ऐसा है यह सब तो चलता ही रहता है!”
“क्यों, अब क्या हो गया, उस दिन तो बड़े उत्साह से आपने हमें अपनी कहानी सुनायी थी!”
धुरबेजी ने मेरी ओर एक बाँह वाली एक कुरसी कर दी। खुद लकड़ी के एक लड़खड़ाते स्टूल पर बैठे और बोले, “हाँ, पर कुछ पारिवारिक संकट हैं। वो क्या है कि मेरी एक छोटी बहन है, उसकी शादी के लिए बड़ा दबाव आ रहा है।”
धुरबेजी खुद कोई चालीस साल के हैं। उनकी बहन शादी की उम्र की ही होगी। फिर भी मैंने पूछ ही लिया, “कितनी उम्र है?”
“अब इक्कीस की हो गयी। वह कहती है कि अभी पढ़ेगी और घर में बड़ा दबाव है कि शादी कर दो।”
“अरे, इक्कीस तो बहुत कम है। पढ़ना चाहती है तो पढ़ने दीजिए – यह तो आप समझते ही हैं।”
“अब क्या है कि समाज का दबाब भी है और फिर यह जो झंझट गाँव में हुआ है, उसका नतीजा तो भुगतना पड़ेगा हमको…। मेरे खयाल से हमने थोड़ा ज्यादा ही कर दिया – पटेल से लड़ना ठीक नहीं हुआ।”
“क्या मलतब? इसके साथ पटेल का क्या सम्बन्ध? वैसे भी आपका परिवार शहर में है। शहर की पुलिस पर तो गाँव के पटेलों का राज नहीं!”
धुरबेजी जरा मुस्कराये, मानो मैंने कोई अजीब बात कह दी हो। फिर बोले, “अब क्या बतलायें आपको? आप लोग तो बढ़े शहरों से आए हैं – यहाँ तो सब धाँधली ही है – अब क्या हुआ कि उस दिन मेरी बहन कालेज जा रही थी और कामता पटेल का बेटा सड़क पर दो चार गुंडों के साथ खड़ा था। वह खुद भी गुंडा ही है समझो। बोला कि जाकर अपने भैया सा कह दो कि हमसे मत लड़े – नहीं तो उठाकर ले जाएँगे….”
मैंने धुरबेजी की बात को कितना समझा, मुझे मालूम नहीं, पर मैं उनको कोसने लगा। स्वभाव से मैं ज़रा अधिक बोलने वाला हूँ। मैं बहुत कुछ बोलता गया, जिसका सारांश कुछ इस तरह का था कि वे डरपोक हैं। रूढ़िवादी हैं। समाज से डरते हैं। एक गाँव के गुंडे से लड़ तक नहीं सकते वगैरह। धुरबेजी अधिकांश समय सिर लटकाए सुनते रहे। बीच-बीच में थोड़ा बहुत कुछ बोलते भी थे।
लौटते वक्त मैं सड़क पर चल रहा हूँ। अचानक दूसरी ओर से एक जीप आई, जिससें चार-पाँच मुश्टंडे से लड़के बैठे थे। अचानक ही स्पीड में ड्राइवर ने मेरी ओर जीप घुमाई। मुझे कूदकर सड़क के किनारे कीचड़ में जाना पड़ा। पीछे मुड़कर देखा तो कालेजी-उम्र की तीन लड़कियाँ मेरे पीछे थीं। दौड़ती हुई जीप से लड़कों की हँसी हवा में गूंज रही थी। मैं घर लौटते हुए सोचने लगा कि हम कितने असहाय होते जा रहे हैं। अभी इन छोकरों ने इस तरह की खतरनाक छेड़खानी की और इसके जवाब में मेरे जैसा आदमी क्या कर सकता है…। मैं कल्पना में उन लड़कों को गालियाँ देने लगा। पुलिस को रिपोर्ट करूँ – क्या होगा – कुछ नहीं। और फिर …. पुलिस भी तो समाज का एक अंग है – मेरा दिमाग सही रास्ते पर था। मैं कुछ नहीं कर सकता था – मैंने कुछ नहीं किया।
धुरबेजी, कामता पटेल और मैं – इस विषय पर पहले मैंने एक कविता लिखी थी। लिखकर सबसे पहले मैंने धुरबेजी को ही पढ़कर सुनायी थी। वे हँसे और कहा, “अच्छी है। हाँ, अब जैसा हमारे साथ हुआ, आपने ठीक वैसा ही लिखा।” तरूण भाई ने भी शाबाशी दी। वह कविता कहीं छपी नहीं। दो एक जगह भेजी थी। कोई जवाब ही नहीं आया। फिर एक कवि मित्र न उसे पढ़कर मुझे कला व शिल्प वगैरह की बातें समझाईं। मैं आपको बतलाता हूँ कि कविता का सार क्या था। इस पूरे मामले में अपने पंगु होने की अनुभूति पर मैंने वह कविता लिखी थी। जैसे मैं रोना चाहता हूँ, पर आँसू नहीं निकलते। जैसे कहीं कुछ बदल रहा हो और मैं कहना चाहता हूँ कि इस तरह का बदलाव ठीक नहीं; पर मेरे होंठ सिले हैं। पर इस तरह कविता शायद बनी नहीं। अब देखिए यह कहानी शायद बन गयी हो। इस बार भी आप अगर इसे पसन्द न करें तो …। वैसे शायद मुसीबत यह है कि आप भी मेरे जैसे ही हैं – भावुक और कविहृदय! और इन दिनों लगता है आप हम जैसे लोग बढ़ते जा रहे हैं – तो धुरबेजी ….?
घुघनी
मुहल्ले के लड़के किराए की कुर्सियों पर बैठे गप मार रहे हैं। कैरम खेल खेलकर बोर हो गए हैं। जो ‘ ब्रिज’ खेल रहे थे, वे भी ताश के पत्ते समेट कर अब एक दूसरे को बाबा सहगल से लेकर सुमन के गीतों के बारे में या फिर मोहन बागान – ईस्ट बंगाल के हाल के मैचों के बारे में सुना रहे हैं। सत्यव्रत घोष पूजा मंडप के नीचे एक कुर्सी पर अकेले बैठे हैं, पुराने दिनों की बातें याद आ रही हैं। ज़िंदगी के बासठ सालों में देखी कई पूजाएँ याद आ रही हैं। बचपन के वे दिन, जब अकाल बोधन के अवसर पर नए कपड़े पहनते थे और अब जब खुद नहीं, पर पोती रूना को हर दिन – षष्ठी से दशमी तक पाँच दिन अलग अलग नए कपड़े पहनते देखते हैं। अरे रूना गई कहाँ? यहीं तो बैठी थी! अपनी सुस्त गर्दन हिलाकर सत्यव्रत पीछे की ओर देखते हैं।
रूना एक वृद्ध का हाथ पकड़कर इधर ही आ रही है। बुज़ुर्ग व्यक्ति का चेहरा जाना पहचाना सा है, पर फिर भी याद नहीं आता। इस मुहल्ले के तो नहीं हैं – कहीं ऐसा न हो कोई रिश्तेदार हो और याद ही नहीं आ रहा कि कौन है – ओफ! उम्र बढ़ने के साथ साथ दिमाग ऐसा सुस्त होता जा रहा है!
रूना और वह वृद्ध व्यक्ति पास आ गए हैं। सत्यव्रत उनकी ओर देख रहे हैं, रूना कहती है – “ये रहे ठाकुरदा!”
सत्यव्रत ‘नमस्कार’ करते हैं और होंठों से धीरे से कुछ कहते हैं। फिर संकोच के साथ धीरे धीरे कहते हैं – “आप … पहचान नहीं पा रहा।”
वह वृद्ध हँस रहे हैं। “चारु … चारु दा ….” अरे! वही तो हैं – वही दुबली पतली काया! आँखों में चश्मा … देखकर लगता है अभी गिर पड़ेंगे पर चारुदा तो…!”
”मैं ही हूँ रे! बहुत सालों के बाद अचानक तेरे पास आने को मन हुआ!”
रूना अपने दादाजी सत्यव्रत की फैलती आँखों को विस्मय से देख रही है, सत्यव्रत हाथ उठा कर कहते हैं, ‘लाल सलाम चारुदा! पर…’
“अरे छोड़ रे! चल जरा अपनी बहू से बोल मेरे लिए अच्छी घुघनी बना दे। छोले की घुघनी वह बढ़िया बनाती है, यह तेरी पोती ने बतला दिया है।”
सत्यव्रत चारुदा को लेकर घर आते हैं। सत्यव्रत की पत्नी दरवाजा खोलती है। शांतश्री सत्यव्रत के साथ दुबले चश्माधारी बुज़ुर्ग को एक बार देखती हैं और तुरंत कहती हैं – “अरे चारुदा! तुम …”
”अरे शांतश्री! सवाल मत करो! अपनी बहू से कहो जरा मुझे घुघनी खिलाए – बहुत भूख लगी है।”
”अरे, बैठिए ..अंदर आइए। ध्रुवा, ओ ध्रुवा …,” इससे पहले कि वह बहू से सुबह की बनाई घुघनी तश्तरी में डालकर लाने को कहें, अचानक चिंतित होकर शांतश्री पूछती है, ”पर घुघनी में तो मसाला बहुत होगा …! सुबह की बनी है, बिना मसाले की ताजा बनवा लें तो ठीक रहेगा।”
“अरे पागल लड़की! अब क्या मुझे मसालों से कोई डर है? ला, ला, भूख लगी है और बाद में मुझे पायस भी खिलाना।”
ध्रुवा प्लेट भर छोले रख जाती है। चारुदा प्यार से कहते हैं, ”माँ! एक हरी मिर्च ले आना!” पानी का ग्लास हाथ में लेकर कहते हैं, ”अब ठंड के दिन आ रहे हैं, फ्रिज का पानी ठीक नहीं। ऐसा करो इसमें आधा ताजा पानी मिला लाओ। और सुनो, चाय मत बनाना, मैं चाय काफी अब नहीं पीता।”
इसी बीच रूना कहीं से एक छोटी डायरी लेकर सामने खड़ी हो गई है। देखते ही सत्यव्रत डाँटते हैं, “अभी नहीं, तू हर किसी को परेशान करने लगी है।”
रुना अकड़कर कहती है, “नहीं, हमारा अगला अंक तो कल ही निकल रहा है, मुझे आज ही इंटरविउ चाहिए।”
चारुदा हँसकर कहते हें, ”ओ! तुम्हारी मिनी मैगज़ीन के लिए! क्या तो नाम है – रविवार? हाँ, कल तो रविवार है न?”
सत्यव्रत सोच रहे हैं, उन दिनों अगर चारुदा को इस तरह खिला सकते, तो कितना आनंद आता। तब तो उबली सब्जियाँ और रोहू मछली का झोल, बिल्कुल फीका सा, यही बड़ी मुश्किल से खा पाते थे।
चारुदा मुँह में छोले भरकर कहते जा रहे हैं, “लिखो, लिखो, चारु मजुमदार, जन्म … जन्म कब हुआ मुझे ही नहीं मालूम … मौत 28 जुलाई 1972….।”
फिर हँस पड़े हैं चारुदा, “बचपन में मैं आम के पेड़ों पर चढ़ना बहुत पसंद करता था। कई कई दिन तो कहानियों की किताब हाथ में लेकर किसी आम के पेड़ पर चढ़कर डालियों पर लेटे लेटे किताब पढ़ता रहता – घंटों तक। फिर मेरे घरवाले मुझे ढूँढ़ने निकलते।
रूना पूछती है, ”आप स्कूल में फर्स्ट आते थे?”
“फर्स्ट? ऐसी बात तो याद रहनी चाहिए … शायद नहीं …स्कूल में फर्स्ट आना तो कोई बड़ी बात नहीं ..।“ चारुदा अचानक चिंतित से लगे। रूना फिर पूछती है, ”घुघनी कैसी लगी आपको?”
”घुघनी .. अरे वाह! बहुत बढ़िया है। जरा अपनी माँ से कहो कि थोड़ा और दे जाए।”
ध्रुवा खुद ही मुस्कराते हुए घुघनी भरा बर्तन ले आती है और कड़छी से डालती है। चारुदा उसको रोक नहीं रहे। सत्यव्रत परेशान होकर कह बैठते हैं – ”इतना खा लेने दो, फिर और देना।”
चारुदा कहते हैं, “अरे और नहीं – इसके बाद पायस खाऊँगा। तुम्हें याद है, पहली बार जब आया था, तब शांतश्री ने पायस ही खिलाया था, बहुत सारा। तुमने खूब कहा था कि सब्जी बना दें, पर रात के डेढ़ बज चुके थे, पायस पड़ा था और मैंने वही खाया।”
सत्यव्रत को याद नहीं। सत्यव्रत को 1971 के दो दिन ही याद आते हैं, जब चारुदा आए थे और मकान की हर खिड़की पर दो दिनों तक उनके साथी हर क्षण तैनात बैठे थे। तब घर में जो तनाव था, सत्यव्रत को लगता है वैसा फिर हो तो उन्हें तुरंत दिल का दौरा पड़ जाएगा। उन दो दिनों चारु दा सिर्फ उबली सब्जियाँ, सूप, रोहू मछली का फीका झोल, यही निगल सकते थे। और शायद दो दिनों में बिल्कुल न सोकर वे लिखते जा रहे थे – बीच बीच में अपने साथियों से मशविरा करते। सत्यव्रत को घर से निकलने से मना कर दिया गया था। कालेज छुट्टी की दरखास्त भेज दी थी, विभाग के साथी शिक्षक इंद्रजीत बनर्जी हाल पूछने आ बैठे तो शांतश्री ने दरवाज़े से ही कह दिया, “वे तो टालीगंज गए हैं। ” और बैठने को भी नहीं कहा।
दीवार की ओर ताक रहे हैं चारुदा। सामने बरामदे की ओर खिड़की पर अब कोई तैनात नहीं। अब कोई पुलिसवाला वर्दी में भी गुज़र जाए तो किसी को परवाह न होगी। फिर भी ऐसा ख्याल मन में आते ही सत्यव्रत काँप उठे। अपनी परेशानी को छिपाते दीवार पर लगे कैलेंडर को दिखाकर कहते हैं – “यह ध्रुवा ने बनाया है। इनका महिला संगठन है, उनके लिए।”
“हाँ, हाँ” और चारुदा लपककर उसकी डायरी लेते हैं, ”मैं यहीं बना देता हूँ, तुम चिपका लेना।”
चारुदा ने एक बड़ा मेंढ़क बनया है। एक पेड़ और एक गोल-गाल सा चेहरा पेड़ के ऊपर।
रूना पूछती है, “यह मॉडर्न पेंटिंग है?”
“हाँ, मॉडर्न है, ठहरो, मैं साइन कर दूँ।” चारुदा साइन करते हैं। सत्यव्रत उत्सुकता छिपा नहीं पाते – करीब आकर देखते हैं – चारुदा ने बड़े स्टाइल से लिखा है- सी एम।
शांतश्री अचानक बोल उठती हैं, “आप हमेशा ही ऐसे थे क्या?”
चारुदा हँसते हैं, “पता नहीं क्या-क्या था रे, मुझे सब थोड़े ही पता है! कई दफा लगता है कि मैं चाहता तो चूनी गोस्वामी की टीम में खेलता। अरे! स्कूल में तो खूब खेला करता था मैं। सेंटर फारवर्ड था…।”
सत्यव्रत का मुँह खुला हुआ है। सामने के दाँत टेढ़े मेढ़े हैं। काले हो चुके हैं। अचानक सिगरेट की तलब होती है। पर बेटे ने घर के अंदर सिगरेट पीने से मना किया हुआ है। पूछते हैं, “चारुदा! आप सिगरेट पिएँगे?”
“ना! वह सब तभी छूट गया था!”
अचानक शांतश्री कहती है, “हमलोग तो इंतजार कर रहे थे कि रविवार को आपको हमारे घर आना था, फिर 16 तारीख को रेडियो पर सुना….।” इतनी पुरानी बातें, शांतश्री को कैसे याद रहती हैं, सत्यव्रत सोच रहे हैं।
चारुदा सुन नहीं रहे …। बरामदे की ओर दरवाजे पर लगा परदा हवा में उड़ रहा है। उस ओर ताक कर बोल उठे, “उन दिनों वह नया लड़का था, सुभाष भौमिक। अच्छा खेल रहा था… बहुत इच्छा थी कभी उसका खेल देखूँ।”
सत्यव्रत अचानक पूछते हैं। “चारुदा, कभी तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि सब कुछ गलत हुआ – अगर फिर से करना हो तो…।”
चारुदा टोककर रूना से पूछते हैं, “क्यों, मेंढक ठीक बना? मॉडर्न मेंढक है!”
”अरे बहू! पायस तो खिलाओ!”
चाव से पायस खाते हैं चारुदा।
सत्यव्रत उठकर दूसरे कमरे में जाते हैं। वहाँ मेज पर फाइल है – हाल के कई जन आंदोलनों के परचे, सँभालकर रखे हुए हैं। बेटे के काग़जों से निकालकर उन्होंने अपनी फाइल में रखे हैं। मन हो रहा है चारुदा को दिखलाएँ। पर फाइल उठाकर फिर वापस रख देते हैं। हल्के कदमों से वापस आ जाते हैं। चारुदा रूना से पूछ रहे हैं – “इस बार कितने कपड़े लिए पूजा के?”
“चार… नहीं पाँच… चार फ्राक, एक सलवार कमीज़!”
”वाह, सलवार कमीज़ कब पहनोगी?”
”नवमी के दिन … कल वो फूलों वाला फ्रॉक पहनूंगी। देखेंगे?”
चारुदा रूना का फ्राक देख रहे हैं, कहते हैं, ”अगली दफा मैं तुम्हारे लिए नए किस्म के पकड़े लेकर आऊंगा – क्या चाहोगी तुम?”
रूना उछलकर कहती है, ”जीन्स के पैंट।”
”अच्छा,” सत्यव्रत की ओर देखकर पूछते हैं चारुदा, ”कितनी कीमत होगी जीन्स के पैंट की?”
शांतश्री जवाब देती हैं, “सौ रुपए से कम में तो नहीं मिलेगा।”
चारुदा सोच रहे हैं। क्या सोच रहे हैं – सत्यव्रत खुद अर्थशास्त्र पढ़ाते रहे हैं, पर दो साल हुए रिटायर हो जाने के बाद विषय के बारे में कम ही सोचते हैं। चारुदा मुद्रास्फीति के बारे में सोच रहे होंगे, सत्यव्रत का यह खयाल बिल्कुल झुठलाकर चारुदा शांतश्री से पूछते हैं, “तुमने कभी जीन्स के पैंट पहने हैं?”
शांतश्री खिलाखिला उठी हैं। ध्रुवा भी। रूना भी हंस रही है। सत्यव्रत सिर झुकाकर उदास बैठे हैं। उन्हें अचानक लग रहा है कि वे रो पड़ेंगे। परेशानी में अपनी गर्दन इधर उधर हिला रहे हैं।
चारुदा उठकर सत्यव्रत के कंधों पर हाथ रखते हैं। “यंगमैन, उठो। तुम्हारे बेटे से मुलाकात नहीं हुई। कोई बात नहीं, इस घुघनी का नशा अब छूटेगा नहीं। अब मैं आता रहूँगा – आज चलूं?”
सत्यव्रत अभी भी सिर झुकाए बैठे हैं। काश वे युवा होते, या कोई छोटा बच्चा… मन हो रहा है शांतश्री के वक्ष में सिर छिपाकर फूट फूटकर रोएँ। या चारुदा के सीने पर मुक्के मार मारकर बिलख उठें।
चारुदा चल पड़े हैं। “तुम लोग बैठो, मैं चलूँ।” शांतश्री दरवाजे तक आती हैं। फिर वे सब बरामदे में आते हैं और चारुदा को जाता हुआ देखते हैं। वे तब तक उन्हें देखते हैं, जब तक कि वे दूर कोने वाले मकान पार कर मुड़ नहीं जाते। फिर चारुदा विलीन हो गए।
सत्यव्रत परदा पकड़े हुए खड़े हैं। अचानक कहते हैं – “बहू, जरा मुझे भी थोड़ी सी घुघनी खिलाओ।”
शातंश्री कहती हैं, “सुबह तो तुम्हारा पेट ढीला जा रहा था!”
सत्यव्रत की आँखों में एक उदास आँसू छलकता है।
लाल्टू के कहानी पाठ के वीडियो का लिंक : https://www.facebook.com/s.janmat/videos/230117724955623/