( सिंघू, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों के बीच पाँच दिन रह कर लौटे गोरखपुर के पत्रकार ओंकार सिंह की डायरी )
दिल्ली से सटे प्रदेशों की सीमा पर महीनों से देश भर के किसानों का हुजूम डटा हुआ है। तीन कृषि बिलों के विरोध में एक ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में यह न सिर्फ हुकमरानों में ख़ौफ़ भर रहा है बल्कि आम जनमानस में नयी उम्मीद और ऊर्जा का संचार कर रहा है।
तमाम चर्चा परिचर्चा में इतिहास बनाते इस आंदोलन से रूबरू होने और इसमें शरीक होने के लिए गोरखपुर के साथियों ने पांच दिवसीय यात्रा की योजना तय की। इसके तहत 13 जनवरी की शाम आठ साथियों को गोरखपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान करना था। हालांकि अंतिम समय में यह संख्या पांच ही रही लेकिन लखनऊ में तीन नये साथियों के जुड़ जाने से संख्या पूर्ववत हो गई।
कोहरे की वजह से ट्रेन के विलंब होने और कुछ साथियों को ठंड लग जाने के बावजूद दिल्ली में 14 जनवरी की गुनगुनी सुबह ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया। नयी दिल्ली के अजमेरी गेट से सभी साथियों ने सबसे पहले सिंघु बार्डर जाने का निश्चय किया। बस से करीब एक-डेढ़ घंटे के सफर में हम अपने इच्छित अभियान के पहले पड़ाव पर थे।
यहां आंदोलन के शुरुआती स्थल से काफी पहले ही हाईवे पर सीमेंट की रेलिंग और कटीले तारों के आड़े-तिरछे बैरीकेड्स की जबरदस्त घेरेबंदी है। भारी पुलिस व सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जमावड़े के बीच मानो यह दिल्ली क्षेत्र की सीमा न होकर देश की सीमा नजर आ रही थी। केंद्रीय सत्ता की यह सतर्कता ठीक उसी मंशा के अनुरूप है जिसमें इस आंदोलन को खालिस्तानी, माओवादी और दुश्मन देश के साजिश के रूप में बदनाम करने की कोशिश की गई।
बहरहाल, आंदोलन स्थल में प्रवेश करते ही चीजें साफ-साफ नजर आने लगीं। आक्रमाक घेरेबंदी के ठीक सामने किसानों के संयुक्त मोर्चे का मंच व विशाल सभा स्थल बिल्कुल बेखौफ व बेपरवाह नजर आ रहा था। कोहरे व कड़कती ठंड में खुले आसमान के नीचे आम किसान परिवार के बड़े बुजुर्गों की भारी तादाद और उनके चेहरे पर बेहद जुझारू, आत्मविश्वास व ईमानदारी से भरा भाव सत्ता की क्रूर और कपट भरे इरादों का भेद खोल रहे थे। थोड़ी ही दूर पर ‘हरियाणा सिल्वर जुबली ईयर’ वाले शिला खंभ पर भगत सिंह की तस्वीर और उन्हीं की बात को कोट करते हुए बेहद प्रभावशाली पोस्टर टंगा था। जिस पर लिखा था- ‘हम ऐलान करते हैं कि यह जंग है और यह जारी रहेगी जब तक मजदूर किसान शोषित है।’
जैसे-जैसे हम आंदोलन के फैलाव में भीतर तक घुसते गए प्रतिरोध का एक व्यवस्थित, संगठित, शांतिपूर्ण रूप और सामूहिकता व सहभागिता का अद्भुत एका देख अभिभूत होते रहे। वाकई, यहां इतिहास बन रहा है ! महिलाएं, बच्चे, युवा, बुजुर्ग अपने-अपने हिस्से की रचनात्मक गतिविधियों में आंदोलन को बहुआयामी रंग दे रहे हैं। यहां अलग-अलग समूह, संप्रदाय, संगठन के अलग-अलग झंडे-बैनर तले सामूहिक रूप से सिर्फ किसान हित की बातें उठ रही हैं। उनके पोस्टर, बैनर व नारों में विरोध-प्रतिरोध के स्वर स्पष्ट और लक्षित हैं।
‘नो फार्मर-नो फूड’, ‘किसान अगर सड़क पर आ जाएं तो यह सरकार की सबसे बड़ी नाकामी है’ जैसे नारों के अलावा कार्पोरेट घरानों पर तीखा तंज और खासकर भारतीय मीडिया/गोदी मीडिया पर जबरदस्त पोस्टर प्रहार है। विभिन्न पोस्टरों में सत्ता और नेताओं पर अगर तंज भी है तो वह अडानी और अंबानी के ही माध्यम से है। आंदोलन स्थल पर जगह-जगह भगत सिंह के खास पोस्टर चस्पा हैं जिसमें उनके हाथ में मैक्सिम गोर्की की विख्यात कृति ‘मां’ है। यहां लगातार सभा और जुलूस का सिलसिला जारी है, जिसमें महिलाओं, बच्चों और युवाओं की भागीदारी खासा प्रभावकारी हैं। सारी गतिविधियां बेहद शांतिपूर्ण और अनुशासित माहौल में हैं।
यहां हाईवे की चौड़ाई को एक तिहाई हिस्से में आम आवाजाही के लिए छोड़ दिया गया है। बाकी दो तिहाई हिस्से को भी बीच से जुलूस व सामान्य आवाजाही के लिए खुला रखा गया है। जिसकी दोनों तरफ की पटरियों पर ट्रैक्टर ट्रॉलियों और टेंट के सहारे घेरा डालो-डेरा डालो की तर्ज पर 14 किमी (दूरी जैसा कि वहां बताया गया) के दायरे में पूरा नगर बसा दिया गया है। जहां सेवाभाव, सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे का अद्भुत मिसाल कायम हो रहा है।
जगह-जगह लंगर, चाय-नाश्ते की स्टाल, मेडिकल कैंप, आपातकालीन चिकित्सा सेवा, एंबुलेंस, पानी के टैंकर, अलाव, गर्म पानी के बोतल, नहाने के लिए खास किस्म की अंगीठी टैंक से गर्म पानी की व्यवस्था, वाशिंग मशीन, चल शौचालय, कूड़ेदान और इन सबके प्रबंधन में हर समय तत्पर वालंटियर्स की मौजूदगी है। वाकई, इतनी सारी सुविधाएं जुमला वाली आत्मनिर्भरता से इतर असली वाली आत्मनिर्भरता की कहानी बयां कर रही हैं।
लंगरों के विविध पकवानों के इतर यहां समय-समय पर ट्रैक्टर ट्रालियों पर लदे संतरे, केले, मूंगफली का भी आमद होता रहता है। जिसे ट्रालियों से ही बांटकर खतम कर दिया जाता। दिन भर खास पकवानों का दौर चलता ही रहता है। खीर, लस्सी, गाजर का हलवा, मक्के दा रोटी-सरसो दा साग साथ में चम्मच भर घी आदि खिलाने के खास अंदाज और भाव में भी पेश किए जाते हैं- ‘वीर जी-खीर जी! हरी जलेबी! आओ जी, चख लो जी!’ खाने-खिलाने का यह आतुर भाव भले ही लंगर के धार्मिक सेवाभाव से जुड़ा है, इसकी जड़ें सामूहिकता और श्रम संस्कृति से ही जुड़ी हुई हैं।
यही नहीं यहां की दिनचर्या में चर्चा-परिचर्चा, विचार-विमर्श और पाठन-पाठन को खासा तरजीह है। इसके लिए साझा सत्थ, किसान भवन जैसे सेंटर और चौपाल के साथ-साथ जगह-जगह बुक स्टाल व लाइब्रेरी की व्यवस्था है। एक ऐसी भी लाइब्रेरी दिखी जहां बच्चों का समूह पढ़ने और तमाम गतिविधियों में व्यस्त था। तमाम बुक स्टालों पर भगतसिंह, आंबेडकर, फूले, पेरियार और खासकर पंजाब की शहादत और उनके शहीदों पर किताबें थीं। ये किताबें बहुतायत गुरुमुखी (पंजाबी भाषा) में थीं।
लाइब्रेरी और बुक स्टाल पर ‘आई लव यू किसान’ का स्टीकर लगाये युवकों का समूह देखकर बरबस ही आंदोलन से गोरखपुर लौटे एक साथी की चर्चा याद आई। जिसमें उन्होंने पंजाब के एक बुजुर्ग किसान द्वारा आंदोलन में जीत-हार के सवाल पर दिए खूबसूरत जवाब की चर्चा की थी। वह यह कि- ‘हमारे लिए जीत-हार का कोई मायने नहीं है। सुविधा और संपन्नता में दशकों से हमारे बच्चे देश-विदेश में आई लव यू टाईप की संस्कृति में भटक गए थे, अब वह आई लव किसान की बात करने लगे हैं। अपनी माटी और थाती से जुड़ने लगे हैं। आंदोलन का यही हमारे लिए सबसे बड़ा मायने है।’
देर शाम होने पर हम सभी साथी रात्रि विश्राम की टोह में निकल पड़े। साथ आए कानपुर के साथी हाईवे के ठीक बगल में एक बड़ी इमारत में ले गए। यह मल्टीनेशनल कंपनी केएफसी का माल है, जो निचले तल पर इक्का-दुक्का आफिस को छोड़कर पूरी तरह बंद पड़ा है। निचले तल के परिसर में जगह-जगह गद्दे और कंबल के ढेर लगे थे। मजेदार बात यह थी कि इस मल्टीनेशनल कंपनी के नाम का शब्द विस्तार भी आंदोलन के नेचर के अनुरूप कर दिया गया था। यानि- किसान फूड सेंटर। इसके परिसर मे चल रहे लंगर और चाय-नाश्ते के स्टाल भी इसी शब्द विस्तार को ही मूर्त रूप दे रहे थे।
पहले हम लोगों को यही सोने को कहा गया, बाद में महिलाओं की व्यवस्था को लेकर हम लोग इसी से सटे पीछे वाली बिल्डिंग में चले गए। जहां फर्श पर कई परत में गद्दे बिछे थे, पर्याप्त संख्या में ओढ़ने के मोटे कंबल भी थे। बिल्डिंग में ऊपर नीचे दर्जनों कमरें मे यही व्यवस्था थी। दोनों बिल्डिंग के बीच के परिसर में सैकड़ों की संख्या में छोटे फुल कवर्ड टेंट लगे हुए थे। जिसमें महिलाओं बच्चों सहित परिवार के रहने की व्यवस्था थी। यहां पूरी व्यवस्था को संभाल रहे मैनेजर ने कहा कि आप लोगों को जब तक रहना है इत्मिनान से रहिए आपको अपने बैग खोलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
रात्रि भोजन के लिए सभी साथियों ने परिसर से थोड़ी दूर चलने निर्णय लिया। कुछ दूर चलने पर हमें एक लंगर मिला जिसके बैनर पर लिखा था- ‘समूह मुस्लिम भाईचारा मलेरकोटला, पंजाब।’ मुस्लिम युवकों द्वारा यहां बड़े ही अदब और तहजीब के साथ खाना परोसा जा रह था। काले चने की सब्जी रोटी के साथ यहां गुड़ के खास किस्म का मीठा चावल परोसा गया। जिसे स्थानीय भाषा में जर्दा बताया गया, जो वहां की खास पकवान है।
मलेरकोटला पंजाब का सरहदी कस्बा है। सांप्रदायिक सौहार्द के मिसाल के रूप में यह स्थान पूरे पंजाब में ऐतिहासिक महत्व का है। बताया जाता है कि जब औरंगजेब के गवर्नर वजीर खान ने गुरु गोविंद सिंह के अल्पवयस्क साहिबजादों को पकड़कर दीवार में जिंदा चुनवाने का हुक्म दिया उस समय दरबार में तमाम हिंदू राजाओं के होते हुए भी किसी ने उसका विरोध करने का हिम्मत नहीं जुटा पाया। ऐसे में मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान न सिर्फ इसकी खिलाफत की बल्कि इसे इस्लाम विरुद्ध बताया और दरबार छोड़ दिया। तब से हिंदू-मुसलमान भाईचारे की अन्य कई मिसालों के साथ आपसी सौहार्द का यह सिलसिला आज भी जारी है।
सोने के लिए केएफसी परिसर लौटने पर कुछ देर तक वहां पर वालंटियर्स से बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि परिसर में खाने-पीने, चाय-नाश्ते और सोने आदि की तमाम व्यवस्था कबड्डी खिलाड़ियों की एक फेडरेशन के जिम्मे है। उन्होंने यह भी बताया कि आंदोलन के लंबा खिचने पर भी वह यह जिम्मेदारी उठाने में समर्थ हैं। मोटे बिस्तर व मोटे कंबलों में यहां की रात्रि विश्राम ने ट्रेन में लगी ठंड से काफी सुकून दिया। दूसरे दिन यानि 15 जनवरी को सुबह की चाय-नाश्ते के बाद हम सभी हाईवे पर निकल पड़े।
कुछ दूर चलने पर फूस के बने किसान भवन के सामने चल रहे अलाव की चर्चा में शामिल होने का अवसर मिला। यहां पंजाब के किसान परिवार के निर्मल रिनो जो पेशे से वकील भी थे व उनके बड़े भाई के साथ कार्पोरेट्स द्वारा खेती-बारी को मुनाफा बाजार बनाने की मंशा पर महत्वपूर्ण और विस्तार से चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि आखिर क्यों पंजाब और हरियाणा के किसान ही सबसे पहले इस बिल के खिलाफ खड़े हुए। उन्होंने कहा कि हम मेहनत और शौक दोनों से सीधे खेती से जुड़ हुए लोग हैं। खास बात यह है कि हम मेहनत और खेती से अपने शौक की पूर्ति कर लेते हैं।
उन्होंने बताया कि उनके बाप-दादा भी इसी शिद्दत से खेती से जुड़े थे। वह अच्छी नस्ल के बैल रखते थे। घूमने-फिरने के लिए ऊंट रखते थे। उन्होंने कहा कि हम लोग अपने दौर में उन्नत किस्म के ट्रैक्टर रखने लगे। हमारे बच्चे पढ़-लिखकर विदेशों तक पहुंचे और वह अच्छी गाड़ियों और अच्छे पहनावे का शौक रखते हैं। इन सब के पीछे की स्प्रिट वही मिट्टी, मेहनत और खेती से जुड़ाव है। उन्होंने बताया कि यही नहीं इस जुड़ाव में हमें एक स्पेस और स्वतंत्रता मिलती है। जहां हम बैठकर सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्षों पर चर्चा कर लेते हैं।
उन्होंने आगे बताया कि ऐसा यूपी बिहार में नहीं है। वहां बड़ी जोत के किसान भी सीधे मेहनत और खेती से नहीं जुड़े हैं। उनकी वरियता में नौकरियां है, उनका शौक मैनेजर भर बनने का है। कार्पोरेट्स भी यही चाहते हैं कि अब खेती भी उनके मुनाफे का बाजार बने। सब कुछ वही तय करें बाकी उसमें नौकरियां करें, मैनेजर बनें। उन्होंने कहा कि दुनिया की मंदी में लोग नौकरियों का हश्र देख चुके हैं। यहां देश की 70 फीसदी आबादी खेती किसानी के सहारे खा-जी लेती है। कार्पोरेट्स के लिए यह बात अखरने जैसी है।
इसलिए अब वह खेती को मुनाफे का बाजार बनाने के बहाने न सिर्फ हमारे खेत बल्कि वह स्वतंत्रता और स्पेस भी छीन लेना चाहते हैं। जिससे कि उनको बड़ी संख्या में बंधुआ मजदूर मिल सकें। यह सबके लिए खतरनाक है। इसीलिये हम इस बिल के खिलाफ सबसे पहले खड़े हुए हैं। उन्होंने बड़े ही तल्ख लहजे में कहा- यह हमारे अस्तित्व पर हमला है, यह हमारे वाहे गुरु के लंगर पर हमला है। हम इसे नहीं बर्दाश्त करेंगे। हमारी जमीन, हमारी मिट्टी शहादत की है। हम मिट जाएंगे वापस नहीं लौटेंगे।
किसान भवन की चर्चा से वापस लौटते हुए हम एक लंगर के सामने रुक गए। यहां काफी संख्या में महिलाएं जुलूस की तैयारी कर रही थीं। जब उनसे यह पूछा गया- हमारी न्यायपालिका में सवाल उठ रहा है कि वहां महिलाएं क्या कर रही हैं?
सभी ने एक स्वर में कहा- हमारे बच्चे, हमारा परिवार यहां है। उनकी लड़ाई हमारी भी लड़ाई है, इसलिये हम उनके साथ हैं। जब उनसे यह पूछा गया कि घर कौन देख रहा है? उन्होंने बताया कि ऐसे बहुत से घरों की देखभाल गांव के पास-पड़ोसी कर रहे हैं, वही हमारे मवेशी भी संभाल रहे है। सभी महिलाएं किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद और सत्ता-उद्योगपति गठजोड़ का मुर्दाबाद करते हुए आगे बढ़ गईं।
कुछ दूर और आगे बढ़ने हम एक चाय नाश्ते की स्टाल पर रुके। यहां शहीद बाबा बिशाखा सिंह का पोस्टर चस्पा था। यह स्टाल तरनतारन इलाके के गांव के लोगों का था। पोस्टर के शहीद के बारे में जानकारी लेने पर लोगों ने बताया कि बाबा बिशाखा सिंह अमेरिका में रह रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए 1914-15 में वह अपने सात हजार जत्थे के साथ समुद्री मार्ग से कलकत्ता पहुंचे। जहां मुखबीरी के कारण इन सभी को ब्रिटिश सत्ता ने गिरफ्तार कर लिया। लोगों ने बताया कि इस प्रकरण उनके गांव के ही 40 लोगों को फांसी दे दी गई।
दोपहर का भोजन हम सभी ने केएफसी परिसर के लंगर में ही किया। इससे पहले साथियों ने लंगर की गतिविधियों में भी हाथ बंटाना चाहा तो सेवाभाव में लगे लोगों ने प्रसादा खाने पर बल दिया। हालांकि बाद में उन्होंने हमें भोजन परोसने में लगा लिया। यहां पर हमें एक सेवाभावी ने महत्वपूर्ण बात बताई कि हमारे पंजाब में लोग भूखा आ सकते हैं लेकिन भूखा सो नहीं सकते।
दोपहर बाद साथियों ने यहां से टिकरी बार्डर जाने का निर्णय लिया। सिंघु बार्डर छोड़ने से पहले हम लोग संयुक्त किसान मोर्चा के सभा स्थल पर पहुंचे। यहां पर दो साथियों ने मंच से अपनी बात भी रखी। यहां से थोड़ी दूर पैदल चलकर हम लोग बस से टिकरी के लिए रवाना हुए। बस के ज्यादातर सवार आंदोलन मे शामिल युवा थे जो किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। मेरे बगल की सीट फर बैठे व्यक्ति ने कहा कि पेट्रोलियम सेवा की सप्लाई दो-तीन दिन के ठप कर दीजिए, देखिए सरकार कैसे बात नहीं मानती है। मैंने उनकी तरफ देखा और पूछा- किसान आंदोन में आएं हैं क्या? उन्होंने कहा- नहीं, यहीं सिंघु बार्डर के पेट्रोल पंप पर टैंकर चलाता हूं।
उन्होंने बताया कि आंदोलन की वजह से पेट्रोल पंप बंद पड़ा है। मालिक आधा ही वेतन देता है। मैंने पूछा दिल्ली के हैं क्या? उन्होंने बताया यूपी के गोंडा से हैं। मैंने उनसे बताया पेट्रोलियम एक आवश्यक सेवा है ऐसा नहीं किया जा सकता। फिर उन्होंने कहा केंद्र और यूपी दोनों सरकारें खूब काम कर रही हैं। खूब काम भी दे रही हैं और लोग दिनरात ड्यूटी पर लगे हैं। मैं चौंका, उनसे पूछा मतलब? उन्होंने कहा- यहां (आंदोलन में) बड़ी संख्या में लोग काम ही तो कर रहे हैं। यूपी में भी लोग रात भर खेत में सांड़-गाय भगाने की ड्यूटी कर रहे हैं। ओह, निस्संदेह इस मजदूर व्यक्ति की खीझ भरी आयडिया और व्यंग्य मारक थी।
डेढ़ से दो घंटे की सफर में हम देर शाम टिकरी बार्डर पहुंच गए। यहां भी सड़क पर सत्ता की घेरेबंदी और मोर्चेबन्दी सिंघु बार्डर ही जैसी थी। बहादुर गढ़ कस्बे का एरिया होने के कारण यह स्थल घना और भीड़भाड़ वाला है। यहां भी सभा स्थल शुरुआत में ही है। मेट्रो पुल के नीचे से हाईवे को तीन लेन में बांटते ट्रैक्टर ट्रालियों और टेंट के कतारबद्ध बसाव में आंदोलन का 17 किमी (दूरी जैसा कि वहां पर बताया गया) में फैलाव था।
यहां की भी सारी सुविधाएं और व्यवस्था सिंघु बार्डर जैसी ही हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि सारी सुविधाएं थोड़ी रिजर्व हैं। यह सतर्कता आंदोलन में आए किसानों की सुविधा को लेकर स्थानीय भीड़ से बचने के लिए बरती गई है। यहां भी टेंट व कुछ खास लंबी व ऊंची ट्रालियों को घर जैसे रिहायशी अंदाज व्यवस्थित किया गया है। उनमें मोटे बिस्तर, कंबल, टीवी, अखबार, उनके पारंपरिक हुक्के, और छोटे किचेन की व्यवस्था है। बिजली की व्यवस्था के लिए ट्रैक्टर से ही जेनरेटर का काम लेते देखा जा सकता है।
टिकरी और सिंघु दोनों बार्डर पर कृषि उपयोग में आनेवाले उन्नत तकनीकों व संसाधनों खास प्रदर्शन देखा जा सकता है। डीजे और हूटर के साथ छोटे व बड़े ट्रैकटरों पर बच्चों, युवाओं का जुलूस देखते ही बनता है। इनकी ट्रैक्टर ट्रालियां न सिर्फ कीमती हैं बल्कि फायबर ग्लास की केबिन व हुडों से खास अंदाज में सजी हुई रहती हैं। उनका यह शौक संपन्नता से इतर इन संसाधनों से विशेष लगाव और उनके बेहतरीन रखरखाव को भी दर्शाता है।
रात होते ही घने कोहरे के साथ ठंड भी बढ़ जाती है। आंदोलन स्थल में कुछ दूर अंदर जाने के बाद हम सभी प्रवेश स्थल पर वापस लौट आते हैं। यहीं पर कस्बे की एक निर्माणाधीन बिल्डिंग के ऊपरी तल पर रात्रि विश्राम की व्यवस्था बनी थी। पास के लंगर पर खाना खाने के बाद हम सभी यहां सोने चले आए। यहां भी पास के कई कमरों मे महिलाओं और बच्चों के सोने की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था की देखरेख हरियाणा के एक किसान के जिम्मे थी। उन्होंने हमारा हाल-पता पूछा, फिर कहा- सरकार को पता चल जाएगा कि उनका पाला किससे पड़ा है। उन्होंने कहा कि यहां जो बुजुर्ग आए हैं, परिवारीजनों को अपनी गोपनीय चीजें बताकर आए हैं। अब वह खाली हाथ वापस नहीं लौटेंगे।
16 जनवरी की मुंह अंधेरे भोर में ही नींद खुल जाती है। हम दो साथी बिल्डिंग से नीचे उतर कर हाईवे पर आ जाते हैं। जगह-जगह अलाव पर लोग हुक्का बनाते और और चर्चा करते दिखते हैं। एक बड़ी ट्राली की ओट में अलाव के इर्दगिर्द कुछ बुजुर्ग जाट किसान बैठे थे। हम भी वहीं पर बैठ गए। बीच में रखे बड़े हुक्के को वह बारी-बारी से गुड़गड़ाते हमारी तरफ बढ़ा दिए और कहे- पियो, नुकसान नहीं करेगा। थोड़ी देर बाद ट्राली में बने आवास से जग में भरकर चाय आया। इस बीच उनकी बातें जारी रहीं। वह शासन सत्ता की नीतियों पर चर्चा कर रहे थे।
वह कह रहे थे- हम नहीं समझ पाए कि यह सिर्फ हमें लड़ाने-भिड़ाने का काम करेंगे। यह सरकार जबसे सत्ता में आई पहले हिंदू-मुसलमान और अब गांवों में हिंदू ही आपस में बंटते जा रहे हैं। इन्होंने नोटबंदी किया, जीएसटी लाए, मुस्लिमों के नाम पर शहीन बाग का दमन किया अब खेती किसानी भी बेंच रहे हैं। हम ऐसा नहीं होने देंगे। अपने बच्चों की खातिर हम इनसे लड़ेंगे, हम बिल खतम कराके ही वापस लौटेंगे।
सुबह होते-होते हाईवे की सड़क मानो गुजरे जमाने से खोई हुई गांवों की चकल्लस को वापस लौटा लाई थी। टैंकर की टोटियों पर नहाते, ब्रश-मंजन या दातून करते लोग। अलावों पर एकत्रित लोगों के बीच चर्चा और बहस का दौर कुछ ऐसा ही मंजर बना रहा था। पास के ही एक अलाव पर किसान-मजदूरों की खास चर्चा चल रही थी। कोई अपने सैनिक साथी की बतों का तथ्य प्रस्तुत कर पुलवामा प्रकरण में झूठ का पोस्टमार्टम कर रहा था। तो कोई बता रहा था कि इस सरकार ने हमारे आंख, कान दिमाग को झूठ से भर दिया है। एक ने कहा यह सरकार बद्दी (बाजीगर) है।
रात से ही हम कई साथियों की मोबाइल की बैटरी भी बैठ गई थी। सो रिपोर्टिंग के लिहाज हम तकनीकी रूप असहाय हो गए थे। सुबह की नाश्ते के बाद सभी साथी आंदोलन स्थल पर काफी दूर तक निकल गए। दोपहर का भोजन उधर से करके लौटे। इधर सभा स्थल पर काफी संख्या में लोग इकट्ठे हो गए थे। मंच पर बड़ी संख्या में महिलाएं बैठी थीं। जुलूस का सिलसिला लगातार जारी था। दोपहर बाद सभी साथियों ने गाजीपुर बार्डर निकलने कि निर्णय लिया।
टिकरी बार्डर से गाजीपुर बार्डर जाने के लिए हम लोग मैजिक से नरेला पहुंचे। यहां से बस से आनंद बिहार पहुंच कर आटो से आधे घंटे दूरी तय कर अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचे। 16 जनवरी को ही आंनद बिहार रेलवे स्टेशन से हम लोगों का देर रात्रि का वापसी का टिकट था। शाम में गाजीपुर बार्डर पहुंचने पर हम लोंगों के पास चार-पांच घंटे का ही समय था। यह आंदोलन स्थल अन्य दोनों स्थलों की अपेक्षा खुला और साफ-सुथरा है। बाकी अन्य सुविधाएं वही हैं लेकिन और व्यवस्थित हैं।
यहां प्रवेश स्थल पर ही किसान यूनियन के वालंटियर्स ने हमारे बैग की तलाशी भी ली। प्रवेश स्थल के पास ही किसान महासभा के स्टाल पर हम सभी अपने बैग रखकर आंदोन स्थल के अंदर निकल गए। यहां पर सभा स्थल अंदर की तरफ और हाईवे से हटकर है। थोड़ी देर बाद हम लोग स्टाल पर वापस लौटे। यहां पर ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के साथी संजय जोशी से मुलाकात हुई। वह यहां पर सिनेमा की स्क्रीनिंग के जरिए लगातार चर्चा का आयोजन कर रहे हैं।
स्टाल पर अपने मोबाइल चार्ज में लगाकर हम फिर बाहर निकले। यहां की गतिविधियां और आंदोलन स्थल का नेचर ज्यादा राजनीतिक था। जगह-जगह यूनियन के बड़े नेता मीडिया बाइट देते नजर आ रहे थे। यहां कुछ राष्ट्रीय मीडिया के चैनेल वाले भी दिखे। प्रवेश स्थल पर एक ओबी बैन भी दिखी। यह स्थिति सिंघु बार्डर से कुछ अलग थी। वहां के कवरेज को स्थानीय मीडिया या स्थानीय युवा ही संभाल रहे थे। रात के 10 बजते-बजते हम सभी अपनी यात्रा को विराम देकर वापसी के लिए आनंद बिहार रेलवे स्टेशन की ओर लौट चले।