जयप्रकाश नारायण
मोदी सरकार जब 2014 के मई में भारत के सत्ता पर काबिज होने के लिए कारपोरेट समर्थन के अदृश्य सहयोग और हिंदुत्व राष्ट्रवादी अभियान संचालित कर रही थी, तो उसका सबसे बड़ा सामाजिक आधार पिछड़े इलाके, ग्रामीण क्षेत्रों के युवा बेरोजगार, औसत रूप से कम शिक्षित और हिंदुत्व के प्रभाव में आए हुए आम नागरिक थे ।
जिसकी बहुलांश तादाद जागरण मंचों, छोटी-छोटी असंख्य युवा वाहिनियों और सड़क पर धर्म ध्वजा लेकर चलने वाले बेरोजगार लंपट नौजवानों की थी, जो अपनी खोयी हुई अस्मिता को इस सरकार के उछाले गये नारों में खोज रही थी।
वह यह भूल गयी कि कारपोरेट पूंजी और मीडिया के सहयोग द्वारा संचालित प्रचंड प्रचार और पूंजी के अदृश्य सहयोग और निवेश से जो एक आभामंडल बनाया गया है, वह भविष्य में कौन सी दिशा लेगा। 2014 के मई में मोदी सरकार सत्तारूढ़ हुई।
यह आम समझ बन गई थी कि इस सरकार के पीछे आक्रामक कारपोरेट पूंजी है, जो अपने मुनाफे के लिए भारत के बहुत बड़े क्षेत्रों में सीधे प्रवेश करना चाहती है। इस सरकार का नारा था, ‘न्यूनतम सरकार अधिकतम प्रबंधन’। यानी, राज्य अब नागरिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने की तैयारी में है।
इस रणनीति के तहत सरकार ने घोषणा कर दी थी, कि वह ढेर सारे ऐसे कानूनी प्रावधान, जो आज के यथार्थ से मेल नहीं खा रहे हैं; उन्हें हटाया जाएगा ।
सरकार गर्व के साथ घोषणा करती है, कि उसने प्रतिदिन के हिसाब से कम से कम एक कानून का अस्तित्व समाप्त किया है, लेकिन इसके साथ उसने कुछ नये कानून, नये नियम भी बनाने शुरू कर दिये।
जो कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा जगत के लिए उसकी रणनीतिक जरूरतों को पूरा करते थे। यहां पूंजी और श्रम के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित औद्योगिक घरानों के प्रति विशेष प्रेम के चलते दी जाने वाली छूटों, योजनाओं और राज्य द्वारा नागरिकों के ऊपर बोझ कम करने के लिए दी जाने वाली सहायता से पीछे हटने के लिए बनाए जाने वाली योजनाओं और कानूनों की विस्तृत चर्चा की जरूरत नहीं ।
सिर्फ कृषि क्षेत्र में उसकी रणनीतियों की चर्चा जरूरी है। मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार के पहले मंत्रिमंडलीय बैठक में कृषि से संबंधित जो निर्णय लिया गया, वह था, राज्यों को निर्देश देना, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर जो राज्य किसानों के उत्पाद पर बोनस देगें; केंद्र उसे अपने हिस्से का धन आवंटित नहीं करेगा।
अप्रत्यक्ष रूप से यह राज्य सरकारों को एक चेतावनी थी, कि कृषि और किसान के लिए वह अपनी समझ, अपनी नीति और अपनी योजनाएं केंद्र के निर्देशानुसार समायोजित करे।
दूसरा, मनमोहन सरकार पर लचर और कमजोर होने का आरोप इस आधार पर लगाया जा रहा था, कि उद्योगों के लिए भूमि या अन्य संरचनात्मक जरूरतों को पूरा करने के लिए साहसिक और आवश्यक कदम वह नहीं उठा रही है, जिस कारण से भारत का औद्योगिक विकास ठहरा हुआ है। और, भारत एक विकसित हो रहे राष्ट्रों की प्रतियोगिता में पिछ्ड़ता जा रहा है।
2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को इस बात के लिए दोषी ठहराया गया कि इस कानून के प्रावधानों और ढेर सारे चिन्हित क्षेत्रों में, जिन्हें हम वे इलाके कहते हैं, जहां किन्ही विशेष सामाजिक-सांस्कृतिक, पर्यावरणीय स्थितियों के चलते उन क्षेत्रों में कारपोरेट जगत के लिए जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खनिज संपदा का का दोहन भारत के औद्योगिक विकास के लिए नहीं हो पा रहा है।
मोदी ने अपने प्रचार अभियान में इन सब कारणों को भारत के विकास में बाधा के रूप में चिन्हित किया था और उद्योगपतियों को आश्वासन दिया था, कि वह सत्ता में आते ही इन सभी बाधाओं को तत्काल हटाने के लिए कदम उठाएंगे।
इन्हीं अर्थों में उन्होंने मजबूत और काम करने वाली सरकार का नारा दिया था। सत्ता में आते ही ‘काम करने वाली सरकार’ ने अपना काम शुरू कर दिया।
संसद के मानसून सत्र के खत्म होने के तत्काल बाद केंद्र सरकार 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए एक अध्यादेश लेकर आ गयी।
इस अध्यादेश के आते ही कृषक समाज की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया आयी। इस अध्यादेश का व्यापक विरोध होना शुरू हो गया।
विरोध इतना तीव्र और आक्रामक था कि केंद्र सरकार को लगातार चार बार अध्यादेश की अवधि बढ़ाना पड़ा, लेकिन वह इसे संसद में कानून के रूप में पारित नहीं करा सकी।
पहली बार सरकार को पीछे हटना पड़ा, लेकिन मोदी सरकार के इरादे और कारपोरेट जगत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में कोई बदलाव या पुनर्विचार की संभावना नहीं थी, इसलिए वह लगातार उस अवसर की तलाश में थी, जब वह कृषि क्षेत्र को कारपोरेट पूंजी की जरूरतों के आधार पर नियोजित करने के लिए विस्तृत कानून ला सके।
मोदी-एक के कार्यकाल में उसे अपने इस बहुप्रतीक्षित एजेंडे को लागू करने का मौका नहीं मिल सका। छात्रों, मजदूरों, दलितों, महिलाओं और अन्यान्य तबकों पर मोदी सरकार की नीतियों के चलते पड़ने वाले दुष्प्रभाव के खिलाफ व्यापक टकराव और विरोध हो रहा था।
उस दौरान उसने अनेक विध्वंसक नीतियां लागू की, जिससे औद्योगिक क्षेत्र खासकर छोटे मझोले उद्योगों, कारोबारियों में असंतोष फैलता जा रहा था। इन परिस्थितियों के चलते किसानों के या खेती के जीवन में कोई नया हस्तक्षेप मोदी सरकार नहीं कर सकी।
हालांकि, उसकी कोशिशें जारी रही और वह सब्सिडी हटाने या अन्य तरह से कृषि पर बोझ बढ़ाने का काम जारी रखे थी।
जब दूसरी बार मोदी सरकार आई तो कोविड-19 महामारी के दौर में उसने यह समझ लिया, कि अब वह अपने बहुप्रतीक्षित लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ सकती है।
मोदी ने इसे ‘आपदा मैं अवसर’ के अपने क्रूर सिद्धांत के रूप में सूत्रबध्द किया । महामारी के कठिन समय में 5 जून को तीन कृषि कानूनों को अध्यादेश द्वारा लागू कर दिया।
दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान इन्हीं तीन कानूनों के खिलाफ अपना आंदोलन चला रहे हैं। आज आठ महीने हो गये हैं। किसान अपनी मांगों पर खड़े हैं। सरकार क्रूरता पूर्वक, हठधर्मिता के साथ उनकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।
(अगली कड़ी में किसान आन्दोलन की स्थिति पर चर्चा जारी रहेगी)