समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-आठ

जयप्रकाश नारायण 

अखिल भारतीय स्वरूप लेता किसान आंदोलन

दिल्ली को घेरे हुए किसानों के पड़ाव के मजबूत होते ही  देश के अन्य भागों में किसान आंदोलन के समर्थन में लहरें उठने लगी।

उत्तराखंड के तराई के उधम सिंह नगर, नैनीताल, हरिद्वार और उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, बरेली और आगरा मंडल में भी किसानों के जत्थे सजने लगे।

याद हो, कि उत्तराखंड और यूपी की सीमा पर भारी पुलिस बैरिकेडिंग के बावजूद किस तरह से किसानों ने अपने ट्रैक्टर से बैरिकेडिंग को तोड़कर दिल्ली के लिए कूच कर दिया था ।

कैमरे में कैद किसानों द्वारा ट्रैक्टर से तोड़ी जा रही  बैरिकेटिंग की वह घटना  हिंदी फिल्मों के रोमांचक दृश्य की तरह पूरे देश में देखी गयी।

उत्तर प्रदेश के सरकार के हठवादी रवैया के चलते किसानों को मुरादाबाद और रामपुर के बीच में कई दिनों तक सड़कों पर गुजारना पड़ा था। लेकिन, किसान पीछे नहीं हटे।

दक्षिण भारत के सघन खेती के इलाकों से बड़े-बड़े प्रदर्शन, जुलूस, कानून वापस लेने के लिए पहले से ही आयोजित किए जा रहे थे।

कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल से दिल्ली के  मोर्चे के लिए किसानों के जत्थे अच्छी खासी संख्या में पहुंचने लगे।

आज भी दक्षिण भारत के एक बहुत बड़े इलाके में  आंदोलन के साथ एकजुटता  का इजहार करते हुए धरने, प्रदर्शन और मोर्चे लगाए जा रहे हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी इस कानून का विरोध करने वाले सामाजिक, राजनीतिक समूह सड़कों पर उतरने लगे।

उन्होंने बड़ी-बड़ी रैलियां, प्रदर्शन और मानव श्रृंखला का आयोजन कर आंदोलन को फैलाते हुए ‌‌ इसे अखिल भारतीय स्वरूप दे दिया।

किसान आंदोलन का ताप असम, मिजोरम, मेघालय जैसे पूर्वी राज्यों में ही नहीं, वर्षो से शेष भारत और दुनिया से कटे और बंद पड़े कश्मीर के आवाम तक भी पहुंचा ।

लद्दाख, जम्मू कश्मीर, श्रीनगर घाटी में भी किसान संगठनों  के समर्थन में जुलूस, प्रदर्शन और धरने आयोजित किये गये।

संक्षिप्त में कहा जाए, तो मोदी सरकार की अपने मित्र पूंजीपतियों के स्वार्थों की रक्षा के लिए लाये गये इस कानून को किसी भी कीमत पर वापस न लेने  की हठधर्मिता के चलते भारत का कोई गांव नहीं बचा होगा,  जहां  किसान आंदोलन की अनुगूंज न पहुंची हो।

किसान आंदोलन की दृढ़ता, समर्पण और कठिन परिस्थितियों में भी इस बर्बर सत्ता का विरोध जारी रखने की जिजीविषा और उसकी मौन  आवाजें अदृश्य माध्यमों से हर किसान और नागरिक के कान तक पहुंच गयी।

देश में ’74 के आंदोलन के बाद किसी सकारात्मक मुद्दे पर, जनता के बुनियादी सवालों पर इतना बड़ा मंथन अभी तक शायद नहीं हुआ है।

अपनी रोजी-रोटी, खेती-किसानी, जमीन-जंगल बचाने के सवाल पर यह एक ऐसा आंदोलन है, जिसने सबसे  कमजोर सामाजिक समूहों को अपने पक्ष में खड़ा किया। इस राष्ट्रव्यापी प्रभाव के चलते किसान आंदोलन ने 21वीं सदी में भारत के  राष्ट्रीय नवजागरण का मार्ग खोल दिया है ।

अभी तक भारत में चले सामाजिक न्याय, सत्ता में भागीदारी और सामाजिक सुधारों के लिए जितने भी प्रयास हुए, वे आमतौर पर मध्यवर्गीय सामाजिक  समूहों के सवाल ही बन के रह पाये थे। लेकिन, किसान आंदोलन ने आधुनिकता के मूल्यों   के साथ  कृषक समाज के नवजागरण के लिए नयी राह खोल दिये हैं।

महिलाओं, नौजवानों और कमजोर तबकों की व्यापक भागीदारी इस बात का स्पष्ट संकेत है। जब देश में सामंती मूल्यों में जकड़े समाज के निचले हिस्से, यानी महिलाओं, दलितों, पिछड़ों, किसानों, मजदूरों के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया जनभागीदारी के द्वारा शुरू हो जाए, तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि अब इस समाज को पुराने तरीके से न तो संचालित किया जा सकता है, न ही उस पर राज किया जा सकता है।

किसान आन्दोलन का संचालन

दिल्ली का मोर्चा जब धीरे-धीरे स्थिर हो गया, तो सवाल था, इसको कैसे संचालित किया जाए ।अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के चार सौ  से ज्यादा किसान संगठन, पंजाब किसान मोर्चा में एकजुट बत्तीस जत्थेबंदियां और उत्तर भारत में फैली अनेकों किसान यूनियनों को एक साथ इकट्ठा होने से जो बड़ा महाज बना था, उसके संचालन का एक जनतांत्रिक आधार खोजा जाना, इस आंदोलन के लिए बहुत आवश्यक था।

किसान संघर्ष समिति और किसान मोर्चे ने भारतीय किसान यूनियनों के साथ मिलकर एक साझा चालीस सदस्यीय संचालन समिति बनायी ।

इस संचालन समिति में हरियाणा, पंजाब के किसान संगठनों के प्रतिनिधियों का वर्चस्व है । लेकिन, आंदोलन के संचालन समिति के  अंतर्गत ज्यादातर संगठनों के विचारों और सोच वाले लोगों को समाहित करने की कोशिश हुई।

इसके साथ एक छोटी टीम बनायी गयी, जो संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से उसके कार्यक्रमों, विचारों, योजनाओं की घोषणा करती  है ।

इस प्रकार, किसान मोर्चा ने आंदोलन के संचालन का एक जनतांत्रिक आधार ढूंढ़ा और विकसित किया। अभी तक सारे फैसले लगभग सर्व सहमति से ही लिये जाते हैं। लोगों के विरोध को या मतभिन्नता को सम्मान दिया जाता है ।

अगर व्यक्तिगत तौर पर कोई व्यक्ति या कोई किसान संगठन अपने  विचार व्यक्त करता है, तो यह उसका अपना विचार होता है। संयुक्त मोर्चा उस पर विचार विमर्श कर सकता है ।

यह जरूरी नहीं, कि उसे वह उसी रूप में स्वीकार करें। उसके लिए सामूहिक सहमति आवश्यक होती है।  आठ महीने से लगातार  सत्ता संस्थानों, उसके द्वारा पोषित मीडिया संस्थानों और बीजेपी-आर. एस. एस. के आई. टी. सेल, जो झूठ और कूट रचना की उत्पादन फैक्ट्रियां हैं, इनके द्वारा चलाए गए सारे दुष्प्रचार और रचे गए षड्यंत्र का संयुक्त मोर्चा ने कारगर प्रतिवाद और जवाब दिया है और आंदोलन को बचाया ही नहीं, उसे और ज्यादा मजबूत किया है।

इन जटिल परिस्थितियों से गुजरते हुए किसान मोर्चा ने आंदोलन संचालन के लिए एक लोकतांत्रिक पद्धति का निर्माण और विकास किया है।

किसी आंदोलन को लोकतांत्रिक पद्धति से संचालित करने की बजाय  कुछ नेताओं  के एकाधिकारवादी पद्धति की तरफ मोड़ दिया जाता,  तो आंदोलन  को   सरकार के हमलों के मुकाबले टिकाया नहीं जा सकता था।

इस किसान आंदोलन की यही खासियत है, सामूहिक विचार चिंतन की प्रक्रिया को विकसित करना। हर आंदोलन में अनेकानेक मोड़ आते हैं। उसे हल करने, उससे पार पाने के लिए सामूहिक विचार ही एक कारगर हथियार है। अगर इसे किसी एकाधिकारवादी, निरंकुश तरीके से चलाया जाता, तो शायद आंदोलन बिखर जाता।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता के महासंग्राम के बाद यह पहला किसान संग्राम है, जिसमें कोई एक नेता नहीं है, कोई एक व्यक्ति इसका संचालक नहीं  है।

इसमें कोई निरंकुश प्राधिकार वाला नेतृत्व  नहीं है । बल्कि, यह सामूहिक सोच और जनतंत्रिकता के विराट आधार पर खड़ा  निहायत ही लोकतांत्रिक पद्धति से संचालित होने वाला जन आंदोलन है।

कितने लोगों के हटने, छोड़ने, गद्दारी करने और दमन-उत्पीड़न के बावजूद भी यह आंदोलन चल रहा है, तो उसका मूल कारण संचालन की यही पद्धति है। जो पद्धति  इस आंदोलन ने विकसित किया है।

यह भारत में भविष्य  के जनसंघर्षों के लिए एक सबक होंगे।  विविधताओं वाले हमारे देश में, जिसमें विभिन्न भाषा, विचार, संस्कृति, उपासना पद्धति, आस्थाओं वाला आपस में घनिष्ठ रूप से गुथा हुआ समाज है।

अगर हम इसे एक मजबूत एकताबद्ध, समृद्ध, विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो निश्चय ही सामूहिक सोच, विचार और चेतना वाले नेतृत्व को विकसित करना होगा और उसके लिए जनतांत्रिक पद्धति का विकास करना होगा, जिसमें हर तरह के विविध सामाजिक समूहों, इथनिक ग्रुपों को उचित सम्मान और भागीदारी मिले ।

किसान आंदोलन अगर इस तरह की एक पद्धति विकसित कर पाता है, तो उसका  भारत के सामाजिक, राजनीतिक संघर्षों के विकास के इतिहास में यह  बड़ा योगदान होगा।

विविध विचारों वाले  संगठनों से बने मोर्चों में मत विभिन्नता होती है, आपसी प्रतिद्वंदिता भी होती है, वर्चस्व की लड़ाई भी होती है।

यह एक स्वाभाविक बात है, प्रक्रिया है, लेकिन उसे हल करने की लोकतांत्रिक पद्धति ही इस तरह की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कायम करने में कारगर होती है।

किसान मोर्चे में भी यह है। विभिन्न विचारों और लक्ष्यों वाले संगठन तथा व्यक्ति शामिल हैं। बड़े भूमिधारी किसानों से लेकर ग्रामीण छोटे-मझोले, बटाईदार किसानों के प्रतिनिधि संगठनों, धार्मिक समूहों, वाम राजनीतिक धाराओं वाले , सुधारवादी संगठनों, एनजीओ और सोशलिस्ट कम्युनिस्ट सहित सभी  उदारवादी विचारों के लोग हैं, इसलिए प्रतिद्वंदितामूलक प्रतिस्पर्धा रहेगी।

उसका सम्मान करते हुए यह मोर्चा आगे बढ़ रहा है। यही इसके टिके रहने, बचे रहने और भविष्य में और आगे जाकर अपने लक्ष्य तक पहुंचने का ऊर्जा श्रोत होगा।

(अगली कड़ी में जारी)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion