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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-दो

जयप्रकाश नारायण 

कृषि संकट का चक्रीय स्वरूप और सत्ता की  प्रतिक्रिया ‌
साठ के दशक के मध्य में कृषि  में संकट के संकेत आने लगे थे। यह कृषि संकट खाद्यान्न संकट के रूप में सामने आया । इसका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। चारों तरफ आंदोलनों, प्रदर्शनों की लहरें उठने लगी।

इस संकट  को हल करने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत हुई। हरित क्रान्ति मुख्यतः भूमिधारी किसानों को केंद्रित करके आधुनिक तकनीक, बीज, खाद, ट्रैक्टर, सिंचाई के इंजन और कृषि में भारी पूंजी निवेश के आधार पर शुरू की गई थी।

तात्कालिक रूप से इसने कुछ प्रभाव भी डाला और खेती में एक नई आर्थिक गतिविधियां शुरू हुई। हरित क्रांति ने कुछ समय के लिए खाद्यान्न संकट को हल करने में मदद पहुंचायी और कृषि में जो अंतर्विरोध तीखे हो गये थे, नेपथ्य में चले गये।

लेकिन इस कृषि  संकट ने भारत में राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया । लंबे समय से स्थापित कांग्रेस के सत्ता का एकाधिकार टूट गया। यही नहीं, कांग्रेस भी वह नहीं रह सकी, जो इसके पहले थी ।

कांग्रेस का विभाजन हुआ और इंदिरा गांधी को लोकप्रिय नारे, ‘गरीबी हटाओ’ के साथ  निरंकुश  एकाधिकारवादी सत्ता की तरफ आगे बढ़ जाना पड़ा। कांग्रेस टूट गयी और इंदिरा गांधी सर्वोच्च  प्राधिकार के साथ कांग्रेस पर काबिज हो गयीं ।

नौ राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी ।संविद सरकारें अस्तित्व में आयीं। लोहिया जी का गैर कांग्रेसवाद का प्रयोग पहली बार व्यावहारिक रूप से अमल में आया।

1967 में  राज्यों में जो संविद सरकारें बनीं, उसने भारत में राजनीतिक तौर पर गांधी जी की हत्या के बाद अछूत समझे जाने वाले आर. एस. एस प्रायोजित राजनीतिक दल जनसंघ को थोड़ी सामाजिक, राजनीतिक वैधता प्रदान की। हालांकि वह अपने पुराने हिंदुत्व केंद्रित एजेंडे पर बना रहा।

जनसंघ ने 1967 के राजनीतिक चुनाव में  गौ रक्षा के सवाल को ही राजनीतिक मुद्दा बनाया था। यानी, अपने धार्मिक एजेंडे पर टिका रहा। दूसरा उस दौर में चीन-भारत और भारत-पाकिस्तान युद्ध के चलते एक राष्ट्रवादी उन्माद भी पैदा किया जा चुका था, जो मूलतः अपनी अंतर्वस्तु में हिंदू राष्ट्रवाद की तरफ झुका हुआ था।

साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगा और उसकी धार पड़ोसियों, पाकिस्तान और चीन की तरफ मोड़ दी गयी। और   भारत के अंदर कुछ खास धार्मिक समूहों और वाम राजनीतिक ताकतों के खिलाफ सचेतन रूप से केंद्रित किया गया।

यह एक अलग ही कहानी है। यहीं से भारतीय राजनीति और भारतीय लोकतंत्र नयी यात्रा पर चल पड़ा। कृषि संकट को हल करने की सर्वहारा वर्ग द्वारा ढांचागत बदलाव का जो प्रयास  नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ, उसे भारी दमन झेलना पड़ा।

कृषि संकट के हल करने की दोनों रणनीतियां
सीधे टकरा गयी। नक्सलबाड़ी  ने ढांचागत बदलाव के जो सवाल उठाये  थे, उसे भारी दमन झेलना पड़ा और उस आंदोलन को भी कुछ समय के लिए  उचित समय का इंतजार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

पहले कृषि संकट का स्वाभाविक राजनीतिक, आर्थिक परिणाम था भारतीय राज्य  के अंदर मौजूद निरंकुशतावादी,  एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का सतह पर प्रकट हो जाना। इससे आपातकाल से गुजरते हुए जनता पार्टी की सरकार बनने के रूप में एक मंजिल पूरा करना पड़।

कृषि में दूसरा संकट नब्बे  के दशक के मध्य में आया  जब आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को केंद्रित करके पंजाब में  अकाली आंदोलन सामने आया। क्योंकि पंजाब में शुरू हुआ किसान आंदोलन सिख बहुल आबादी का आंदोलन था, इसलिए इंदिरा गांधी को इसमें एक खालिस्तानी आतंकवादी तत्व प्रवेश कराने का मौका मिल गया और इस आंदोलन की परिणिति  खालिस्तानी आतंकवादी गतिविधियों को तेज करने में हुई। जिसने भारतीय राज्य को सबसे गहरे संकट में डाल दिया। खैर,

बहुत थोड़े ही समय बाद हरित क्रांति के विस्तृत क्षेत्र में कृषि संकट  खदबदा उठा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सर्वथा एक नये तरह का किसान आंदोलन उठ खडा हुआ।
इसकी चर्चा मैंने इस आलेख के पहले भाग में  की है।

राजनीतिक, सामाजिक आकाश किसानों के तीव्र आंदोलनों की आवाजों से गूंजने लगा । बड़े-बड़े मोर्चे शुरू हो गये। धरना, प्रदर्शन की बाढ़ सी  आ गयी। आंदोलन, घेराव, लाठी, गोली, जेल सब से गुजरते हुए भारत में कृषि संकट के महत्व को राजनीतिक एजेंडे पर ला दिया।

आधुनिक पूंजीवादी धनी  किसानों से लेकर मध्य और छोटे, मझोले किसानों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस आंदोलन के  वर्ण पट पर दिखने लगा। किसान आंदोलन ने धर्म और जाति की सीमाओं का भी अतिक्रमण किया।

भारतीय राज्य ने और उसकी राजनीतिक ताकतों ने किसानों की इस दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए पुराने ही एजेंडे को सामने रखा और आगे राम जन्मभूमि आंदोलन को केंद्रित किया गया । साथ ही वर्ण व्यवस्था के अंदर मौजूद अंतर्विरोधों को सामने लाया गया। भारत को एक सर्वथा नये विचार-विमर्श की तरफ मोड़ा गया और दलितों-पिछड़ों के सत्ता में भागीदारी का विमर्श खड़ा कर दिया गया।

आगे की राजनीति मंदिर और मंडल के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गयी। इस पृष्ठभूमि में किसान आंदोलन की लहर थोड़ी धीमी पड़ गयी। 1990 के बाद जब नई आर्थिक नीति भारत में प्रवेश करायी गयी तो भारत एक जटिल आंतरिक टकराव से गुजर रहा था।

आर्थिक संकट जो प्रकारांतर से कृषि संकट के गर्भ से उपजा था, वह ढांचागत संकट की तरफ बढ़ गया । वैश्विक परिदृश्य में  आये हुए बदलाव का फायदा उठाते हुए  भारतीय सत्ताधारी वर्ग ने भारत में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों क्को विश्व बैंक, आईएमएफ और विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व में आगे बढ़ा दिया।

शुरू में इसने  भारत में मुद्रा के प्रवाह को गति दी । आर्थिक विकास को एक नयी ऊंचाई  मिली । लेकिन ऊपर दिखता हुआ चमचमाता सामाजिक, राजनीतिक स्वरूप  बाजार की उपभोक्तावादी दृष्टि के साथ  जुड़कर एक गहरे आंतरिक संकट को जन्म दे रहा था। इस उभरती हुई अर्थव्यवस्था का पूरा बोझ धीरे-धीरे उत्पादक शक्तियों पर डाला जाने लगा।

यहां से कृषि संकट का एक नया दौर शुरू हुआ। भारतीय कृषि   कारपोरेट हितैषी नीतियों के चलते कर्ज संकट में फँसती गयी। कृषि उत्पादों के बाजार   सिकुड़ने लगे और कृषि लागत में भारी वृद्धि के चलते कृषि क्षेत्र में उत्पादन धीरे-धीरे गिरने लगा और यह ठहराव का शिकार हो गया।

इसके चलते किसानों पर  कर्जदारी बढ़ने लगी और कर्जदारी का बोझ न सह पाने के कारण कृषि जीवन में एक सर्वथा नई परिघटना सामने आयी, वह थी किसानों की आत्महत्या। भारी कर्जदारी , और कृषि उत्पाद के बाजार के सिकुड़ने और मूल्यों में ठहराव के चलते न्यूनतम समर्थन मूल्य का आंदोलन और इसकी मांग जोर पकड़ने लगी।

साथ ही, कर्जमाफी का आंदोलन कृषि आंदोलन के झंडे का प्रमुख मुद्दा बन गया। कुछ इलाकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की मांग और कुछ हद तक पंजाब, हरियाणा में इसे लागू करने के बावजूद किसानों के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता गया ।

भारतीय राज्य और उसके ऊपरी ढांचे की बढ़ी हुई जरूरतों तथा औद्योगिक विकास के लिए कृषि क्षेत्र के संसाधन के दोहन का निर्मम दौर शुरू हुआ।  इसने किसानों  में गहरी निराशा जनक अशांति पैदा कर दी। आज के दौर के कृषि क्षेत्र के संकट की मूल पहचान किसानों की आत्महत्या में वृद्धि, कर्ज के बोझ का बढ़ना और कृषि क्षेत्र से श्रम के पलायन  रूप में दिखा।

गांव खाली होने लगे और कृषि क्षेत्र में एक भारी उदासीनता का वातावरण बन गया। ऐसी स्थिति में किसान आंदोलन के एजेंडा का निर्धारण कर्जमाफी, कृषि उत्पाद का लाभकारी मूल्य और  कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश में बढ़ोतरी, इन तीन  मांग के साथ सूत्रबध्द हुआ ।

क्योंकि भारत विश्व व्यापार संगठन की शर्तों से बँधा था इसलिए ज्यों ही नयी सदी की शुरुआत में  उदारवादी, बाजारवादी नीतियों की समर्थक सरकार केंद्र की सत्ता में आयी, उसने कृषि बाजार के दरवाजे खोल दिए ।

तेरह सौ से ज्यादा कृषि उत्पादों पर से टैरिफ हटा लिया गया और यहीं से शुरू हुआ भारतीय कृषि का अंधेरा काल। तेजी से आत्महत्या में वृद्धि होने लगी। किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ने लगा ।

श्रमिकों का पलायन शहरों की तरफ तेज गति से बढ़ा। उससे शहरों पर आबादी का बोझ भी बढ़ने लगा । जिसके लक्षण बहुत सारे राज्यों में धार्मिक, क्षेत्रीय हिंसा के रूप में दिखे ।

राज्य ने इस संकट से निपटने के लिए घोर सांप्रदायिक दक्षिणपंथी नीतियों को अमल में लाना शुरू किया। उसने सैन्यवादी राष्ट्रवाद की एक नयी आधारशिला रख दी ।

यहां से 21वीं सदी का जो सफर शुरू हुआ, आज भारत में सबसे ज्यादा बाजारवादी कारपोरेटपरस्त सरकार के आने के बाद अपनी एक मंजिल पूरा कर चुका है।

हम जानते हैं कि कृषि संकट से निपटने के लिए प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन के नेतृत्व में एक आयोग का गठन हुआ था, जिसने कृषि सुधारों और कृषि संकट को हल करने के लिए कुछ सुझाव दिए।

आगे चलकर स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट  लागू करने का सवाल भारतीय किसान आंदोलन का एक बड़ा एजेंडा बन गया। 2004 में जब यूपीए सरकार आयी तो उसने देखा कि कृषि संकट   भारतीय समाज के अन्य क्षेत्रों में विस्तारित होता जा रहा था । तो यूपीए सरकार ने कुछ कल्याणकारी या लोकलुभावन नीतियों को भी अमल में लाने का प्रयास किया जैसे ग्रामीण क्षेत्र से श्रमपलायन रोकने के लिए मनरेगा का नीतिगत प्रयोग, कृषि कर्ज की माफी, खाद्यान्न सुरक्षा की गारंटी और इस बीच में कारपोरेट जगत द्वारा जो भूमि लूट का बर्बर अभियान शुरू हुआ था, उसे एक हद तक नियंत्रित करने के लिए भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून 2013 को लाना ।

लेकिन संकट तो गहरा था । इसे किसी ऊपरी सुधारों या फौरी समायोजनों द्वारा हल नहीं किया जा सकता था। भारतीय कारपोरेट पूंजी अब मनमोहन सिंह की सीमा को समझ चुकी थी ।

इसलिए उसने वैश्विक  परिस्थिति में आये दक्षिणपंथी उभार का लाभ उठाकर भारत में एक शुद्ध रूप से कारपोरेटपरस्त बाजारवादी ताकतों का हमदर्द  और हिंदुत्व के धार्मिक कारपोरेट परस्त एजेंडे से लैस एक निष्ठुर सरकार के लिए तैयारी शुरू कर दी ।

2014 के महानिर्वाचन में उन्होंने आज तक के सबसे ज्यादा बाजारवादी, निष्ठुर कारपोरेटपरस्त, दमनकारी और पूंजी के हित रक्षा के लिए किसी हद तक गुजर जाने वाली सरकार को सत्ता में ला बैठाया। आज का किसान आंदोलन इन्हीं परिस्थितियों की उपज है।

(किसान आंदोलन की अब तक की यात्रा पर आधारित यह कड़ी जारी रहेगी)

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